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Old 18-08-2012, 02:39 PM   #21
Dark Saint Alaick
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मैं सब समझती हूं फिजा

-वर्तिका नंदा

धुले बालों को हाथ से झटकती, चांद के साथ चांदनी की तरह सिमटी और शाल ओढ़े मुस्कुराती उस बेहद सुंदर फिजा के बारे में मैं चंडीगढ़ के दोस्तों से अक्सर पूछा करती थी। चंडीगढ़ जाकर उससे मिलने का इरादा भी था। एक महीने पहले तहलका के एक पत्रकार ने फेसबुक पर बताया कि फिजा अकेलेपन की जिंदगी बसर कर रही हैं। मैं कुछ लिख रही थी और मेरा मन था कि मैं जाकर फिजा से कहूं फिजा, मैं सब समझ सकती हूं । फिजा की हत्या ज्यादा और आत्महत्या कम के बारे में जिस समय पता चला मुझे हैरानी से ज्यादा दुख हुआ लेकिन दुख का भाव रात होते होते कई गुना बढ़ गया। फेसबुक और ट्विटर पर कमेंट पढ़े वे फिजा को दोषी ठहराते हुए थे। टीवी की चिल्लाती वार्ताएं भी गीतिका और फिजा पर अंगुली उठाती हुई थीं। पूरी तरह से चरित्र हनन करतीं,तस्वीरों को कई कोणों से दिखाती हुई, उनके अति महत्वाकांक्षी होने की छवि गढ़तीं और अनकहा अट्टाहास करतीं। एक युवा और सुंदर लड़की की हत्या कई दृष्टियों से चीजों को खोलकर और उधेड़ कर रख देती है। फिजा का चांद से शादी करना मीडिया ने कुछ इस अंदाज में बयान किया कि जैसे फिजा ही चांद को गोद में लेकर भगा ले गई थी। उसका धर्म बदलना, सफल होना, नामी होना, कथित बड़े लोगों को जानना, खबर तो बस उसके चरित्र के पन्नों को उधेड़ने पर आकर रुक गई। खबर वहां पहुंची नहीं जहां उसे पहुंचना चाहिए था। खबर को उसका एकाकीपन,उदासी, बेबसी, दुख, मातृत्व का अभाव और प्रेमी बनाम पति का विछोह नहीं दिखा। मीडिया को कहां दिखा कि अगर उनके जिगर में प्रेम का भाव न होता तो वे एकाकी रहती ही क्यों। मीडिया को समझ ही नहीं आया कि दूसरी पत्नी होना आसान नहीं होता। किसी और के बच्चों की अनकही, अस्वीकृत मां बनना तो और भी नहीं। मीडिया अंदाजा नहीं लगा सका कि औरत होने की कीमत एक बार नहीं हर बार अदा की जाती है और ‘दूसरी’ होने पर इसकी कीमत और सजा भी कुछ और होती है। मीडिया जब उनकी जिंदगी के गीले पन्ने उधेड़ रहा था मैं उस शोर के बीच चांद के लिए उसकी चुप्पी को अपनी हथेली पर तोल रही थी। चांद को लेकर जिस संजीदगी से आरोपों की फेहरिस्त खुलनी और छीली जानी चाहिए थी मीडिया ने उस उफान को उठने ही नहीं दिया बल्कि वह तो फिजा के मरने को तार्किक मनवाने में जुट गया और इस शोर में उसका साथ देने के लिए उसे कई बंसी बजाने वाले बड़ी आसानी से मिल गए। ठीक ही हुआ एक तरह से। औरत को थकाते इस समाज में पीड़िता के लिए कोई जगह है भी नहीं। वह भोग्या हो सकती है, परित्यक्ता, बिखरी हुई और पराजित पर उसकी जुबान नहीं होनी चाहिए। वह या तो हाथ में कलम थामे, बोले, कानून के पास जाए या फिर मर जाए या मारी जाए। सबसे आसान है आखिरी रास्ता ही। फिजा के जाने के बाद लगा कि चुप्पी तोड़ने का समय आ गया है। हर औरत को अपनी रक्षा के हथियार खुद बनाने होंगे। उनकी धार तेज करनी होगी। सबसे बड़ी बात उसे दूसरी औरत का साथ देना होगा और न देना हो तो चुप्पी साधनी होगी। अपराध की शिकार हर औरत एक दिन अपनी तकदीर नए सिरे से लिखेगी जरूर और कहेगी- मैं थी, हूं और रहूंगी।
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Old 18-08-2012, 03:42 PM   #22
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ममफोर्डगंज के अफसर और सपेरे

