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Old 08-02-2013, 06:37 PM   #11
jai_bhardwaj
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प्रसिद्ध इतिहासकार थामस कारलायल अपनी पुस्तक ‘‘हीरोज़ एण्ड हीरो वर्शिप’’ में इस्लाम फैलने के विषय में भ्रांति का समाधान करते हुए लिखता हैः

‘‘तलवार तो है, परन्तु आप तलवार लेकर वहाँ जाएंगे? प्रत्येक नई राय की शुरूआत अल्पमत में होती है। (आरंभ में) केवल एक व्यक्ति के मस्तिष्क में होती है, यह सोच वहीं से पनपती है। इस विश्व का केवल एक व्यक्ति जो इस बात पर विश्वास रखता है, केवल एक व्यक्ति जो शेष समस्त व्यक्तियों के सामने होता है, फिर (यदि) वह तलवार उठा ले और (अपनी बात) का प्रचार करने का प्रयास करने लगे तो वह थोड़ी सी सफलता ही पा सकेगा। आप के पास अपनी तलवार अवश्य होनी चाहिए परन्तु कुल मिलाकर कोई वस्तु उतना ही फैलेगी जितना वह अपने तौर पर फैल सकती है।’’

दीन (इस्लाम) में कोई ज़बरदस्ती नहीं

इस्लाम किस तलवार द्वारा फैला? यदि मुसलमानों के पास यह तलवार होती और उन्होंने इस्लाम फैलाने के लिये उसका प्रयोग किया भी होता तब भी वे उसका प्रयोग नहीं करते क्योंकि पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट आदेश हैः
‘‘दीन के बारे में कोई ज़बरदस्ती नहीं है, सही बात ग़लत बात से छाँटकर रख दी गई है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 2:256)

ज्ञान, बुद्धि और तर्क की तलवार

वास्तविकता यह है कि जिस तलवार ने इस्लाम को फैलाया, वह ज्ञान, बुद्धि और तर्क की तलवार है। यही वह तलवार है जो मनुष्य के हृदय और मस्तिष्क को विजित करती है। पवित्र कुरआन के सूरह ‘अन्-नह्ल’ में अल्लाह का फ़रमान हैः

‘‘हे नबी! अपने रब के रास्ते की तरफ़ दावत दो, ज्ञान और अच्छे उपदेश के साथ लोगों से तर्क-वितर्क करो, ऐसे ढंग से जो बेहतरीन हो। तुम्हारा रब ही अधिक बेहतर जानता है कि कौन राह से भटका हुआ है और कौन सीधे रास्ते पर है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 16:125)

इस्लाम 1934 से 1984 के बीच विश्व में सर्वाधिक फैलने वाला धर्म रीडर्स डायजेस्ट, विशेषांक 1984 में प्रकाशित एक लेख में विश्व के प्रमुख धर्मों में फैलाव के आंकड़े दिये गये हैं जो 1934 से 1984 तक के 50 वर्षों का ब्योरा देते हैं। इसके पश्चात यह लेख ‘दि प्लेन ट्रुथ’’ नामक पत्रिका में भी प्रकाशित हुआ। इस आकलन में इस्लाम सर्वोपरि था जो 50 वर्षों में 235 प्रतिशत बढ़ा था। जबकि ईसाई धर्म का विस्तार केवल 47 प्रतिशत रहा। क्या यह पूछा जा सकता है कि इस शताब्दी में कौन सा युद्ध हुआ था जिसने करोड़ों लोगों को धर्म परिवर्तन पर बाध्य कर दिया?

इस्लाम यूरोप और अमरीका में सबसे अधिक तेज़ी से फैलने वाला धर्म है इस समय इस्लाम अमरीका में सबसे अधिक तेज़ी से फैलने वाला धर्म है। इसी प्रकार यूरोप में भी तेज़ गति से फैलने वाला धर्म भी इस्लाम ही है। क्या आप बता सकते हैं कि वह कौन सी तलवार है जो पश्चिम के लोगोें को इस्लाम स्वीकार करने पर विवश कर रही है।
डा. पीटर्सन का मत डा. जोज़फ़ एडम पीटर्सन ने बिल्कुल ठीक कहा है किः

‘‘जो लोग इस बात से भयभीत हैं कि ऐटमी हथियार एक न एक दिन अरबों के हाथों में चले जाएंगे, वे यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि इस्लामी बम तो गिराया जा चुका है, यह बम तो उसी दिन गिरा दिया गया था जिस दिन मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जन्म हुआ था।’’
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Old 08-02-2013, 06:38 PM   #12
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मुसलमान रूढ़िवादी ;(Fundamentalist) और आतंकवादी हैं

प्रश्नः अधिकांश मुसलमान रूढ़िवादी और आतंकवादी हैं?

उत्तरः यह वह प्रश्न है जो मुसलमानों से प्रायः सीधे अथवा सांकेतिक रूप से विश्व समस्याओं अथवा धर्म पर चर्चा के दौरान किया जाता है। मुसलमानों के विरुद्ध ऐसी मानसिकता मीडिया मे निरंतर व्यक्त की जाती है और उसके साथ मुसलमानों के विषय में आधारहीन जानकारी भी जोड़ दी जाती है।

वास्तव में यही वह ग़लत-सलत जानकारी और झूठे प्रचार हैं जो मुसलमानों के साथ भेदभाव और उनके विरुद्ध हिंसक कार्यवाहियों के पीछे होते हैं। इस जगह मैं अमरीकी मीडिया में मुसलमानों के विरुद्ध ज़हरीले प्रचार का एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा।

ओकलाहमा बम धमाके के तुरंत बाद अमरीकी मीडिया ने यह प्रोपेगण्डा आरंभ कर दिया कि इस हमले के पीछे ‘‘मध्य पूर्व की साज़िश’’ है। कुछ समय पश्चात असली अपराधी पकड़ा गया जो सचमुच उस काण्ड का ज़िम्मेदार था, पता चला कि वह अमरीकी सशस्त्र सेना से सम्बन्ध रखने वाला सैनिक था।

अब हम रूढ़िवाद (Fundamentalism) और आतंकवाद के आरोपों का विश्लेषण करेंगे।

शब्द ‘रूढ़िवाद’ का अर्थ

रूढ़िवादी अथवा फ़ंडामेंटलिस्ट ऐसा कोई भी व्यक्ति होता है जो किसी विशेष विचारधारा अथवा आचार संहिता से सम्बद्ध रहते हुए उसके अनुसार अमल करता है। जैसे किसी व्यक्ति के कुशल डाक्टर होने के लिए आवश्यक है कि वह मेडिकल नालेज् और चिकित्सा विज्ञान की मौलिक बातों की जानकारी रखता हो और उस पर पूरी तरह अमल भी करता हो। दूसरे शब्दों में उसे चिकित्सा विज्ञान या मेडिकल साइंस का ‘‘रूढ़िवादी’’ होना चाहिए। इसी प्रकार एक कुशल गणित शास्त्री होने के लिए उस व्यक्ति को गणित का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो और उसके नियमों के अनुसार ही वह अपना कार्य करता हो, अर्थात उसे गणित का ‘‘रूढ़िवादी’’ होना चाहिए। इसी प्रकार एक अच्छा वैज्ञानिक होने के लिये यह आवश्यक है कि उक्त व्यक्ति को विज्ञान की बुनियादी बातों का भली प्रकार ज्ञान हो और वह उस ज्ञान का पाबन्द हो, अर्थात अच्छा वैज्ञानिक होने के लिये उसे विज्ञान का ‘‘रूढ़िवादी’’ होना चाहिए।

सभी रूढ़िवादी समान नहीं होते

समस्त प्रकार के रूढ़िवादियों का विवरण संक्षेप में नहीं किया जा सकता। इससे अभिप्राय यह है कि समस्त रूढ़िवादियों अथवा फ़ण्डामेंटालिस्टों को समान रूप से अच्छा या बुरा नहीं कष्रार दिया जा सकता। वर्गीकरण के लिए आवश्यक है कि उस विचारधारा अथवा सक्रियता को देखा जाए जिस से उस रूढ़िवादी का सम्बन्ध है। जैसे एक रूढ़िवादी चोर अथवा डकैत समाज के लिए हानिकारक हैं अतः वह अप्रिय होगा, इसके विपरीत एक रूढ़िवादी डाक्टर या सर्जन अपने कार्य से समाज को लाभ पहुंचाता है अतः उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जा सकता है।
मुझे गर्व है कि मैं मुसलमान रूढ़िवादी हूँ

