27-06-2013, 10:47 PM | #91 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241 |
Re: इधर-उधर से
तुम अपनी करनी कर गुज़रो |
27-06-2013, 10:49 PM | #92 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241 |
Re: इधर-उधर से
सच्ची तपस्या
संकलन: रेनू सैनी मृत्यु के बाद साधु और डाकू साथ-साथ यमराज के दरबार में पहुंचे। यमराज ने कहा, 'मैं आप दोनों के मुंह से ही सुनना चाहता हूं कि आपने अपने जीवन में क्या-क्या किया। पर झूठ न बोलना। यहां असत्य बोलने पर तुम्हारे बचाव की कोई गुंजाइश नहीं है।' यमराज की बात सुनकर डाकू डर गया और बोला, 'महाराज, मैंने जीवन-भर पाप किए हैं। हां, मुझे याद आता है कि एक बार मैंने एक निर्धन को खाना खिलाया था और एक बार एक वृद्धा जख्मी हालत में बुरी तरह तड़प रही थी, तब मैंने उसकी मरहम-पट्टी करवाई थी।' डाकू की बात सुनकर साधु प्रसन्न होकर बोला, 'महाराज, मैंने तो जीवन भर तपस्या और भक्ति की। अपार कष्ट सहे तब कहीं जाकर मुझे ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसलिए मेरे लिए यहां सभी सुख-साधनों का प्रबंध किया जाए।' यमराज डाकू से बोले, 'देखो, तुम्हारा जीवन पापमय रहा है। हालांकि तुमने कुछ पुण्य भी किए ही हैं, इसलिए दंड के रूप में तुम साधु की पूर्ण समर्पण भाव से सेवा करो।' डाकू ने सिर झुकाकर आज्ञा स्वीकार कर ली। यमराज का आदेश सुनकर साधु नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोला, 'महाराज, इस दुष्ट के स्पर्श से तो मैं अपवित्र हो जाऊंगा। क्या मेरी भक्ति का पुण्य निरर्थक नहीं हो जाएगा?' यह सुनकर यमराज क्रोधित होकर बोले, 'यह डाकू अपनी गलती का अहसास कर इतना विनम्र हो गया है कि तुम्हारी सेवा करने को तैयार है और एक तुम हो कि जीवन भर की तपस्या व भक्ति के बाद भी अहंकारग्रस्त ही रहे और यह न जान सके कि सभी व्यक्ति में एक ही आत्म-तत्व समाया हुआ है। यदि व्यक्ति गलती का अहसास कर नेक रास्ते पर चलने लगे तो उसका मार्गदर्शन करना एक साधु का कर्त्तव्य है । किंतु तुम तो मृत्यु के बाद भी गर्व से भरे हुए हो, इसलिए तुम्हारी तपस्या और भक्ति निरर्थक है। तपस्या और भक्ति तभी सार्थक होती है जब वह नि:स्वार्थ और बिना किसी उद्देश्य के की जाती है।' |
27-06-2013, 10:50 PM | #93 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241 |
Re: इधर-उधर से
परोपकार की भावना
लेखक: रेनू सैनी गंगा के तट परएक आश्रम था, जिसमें दूर-दूर से छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे। गुरु प्रत्येक शिष्य को स्नेह के साथ ज्ञान का पाठ पढ़ाते थे। उन्होंने प्रत्येक शिष्य से व्यक्तिगत स्तर पर एक रिश्ता बना रखा था। वह उनके सुख-दुख के हर प्रसंग में गहरी रुचि लेते थे। शिष्य भी अपने गुरु से बहुत प्यार करते थे। वे उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे। एक दिन कुछ शिष्यों को शरारत सूझी। वे गुरु के पास आए और बोले, 'गुरुदेव! हम गांव में एक चिकित्सालय खोलना चाहते है। हम सभी उसके लिए चंदा इकट्ठा कर रहे है। कृपया आप भी कुछ योगदान करें।' गुरु ने शिष्यों की बात ध्यान से सुनी। फिर शिष्यों की ओर देखा। थोड़ा मुस्कराए और भीतर कुटिया में गए। कुछ ही पलों में लौटकर आए और शिष्यों से बोले, 'मैं तुम्हारी अधिक सहायता तो नहीं कर सकता, हां दक्षिणा में एक बार सोने के कुछ सिक्के मिले थे, जिन्हें आज तक किसी नेक काम के लिए संभालकर रखा था। ये तुम लोग ले लो।' शिष्य वे सिक्के लेकर चले गए। दूसरे दिन सभी शिष्य आश्रम में एकत्रित हुए। जिन शिष्यों ने गुरु से सिक्के लिए थे, वे भी