-गिरीजेश राव

एक हाथ में मोबाइल, दूसरे हाथ में बेटन। जींस की पेंट। ऊपर कुरता। अधपके बाल। यह आदमी मैं था जो पत्नी के साथ गंगा किनारे जा रहा था। श्रावण शुक्ल अष्टमी का दिन। इस दिन शिवकुटी में मेला लगता है। मेलहरू सवेरे से आने लगते हैं पर मेला गरमाता संझा को है। मैं तो सवेरे स्नान करने वालों की रहचह लेने गंगा किनारे जा रहा था। सामान्य से ज्यादा भीड़ थी की। पहले सांप लेकर सपेरे शिवकुटी घाट की सीढ़ियों या कोटेश्वर महादेव मंदिर के पास बैठते थे। अब नए चलन के अनुसार स्नान की जगह पर गंगा किनारे आने-जाने के रास्ते में बैठे थे। कुल तीन थे वे। उनमें से एक प्रगल्भ था। हमें देख बोलने लगा- जय भोलेनाथ। नाग देवता आपका भला करेंगे। दूसरा उतनी ही ऊंची आवाज में बोला-अरे हम जानते हैं ये ममफोर्डगंज के अफसर हैं। दुहाई हो साहब। मैं अफसर जैसा कत्तई नहीं लग रहा था। मुझे यह ममफोर्डगंज के अफसर की थ्योरी समझ नहीं आई। हम आगे बढ़ गए। स्नान करते लोगों के भिन्न कोण से मैने दो-चार चित्र लिए। गंगाजी धीमे-धीमे बढ़ रही हैं अपनी चौड़ाई में इसलिए स्नान करने वालों को पानी में पचास कदम चल कर जाना होता है जहां उन्हे डुबकी लगाने लायक गहराई मिलती है। लोगों की एक कतार पानी में चलती भी दिख रही थी और उस पंक्ति के अन्त पर लोग स्नान करते नजर आ रहे थे। साल दर साल इस तरह के दृश्य देख रहा हूं। लौटते समय पत्नी ने कहा कि दस-पांच रुपए हों तो इन सपेरों को दे दिए जाएं। मैने पैसे निकाले तो सपेरे सतर्क हो गए। ममफोर्डगंज का अफसर बोलने वाले ने अपने पिटारे खोल दिए। एक में छोटा और दूसरे में बड़ा सांप था। बड़े वाले को उसने छेड़ा तो फन निकाल लिया उसने। पत्नी ने उस सपेरे से प्रश्न जरूर पूछा -क्या खिलाते हो इस सांप को? बेसन की गोली बना कर खिलाते हैं। बेसन और चावल की मिली गोलियां। दूध भी पिलाते हो? यह पूछने पर आनाकानी तो की उसने पर स्वीकार किया कि सांप दूध नहीं पीता। या फिर सांप को वह दूध नहीं पिलाता। वह फिर पैसा मिलने की आशा से प्रशस्ति गायन की ओर लौटा। अरे मेम साहब, (मुझे दिखा कर) आपको खूब पहचान रहे हैं। जंगल के अफसर हैं। ममफोर्डगंज के। मुझे अहसास हो गया कि कोई डीएफओ साहब का दफ्तर या घर देखा होगा इसने ममफोर्डगंज में। उसी से मुझको कॉ-रिलेट कर रहा है। पत्नी ने उसे दस रुपए दे दिए। दूसरी ओर एक छोटे बच्चे के साथ दूसरा सपेरा था। वह भी अपनी सांप की पिटारियां खोलने और सांपों को कोंचने लगा। जय हो! जय भोलेनाथ। यह बन्दा ज्यादा प्रगल्भ था पर मेरी अफसरी को चम्पी करने की बजाय भोलेनाथ को इनवोक (पदअवाम) कर रहा था। उसमें भी कोई खराबी नजर नहीं आयी मुझे। उसे भी दस रुपए दिए पत्नी ने। तीसरा अपेक्षाकृत कमजोर मार्केटिंग तकनीक युक्त सपेरा भी था। उसको देने के लिए पैसे नहीं बचे तो भोलेनाथ वाले को आधा पैसा तीसरे को देने की हिदायत दी। मुझे पूरा यकीन है कि उसमें से एक पाई वह नहीं देगा। हमारे सपेरा अध्याय की यहीं इति हो गयी। लौट पड़े। लोगों की एक कतार पानी में चलती भी दिख रही थी और उस पंक्ति के अन्त पर लोग स्नान करते नजर आ रहे थे।
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Old 22-08-2012, 12:40 AM   #23
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ऐसी दुआ कीजिए जिनमें दम हो

अनु सिंह चौधरी

पारूल नाम है उसका। वैसे प्यार से सब सीपू बुलाते हैं उसके। शहद सी बोली, उतनी ही मीठी शक्ल और उतने ही ख़ूबसूरत दिल की नेमत किसी एक को मिलती है तो कैसे मिलती है ये सीपू को पहली बार देखा था तो समझा था। उससे मेरा खून का रिश्ता नहीं। उसके भाई से मेरा एक धागे का रिश्ता है पिछले कई सालों से। इतने ही सालों से कि याद भी नहीं आता कि उसने क्यों मुझे दीदी कहना शुरू कर दिया था जबकि उम्र के इतने से फासले पर हम एक-दूसरे को नाम से ही बुलाया करते हैं। ख़ैर, उसी एक धागे और इसी एक धड़कते दिल का रिश्ता रहा कि हम महीनों ना मिलते लेकिन फिर भी एक-दूसरे की खबर ले रहे होते। उन्हीं खबरों में एक-दूसरों के परिवारों की,दोस्त-यारों की खबर शामिल होती। उन्हीं खबरों में ब्रेक-अप्स, हैंगअप्स, करियर ब्रेक्स, बदलते हुए पते, बदलती हुई पहचान और बदलती हुई जिรพन्दगियों की निशानियां भी बंटती रहीं। उन्हीं खबरों में सीपू की शादी होने की खबर भी थी जिसका जश्न मैंने फेसबुक पर उसकी सगाई और फिर शादी की तस्वीर देखकर मनाया। उन्हीं खबरों में सीपू के गोद में एक नए मेहमान के आने की खबर भी शामिल थी। और उन्हीं खबरों में सीपू की डिलीवरी से कुछ ही हफ्ते पहले उसके ब्रेस्ट कैंसर की ख़बर भी शामिल थी। बीबीएमए फेसबुक और फोन पर उन्हीं खबरों में सीपू की जीवटता और कैंसर से जूझने के किस्से भी शामिल होते रहे हैं। कल एक और खबर मिली। छह महीने के आरव की मां सीपू की हड्डियों में भी कैंसर फैलने लगा है। ना-ना। कोई मातमपुर्सी के लिए नहीं बैठे हम। हम बात सीपू की कर रहे हैं जिसके अदम्य साहस और जीजिविषा की बात करते हुए मुझे अपनी शब्दावली के अतिसंकुचित होने का अहसास होता है। दस दिनों के रेडिएशन और हॉर्मोनल इंजेक्शन के बाद सीपू ठीक हो जाएगी लेकिन उसकी हिम्मत मुझे हैरान करती है। लिखने तो बैठी हूं और सोचा तो है कि सीपू की तकलीफ और तकलीफ पर हर बार मिलती उसकी जीत के बारे में बताऊं आपको लेकिन शब्द कम पड़ रहे हैं। जिन्दगी वाकई सबसे बड़ी और कठोर अध्यापिका होती है। जिन पाठों को हम सीखना नहीं चाहते जिस सच को स्वीकार नहीं करना चाहते उसे सामने ला पटकने के कई हुनर मालूम हैं उसे। कहां तो हम छोटी-छोटी परेशानियों का हजार रोना रोते हैं और कहां संघर्ष ऐसा होता है कि हर पल भारी पड़े। अब अपनी तन्हाई का रोना रोना चाहती हूं तो सीपू याद आती है। मन को तो फिर भी बहला लें लेकिन उसके शरीर का दर्द लाख चाहकर भी कौन कहां बांट पाता होगा? हमें अपने-अपने हिस्से का दुख ख़ुद झेलना होता है और उस दुख को झेलकर जो निकलता है वही सच्चा सुपरस्टार होता है। सीपू, कैंसर से एक लड़ाई तुम लड़ रही हो और तुम्हारे साथ-साथ सीख हम रहे हैं। जिन्दगी के इम्तिहान में सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर तुम चढ़ रही हो, हिम्मत हमें मिल रही है। तुमसे सीखा है कि तकलीफों को हंसकर झेल जाने पर कविता-कहानियां लिखना बहुत आसान है, उन्हें महीनों लम्हा-लम्हा जीए जाना बहुत मुश्किल। तुमसे सीखा है कि जब तकलीफ मुसीबत और परेशानियां हर ओर से घेरती हैं तभी हमारी सही औकात सामने आती है। दुआ है कि मेरी एक दुआ में कई दुआएं शामिल हों और सबमें इतना असर तो हो कि तुम्हारी तकलीफ कम हो सके। दुआ ये भी है कि तुम्हारी हिम्मत का एक कतरा ही सही, हमें भी मिल सके।
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Old 23-08-2012, 12:29 PM   #24
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आले तक नहीं पहुंच सका लायक आदमी