मैं फ़ण्डामेंटालिस्ट मुसलमान हूँ, (आप अपने शब्दों में रूढ़िवादी कह सकते हैं) अल्लाह की कृपा है कि मैं इस्लाम के मौलिक नियमों की जानकारी रखता हूँ, उनकी रक्षा करता हूँ और उन्हीं नियमों पर अमल करने का प्रयास करता हूँ। एक सच्चे मुसलमान को अपने फ़ण्डामेंटलिस्ट अथवा रूढ़िवादी कहे जाने पर कदापि लज्जित नहीं होना चाहिए। मुझे मुसलमान फ़ण्डामेंटलिस्ट अथवा रूढ़िवादी होने पर गर्व है। मैं जानता हूँ कि इस्लाम के मौलिक नियम ही समस्त मानवजाति और समस्त संसार के लिए लाभकारी हैं। इस्लाम की बुनियादी बातों में कोई एक बात भी ऐसी नहीं है जो कुल मिलाकर मानव समाज हेतु अहितकर हो। बहुत से लोग इस्लाम के बारे में ग़लतफ़हमी का शिकार हैं। वे समझते हैं कि इस्लाम की कई बातें अनुचित हैं तथा न्यायसंगत नहीं हैं। इसका कारण इस्लाम के सम्बन्ध में उनका अल्पज्ञान और ग़लत जानकारी है। यदि इस्लाम का खुले मन से विवेचनात्मक अध्ययन किया जाए तो इस सत्यता से पलायन कर पाना संभव ही नहीं रहता कि वास्तव में इस्लाम सामुहिक एवं व्यक्तिगत दोनों आधार पर मानवजाति हेतु पूर्णतया कल्याणकारी है।

शब्द फ़ण्डामेंटालिस्ट का अनुवाद

अंग्रेज़ी भाषा के इस शब्द का वास्तविक अर्थ है किसी विचारधारा के मौलिक नियमों के प्रति कटिबद्धता जिसे रूढ़ि अर्थात परंपरा और पुराने उसूलों पर चलने वाला रूढ़िवादी कहा जाता है। उर्दू में Fundamentalism अथवा रूढ़िवाद का अर्थ है ‘बुनियाद परस्त’। वेब्स्टर्ज़ डिक्शनरी के अनुसार दरअस्ल फ़ण्डामेंन्टलिज़्म अमरीका में प्रोटेस्टेंट ईसाईयों द्वारा छेड़ा गया एक आन्दोलन था जो बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ था। यह आन्दोलन ईसाई समाज में आधुनिकता के प्रचलन की प्रतिक्रिया पर आधारित था। ईसाई रूढ़िवादियों ने इस आन्दोलन में बाइबल को आधार बनाया था, ईसाई फ़ण्डामेंटलिज़्म के इस आन्दोलन में यह ज़ोर दिया गया था कि बाइबल के निर्देश और नियम केवल आस्था और नैतिकता के मुआमलों में ही सीमित नहीं वरन् ऐतिहासिक रिकार्ड के सन्दर्भ में भी बिल्कुल सही माने जाएं। इस बात पर विशेष बल दिया जाता था कि केवल और केवल बाईबल को ही ख़ुदा का सच्चा कलाम (ईश्वरीय सन्देश) माना जाए। इससे सिद्ध हुआ कि यह शब्द थ्नदकंउमदजंसपेउ सर्वप्रथम ईसाईयों के उस गिरोह ने इस्तेमाल किया जिसका विश्वास था कि बाइबल ही ख़ुदा का एकमात्र कलाम है जो किसी भी प्रकार की त्रुटियों और फेरबदल से सुरक्षित है।

आक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के अनुसार फ़ण्डामेंटलिज़्म से आश्य, किसी भी धर्म, विशेषरूप से इस्लाम की प्राचीन अथवा मौलिक शिक्षा और आस्था पर सख़्ती से पाबन्द रहना है।

यदि आज किसी व्यक्ति के सामने ‘‘फ़ण्डामेंटलिज़्म’’ या रूढ़िवादी का शब्द इस्तेमाल किया जाए तो वह तुरन्त किस ऐसे मुसलमान की कल्पना करता है जो आतंकवादी हो।

प्रत्येक मुसलमान को ‘‘आतंकवादी’’ होना चाहिए

प्रत्येक मुसलमान को आंतकवादी होना चाहिए। आतंकवादी कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो भय और आतंक का कारण बनता है। जैसे कोई डाकू किसी पुलिस वाले को देखता है तो वह आतंकित हो जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक मुसलमान को समाज विरोधी तत्वों के लिए आतंकवादी होना चाहिए। चाहे वह चोर, डाकू हो अथवा बदकार। जब भी ऐसा कोई बुरा व्यक्ति किसी मुसलमान को देखे तो उसे भयभीत और आतंकित हो जाना चाहिए। यह सच है कि शब्द ‘‘आतंकवादी’’ से आशय उस व्यक्ति से होता है जो जन साधारण में भय और आतंक फैलाने का कारण हो। लेकिन एक सच्चे मुसलमान के लिए आवश्यक है कि वह केवल विशेष लोगोें के लिए ही आतंकवादी हो। अर्थात उन लोगों के लिए जो समाज के बुरे तत्व हैं। जबकि वह सामान्य लोगों के लिए आतंक का कारण न बने। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि एक सच्चे मुसलमान को साधारण और निर्दोष लोगों के लिए शांति और सुरक्षा का साधन होना चाहिए।

‘‘आतंकवादी’’ और ‘‘राष्ट्रवादी’’ एक ही काम करने वालों के दो नाम

ब्रितानी साम्राज्य से मुक्ति प्राप्त करने से पहले, भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले वे लोग जो आहिंसा पर सहमत नहीं थे, उन्हें अंग्रेज़ी साम्राज्य ने ‘‘आतंकवादी’’ क़रार दे दिया था। उन्हीं लोगों को आज भारत में स्वतंत्रता के बलिदानियों और राष्ट्र भक्तों के रूप में याद किया जाता है। यह देखने वाली बात है कि यह लोग वही हैं, काम भी एक ही है परन्तु उन पर दो विपरीत पक्षों की ओर से दो विभिन्न लेबिल लगा दिये गए हैं। एक पक्ष के लिए वे ‘‘आतंकवादी’’ थे, इसके विपरीत जिन लोगों का दृष्टिकोण यह था कि ब्रितानिया को भारत पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं है, वह उन लोगों को ‘‘देशभक्त’’ और ‘‘बलिदानी नायकों’’ के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।

अतः यह आवश्यक है कि किसी व्यक्ति का फै़सला करने से पहले दोनों पक्षों की बात सुनी जाए। परिस्थतियों का आकलन किया जाए। आरोपी की नीयत को भी सामने रखा जाए और फिर उसी के अनुसार उस व्यक्ति के लिए कोई फ़ैसला किया जाए।

इस्लाम का मतलब ‘‘शांति’’ है

इस्लाम लफ़्ज़ ‘‘सलाम’’ से निकला है जिसका अर्थ है ‘‘शांति’’। यह शांति का धर्म है जिसके मौलिक सिद्धांत उसके अनुयायियों को यह शिक्षा देते हैं कि वे शांति स्थापित करें और विश्व में शांति फैलाएं। अतः हर मुसलमान को फ़ण्डामेंटालिस्ट होना चाहिए अर्थात शांति के धर्म की, इस्लाम की बुनियादी बातों पर अनिवार्य रूप से अमल करना चाहिए। उसे केवल उन लोगों के लिए ‘आतंकवादी’ होना चाहिए जो समाज में शांति और सुरक्षा के शत्रु हैं। ताकि समाज में सुख, न्याय और शांति स्थापित और स्थिर रखी जा सके।
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मांसाहारी भोजन

प्रश्नः पशुओं को मारना एक क्रूरतापूर्ण कृत्य है तो फिर मुसलमान मांसाहारी भोजन क्यों पसन्द करते हैं?

