26-11-2012, 12:56 AM | #11 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
मैं इसको पलायन के रूप में नहीं लेता। मैं इसको इस रूप में लेता हूं कि आजादी के बाद अगर गांधी जैसा चाहते थे, वैसी व्यवस्था नहीं बनी तो वह उस व्यवस्था से संघर्ष करने का भी मन बना रहे थे। गांधी कोई बात निरर्थक नहीं कहा करते थे और उसका एक और प्रमाण मैं आपको देना चाहता हूं कि आज जिस तरह की राजनीति चल रही है, आज माने 10-20-30-40-50 वर्षों में जो देखा और खासतौर से जब से यह गठबंधन का सिलसिला शुरू हुआ। गठबंधन कुछ नहीं है, समझौता है और समझौता सत्ता का गठबंधन है। इसलिए मैं यह कहा करता हूं कि गठबंधन हमारी च्वाइस नहीं है। ऐसा नहीं है कि हम गठबंधन चाहते हैं, गठबंधन हमारी व्यवस्था है। या तो जाने यह देश किधर जा रहा है, या मजबूरी में जिसको अंग्रेजी में कहते हैं द चूज लेसन ...., तो किसी तरह का समान विचार, कहने को जितने समान विचार हो सकते हैं, तो समझौता कर लो। लेकिन एक चीज और भी होती है गठबंधन न भी हो, अकेले भी कोई सरकार बनाए तो निहित स्वार्थ तो सब जगह आ जाते हैं। अशोक गहलोत जी भी झेल रहे हैं यहां, सरकार तो चलानी ही है।
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26-11-2012, 12:57 AM | #12 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
गांधीजी ने लिखा आजादी से 10 साल पहले हरिजन में 7 अगस्त 1937 को और लगता है जैसे आज लिख रहे हैं, बात 1937 की है। 72-73 साल पहले की है और लग रहा है, आजकल लिख रहे हैं। थोड़ी देर के लिए आप तारीख भूल जाएं तो मैं पढ़कर सुनाता हूं-विभिन्न हितों की संतुष्टि के लिए मंत्रियों के पद बढ़ाना निश्चित रूप से गलत होगा। यदि मैं प्रधानमंत्री होऊं और मुझे इस तरह के दावों से परेशान किया जाए तो मैं अपने निर्वाचनों से कह दूं कि वे मेरे स्थान पर दूसरा नेता चुन लें। इस तरह के पद तटस्थ भाव से धारण किए जाने चाहिए। ऐसा न हो कि आप उनसे चिपक जाएं। यह गांधी लिख रहे हैं और 1937 में लिख रहे हैं। यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण होगा यदि स्वार्थी और पद भ्रष्ट कट्टर समर्थकों को इस बात की छूट मिल जाए कि वे प्रधानमंत्री के ऊपर स्वयं को थोपकर राष्टñ की प्रगति को अवरुद्ध कर सकें। कोई प्रधानमंत्री एक क्षण के लिए भी अपनी पसंद की स्त्री या पुरुष को पार्टी के ऊपर नहीं थोप सकता।
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26-11-2012, 12:57 AM | #13 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
पत्रकारिता आज भ्रम-विभ्रम की गंगोत्री
राजनीति से जुड़ा हुआ एक काम पत्रकारिता का भी है। आज मैं अगर कोई बात कहूं तो मैं जिस पार्टी से जुड़ा हूं उस नाते मुझे गलत समझा जायेगा कि मैं पत्रकारिता की आलोचना कर रहा हूं। लेकिन पत्रकारिता की एक भूमिका है और आज तो सबसे ज्यादा है। आज तो पत्रकारिता भ्रम-विभ्रम की गंगोत्री है। अभी खबर आएगी कुछ ऐसी, जिसका कुछ सिर-पैर नहीं होगा और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को बड़ी सुविधा है। प्रिन्ट मीडिया तो लिखकर फंस जाता है क्योंकि उसका लिखा हुआ मौजूद रहता है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने तो अभी कहा और दो घंटे बाद कहा अभी-अभी यह समाचार मिला है कि ऐसा हो गया, तो फिर तो उनकी सफाई आ गई, लेकिन प्रिन्ट वाले फंस जाते हैं।
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26-11-2012, 12:57 AM | #14 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