प्रतिभा कटियार

इश्क को उसने उठाकर जिन्दगी के सबसे ऊंचे वाले आले में रख दिया था। उस आले तक पहुंचने के लिए पहले उसने खुद को पंजों पर उठाया। अपने हाथों को खींचकर लम्बा करना चाहा। इतनी मशक्कत मानो अचानक उसके पैरों की लम्बाई बढ़ जाएगी। हाथों की लम्बाई भी इतनी ज्यादा कि उसके बराबर दुनिया में कोई लम्बा ना हो सके और जिन्दगी के सबसे ऊंचे आले तक कोई कभी ना पहुंच सके। अचानक उसने महसूस किया कि वाकई उसका कद बढ़ने लगा है। उसने अपने इश्क को अपने दिल के रैपर में लपेटकर उस आले में रख दिया। ऊपर से कुछ पुआल भर दिया ताकि उसकी सबसे कीमती चीज पर किसी को कोई नजर ही ना पड़े। काम हो जाने के बाद वो वापस अपने कद में लौट आया यही कोई पांच फीट ग्यारह इंच। वो हमेशा कहती थी कि एक इंच कम क्यों? पूरे छह क्यों नहीं। ऐसा कहकर वो अक्सर हंस देती? लड़का उसकी बात सुनते हुए अपने कद की एक इंच कम लम्बाई के बारे में सोचने लगता। लड़की कहती,तुम पांच फीट के होते तब भी मुझे तुमसे इतना ही प्यार होता पगले। लड़का खुश हो जाता। उनका प्रेम किशोर वय का प्रेम था। वे खेतों में दिन भर घूमते। उसे लड़की के लिए सबसे ऊंची डाल पर लगे फूल तोड़ने में सबसे ज्यादा सुख मिलता था। पापा का उसे आईएएस बनाने का ख्वाब उसे खासा बोरिंग लगता। गांव के तालाब में कंकड़िया फेंकते हुए उसे इतना सुख मिलता कि उसे लगता जिन्दगी में इससे बड़ा कोई सुख ही नहीं। लड़की उसे हर बार नया निशाना बताती और उसकी कंकड़ी ठीक उसी जगह जा पहुंचती। लड़की खुश होकर नाचने लगती फिर अगले ही पल उसकी आंखें भर आतीं। लड़का पूछता, क्या हुआ? लड़की कहती, कुछ नहीं। वो फिर पूछता। लड़की का रोना बढ़ता जाता। वो उसे चुप करता रहता। और लड़की रोती जाती। सूरज डूबने को होता और लड़की आंसूं पोंछती घर की और भाग जाती। वो अकेले ही तालाब के किनारे बैठ जाता और सूरज का डूबना फिर चांद का उगना देखता रहता। वो यह कभी नहीं समझ पाया कि लड़की आखिर क्यों रो पड़ती है। हर प्रेम कहानी की तरह ये भी एक सामान्य प्रेम कहानी थी जिसमे लड़के को जाना पड़ा। पापा को और टालना मुश्किल था। उसे शहर जाकर लायक आदमी बनना था। इश्क काफी नहीं जिन्दगी के लिए। सोचते हुए उसने भीगी पलकों की गठरी में सारे ख्वाब बांधे और निकाल पड़ा। उसने लड़की को वादा किया वो जल्दी लौटेगा और उसे हमेशा के लिए ले जाएगा। तीन बरस लड़का लायक आदमी बनने में लगा रहा। लौटा तो उसने जिन्दगी के उसी आले को ढूंढा जिसमे उसने अपना इश्क रखा था। वो अपने पंजो से उचक-उचक कर जिन्दगी के सारे खानों को तलाशता फिरता लेकिन उसका ही इश्क अब उसकी पहुंच से बहुत दूर हो गया। बहुत दूर। अब वो अकेले ही तालाबों के किनारों घूमता, खेतों में वही दिन, वही खुशबू ढूंढता। ना जाने कितने बरस बीत गए। वो लायक आदमी अब किसी का पति है किसी का पिता और किसी का बेटा। उसकी आंखें अक्सर नाम रहती हैं। जिन्दगी ने उसके साथ बेईमानी की। अपने ही इश्क तक उसके हाथ क्यों नहीं पहुंचने दिए। वो धरती के ना जाने किस कोने में अब सांस लेती होगी। लड़के की आंखें भीग जाती तो उसकी पत्नी पूछती क्या हुआ? लड़का कहता आंख में तिनका चला गया शायद। जिन्दगी का तिनका। वो नहीं कह पाता।
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Old 27-08-2012, 05:22 AM   #25
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बेगाने की शादी और अब्दुल्ला की दीवानगी