उत्तरः ‘शाकाहार’ आज एक अंतराष्ट्रीय आन्दोलन बन चुका है बल्कि अब तो पशु-पक्षियों के अधिकार भी निर्धारित कर दिये गए हैं। नौबत यहां तक पहुंची है कि बहुत से लोग मांस अथवा अन्य प्रकार के सामिष भोजन को भी पशु-पक्षियों के अधिकारों का हनन मानने लगे हैं।

इस्लाम केवल इंसानों पर ही नहीं बल्कि तमाम पशुओं और प्राणधारियों पर दया करने का आदेश देता है परन्तु इसके साथ-साथ इस्लाम यह भी कहता है कि अल्लाह तआला ने यह धरती और इस पर मौजूद सुन्दर पौधे और पशु पक्षी, समस्त वस्तुएं मानवजाति के फ़ायदे के लिए उत्पन्न कीं। यह मनुष्य की ज़िम्मेदारी है कि वह इन समस्त
संसाधनों को अल्लाह की नेमत और अमानत समझकर, न्याय के साथ इनका उपयोग करे।

अब हम इस तर्क के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टि डालते हैं।

मुसलमान पक्का ‘शाकाहारी’ बन सकता है

एक मुसलमान पुरी तरह शाकाहारी रहकर भी एक अच्छा मुसलमान बन सकता है। मुसलमानों के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह सदैव मांसाहारी भोजन ही करें।

पवित्र क़ुरआन मुसलमानों को मांसाहार की अनुमति देता है

पवित्र क़ुरआन में मुसलमानों को मांसाहारी भोजन की अनुमति दी गई है। इसका प्रमाण निम्नलिखित आयतों से स्पष्ट हैः

‘‘तुम्हारे लिए मवेशी (शाकाहारी पशु) प्रकार के समस्त जानवर हलाल किये गए हैं।’’ (पवित्र क़ुरआन , 5:1)

‘‘उसने पशु उत्पन्न किये जिनमें तुम्हारे लिए पोशाक भी है और ख़ूराक भी, और तरह तरह के दूसरे फ़ायदे भी।’’ (पवित्र क़ुरआन , 16:5)

‘‘और हकीकत यह है कि तुम्हारे लिये दुधारू पशुओं में भी एक शिक्षा है, उनके पेटों में जो कुछ है उसी में से एक चीज़ (अर्थात दुग्ध) हम तुम्हें पिलाते हैं और तुम्हारे लिए इनमे बहुत से दूसरे फ़ायदे भी हैं, इनको तुम खाते हो और इन पर और नौकाओं पर सवार भी किये जाते हो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 23:21)

मांस पौष्टिकता और प्रोटीन से भरपूर होता है

मांसाहारी भोजन प्रोटीन प्राप्त करने का अच्छा साधन है। इसमें भरपूर प्रोटीन होते है। अर्थात आठों जीवन पोषक तत्व। (इम्यूनो एसिड) मौजूद होते हैं। यह आवश्यक तत्व मानव शरीर में नहीं बनते। अतः इनकी पूर्ती बाहरी आहार से करना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त माँस में लोहा, विटामिन-बी, इत्यादि पोषक तत्व भी पाए जाते हैं।

मानवदंत प्रत्येक प्रकार के भोजन के लिए उपयुक्त हैं

यदि आप शाकाहारी पशुओं जैसे गाय, बकरी अथवा भेड़ आदि के दांतों को देखें तो आश्चर्यजनक समानता मिलेगी। इन सभी पशुओं के दाँत सीधे अथवा फ़्लैट हैं। अर्थात ऐसे दांत जो वनस्पति आहार चबाने के लिए उपयुक्त हैं। इसी प्रकार यदि आप शेर, तेंदुए अथवा चीते इत्यादि के दांतों का निरीक्षण करें तो आपको उन सभी में भी समानता मिलेगी। मांसाहारी जानवारों के दांत नोकीले होते हैं। जो माँस जैसा आहार चबाने के लिए उपयुक्त हैं। परनतु मनुष्य के दाँतों को ध्यानपुर्वक देखें तो पाएंगे कि उनमें से कुछ दांत सपाट या फ़्लैट हैं परन्तु कुछ नोकदार भी हैं। इसका मतलब है कि मनुष्य के दांत शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के आहार के लिए उपयुक्त हैं। अर्थात मनुष्य सर्वभक्षी प्राणी है जो वनस्पति और माँस प्रत्येक प्रकार का आहार कर सकता है।

प्रश्न किया जा सकता है कि यदि अल्लाह चाहता कि मनुष्य केवल शाकाहारी रहे तो उसमें हमें अतिरिक्त नोकदार दांत क्यों दिये? इसका तार्किक उत्तर यही है कि अल्लाह ने मनुष्य को सर्वभक्षी प्राणी के रूप में रचा है और वह महान विधाता हमसे अपेक्षा रखता है कि हम शाक सब्ज़ी के अतिरिक्त सामिष आहार (मांस, मछली, अण्डा इत्यादि) से भी अपनी शारीरिक आवश्यकताएं पूरी कर सकें।
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मनुष्य की पाचन व्यवस्था शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन को पचा सकती है

शाकाहारी प्राणीयों की पाचन व्यवस्था केवल शाकाहारी भोजन को पचा सकती है। मांसाहारी जानवरों में केवल मांस को ही पचाने की क्षमता होती है। परन्तु मनुष्य हर प्रकार के खाद्य पद्रार्थों को पचा सकता है। यदि अल्लाह चाहता कि मनुष्य एक ही प्रकार के आहार पर जीवत रहे तो हमारे शरीर को दोनों प्रकार के भोजन के योग्य क्यों बनाता कि वह शक सब्ज़ी के साथ-साथ अन्य प्रकार के भोजन को भी पचा सके।

पवित्र हिन्दू धर्मशास्त्रों में भी मांसाहारी भोजन की अनुमति है

(क) बहुत से हिन्दू ऐसे भी हैं जो पूर्ण रूप से शाकाहारी हैं। उनका विचार है कि मास-मच्छी खाना उनके धर्म के विरुद्ध है परन्तु यह वास्तविकता है कि हिन्दुओं के प्राचीन धर्मग्रन्थों में मांसाहार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। उन्हीं ग्रंथों में ऐसे साधू संतों का उल्लेख है जो मांसाहारी थे।

(ख) मनुस्मृति जो हिन्दू कानून व्यवस्था का संग्रह है, उसके पाँचवे अध्याय के 30वें श्लोक में लिखा हैः

‘‘खाने वाला जो उनका मांस खाए कि जो खाने के लिए है तो वह कुछ बुरा नहीं करता, चाहे नितदिन वह ऐसा क्यों न करे क्योंकि ईश्वर ने स्वयं ही बनाया है कुछ को ऐसा कि खाए जाएं और कुछ को ऐसा कि खाएं।’’

(ग) मनुस्मृति के पाँचवें अध्याय के अगले श्लोक नॉ 31 में लिखा हैः

‘‘बलि का माँस खाना उचित है, यह एक रीति है जिसे देवताओं का आदेश जाना जाता है ’’

(घ) मनुस्मृति के इसी पाँचवें अध्याय के श्लोक 39-40 में कहा गया हैः

‘‘ईश्वर ने स्वयं ही बनाया है बलि के पशुओं को बलि हेतु। तो बलि के लिये मारना कोई हत्या नहीं है।’’

(ङ) महाभारत, अनुशासन पर्व के 58वें अध्याय के श्लोक 40 में धर्मराज युधिष्ठिर और भीष्म पितामहः के मध्य इस संवाद पर कि यदि कोई व्यक्ति अपने पुरखों के श्राद्ध में उनकी आत्मा की शांति के लिए कोई भोजन अर्पित करना चाहे तो वह क्या कर सकता है। वह वर्णन इस प्रकार हैः

‘‘युधिष्ठिर ने कहाµ ‘हे महाशक्तिमान, मुझे बताओ कि वह कौन सी वस्तु है जिसे यदि अपने पुरखों की आत्मा की शांति के लिए अर्पित करूं तो वह कभी समाप्त न हो, वह क्या वस्तु है जो (यदि दी जाए तो) सदैव बनी रहे? वह क्या है जो (यदि भेंट की जाए तो) अमर हो जाए?’’