बहरहाल पत्रकारिता का जहां तक प्रश्न है, मुझे लगता है कि अब समय आ गया है जब इसके बारे में भी ठीक से सोचा जाए और जो बात कही जाए, वह बात इस तरह की जो सिर्फ तथ्य और सत्य से संबन्धित हो। पत्रकारिता का एक सामाजिक दायित्व भी है समाज को सुधारना या समाज को बदलना जहां और लोग करते हैं वहां यह चौथा स्तंभ भी करता है और इसलिए उस दायित्व का निर्वाह भी करना चाहिए। आपका एक-एक शब्द, आपका एक-एक समाचार बहुत सारी अच्छी और बुरी घटनाओं को जन्म देता है। लेकिन अब एक दिक्कत दूसरी है, मैं इसके लिए पत्रकारों को ही दोष देता हूं जैसे राजनीति और शासन में व्यवस्था का दोष है, अब पत्रकारिता में भी यह दोष है। अब मालिक संपादक होता है। अब उसे योग्य संपादक नहीं चाहिए। मालिक का नाम जाएगा प्रधान संपादक में, जिसके संपादकीय ज्ञान में पूरा-पूरा संदेह है। दूसरा, सभी जो माध्यम हैं, वह कारपोरेट के कब्जे में जा रहा है। अब संघर्ष दोहरा है। क्या करेंगे आप? पर राजनीति भी पूंजी से प्रभावित हो रही है, पत्रकारिता भी पूंजी से प्रभावित हो रही है, प्रकाशन भी पूंजी से प्रभावित हो रहा है, लेखक और पत्रकार क्या करेगा? मैं समझता हूं ऐसी गोष्ठियों के सामने सबसे बड़ा सवाल और चर्चा का सबसे बड़ा विषय यह होना चाहिए। खैर, अभी कुछ न कहकर फिर से मैं गांधीजी पर आता हूं, क्योंकि गांधी को मैं एक मानदंड मानता हूं। हर देश के कुछ मानदंड होते हैं और भारत के लिए, भारतीय जीवन के लिए मैं नहीं समझता कि गांधी से बड़ा मानदंड कुछ हो सकता है, क्योंकि गांधी की जो परम्परा है, उस परंपरा को मैं पीछे की विचार श्रेणियों से जोड़ता हूं और उसमें मैं अपनी बात कहकर समाहार करूंगा, वरना यह विषय फिर बढ़ता ही जाएगा।
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26-11-2012, 12:58 AM | #15 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
गांधीजी अपने को स्वयं पत्रकार मानते थे। उन्होंने एक जगह लिखा, यह लिखा हरिजन में 27 अप्रेल 1947 को आजादी से थोड़ा पहले-प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जा सकता है, उसके शक्तिशाली होने में कोई संदेह नहीं है। उस समय भी और आज भी पत्रकारिता के हाथ में बहुत कुछ है। तभी मैंने कहा कि आप गलत दिशा में भी ले जा सकते हो, सही दिशा में भी ले जा सकते हो। यह मार्ग तो पत्रकारिता का है। उन्होंने कहा, प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जा सकता है, उसके शक्तिशाली होने में कोई संदेह नहीं है, लेकिन उस शक्ति का दुरुपयोग करना एक अपराध है। मैं स्वयं एक पत्रकार हूं और अपने साथी पत्रकारों से अपील करता हूं कि वे अपने उत्तरदायित्व को समझें और अपना काम करते समय केवल इस विचार को प्रश्रय दें कि सच्चाई को सामने लाना है और उसी का पक्ष लें। मैं नहीं समझता हूं कि पत्रकारिता के लिये इससे बड़ा संदेश कुछ हो सकता है और जो अखबारों के मालिक हैं, या इलेक्ट्रोनिक मीडिया के स्वामी हैं, उनको भी एक विनम्र सलाह है और वह भी मैं गांधीजी के शब्दों में देना चाहता हूं और यह अभी नहीं, 1930 की आत्मकथा में, जिसका जिक्र अशोक जी आप कर रहे थे, और आत्मकथा के 352 पेज पर एक कोट लिखा हुआ है-समाचार पत्र सेवा भाव से चलाए जाने चाहिए। समाचार पत्र में बड़ी शक्ति है और यह कितने व्यापक ढंग से लिखा है इसको देखिये आप-समाचार पत्र सेवा भाव से चलाए जाने चाहिए।
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26-11-2012, 12:58 AM | #16 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
समाचार पत्र में बड़ी शक्ति है, पर जैसे निरंकुंश पानी का बहाव गांव के गांव बहा देता है, और फसल बरबाद कर देता है, वैसे ही लेखनी का निरंकुश प्रवाह विनाश करता है और यह अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से ज्यादा जहरीला साबित होता है। जब आप दबाव में लिखते हैं तो अधिक विनाशकारी होता है। उनके कहने का मतलब दबाव किन चीजों का है। दबाव अलग अलग देश की अलग अलग परिस्थितियों के हिसाब से कहीं राज सत्ता का दबाव हो सकता है, कहीं पूंजी का दबाव हो सकता है, कहीं लोभ का दबाव हो सकता है, दबाव जो भी हो। यह अंकुश बाहर से आता है जो वह निरंकुशता से ज्यादा जहरीला होता है, भीतर का अंकुंश ही लाभदायक हो सकता है। इसलिये मुझसे कोई नीति की बात करे कि हमारी क्या पॉलिसी होनी चाहिये राजनीतिक दृष्टि से या सामाजिक दृष्टि से, तो मैं यही कहूंगा कि अब समय आ गया है कि पत्रकार जगत, पत्रकारिता के जगत जिसके मालिक और पत्रकार दोनों शामिल हैं। यह अपने लिए आचरण संहिता बनाएं और उसके अनुसार चलें तो शायद समाज को कोई रास्ता मिलेगा।