पंकज मिश्रा

पता नहीं अब्दुल्ला कौन था और वह बेगाना कौन था जिसकी शादी पर वह दीवाना सा घूम रहा था। यह किस युग की बात है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन पिछले तीन चार दिन से अब्दुल्ला टाइप कुछ शख्स मेरे मोहल्ले में दिख रहे हैं। दरअसल हुआ कुछ यूं है कि मेरे घर से कुछ दूरी पर रहने वाले एक शक्तिशाली युवक की भैंस पिछली गली में रहने वाले एक युवक ने खोल ली थी। मोहल्ला दंग और हतप्रभ रह गया। किसी ने कल्पना नहीं की थी कि ऐसी कोई घटना हो जाएगी। लेकिन हो गई। खास बात यह रही कि जिसने भैंस खोली थी दूर-दूर तक उसकी ख्याति थी। कई लोगों से उसके अच्छे संबंध थे। बड़ी बात यह कि भैंस खोल लो और किसी को पता भी न चले यह विद्या उसे उसी ने सिखाई थी जिसकी भैंस इस बार खोली गई है। अब चेला ही गुरु को मात दे यह कोई भला कैसे बर्दाश्त करेगा। तो साहब इनको भी नहीं हुआ। उसी दिन कसम खाई कि बदला लेकर रहूंगा चाहे जितना वक्त लग जाए। भैंस का मालिक बदल गया लेकिन बदला लेने की भावना बाकी रही। भैंस खोलने वाला तो भैंस खोलने के बाद भाग छूटा लेकिन पीड़ित उसकी तलाश करता रहा। कई बेकसूरों को भी उसने अपनी शक्ति का शिकार बना डाला लेकिन आरोपी नहीं मिला। इस बीच कई लोगों को शक हुआ कि अब्दुल्ला का पड़ोसी कहीं आरोपी को शरण तो नहीं दे रहा है। उसका घर भी पीड़ित से काफी दूर है इसलिए शक और गहरा गया। लेकिन पड़ोसी डंके की चोट पर कह रहा था कि उन्होंने किसी आरोपी को शरण नहीं दी है। हालांकि अब्दुल्ला कई बार यह कह चुका था कि हमारे पास सबूत तो नहीं हैं लेकिन लगता यह है कि इसी अपराध का आरोपी नहीं बल्कि उसके यहां जो बकरियां चोरी हुईं थी उसके आरोपी भी यहीं रह रहे हैं। अब्दुल्ला के घर की खूबसूरत बगिया के एक पेड़ पर भी पड़ोसी ने कब्जा कर लिया था लेकिन अब्दुल्ला ने कुछ नहीं कहा और न ही किया। अब्दुल्ला अक्सर उस भैंस चोरी के पीड़ित से जरूर कहता था कि वह उसके पड़ोसी पर नकेल कसे। उसके इरादे ठीक नहीं लग रहे। अब भला उसे क्या पड़ी कि वह तुम्हारी बकरियां और मेमनों के लिए किस से पंगा ले। घटना में उस समय बड़ा परिवर्तन आया जब पीड़ित को पता चला कि भैंस चोरी का आरोपी अब्दुल्ला के पड़ोस में ही रह रहा है। फिर क्या था आव देखा न ताव। खबर पक्की कर उसने नौकरों से कह दिया कि चढ़ाई कर दो अब्दुल्ला के पड़ोसी पर। लेकिन पड़ोसी को न तो खबर हो और न ही कोई नुकसान। बस हो गया काम। भैंस चोरी के आरोपी वहीं मिल गए और पकड़ लिया। जब अब्दुल्ला को पता चला कि पीड़िรพत ने उसके पड़ोस में छापा मार कर अपनी भैंस चुराने वालों से बदला ले लिया तब से वह नाच रहा है। वह कहता फिर रहा है कि हम कहते थे न कि भैंस चोरी के आरोपी यहीं रहते हैं। वह पटाखे छुड़ा रहा है, जश्न मना रहा है। उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। जबकि हकीकत यह है कि भैंस चोरी के आरोपी ने कभी अब्दुल्ला को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया। अब अब्दुल्ला कह रहा है कि हमारे यहां चोरी करने के आरोपी भी यहीं रहते हैं उन्हें भी पकड़ो लेकिन किसी को क्या पड़ी। अब बताइए भला। इस पूरे घटनाक्रम से अब्दुल्ला को क्या मिला। क्यों खुशी से पगलाया जा रहा है वह। मुझे तो समझ नहीं आ रहा। पता नहीं अब्दुल्ला कब अपने बकरियों और मेमनों को चोरी करने के आरोपी पड़ोसी पर हमला करता है। करता भी है या नहीं।
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Old 30-08-2012, 02:06 PM   #26
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पुरानी पीढ़ी से ज्यादा योग्य आज की पीढ़ी