भीष्म ने कहाः ‘‘हे युधिष्ठिर! मेरी बात ध्यानपुर्वक सुनो, वह भेंटें क्या हैं जो कोई श्रद्धापूर्वक अर्पित की जाए जो श्रद्धा हेतु अचित हो और वह क्या फल है जो प्रत्येक के साथ जोड़े जाएं। तिल और चावल, जौ और उड़द और जल एवं कन्दमूल आदि उनकी भेंट किया जाए तो हे राजन! तुम्हारे पुरखों की आत्माएं प्रसन्न होंगी। भेड़ का (मांस) चार मास तक, ख़रगोश के (मांस) की भेंट चार मास तक प्रसन्न रखेगी, बकरी के (मांस) की भेंट छः मास तक और पक्षियों के (मांस) की भेंट सात मास तक प्रसन्न रखेगी। मृग के (मांस) की भेंट दस मास तक, भैंसे के (मांस) का दान ग्यारह मास तक प्रसन्न रखेगा। कहा जाता है कि गोमांस की भेंट एक वर्ष तक शेष रहती है। भेंट के गोमांस में इतना घृत मिलाया जाए जो तुम्हारे पुरखों की आत्माओं को स्वीकार्य हो, धरनासा (बड़ा बैल) का मांस तुम्हारे पुरखों की आत्माओं को बारह वर्षों तक प्रसन्न रखेगा। गेण्डे का मांस, जिसे पुरखों की आत्माओं को चन्द्रमा की उन रातों में भेंट किया जाए जब वे परलोक सिधारे थे तो वह उन्हें सदैव प्रसन्न रखेगा। और एक जड़ी बूटी कलासुका कही जाती है तथा कंचन पुष्प की पत्तियाँ और (लाल) बकरी का मांस भी, जो भेंट किया जाए, वह सदैव-सदैव के लिये है। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारें पितरों की आत्मा सदैव के लिए शांति प्राप्त करे तो तुम्हें चाहिए कि लाल बकरी के मांस से उनकी सेवा करो।’’ (भावार्थ)

हिन्दू धर्म भी अन्य धर्मों से प्रभावित हुआ है

यद्यपि हिन्दू धर्म शास्त्रों में मांसाहारी भोजन की अनुमति नहीं है परन्तु हिन्दुओं के अनुयायियों ने कालांतर में अन्य धर्मों का प्रभाव भी स्वीकार किया और शाकाहार को आत्मसात कर लिया। इन अन्य धर्मों में जैनमत इत्यादि शामिल हैं।

पौधे भी जीवनधारी हैं

कुछ धर्मों ने शकाहार पर निर्भर रहना इसलिए भी अपनाया है क्योंकि आहार व्यवस्था में जीवित प्राणधारियों को मारना वार्जित है। यदि कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को मारे बिना जीवित रह सकता है तो वह पहला व्यक्ति होगा जो जीवन बिताने का यह मार्ग स्वीकार कर लेगा। अतीत में लोग यह समझते थे कि वृक्ष-पौधे निष्प्राण होते हैं परन्तु आज यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि वृक्ष-पौधे भी जीवधारी होते हैं अतः उन लोगों की यह धारणा कि प्राणियों को मारकर खाना पाप है, आज के युग में निराधार सिद्ध होती है। अब चाहे वे शाकाहारी क्यों न बने रहें।

पौधे भी पीड़ा का आभास कर सकते हैं

पूर्ण शाकाहार में विश्वास रखने वालों की मान्यता है कि पौधे कष्ट और पीड़ा महसूस नहीं कर सकते अतः वनस्पति और पेड़-पौधों को मारना किसी प्राणी को मारने के अपेक्षा बहुत छोटा अपराध है। आज विज्ञान हमें बताता है कि पौधे भी कष्ट और पीड़ा का अनुभव करते हैं किन्तु उनके रुदन और चीत्कार को सुनना मनुष्य के वश में नहीं। इस का कारण यह है कि मनुष्य की श्रवण क्षमता केवल 20 हटर्ज़ से लेकर 20,000 हर्टज फ्ऱीक्वेंसी वाली स्वर लहरियाँ सुन सकती हैं। एक कुत्ता 40,000 हर्टज तक की लहरों को सुन सकता है। यही कारण है कि कुत्तों के लिए विशेष सीटी बनाई जाती है तो उसकी आवाज़ मनुष्यों को सुनाई नहीं देती परन्तु कुत्ते उसकी आवाज़ सुनकर दौड़े आते हैं, उस सीटी की आवाज़ 20,000 हर्टज से अधिक होती है।

एक अमरीकी किसान ने पौधों पर अनुसंधान किया। उसने एक ऐसा यंत्र बनाया जो पौधे की चीख़ को परिवर्तित करके फ्ऱीक्वेंसी की परिधि में लाता था कि मनुष्य भी उसे सुन सकें। उसे जल्दी ही पता चल गया कि पौधा कब पानी के लिए रोता है। आधुनिकतम अनुसंधान से सिद्ध होता है कि पेड़-पौधे ख़ुशी और दुख तक को महसूस कर सकते हैं और वे रोते भी हैं।

(अनुवादक के दायित्व को समक्ष रखते हुए यह उल्लेख हिन्दी में भी किया गया है। दरअस्ल पौधे के रोने चीख़ने की बात किसी अनुसंधान की चर्चा किसी अमरीकी अख़बार द्वारा गढ़ी गई है। क्योंकि गम्भीर विज्ञान साहित्य और अनुसंघान सामग्री से पता चला है कि प्रतिकूल परिस्थतियों अथवा पर्यावरण के दबाव की प्रतिक्रिया में पौधों से विशेष प्रकार का रसायनिक द्रव्य निकलता है। वनस्पति वैज्ञानिक इस प्रकार के रसायनिक द्रव्य को ‘‘पौधे का रुदन और चीत्कार बताते हैं) अनुवादक

दो अनुभूतियों वाले प्राणियों की हत्या करना निम्नस्तर का अपराध है

एक बार एक शाकाहारी ने बहस के दौरान यह तर्क रखा कि पौधों में दो अथवा तीन अनुभूतियाँ होती हैं। जबकि जानवरों की पाँच अनुभूतियाँ होती है। अतः (कम अनुभव क्षमता के कारण) पौधों को मारना जीवित जानवरों को मारने की अपेक्षा छोटा अपराध है। इस जगह यह कहना पड़ता है कि मान लीजिए (ख़ुदा न करे) आपका कोई भाई ऐसा हो जो जन्मजात मूक और बधिर हो अर्थात उसमें अनुभव शक्ति कम हो, वह वयस्क हो जाए और कोई उसकी हत्या कर दे तब क्या आप जज से कहेंगे कि हत्यारा थोड़े दण्ड का अधिकारी है। आपके भाई के हत्यारे ने छोटा अपराध किया है और इसीलिए वह छोटी सज़ा का अधिकारी है? केवल इसलिए कि आपके भाई में जन्मजात दो अनुभूतियाँ कम थीं? इसके बजाए आप यही कहेंगे कि हत्यारे ने एक निर्दोष की हत्या की है अतः उसे कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए।

पवित्र क़ुरआन में फ़रमाया गया हैः

‘‘लोगो! धरती पर जो पवित्र और वैध चीज़ें हैं, उन्हें खाओ और शैतान के बताए हुए रास्तों पर न चलो, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 2ः168)

पशुओं की अधिक संख्या

यदि इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति शाकाहारी होता तो परिणाम यह होता कि पशुओं की संख्या सीमा से अधिक हो जाती क्योंकि पशुओं में उत्पत्ति और जन्म की प्रक्रिया तेज़ होती है। अल्लाह ने जो समस्त ज्ञान और बुद्धि का स्वामी है इन जीवों की संख्या को उचित नियंत्रण में रखने का मार्ग सुझाया है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि अल्लाह तआला ने हमें (सब्ज़ियों के साथ साथ) पशुओं का माँस खाने की अनुमति भी दी है।

सभी लोग मांसाहारी नहीं, अतः माँस का मूल्य भी उचित है

मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं कि कुछ लोग पूर्ण रूप से शाकाहारी हैं परन्तु उन्हें चाहिए कि मांसाहारियों को क्रूर और अत्याचारी कहकर उनकी निन्दा न करें। वास्तव में यदि भारत के सभी लोग मांसाहारी बन जाएं तो वर्तमान मांसाहारियों का भारी नुकष्सान होगा क्योकि ऐसी स्थिति में माँस का मूल्य काबू से बाहर हो जाएगा।
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पशुओं को ज़िब्हा करने का इस्लामी तरीकष निदर्यतापूर्ण है

प्रश्नः मुसलमान पशुओं को ज़िब्ह (हलाल) करते समय निदर्यतापूर्ण ढंग क्यों अपनाते हैं? अर्थात उन्हें यातना देकर धीरे-धीरे मारने का तरीकष, इस पर बहुत लोग आपत्ति करते हैं?