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26-11-2012, 12:59 AM | #17 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
सद्भाव की बात
अब तीसरी बात आती है जिसको मैं समाप्त करना चाहूंगा सद्भाव की बात है। देखिये अब सद्भाव कुल मिलाकर मानव मूल्यों की एक सतत प्रवाहमान धारा है और उससे ही यह सारी चीजें पैदा होती हैं। लेकिन एक बात आज जरूर देखेंगे कि आप अपना शुरू से इतिहास उठाकर देख लीजिये, वैसे तो दुनिया के इतिहास में भी है, इस समाज में, मानव जीवन के इतिहास में यह दो परम्पराएं समानांतर चली हैं। क्षुद्र परंपरा और महान परंपरा। यह क्षुद्र महान परंपरा का अंतर ठीक उस तरीके से है जो अंतर धर्म और संप्रदाय में है।
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26-11-2012, 12:59 AM | #18 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
मैं देखता हूं पुराने वैदिक काल में पहले जो तीन वेद हैं, उनके बाद अथर्ववेद तक आते हैं और अथर्ववेद के किसी भी सूत्र में आते हैं तो आज के हमारे पर्यावरण की सारी नीतियां बासी लगती हैं। अब उस स्थान पर जाऊंगा तो फिर लंबा हो जाएगा। मैंने कहा न यह विषय ऐसे हैं हरि अनंत, हरिकथा अनंता। मैं वहां नहीं जा रहा। मध्यकाल से जहां जिसके आस-पास से, जहां से साहित्य खास तौर से हिन्दी का साहित्य और भारतीय भाषाओं का साहित्य आरंभ होता है, मैं इसमें हजारी प्रसाद जी की बात से पूरी तरह सहमत हूं, जिसमें उन्होंने कहा कि 14वीं और 15वीं शताब्दियां राजनीतिक रूप से फलेंगी, भारत के लिए पराजय की शताब्दियां रही हों, लेकिन आत्मिक रूप से वह पराजय की शताब्दियां नहीं थीं और उसके बाद में सारी भारतीय भाषाओं की तरफ आप देखें तो जितना उत्कृष्ट साहित्य उस समय लिखा गया है, उतना शायद उसके बाद भी नहीं लिखा गया, ऐसा मुझे लगता है। इसलिए मैं मध्य काल से शुरू करता हूं।
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26-11-2012, 12:59 AM | #19 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
मध्य काल में अकबर भी पैदा होता है और उसी परिवार में औरंगजेब भी पैदा होता है। कारण क्या है? अकबर को पढ़ाया था शेख अहमद ने और औरंगजेब को पढ़ाया था शेख सेफुद्दीन ने, जो शेख अहमद के पोते थे। दोनों बदले गुरु बदला तो चेला भी बदल गया। आजकल के गुरु समाज को कितना गुमराह कर रहे हैं, आप जानते हैं। यह गांधी के हृदय परिवर्तन की बात है, उस पर भी मैं विश्वास करता हूं। इसका प्रमाण है मेरे पास कि अगर औरंगजेब को शेख सेफुद्दीन ने नहीं पढ़ाया होता तो औरंगजेब, औरंगजेब नहीं बनता, क्योंकि मूल रूप से इतना कट्टर वह नहीं रहा होगा।
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26-11-2012, 01:00 AM | #20 |
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Re: राजनीति केवल खलनायक नहीं
भक्ति साहित्य में बाबरी मस्जिद कहीं नहीं
आपको मालूम है उसने तीन नये आम पैदा किये थे, उनकी कलमें बनाई थीं औरंगजेब ने, बहुत कम लोगों को मालूम होगा और उनके नाम रखे थे। एक का नाम रखा था नवरंग बिहारी, एक का नाम था सुधाफल और एक का नाम था रसना विलास। यह नाम औरंगजेब ने रखे थे। मैं कह रहा हूं कि मैं बहुत पहले नहीं जा रहा, मैं बाबरनामा से बहुत सारी चीजें कह सकता हूं, जो बहुत सारा आजकल का दुष्प्रचार है, उससे वह अलग जाता है। लेकिन फिर भी बार-बार पुरानी बात याद आ रही है तो एक बात कह ही देता हूं। मैंने पूरा भक्ति साहित्य पढ़ा, जितना मैं पढ़ सकता था और यहां बहुत सारे विद्वान हैं, मेरा ज्ञान बढ़ा दें अगर किसी को मिला हो। एक-दो साल नहीं पढ़ा, 25-30 साल वह पढ़ने-लिखने वाला काम भी करता रहा हूं। मुझे कहीं उल्लेख नहीं मिला किसी भक्ति साहित्य में बाबरी मस्जिद का। कहीं बाबर वगैरह के खिलाफ भी कुछ नहीं मिला मुझे, एक शब्द भी नहीं मिला।
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