मनोज कुमार

आमतौर पर हर पीढ़ी अपनी बाद वाली पीढ़ी से लगभग नाखुश रहती है। उसे लगता है कि उन्होंने जो किया वह श्रेष्ठ है। बाद की पीढ़ी का भविष्य न केवल चौपट है बल्कि इस पीढ़ी ने अपने से बड़ों का सम्मान करना भी भूल गयी है। यह शिकायत और चिंता बेमानी सी है। गुजर चुकी पीढ़ी के बारे में कुछ कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि उनके साथ जीवन का अनुभव जुड़ा हुआ है किन्तु आज की युवा पीढ़ी के बारे में मैं यह कह सकता हूं कि उनके बारे में की जा रही चिंता और शिकायत दोनों गैरवाजिब हैं। इस बात का अहसास मुझे किसी क्लास रूम में पढ़ाते वक्त नहीं हुआ और न किसी सेमीनार में बोलते समय। इस बात का अहसास मुझे भोपाल की सड़कों पर चलने वाली खूबसूरत बसों में सफर करते समय हुआ। दूसरे मुसाफिर की तरह मैं बस में चढ़ा। भीड़ बेकाबू थी। बैठना तो दूर,खड़े होने के लिए भी जगह पाना मुहाल हो रहा था। सोचा थोड़ी देर में मंजिल तक पहुंच जाएंगे। इतने में एक नौजवान खड़ा होकर पूरी विनम्रता के साथ अपनी सीट पर मुझे बैठने का आमंत्रण देने लगा। मेरे ना कहने के बाद भी वह मुझे अपनी जगह पर बिठाकर ही माना। सोचा कि उसे आसपास उतरना होगा लेकिन उसकी मंजिल बहुत दूर थी। यह मेरा पहला अनुभव था किन्तु आखिरी नहीं। थोड़े दिनों बाद एक बार फिर ऐसा ही वाकया मेरे साथ हुआ। मैं हैरान था कि जिस युवा पीढ़ी से हमारी पीढ़ी शिकायत और चिंता से परे देख नहीं पा रही थी वह युवा पीढ़ी कितनी विनम्र है। न केवल उसे सम्मान देना आता है बल्कि वह स्वयं तकलीफ झेलकर भी सम्मान देने के भाव से भरा हुआ है। इस वाकये ने मुझे कई तरह से सोचने के लिये विवश कर दिया। मुझे लगने लगा कि मेरी पीढ़ी की शिकायत वाजिब नहीं है। यह ठीक है कि युवाओं का कुछ प्रतिशत उदंड है और अनुशासनहीन। ऐसे मुठ्ठी भर युवाओं के लिए समूचे युवावर्ग को शिकायतों के कटघरे में खड़ा करना उचित तो कतई नहीं है। मैं जो अनुभव आप से साझा कर रहा हूं उसके पीछे मंशा यही है कि युवाओं की विन्रमता, सहजता और उनके भीतर के आदरभाव को समाज के समक्ष रखा जाए। जो युवा दिग्भ्रिमित हैं, शायद उनसे कुछ सीख लें और इससे भी आगे यह कि हम केवल शिकायतों का पिटारा नहीं खोलें बल्कि उनकी पीठ थपथपाकर उनका हौसला भी बढ़ायें। ऐसा करके हम सकारात्मक माहौल बना सकेंगे ताकि युवाओं में बदलाव देख सकें। सकारात्मक बदलाव। हमारी पीढ़ी अपनी बाद की पीढ़ी के लिये चिंतित भी है। मुझे ऐसा लगता है कि यह चिंता भी फिजूल की है। हम अपने समय में साठ प्रतिशत पा लेने पर गर्व करते थे। आज का युवा 98 प्रतिशत पा जाने के बाद भी संतुष्ट नहीं है। हमारी पीढ़ी अपनी नाकामयाबी को छिपाने के लिए रास्ता ढूंढ़ सकती है कि उन दिनों हमारे पास विकल्प नहीं था आज तो अनेक किस्म के आप्शन हैं। बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है पूरी तरह से नहीं। हमारी पीढ़ी अपनी पूर्व की पीढ़ी से होशियार थी। वे स्कूली शिक्षा के बाद रूक जाते थे और हम ग्रेज्युट होते थे और आज की पीढ़ी हमसे कहीं आगे है। जो बेअदबी की शिकायत है वह कहीं न कहीं युवा पीढ़ी से नहीं है बल्कि स्वयं से है क्योंकि बदलते समय के साथ हम स्वयं को बदलने में पिछड़ गऐ हैं। लब्बोलुआब यह कि हर पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से ज्यादा योग्य हुई है। शिक्षा में भी और सभ्यता में। उनके पास दृष्टि है और आत्मविश्वास भी। जरूरत है युवा वर्ग को हौसला देने की।
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हमें भी इंसानों की पंक्ति में जगह दो