उत्तरः निम्नलिखित तथ्यों से सिद्ध होता है कि ज़बीहा का इस्लामी तरीकष न केवल मानवीयता पर आधारित है वरन् यह साइंटीफ़िक रूप से भी श्रेष्ठ है।

जानवर हलाल करने का तरीका

अरबी भाषा का शब्द ‘‘ज़क्कैतुम’’ जो क्रिया के रूप में प्रयोग किया जाता है उससे ही शब्द ‘‘ज़क़ात’’ निकलता है, जिसका अर्थ है ‘‘पवित्र करना।’’

जानवर को इस्लामी ढंग से ज़िब्हा करते समय निम्न शर्तों का पूर्ण ध्यान रखा जाना आवश्यक है।

(क) जानवर को तेज़ धार वाली छुरी से ज़िब्हा किया जाए। ताकि जानवर को ज़िब्हा होते समय कम से कम कष्ट हो।

(ख) ज़बीहा एक विशेष शब्द है जिस से आश्य है कि ग्रीवा और गर्दन की नाड़ियाँ काटी जाएं। इस प्रकार ज़िब्हा करने से जानवर रीढ़ की हड्डी काटेे बिना मर जाता है।

(ग) ख़ून को बहा दिया जाए।

जानवर के सिर को धड़ से अलग करने से पूर्व आवश्यक है कि उसका सारा ख़ून पूरी तरह बहा दिया गया हो। इस प्रकार सारा ख़ून निकाल देने का उद्देश्य यह है कि यदि ख़ून शरीर में रह गया तो यह कीटाणुओं के पनपने का माध्यम बनेगा। रीढ़ की हड्डी अभी बिल्कुल नहीं काटी जानी चाहिए क्योंकि उसमें वह धमनियाँ होती हैं जो दिल तक जाती हैं। इस समय यदि वह धमनियाँ कट गईं तो दिल की गति रुक सकती है और इसके कारण ख़ून का बहाव रुक जाएगा। जिससे ख़ून नाड़ियों में जमा रह सकता है।

कीटाणुओं और बैक्टीरिया के लिये ख़ून मुख्य माध्यम है, कीटाणुओं, बैक्टीरिया और विषाक्त तत्वों की उत्पति के लिये ख़ून एक सशक्त माध्यम है। अतः इस्लामी तरीके से ज़िब्हा करने से सारा ख़ून निकाल देना स्वास्थ्य के नियमों के अनुसार है क्योंकि उस ख़ून में कीटाणु और बैक्टीरिया तथा विषाक्त तत्व अधिकतम होते हैं।

मांस अधिक समय तक स्वच्छ और ताज़ा रहता है

इस्लामी तरीके से हलाल किये गए जानवर का मांस अधिक समय तक स्वच्छ और ताज़ा तथा खाने योग्य रहता है क्योंकि दूसरे तरीकषें से काटे गए जानवर के मांस की अपेक्षा उसमें ख़ून की मात्रा बहुत कम होती है।

जानवर को कष्ट नहीं होता

ग्रीवा की नाड़ियाँ तेज़ी से काटने के कारण दिमाग़ को जाने वाली धमनियों तक ख़ून का प्रवाह रुक जाता है, जो पीड़ा का आभास उत्पन्न करती हैं। अतः जानवर को पीड़ा का आभास नहीं होता। याद रखिए कि हलाल किये जाते समय मरता हुआ कोई जानवर झटके नहीं लेता बल्कि उसमें तड़पने, फड़कने और थरथराने की स्थिति इसलिए होती है कि उसके पुट्ठों में ख़ून की कमी हो चुकी होती है और उनमें तनाव बहुत अधिक बढ़ता या घटता है।
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8

मांसाहारी भोजन मुसलमानों को हिंसक बनाता है

प्रश्नः विज्ञान हमें बताता है कि मनुष्य जो कुछ खाता है उसका प्रभाव उसकी प्रवृत्ति पर अवश्य पड़ता है, तो फिर इस्लाम अपने अनुयायियों को सामिष आहार की अनुमति क्यों देता है? यद्यपि पशुओं का मांस खाने के कारण मनुष्य हिंसक और क्रूर बन सकता है?

उत्तरः केवल वनस्पति खाने वाले पशुओं को खाने की अनुमति है। मैं इस बात से सहमत हूँ कि मनुष्य जो कुछ खाता है उसका प्रभाव उसकी प्रवृत्ति पर अवश्य पड़ता है। यही कारण है कि इस्लाम में मांसाहारी पशुओं, जैसे शेर, चीता, तेंदुआ आदि का मांस खाना वार्जित है क्योंकि ये दानव हिंसक भी हैं। सम्भव है इन दरिन्दों का मांस हमें भी दानव बना देता। यही कारण है कि इस्लाम में केवल वनस्पति का आहार करने वाले पशुओं का मांस खाने की अनुमति दी गई हैं। जैसे गाय, भेड़, बकरी इत्यादि। यह वे पशु हैं जो शांति प्रिय और आज्ञाकारी प्रवृत्ति के हैं। मुसलमान शांति प्रिय और आज्ञाकारी पशुओं का मांस ही खाते हैं। अतः वे भी शांति प्रिय और अहिंसक होते हैं।

पवित्र क़ुरआन का फ़रमान है कि रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बुरी चीज़ों से रोकते हैं।
पवित्र क़ुरआन में फ़रमान हैः

‘‘वह उन्हें नेकी का हुक्म देता है, बदी से रोकता है, उनके लिए पाक चीज़ें हलाल और नापाक चीज़ें हराम करता है, उन पर से वह बोझ उतारता है जो उन पर लदे हुए थे। वह बंधन खोलता है जिनमें वे जकड़े हुए थे।’’ (पवित्र क़ुरआन , 7ः157)

एक अन्य आयत में कहा गया हैः

‘‘जो कुछ रसूल तुम्हें दे तो वह ले लो और जिस चीज़ें से तुम्हें रोक दे उसमें रुक जाओ, अल्लाह से डरो, अल्लाह सख़्त अज़ाब (कठोरतम दण्ड) देने वाला है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 7ः159)

मुसलमानों के लिए महान पैग़म्बर का यह निर्देश ही उन्हे कषयल करने के लिए काफ़ी है कि अल्लाह तआला नहीं चाहता कि वह कुछ जानवरों का मांस खाएं जबकि कुछ का खा लिया करें।

इस्लाम की सम्पूर्ण शिक्षा पवित्र क़ुरआन और उसके बाद हदीस पर आधारित है। हदीस का आश्य है मुसलमानों के महान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन जो ‘सही बुख़ारी’, ‘मुस्लिम’, सुनन इब्ने माजह’, इत्यादि पुस्तकों में संग्रहीत हैं। और मुसलमानों का उन पर पूर्ण विश्वास है। प्रत्येक हदीस को उन महापुरूषों के संदर्भ से बयान कया गया है जिन्होंने स्वंय महान पैग़म्बर से वह बातें सुनी थीं।

पवित्र हदीसों में मांसाहारी जानवर का मांस खाने से रोका गया है

शाही बुख़ारी, मुस्लिम शरीफ़ में मौजूद, अनेक प्रमाणिक हदीसों के अनुसार मांसाहारी पशु का मांस खाना वर्जित है। एक हदीस के अनुसार, जिसमें हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के संदर्भ से बताया गया है कि हमारे पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने (हदीस नॉ 4752), और सुनन इब्ने माजह के तेरहवें अध्याय (हदीस नॉ 3232 से 3234 तक) के अनुसार निम्नलिखित जानवरों का मांस खाने से मना किया हैः

1. वह पशु जिनके दांत नोकीले हों, अर्थात मांसाहारी जानवर, ये जानवर बिल्ली के परिवार से सम्बन्ध रखते हैं। जिसमें शेर, बबर शेर, चीता, बिल्लियाँ, कुत्ते, भेड़िये, गीदड़, लोमड़ी, लकड़बग्घे इत्यादि शामिल हैं।

2. कुतर कर खाने वाले जानवर जैसे छोटे चूहे, बड़े चूहे, पंजों वाले ख़रगोश इत्यादि।

3. रेंगने वाले कुछ जानवर जैसे साँप और मगरमच्छ इत्यादि।

4. शिकारी पक्षी, जिनके पंजे लम्बे और नोकदार नाख़ून हों (जैसे आम तौर से शिकारी पक्षियों के होते हैं) इनमें गरूड़, गिद्ध, कौए और उल्लू इत्यादि शामिल हैं।

ऐसा कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है जो किसी सन्देह और संशय से ऊपर उठकर यह सिद्ध कर सके कि मांसाहारी अपने आहार के कारण हिसंक भी बन सकता है।
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9

मुसलमान काबा की पूजा करते हैं।

प्रश्नः यद्यपि इस्लाम में मूर्ति पूजा वर्जित है परन्तु मुसलमान काबे की पूजा क्यों करते हैं? और अपनी नमाज़ों के दौरान उसके सामने क्यों झुकते हैं?

