08-09-2013, 05:24 PM | #1 |
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सांझ
किताब पुछे पन्नों से इतना क्यों फ़डफ़डा रहे हो? औकाद क्या तुम्हारी, कागज के पुतलों? पन्ने तिलमिलाये, बोले - हमारी औकाद से होना बेहतर वाकिफ़ सिमटे है हम एक जगह, तो है तेरी ये मस्ती, जो बिखर गये हम तो मिटेगी तेरी हस्ती. पन्ने छेडने लगे वाक्यों को - हमे काला करके रोशन हो रहे हो? छांव है हमारा इसलिये बसा है गांव तुम्हारा. वाक्यों ने जवाब दिया - कोरी है सुरत सिरत तेरी, खाली खाली आस्मां तेरा नही सजते हम तुझपे तो तय था जहां से उठना तेरा वाक्य शब्दों को छलने लगा अकेले गुमसुम रेहते हो पर इकठठा कितना इतराते तुम? मेहरबानी है मेरी नही तो अधुरे के अधुरे रेहते तुम शब्द मुस्कराये, बोले - हम अकेले रेहते तो बोल भी नही पाते तुम इकठठा रेहते है हम तब सांस लेते हो तुम शब्दों ने उकसाया अक्षरों को चिंटी का भी कद नही तुम्हारा, है रेत का खेत तेरा बेमतलब जिंदगी तेरी, अनाथ जन्म तेरा अक्षरों ने शब्दों को याद दिलाया जन्में हो तुम मेरी ही कोख से, पले बडे मेरी ही दुलार से तुम्हारे तराने गाये जाते है हमारे ही फ़साने से अक्षर जवाब मांगे ज्ञान से मर मिटते है हम पर नाम हमेशा तेरा होता उधार का युं यश लेना क्या तुम्हे शोभा देता? ज्ञान अपनी समधी छोडके बोला शब्द न देता तुम्हे तो बांझ रेह्ती कोख तेरी सवेरा न करता तुझमें तो सांझ ही सांझ थी सारी |
08-09-2013, 05:35 PM | #2 | |
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Re: सांझ
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08-09-2013, 06:18 PM | #3 |
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Re: सांझ
शब्दों का सुन्दर घालमेल
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
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