नीलिमा

पिछले साल जिम जाकर हुलिया और सेहत सुधारने का भूत सर पर सवार हुआ। वजन में इजाफा मुझे नाकाबिले बर्दाश्त था। मैं सोचती उम्र बढ़ रही है शरीर ढल रहा है। स्टेमिना कम हो रहा है। शायद जिम कोई लाभ पहुंचाए। मुझे लगता था एक लंबी उम्र परिवार के लिए दौड़-दौड़कर खपा दी। सीढ़ियां चढ़ने में हांफना,वर्क लोड से सांसों का तेज हो जाना,शरीर में भारीपन महसूस होना। अब कुछ समय खुद को और अपने स्वास्थ्य को भी दूं। जिम जाकर पता चला मैं बहुत पतली और स्वस्थ थी। वहां पतली होने आई कई महिलाएं अपने 80,100 और 120 किलो के शरीर से युद्ध कर रही थीं। मोनिका, मोना, अनीता। कोई विवाहित, कोई अविवाहित। ट्रेडमिल पर,साइकिल पर पसीने से लथपथ। बिना नाश्ता किए घर का काम निपटाकर, पति और बच्चों को भेज कर दो से ढाई घंटे शरीर से कड़ी मेहनत करवाने वाली उन स्त्रियों से जब बातचीत होती स्त्री समाज की नियति पर क्रोध आता। अनीता की उम्र 22 साल है और वजन 80 किलो। गालों पर फुंसिया और वह कमाती नहीं। उसके पापा बेटी की बदसूरती और नाकाबिलियत से परेशान होकर रात को सोते तक नहीं। एक दिन बोली कि मैंने नर्सरी टीचर का एग्जाम दिया है अगर उसमें मेरा नाम नहीं आया तो मैं सुसाइड कर लूंगी। वह बोली पापा कहते रहते हैं कि तू पतली तो हो सकती है। इतना तो मेरे पर उपकार कर ही दे। मैं कहां से हो जाऊं पतली। सब करके देख लिया। जब वह मुझे अपनी बिखरी कहानियां सुना रही होती मैं सोच रही होती ये कोई उपन्यास या कहानी से उड़कर आई घटनाएं हैं। इनकी जिंदगियों में कोई रोशनी नहीं। कोई लड़ाई का भाव भी नहीं। मोनिका से साइकिल चलाते हुए अक्सर बात होती। वह पढ़ी लिखी पिता की लाडली बेटी है। उसके पिता और उसने 34 लड़के रिजेक्ट किए। उसके पिता को अपनी बेटी के मेंटल प्रोफाइल से मैच करता लड़का नहीं मिला। आखिर में पड़ोस के बचपन के साथी से शादी की। हाईली क्वालिफाइड बारीक समझ वाली मोनिका अपनी आधी अधूरी आपबीती सुनाते हुए कभी रो पड़ती तो कभी गुस्से से आंख लाल करके फदकते होंठों से कहती कि आज तो मन किया कि अपने हस्बेंड के पेट में चक्कू मार दूं। पति को बच्चे की पैदाइश के बाद मोटी हो गई पत्नी नहीं चाहिए। नौबत तलाक तक आई हुई है। पति इगोइस्टिक,मैनेजमेंट गुरू है जिसे पत्नी बच्चा जनते ही मोटी,भद्दी,गंवार लगने लगी है। उसने अपनी पत्नी को हर साल तोहफों में पतले होने की मशीनें लाकर दी हैं । 45 हजार वाला ट्रेडमिल, स्टेशनरी साइकिल, टमी ट्रेनर। वह कहता है बाकी सब तो तू छोड़ पांच साल से तू पतली तक तो हो नहीं सकी। सोनिया रोज बिना खाए 3 घंटे की कड़ी एक्सरसाइज करती है। उसने तीन महीने की पेमेंट जिम में की है। उतना समय खुद को पतला होने के लिए रखा है और साथ साथ स्कूलों में नौकरी के लिए इंटरव्यू भी दे रही है। शायद उसके बाद वह पति को छोड़ने या न छोड़ने के बारे में कोई फैसला ले पाएगी। ऐसी और भी कहानियां हैं जो दुख देती हैं । सोनिया की तरह चक्कू मार देने जितना गुस्सा पैदा करती हैं पर कहीं कुछ नहीं बदलता। न प्यार से न ही क्रोध से। अंत में मेरे हाथ प्रार्थना में खुद -ब-खुद उठ जाते हैं । हे भगवान, हमें खुद को समझने और खुद के लिए जीने का मौका दो। हमें हमारे हिस्से की खाद दो, हवा दो,पानी दो। हमें भी इंसानों की पंक्ति में जगह दो। आमीन..।
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Old 01-09-2012, 04:30 PM   #28
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हॉस्टल यानी एलिस इन वंडरलैंड

सुजाता

अच्छी लड़की। सीधा कॉलेज। कॉलेज से सीधा घर। आंखे हमेशा नीची। लम्बी बांह के कुर्ते और करीने से ढंकता दुपट्टा। पढ़ने में होशियार। शाम को कभी घर से बाहर नही निकली। यहां कैम्पस में सारी शिक्षा,सारी संरचनाएं ढह गई। छत, आंगन और सड़कें एकाकार हो गयीं। आजादी का पहला अहसास। हॉस्टल के कमरे में पहली बार वोदका को लिम्का में मिलाकर पिया और घंटों मदहोश रही। कैम्पस में ढलती शाम को सड़क के दोनो किनारे फुटपाथ के किनारे बनी मुंडेरी पर दो-दो छायाएं दिखाई पड़ जातीं। मुख पर एक स्मित रेखा खिंच आती। हॉस्टल की जिन्दगी। परम्परावादी घरों से निकली हुई लड़की के लिए एक एडवेंचर एलिस इन वंडलैंड जैसा। कोई देख नही रहा। देखता भी हो तो मेरी बला से। बहुत चाहा था कि हमें भी हॉस्टल भेज दिया जाए। मां-पिताजी ने इनकार कर दिया। हॉस्टल में लड़कियां बिगड़ जाती हैं। जरूरत भी क्या है हॉस्टल में रहने की घर से कॉलेज एक घण्टा ही तो दूर है। और कैसे कह देते कि बिगड़ना ही तो चाहते हैं हम भी। या हिम्मत नही हुई पूछ लें कि बिगड़ना क्या होता है? तीखी प्रतिक्रिया के बाद खुद पर से ही विश्वास डगमगा गया और माता पिता का तो जरूर डगमगाया ही होगा। यह सोच कर कि जाने क्यों अच्छी भली लड़की ऐसा कह रही है। किसने सिखा-पढ़ा दिया। बहुत सालों तक युनिवर्सिटी आते जाते देखती रही इठलाती लड़कियों को जो पीजी विमेंस में आकर ठहरती थीं । वे अपने कपड़े खुद खरीदने जातीं। तमाम प्रलोभन सामने होने पर भी वे परीक्षाओं के दिनों में जम कर पढ़ाई करती थीं। शहर के किसी कोने मे अकेले आना-जाना जानती थीं। इधर हम फूहड़ता ही हद थे। मां के साथ ही हमेशा कपड़े जूते खरीदे । उन्हीं के साथ फिल्में देखीं। कॉलेज हमेशा एल.स्पेशल से गये । कॉलेज भी एल.स्पेशल ही था। कोने मे पड़ा एक ऊंची ठुड्डी वाला कॉलेज जिसमें पढ़कर हमने टॉप किया पर दुनियादारी में सबसे नीचे रह गए। उस वक्त हम यह भी सुना करते थे कि हॉस्टल मेें पढ़ी लड़की की शादी में अड़चन आती है। भावी ससुराल वाले समझते हैं कि जरूर तेज होगी वर्ना इतनी दूर आकर हॉस्टल में ंकैसे रह पाती? शादी के बाद सबको नाच नचा देगी। वह यही चाहते हैं कि लड़कियां दबें,झुकें,मिट जाएं। मै सोचती हूं कि बिगड़ना लड़की के लिए कितना जरूरी है और तेज तर्रार होना भी। आत्मनिर्भरता की जो शिक्षा हॉस्टल में रहते मिल जाती है वह झुकने और मिटने-दबने नही देती। माहौल थोड़ा बदला है शायद घर की घुटन और हॉस्टल की आजादी में अंतर कम हो गया है । पर अब भी बाहर से आयी लड़कियां यहां जिन्दगी के कड़े पाठ सीख रही हैं । उनसी आत्मनिर्भरता हममें अब है यह देख ईर्ष्या होती है। घर से दूर अनजान शहर में अकेले रहना और आना-जाना जो विवेक पैदा करता है वह सीधे कॉलेज और कॉलेज से सीधे घर वाली लड़कियां शायद ही वक्त रहते सीख पाती हैं । दस साल पहले के मुकाबले आज दिल्ली जैसे शहर का वातावरण कहीं अधिक उन्मुक्त है लेकिन इस उन्मुक्ति के आकाश में क्या वह आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान सच में दमक पाया है जिसकी मुझे हरदम उम्मीद है? साथ ही इस स्वतंत्रता में समझ और सोच भी शामिल है इसका मुझे कुछ सन्देह है। जो बन्धी थीं वे अब भी बन्धी हैं। रोज के समाचार उन्हें और डराते हैं। जो सचेत हुई हैं वे अब भी बहुत कम हैं। लड़की न जाने इस वंडरलैंड में कब तक भटकती रहेगी और अपनी पहचान खोज पाएगी।
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ये दिल्ली और वो दिल्ली