उत्तरः काबा हमारे लिये किष्बला (श्रद्धेय स्थान, दिशा) है, अर्थात वह दिशा जिसकी ओर मुँह करके मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि, मुसलमान नमाज़ के समय काबे की पूजा नहीं करते, मुसलमान केवल अल्लाह की इबादत करते हैं और उसी के आगे झुकते हैं। जैसा कि पवित्र क़ुरआन की सूरह अल-बकष्रः में अल्लाह का फ़रमान हैः

‘‘हे नबी! यह तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की तरफ़ उठना हम देख रहे है, लो हम उसी किष्बले की तरफ़ तुम्हें फेर देते हैं जिसे तुम पसन्द करते हो। मस्जिदुल हराम (काबा) की तरफ़ रुख़ फेर दो, अब तुम जहाँ कहीं हो उसी तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ा करो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 2ः144)

इस्लाम एकता और सौहार्द के विकास में विश्वास रखता है

जैसे, यदि मुसलमान नमाज़ पढ़ना चाहें तो बहुत सम्भव है कि कुछ लोग उत्तर की दिशा की ओर मुँह करना चाहें, कुछ दक्षिण की ओर, तो कुछ पूर्व अथवा पश्चिम की ओर, अतः एक सच्चे ईश्वर (अल्लाह) की उपासना के अवसर पर मुसलमानों में एकता और सर्वसम्मति के लिए उन्हें यह आदेश दिया गया कि वह विश्व मे जहाँ कहीं भी हों, जब अल्लाह की उपासना (नमाज़) करें तो एक ही दिशा में रुख़ करना होगा। यदि मुसलमान काबा की पूर्व दिशा की ओर रहते हैं तो पश्चिम की ओर रुख़ करना होगा। अर्थात जिस देश से काबा जिस दिशा में हो उस देश से मुसलमान काबा की ओर ही मुँह करके नमाज़ अदा करें।

पवित्र काबा धरती के नक़्शे का केंद्र है

विश्व का पहला नक़्शा मुसलमानों ने ही तैयार किया था। मुसलमानों द्वारा बनाए गए नक़शे में दक्षिण ऊपर की ओर और उत्तर नीचे होता था। काबा उसके केंद्र में था। बाद में भूगोल शास्त्रियों ने जब नक़शे बनाए तो उसमें परिवर्तन करके उत्तर को ऊपर तथा दक्षिण को नीचे कर दिया। परन्तु अलहम्दो लिल्लाह (समस्त प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए है) तब भी काबा विश्व के केंद्र में ही रहा।

काबा शरीफ़ का तवाफ़ (परिक्रमा) अल्लाह के एकेश्वरत्व का प्रदर्शन है

जब मुसलमान मक्का की मस्जिदे हराम में जाते हैं, वे काबा का तवाफ़ करते हैं अथवा उसके गिर्द चक्कर लगाकर परिक्रमा करते हैं तो उनका यह कृत्य एक मात्र अल्लह पर विश्वास और उसी की उपासना का प्रतीक है क्योंकि जिस प्रकार किसी वृत्त (दायरे) का केंद्र बिन्दु एक ही होता है उसी प्रकार अल्लाह भी एकमात्र है जो उपासना के योग्य है।
हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस सही बुख़ारी, खण्ड 2, किताब हज्ज, अध्याय 56 में वर्णित हदीस नॉ 675 के अनुसार हज़रत उमर (रज़ियल्लाह अन्हु) ने काबा में रखे हुए काले रंग के पत्थर (पवित्र हज्र-ए- अस्वद) को सम्बोधित करते हुए फ़रमायाः

‘‘मैं जानता हूँ कि तू एक पत्थर है जो किसी को हानि अथवा लाभ नहीं पहुंचा सकता। यदि मैंने हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को चूमते हुए नहीं देखा होता तो मैं भी तुझे न छूता (और न ही चूमता)।’’

(इस हदीस से यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि विधर्मियों की धारणा और उनके द्वारा फैलाई गई यह भ्रांति पूर्णतया निराधार है कि मुसलमान काबा अथवा हज्र-ए-अस्वद की पूजा करते हैं। किसी वस्तु को आदर और सम्मान की दृष्टि से देखना उसकी पूजा करना नहीं हो सकता।) (अनुवादक)

लोगों ने काबे की छत पर खड़े होकर अज़ान दी

महान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के समय में लोग काबे के ऊपर चढ़कर अज़ान भी दिया करते थे, अब ज़रा उनसे पूछिए जो मुसलमानों पर काबे की पूजा का आरोप लगाते हैं कि क्या कोई मूर्ति पूजक कभी अपने देवता की पूजी जाने वाली मूर्ति के ऊपर खड़ा होता है?
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10

मक्का मे ग़ैर मुस्लिमों को प्रवेश की अनुमति नहीं

प्रश्नः मक्का और मदीना के पवित्र नगरों में ग़ैर मुस्लिमों को प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं है?

उत्तरः यह सच है कि कानूनी तौर पर मक्का और मदीना शरीफ़ के पवित्र नगरों में ग़ैर मुस्लिमों को प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। निम्नलिखित तथ्यों द्वारा प्रतिबन्ध के पीछे कारणों और औचित्य का स्पष्टीकरण किया गया है।
समस्त नागरिकों को कन्टोन्मेंट एरिया (सैनिक छावनी) में जाने की अनुमति नहीं होती

मैं भारत का नागरिक हूँ। परन्तु फिर भी मुझे (अपने ही देश के) कुछ वर्जित क्षेत्रों में जाने की अनुमति नहीं है। प्रत्येक देश में कुछ न कुछ ऐसे क्षेत्र अवश्य होते हैं जहाँ सामान्य जनता को जाने की इजाज़त नहीं होती। जैसे सैनिक छावनी या कन्टोन्मेंट एरिया में केवल वही लोग जा सकते हैं जो सेना अथवा प्रतिरक्षा विभाग से सम्बंधित हों। इसी प्रकार इस्लाम भी समस्त मानवजगत और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए एकमात्र सत्यधर्म है। इस्लाम के दो नगर मक्का और मदीना किसी सैनिक छावनी के समान महत्वपूर्ण और पवित्र हैं, इन नगरों में प्रवेश करने का उन्हें ही अधिकार है जो इस्लाम में विश्वास रखते हों और उसकी प्रतिरक्षा में शरीक हों। अर्थात केवल मुसलमान ही इन नगरों में जा सकते हैं।
सैनिक संस्थानों और सेना की छावनियों में प्रवेश पर प्रतिबन्ध के विरुद्ध एक सामान्य नागरिक का विरोध करना ग़ैर कानूनी होता है। अतः ग़ैर मुस्लिमों के लिये भी यह उचित नहीं है कि वे मक्का और मदीना में ग़ैर मुस्लिमों के प्रवेश पर पाबन्दी का विरोध करें।

मक्का और मदीना में प्रवेश का वीसा

1. जब कोई व्यक्ति किसी अन्य देश की यात्रा करता है तो उसे सर्वप्रथम उस देश में प्रवेश करने का अनुमति पत्र ;टपेंद्ध प्राप्त करना पड़ता है। प्रत्येक देश के अपने कषयदे कानून होते हैं जो उनकी ज़रूरत और व्यवस्था के अनुसार होते हैं तथा उन्हीं के अनुसार वीसा जारी किया जाता है। जब तक उस देश के कानून की सभी शर्तों को पूरा न कर दिया जाए उस देश के राजनयिक कर्मचारी वीसा जारी नहीं करते।

2. वीसा जारी करने के मामले में अमरीका अत्यंत कठोर देश है, विशेष रूप से तीसरी दुनिया के नागरिकों को वीसा देने के बारे में, अमरीकी आवर्जन कानून की कड़ी शर्तें हैं जिन्हें अमरीका जाने के इच्छुक को पूरा करना होता है।

3. जब मैं सिंगापुर गया था तो वहाँ के इमैग्रेशन फ़ार्म पर लिखा था ‘‘नशे की वस्तुएँ स्मगल करने वाले को मृत्युदण्ड दिया जायेगा।’’ यदि मैं सिंगापुर जाना चाहूँ तो मुझे वहाँ के कानून का पालन करना होगा। मैं यह नहीं कह सकता कि उनके देश में मृत्युदण्ड का निर्दयतापूर्ण और क्रूर प्रावधान क्यों है। मुझे तो केवल उसी अवस्था में वहाँ जाने की अनुमति मिलेगी जब उस देश के कानून की सभी शर्तों के पालन का इकष्रार करूंगा।

4. मक्का और मदीना का वीसा अथवा वहाँ प्रवेश करने की बुनियादी शर्त यह है कि मुख से ‘‘ला इलाहा इल्लल्लाहु, मुहम्मदुर्रसूलल्लाहि’’ (कोई ईश्वर नहीं, सिवाय अल्लाह के (और) मुहम्मद (सल्लॉ) अल्लाह के सच्चे सन्देष्टा हैं), कहकर मन से अल्लाह के एकमात्र होने का इकरार किया जाए और हज़रत मुहम्मद (सल्लॉ) को अल्लाह का सच्चा रसूल स्वीकार किया जाए।
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सुअर का मांस हराम है

प्रश्नः इस्लाम में सुअर का मांस खाना क्यों वर्जित है?

उत्तरः इस्लाम में सुअर का माँस खाना वर्जित होने की बात से सभी परिचित हैं। निम्नलिखित तथ्यों द्वारा इस प्रतिबन्ध की व्याख्या की गई है।

पवित्र क़ुरआन में कम से कम चार स्थानों पर सुअर का मांस खाने की मनाही की गई है। पवित्र क़ुरआन की सूरह 2, आयत 173, सूरह 5, आयत 3, सूरह 6, आयत 145, सूरह 16, आयत 115 में इस विषय पर स्पष्ट आदेश दिये गए हैं:

‘‘तुम पर हराम किया गया मुरदार (ज़िब्हा किये बिना मरे हुए जानवर) का मांस, सुअर का मांस और वह जानवर जो अल्लाह के नाम के अतिरिक्त किसी और नाम पर ज़िब्हा किया गया हो, जो गला घुटने से, चोट खाकर, ऊँचाई से गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी दरिन्दे नें फाड़ा हो सिवाय उसके जिसे तुम ने ज़िन्दा पाकर ज़िब्हा कर लिया और वह जो किसी आस्ताने (पवित्र स्थान, इस्लाम के मूल्यों के आधार पर) पर ज़िब्हा किया गया हो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 5ः3)

इस संदर्भ में पवित्र क़ुरआन की सभी आयतें मुसलमानों को संतुष्ट करने हेतु पर्याप्त है कि सुअर का मांस क्यों हराम है।

बाइबल ने भी सुअर का मांस खाने की मनाही की है

संभवतः ईसाई लोग अपने धर्मग्रंथ में तो विश्वास रखते ही होंगे। बाइबल में सुअर का मांस खाने की मनाही इस प्रकार की गई हैः

‘‘और सुअर को, क्योंकि उसके पाँव अलग और चिरे हुए हैं। पर वह जुगाली (पागुर) नहीं करता, वह भी तुम्हारे लिये अपवित्र है, तुम उनका मांस न खाना, उनकी लााशों को न छूना, वह तुम्हारे लिए अपवित्र हैं।’’ (ओल्ड टेस्टामेंट, अध्याय 11, 7 से 8)

कुछ ऐसे ही शब्दों के साथ ओल्ड टेस्टामेंट की पाँचवी पुस्तक में सुअर खाने से मना किया गया हैः
‘‘और सुअर तुम्हारे लिए इस कारण से अपवित्र है कि इसके पाँव तो चिरे हुए हैं परन्तु वह जुगाली नहीं करता, तुम न तो उनका माँस खाना और न उनकी लाशों को हाथ लगाना।’’ (ओल्ड टेस्टामेंट, अध्याय 14ः8)
ऐसी ही मनाही बाइबल (ओल्ड टेस्टामेंट, अध्याय 65, वाक्य 2 ता 5) में भी मौजूद है।

सुअर के मांसाहार से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं

अब आईए! ग़ैर मुस्लिमों और ईश्वर को न मानने वालों की ओर, उन्हें तो बौद्धिक तर्क, दर्शन और विज्ञान के द्वारा ही कषयल किया जा सकता है। सुअर का मांस खाने से कम से कम 70 विभिन्न रोग लग सकते हैं। एक व्यक्ति के उदर में कई प्रकार के कीटाणु हो सकते हैं, जैसे राउण्ड वर्म, पिन वर्म और हुक वर्म इत्यादि। उनमें सबसे अधिक घातक टाईनिया सोलियम (Taenia Soliam) कहलाता है। सामान्य रूप से इसे टेपवर्म भी कहा जाता है। यह बहुत लम्बा होता है और आंत में रहता है। इसके अण्डे (OVA)रक्त प्रवाह में मिलकर शरीर के किसी भी भाग में पहुंच सकते हैं। यदि यह मस्तिष्क तक जा पहुंचे तो स्मरण शक्ति को बहुत हानि पहुंचा सकते हैं। यदि दिल में प्रवेश कर जाए तो दिल का दौरा पड़ सकता है। आँख में पहुंच जाए तो अंधा कर सकते हैं। जिगर में घुसकर पूरे जिगर को नष्ट कर सकते हैं। इसी प्रकार शरीर के किसी भाग को हानि पहुंचा सकते हैं। पेट में पाया जाने वाला एक अन्य रोगाणु Trichura Lichurasiहै।

यह एक सामान्य भ्रांति है कि यदि सुअर के मांस को भलीभांति पकाया जाए तो इन रोगाणुओं के अण्डे नष्ट हो जाएंगे। अमरीका में किये गए अनुसंधान के अनुसार ट्राईक्योरा से प्रभावित 24 व्यक्तियों में 20 ऐसे थे जिन्होंने सुअर का माँस अच्छी तरह पकाकर खाया था। इससे पता चला कि सुअर का मांस अच्छी तरह पकाने पर सामान्य तापमान पर भी उसमें मौजूद रोगाणु नहीं मरते जो भोजन पकाने के लिए पर्याप्त माना जाता है।

सुअर के मांस में चर्बी बढ़ाने वाला तत्व होता है

सुअर के मांस में ऐसे तत्व बहुत कम होते हैं जो मांसपेशियों को विकसित करने के काम आते हों। इसके विपरीत यह चर्बी से भरपूर होता है। यह वसा रक्त नलिकाओं में एकत्र होती रहती है और अंततः
अत्याधिक दबाव (हाइपर टेंशन) ओर हृदयघात का कारण बन सकती है। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि 50 प्रतिशत से अधिक अमरीकियों को हाइपर टेंशन का रोग लगा हुआ है।
सुअर संसार के समस्त जानवरों से अधिक घिनौना जीव

सुअर संसार में सबसे अधिक घिनौना जानवर है। यह गंदगी, मैला इत्यादि खाकर गुज़ारा करता है। मेरी जानकारी के अनुसार यह बेहतरीन सफ़ाई कर्मचारी है जिसे ईश्वर ने पैदा किया है। वह ग्रामीण क्षेत्र जहाँ शौचालय आदि नहीं होते और जहाँ लोेग खुले स्थानों पर मलमूत्र त्याग करते हैं, वहाँ की अधिकांश गन्दगी यह सुअर ही साफ़ करते हैं।
कुछ लोग कह सकते हैं कि आस्ट्रेलिया जैसे उन्नत देशों में सुअर पालन स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण में किया जाता है। परन्तु इतनी सावधानी के बावजूद कि जहाँ सुअरों को बाड़ों में अन्य पशुओं से अलग रखा जाता है, कितना ही प्रयास कर लिया जाए कि उन्हें स्वच्छ रखा जा सके किन्तु यह सुअर अपनी प्राकृतिक प्रवत्ति में ही इतना गन्दा है कि उसे अपने साथ के जानवरों का मैला खाने ही में आनन्द आता है।

सुअर सबसे निर्लज्ज जानवर

इस धरती पर सबसे ज़्यादा बेशर्म जानवर केवल सुअर है। सुअर एकमात्र जानवर है जो अपनी मादिन (Mate)के साथ सम्भोग में अन्य सुअरों को आमंत्रिक करता है। अमरीका में बहुत से लोग सुअर खाते हैं अतः वहाँ इस प्रकार का प्रचलन आम है कि नाच-रंग की अधिकतर पार्टियों के पश्चात लोग अपनी पत्नियाँ बदल लेते हैं, अर्थात वे कहते हैं‘ ‘‘मित्र! तुम मेरी पत्नी और मैं तुम्हारी पत्नी के साथ आनन्द लूंगा...।’’

यदि कोई सुअर का मांस खाएगा तो सुअर के समान ही व्यवहार करेगा, यह सर्वमान्य तथ्य है।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
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शराब की मनाही

प्रश्नः इस्लाम में शराब पीने की मनाही क्यों है?