शालू यादव

जब दिल्ली के बारे में अपने विचार कागज पर उतारने का मौका मिला तो यमुना किनारे जाने से खुुद को रोक नहीं पाई क्योंकि शायद यमुना नदी ही सबसे बड़ी गवाह है दिल्ली में तेजी से हुए बदलाव की। कहने को तो मैं असली दिल्लीवाली हूं क्योंकि मेरा जन्म और परवरिश यहीं हुई लेकिन जिस दिल्ली में मैंने बचपन गुजारा वो आज की दिल्ली से बहुत अलग है। मुझे याद है जब मैं पांच साल की थी तब इसी दिल्ली में मेरे दादा-दादी के पास खेत और गाय-भैंसें हुआ करती थीं। शहर का जो इलाका आज रोहिणी नाम से जाना जाता है वो एक समय जंगल हुआ करता था। वहीं हमारे खेत थे जो बाद में सरकार ने जबरन खरीद लिए थे। याद है मुझे। मेरी मां खेत से लौटते हुए सिर पर गाय-भैंसों के लिए चारा लेकर आती थी। हमारे घेर(तबेले) में चार भैंसे और एक गाय थी। अब न तो वो घेर अपनी जगह है न वो हमारा वो देहातनुमा जीवन। हम अब रोहिणी वाले जो हो गए हैं। अजीब विडंबना है कि जिस जमीन पर कभी हमारे खेत होते थे उसी जमीन की एक टुकड़ी हमें सरकार से खरीद कर अपना आशियाना बनाना पड़ा।यहां आकर हमें दिल्ली की शहरी हवा लगी और उसके अनुरूप हमने जिंदगी को ढाल लिया। ये ब्लॉग लिखते समय मैं ये दावे से कह सकती हूं कि दिल्ली में ऐसे सैंकड़ों नौजवान होंगें जिनके जीवन ने भी मेरे जीवन जैसा ही मोड़ लिया होगा। आखिर ऐसे कितने जंगलों और खेतों में इस शहर का विस्तार हुआ है पिछले कुछ दशकों में। मेरी नजर में दिल्ली उस विशाल वृक्ष का नाम है जिसकी शाखाएं तेजी से फैल रहीं हैं लेकिन फिर भी इसकी छाया सभी पर समान नहीं पड़ती। इस पेड़ पर सपने नामक करोड़ों रंग-बिरंगे फल लटकते हैं। किसी की छलांग उन फलों को लपक लाती है तो किसी को सिर्फ उन फलों को दूर से देखकर ललचाने का ही मौका मिल पाता है। बड़ा ही विचित्र शहर है दिल्ली। यहां की सड़कें और चौड़े फ्लाईओवर दिन के उजाले में इसकी समृद्धि बयान करते हैं। तो रात को वही सड़कें और फ्लाईओवर चीख-चीख कर यहां की गरीबी का मजाक उड़ाते हैं। आज तक ये दिल्लीवाली भी इस शहर के विरोधाभासी स्वरूप को समझ नहीं पाई है। आखिर है क्या दिल्ली? ये सवाल ख़ुद से करते ही मेरे दिमाग में विभिन्न तस्वीरें उभर आती हैं। दिल्ली उस गुफ्तगू में बसती है जो डीटीसी की बसों में बैठे सरकारी बाबुओं के बीच होती है। दिल्ली उस मेट्रो ट्रेन में बसती है जिसमें अमीर और गरीब एक दूसरे से चिपक कर सफर करते हैं। दिल्ली उस नन्हे से बच्चे में बसती है जो चंद रुपए कमाने के लिए सड़क के बीच कलाबाजियां दिखाता है। दिल्ली उस मध्यम-वर्गीय इंसान में बसती है जो नोएडा, गुड़गांव या गाजियाबाद में एक घर खरीदने का सपना रखता है। दिल्ली उस बूढ़ी अम्मा में बसती है जो निजामुद्दीन दरगाह आने वालों के जूते-चप्पल संभालने के लिए तीन रुपए चार्ज करती है लेकिन आशीर्वाद मुफ्त देती है। दिल्ली उस रिक्शेवाले में बसती है जो यहां रहते-रहत यहां के तेजी से भागते संघर्ष का आदी हो गया है। वैसे दिल्ली उस मिजाज में भी बसती है जिसमें हर नियम का तोड़ किसी न किसी तरीके से निकाल ही लिया जाता है। मेरे दिमागรพ में घूम रही इन सभी तस्वीरों के बीच का आपस में एक नायाब कनेक्शन है जो कई खामियों के बावजूद भी इस शहर को सही मायनों में सपनों का शहर बनाता है।
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Old 13-09-2012, 03:17 AM   #30
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मिस्ड कॉल से ही सब हो जाएगा