उत्तरः मानव संस्कृति की स्मृति और इतिहास आरंभ होने से पहले से शराब मानव समाज के लिए अभिशाप बनी हुई है। यह असंख्य लोगों के प्राण ले चुकी है। यह क्रम अभी चलता जा रहा है। इसी के कारण विश्व के करोड़ों लोगों का जीवन नष्ट हो रहा है। समाज की अनेकों समस्याओं की बुनियादी वजह केवल शराब है। अपराधों में वृद्धि और विश्वभर में करोड़ों बरबाद घराने शराब की विनाशलीला का ही मौन उदाहरण है।

पवित्र क़ुरआन में शराब की मनाही

निम्नलिखित पवित्र आयत में क़ुरआन हमें शराब से रोकता है।

‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो! यह शराब, जुआ और यह आस्ताने और पांसे, यह सब गन्दे और शैतानी काम हैं। इनसे परहेज़ करो, उम्मीद है कि तुम्हें भलाई प्राप्त होगी।’’ (सूरह 5, आयत 90)

बाईबल में मदिरा सेवन की मनाही

बाईबल की निम्नलिखित आयतों में शराब पीने की बुराई बयान की गई हैः
‘‘शराब हास्यास्पद और हंगामा करने वाली है, जो कोई इनसे धोखा खाता है (वह) बुद्धिमान नहीं।’’ (दृष्टांत अध्याय 20, आयत 1)

‘‘और शराब के नशे में मतवाले न बनो।’’ (अफ़सियों, अध्याय 5, आयत 18)

मानव मस्तिष्क का एक भाग ‘‘निरोधी केंद्र’’ (Inhibitory Centre) कहलाता है। इसका काम है मनुष्य को ऐसी क्रियाओं से रोकना जिन्हें वह स्वयं ग़लत समझता हो। जैसे सामान्य व्यक्ति अपने बड़ों के सामने अशलील भाषा का प्रयोग नहीं करता। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति को शौच की आवश्यकता होती है वह सबके सामने नहीं करता और शौचालय की ओर रुख़ करता है।

जब कोई शराब पीता है तो उसका निरोधी केंद्र स्वतः ही काम करना बन्द कर देता है। यही कारण है कि शराब के नशे में धुत होकर वह व्यक्ति ऐसी क्रियाएं करता है जो सामान्यतः उसकी वास्तविक प्रवृति से मेल नहीं खातीं। जेसे नशे में चूर व्यक्ति अशलील भाषा बोलने में कोई शर्म महसूस नहीं करता। अपनी ग़लती भी नहीं मानता, चाहे वह अपने माता-पिता से ही क्यों न बात कर रहा हो। शराबी अपने कपड़ों में ही मूत्र त्याग कर लेते हैं, वे न तो ठीक से बात कर पाते हैं और न ही ठीक से चल पाते हैं, यहाँ तक कि वे अभद्र हरकतें भी कर गुज़रते हैं।

व्यभिचार, बलात्कार, वासनावृत्ति की घटनाएं शराबियों में अधिक होती हैं। अमरीकी प्रतिरक्षा मंत्रालय के ‘‘राष्ट्रीय अपराध प्रभावितों हेतु सर्वेक्षण एंव न्याय संस्थान’’ के अनुसार 1996 के दौरान अमरीका में बलात्कार की प्रतिदिन घटनाएं 20,713 थीं। यह तथ्य भी सामने आया कि अधिकांश बलात्कारियों ने यह कुकृत्य नशे की अवस्था में किया। छेड़छाड़ के मामलों का कारण भी अधिकतर नशा ही है।

आंकड़ों के अनुसार 8 प्रतिशत अमरीकी इनसेस्ट से ग्रसित हैं। इसका मतलाब यह हुआ कि प्रत्येक 12 अथवा 13 में से एक अमरीकी इस रोग से प्रभावित है। इन्सेस्ट की अधिकांश घटनाएं मदिरा सेवन के कारण घटित होती हैं जिनमें एक या दो लोग लिप्त हो जाते हैं।

(अंग्रेज़ी शब्द प्दबमेज का अनुवाद किसी शब्दकोक्ष में नहीं मिलता। परन्तु इसकी व्याख्या से इस कृत्य के घिनौनेपन का अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे निकट रिश्ते जिनके बीच धर्म, समाज और कानून के अनुसार विवाह वार्जित है, उनसे शरीरिक सम्बन्ध को प्दबमेज कहा जाता है।’’) अनुवादक

इसी प्रकार एड्स के विनाशकारी रोग के फैलाव के कारणों में एक प्रमुख कारण मदिरा सेवन ही है।
प्रत्येक शराब पीने वाला ‘‘सामाजिक’’ रूप से ही पीना आरंभ करता है

बहुत से लोग ऐसे हैं जो मदिरापान के पक्ष में तर्क देते हुए स्वयं को ‘‘सामाजिक पीने वाला’’ ;ैवबपंस क्तपदामतद्ध बताते हैं और यह दावा करते हैं कि वे एक या दो पैग ही लिया करते हैं और उन्हें स्वयं पर पूर्ण नियंत्रण रहता है और वे कभी पीकर उन्मत्त नहीं होते। खोज से पता चला है कि अधिकांश घोर पियक्कड़ों ने आरंभ इसी ‘‘सामाजिक’’ रूप से किया था। वास्तव में कोई पियक्कड़ ऐसा नहीं है जिसने शराब पीने का आंरभ इस इरादे से किया हो कि आगे चलकर वह इस लत में फंस जाएगा। इसी प्रकार कोई ‘‘सामाजिक पीने वाला’’ यह दावा नहीं कर सकता कि वह वर्षों से पीता आ रहा है और यह कि उसे स्वयं पर इतना अधिक नियंत्रण है कि वह पीकर एक बार भी मदहोश नहीं हुआ।
यदि कोई व्यक्ति नशे में एकबार कोई शर्मनाक हरकत कर बैठे तो वह सारी ज़िन्दगी उस के साथ रहेगी

माल लीजिए एक ‘‘सामाजिक पियक्कड़’’ अपने जीवन में केवल एक बार (नशे की स्थिति में) अपना नियंत्रण खो देता है और उस स्थिति में प्दबमेज का अपराध कर बैठता है तो पश्ताचाप जीवन पर्यन्त उसका साथ नहीं छोड़ता और वह अपराध बोध की भावना से ग्रस्त रहेगा। अर्थात अपराधी और उसका शिकार दोनों ही का जीवन इस ग्लानि से नष्टप्राय होकर रह जाएगा।

पवित्र हदीसों में शराब की मनाही

हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः

(क) ‘‘शराब तमाम बुराईयों की माँ है और तमाम बुराईयों में सबसे ज़्यादा शर्मनाक है।’’ (सुनन इब्ने माजह, जिल्द 3, किताबुल ख़म्र, अध्याय 30, हदीस 3371)

(ख) ‘‘प्रत्येक वस्तु जिसकी अधिक मात्रा नशा करती हो, उसकी थोड़ी मात्रा भी हराम है।’’ (सुनन इब्ने माजह, किताबुल ख़म्र, हदीस 3392)

इस हदीस से अभिप्राय यह सामने आता है कि एक घूंट अथवा कुछ बूंदों की भी गुंजाईश नहीं है।

(ग) केवल शराब पीने वालों पर ही लानत नहीं की गई, बल्कि अल्लाह तआला के नज़दीक वे लोग भी तिरस्कृत हैं जो शराब पीने वालों के साथ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संमबन्ध रखें। सुनन इब्ने माजह में किताबुल ख़म्र की हदीस 3380 के अनुसार हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः

‘‘अल्लाह की लानत नाज़िल होती है उन 10 प्रकार के समूहों पर जो शराब से सम्बंधित हैं। एक वह समूह जो शराब बनाए, और दूसरा वह जिसके लिए शराब बनाई जाए। एक वह जो उसे पिये और दूसरा वह जिस तक शराब पहुंचाई जाए, एक वह जो उसे परोसे। एक वह जो उसको बेचे, एक वह जो इसके द्वारा अर्जित धन का उपयोग करे। एक वह जो इसे ख़रीदे। और एक वह जो इसे किसी दूसरे के लिये ख़रीदे।’’
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