विनोद वर्मा

आचार्य ने चहककर कहा - सुना तुमने, सरकार अब हर गरीब को मुफ्त मोबाइल देगी। पलटकर कृपाचार्य ने पूछा - हां, सुना लेकिन इससे क्या होगा? आचार्य ने तमककर कहा - अरे दिन फिर जाएंगे उनके। तुम तो निराशावादी हो गए हो। दोनों की बातचीत आगे चली। निराशावादी तो नहीं हुआ हूं लेकिन मतलब समझ में नहीं आया। सोचो, फोन होगा तो गरीब क्या-क्या नहीं कर सकेंगे। कृपाचार्य थोड़ी देर चुप रहे फिर कहा - बात तो सही है। वह मौसम विभाग से फोन करके पूछ सकेगा कि साहब आपने तो कहा था समय पर बारिश होगी लेकिन ये बादल कहां गए। फिर कृषि मंत्री को फोन करके पूछ सकेगा कि साहब, सूखा कब घोषित कर रहे हो? वो मनरेगा अफसर से पूछेगा कि साहब, पिछले काम का पैसा आठ महीनों से मिला नहीं कोई उम्मीद है या नहीं? फिर वो सरपंच से पूछेगा कि पिछली बार हमारी बीबी और बेटे के नाम से पता नहीं किसे काम दिया था। इस बार जो लेना देना हो पहले कर लो लेकिन दोनो को काम दे देना। राशन वाले को फोन कर कह सकेगा कि भैया दो रुपए किलो वाला चावल तीन महीनों से आया नहीं। बीडीओ दफ्तर कहता है कि हर महीने का कोटा जा रहा है। तो हम तक कब पहुंच सकेगा ये अनाज? आचार्य - कृपाचार्य की बात चल ही रही थी कि एक रुदन व्याप गया। दोनों ने देखा कि भंग हो गई टीम अन्ना के कुछ सदस्य समर्थकों से गले मिलकर रो रहे हैं। एक सदस्य ने दूसरे से कहा, सरकार कितनी षडयंत्रकारी है। पहले गरीबों को मोबाइल दिया होता तो हम उन्हें भी एसएमएस करके आंदोलन में बुलाते। किसान आते, गरीब आते तो दृश्य ही बदल जाता। अन्ना अकेले बेचारे से नहीं दिखते। ढेर सारे बेचारे हो जाते और फिर जब हम पूछते कि राजनीति करें या न करें तो करोड़ों गरीब हमें एसएमएस करके बताते कि भैया और कोई चारा तो दिख नहीं रहा है। अब ये भी आजमा लो। एक दूसरे सदस्य ने कहा-अगर ज्यादा भीड़ आती तो अन्ना कुछ दिन और अनशन कर लेते या ज्यादा मैसेज आते तो अन्ना शायद टीम को भंग भी न करते। आचार्य और कृपाचार्य एक दूसरे का मुंह ताकने लगे थे कि रामलीला मैदान की ओर से शोर शराबा सुनाई पड़ने लगा। सुना कि फर्जीवाड़ा करने के आरोप में जेल चले गए अपने सखा बालकृष्ण को शहीदों के साथ खड़ा करके बाबा रुपी रामदेव हुंकार रहे हैं। आचार्य और कृपाचार्य ने देखा कि वे इस बार भगवा ही पहने थे किसी महिला का सफेद सूट नहीं। पिछली बार चार दिन में अस्पताल पहुंचने से सबक लेकर उन्होंने तीन ही दिन का अनशन रखा था। दस सीढ़ियां चढ़कर मंच पर हांफ रहे योग गुरू गरीबों को मोबाइल देने की सरकार की घोषणा से ही हकबकाए हुए हैं। वे कह रहे थे अगर आप सरकार से काला धन वापस मंगवाना चाहते हो तो हमें मिस्ड कॉल लगाओ। कृपाचार्य ने कहा - पिछले साल जून में इसकी एक कॉल सरकार के मोबाइल पर मिस्ड कॉल रह गई थी। इस साल टीम अन्ना की कॉल मिस्ड कॉल रह गई तो इन्होंने ख़ुद मिस्ड कॉल को फॉर्मूला बना लिया है। हमारे एक मित्र ने आचार्य और कृपाचार्य के संवाद के बीच में कहा-यह देश मिस्ड कॉल के ही काल में रह रहा है। अर्थव्यवस्था से लेकर राजनीति तक सब मिस्ड कॉल से चल रही है। अब बाबा मिस्ड कॉल की अपेक्षा कर रहे हैं तो आपत्ति क्यों? एक बार गरीबों को फोन मिल जाने दीजिए फिर देखिएगा, हर पांच साल बाद चुनाव आयोग भी कहेगा-अपना मत डालने के लिए फलां-फलां नंबर पर मिस्ड कॉल डालिए। चुनाव परिणाम आपके मोबाइल पर मिस्ड कॉल से बताए जाएंगे।
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