आए। बातों ही बातों में गुरु से सिक्के लेने की बात सामने आई और यह राज खुला कि कुछ शिष्यों ने मजाक में ऐसा किया है। कुछ वरिष्ठ शिष्यों को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने गुरु को बता दिया कि कुछ शरारती शिष्यों ने उनसे झूठ बोलकर सिक्के लिए हैं। इस पर गुरु ने पहले तो ठहाका लगाया फिर बोले, 'मुझे कल ही पता चल गया था कि वे झूठ बोल रहे है। परंतु उनकी परोपकार की भावना का सम्मान तो करना ही था। उनकी इस भावना का सम्मान करने के लिए ही मैंने उन्हें सिक्के दिए थे। विचार झूठा ही सही, उनमें परोपकार की भावना तो थी ही।' गुरु की बात सुनकर शरारती शिष्यों ने गुरु के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी। |
27-06-2013, 10:53 PM | #94 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241 |
Re: इधर-उधर से
एक चित्र के बहाने
लेखक: निर्मल जैन यह उन दिनों कीबात है, जब प्रख्यात कलाकार माइकल एंजेलो की पूरे यूरोप में चर्चा हो रही थी। उसकी लोकप्रियता देख कर एक चित्रकार उससे ईर्ष्या करता था। सोचता था, लोग मेरा गुणगान क्यों नहीं करते? क्या मैं खराब चित्रकार हूं? क्यों न मैं एक ऐसा चित्र बनाऊं, जिसे देख कर लोग माइकल एंजेलो को भूल जाएं और मैं ही उनकी जुबान पर चढ़ जाऊं। उसने एक स्त्री का चित्र बनाना शुरू किया। जब चित्र पूरा हो गया तो उसकी सुंदरता का परीक्षण करने चित्र को दूर से देखने लगा। उसमें उसे कुछ कमी लगी। लेकिन कमी क्या थी, समझ में नहीं आई। संयोग से उसी समय माइकल एंजेलो उस तरफ से जा रहा था। उसकी नजर चित्र पर पड़ी। उसे चित्र बहुत सुंदर लगा। पर उसे उसकी कमी समझ में आ गई। उसने उस चित्रकार से कहा, 'भाई, तुम्हारा चित्र तो बहुत सुंदर है। पर इसमें जो कमी रह गई है वो आंखों में खटक रही है।' चित्रकार ने माइकल एंजेलो को कभी देखा नहीं था। उसने सोचा, यह कोई कला कला प्रेमी होगा। चित्रकार ने एंजेलो से कहा, 'कमी तो मुझे भी लग रही है।' एंजेलो ने कहा, 'क्या आप अपनी कूची देंगे? मैं कोशिश करता हूं।' कूची मिलते ही एंजेलो ने चित्र में बनी दोनों आंखों में काली बिंदियां बना दीं। बिंदियों का लगना था कि चित्र सजीव हो बोलता नजर आने लगा। चित्रकार ने एंजेलो से कहा, 'धन्य है! तुमने सोने में सुगंध का काम कर दिया। मेरे चित्र की शोभा बढ़ाने वाले तुम हो कौन? क्या नाम है ?' एंजेलो ने कहा, 'मेरा नाम माइकल एंजेलो है।' चित्रकार के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वह बोला, 'भाई, क्षमा करें। आपकी उन्नति देख मैं जलता था। आपको हराने के लिए ही मैंने यह चित्र बनाया था। लेकिन आज आपकी कला-प्रवीणता और सज्जनता देख कर मैं शर्मिंदा अनुभव कर रहा हूं।' माइकल एंजेलो ने उसे अपना दोस्त बना लिया। |
02-07-2013, 01:21 PM | #95 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241 |
Re: इधर-उधर से
बापू का गुस्सा
लेखक: मुकेश शर्मा उन दिनों गांधीजीचंपारण में थे। एक सुबह वह अपनी कुटिया के बाहर बैठकर चरखा कात रहे थे। उनके सामने दो बच्चे खेलते-खेलते एकाएक लड़ने लगे। वे दोनों इतने उत्तेजित हो गए कि एक-दूसरे को भद्दी-भद्दी गालियां देने लगे। उन छोटे बच्चों के मुंह से गालियां सुनकर गांधीजी को बेहद अफसोस हुआ। उन्होंने आसपास के लोगों से उन दोनों के मां-बाप के बारे में पता किया। फिर उन्होंने एक दिन उनके मां-पिता को बुला भेजा। वे लोग यह जानकर आश्चर्यचकित भी हुए और खुश भी कि उन्हें बापू ने बुलाया है। वे गांधीजी के पास पहुंचे। उन्होंने उन्हें प्रणाम किया। गांधीजी ने उन्हें डांटना शुरू कर दिया। बच्चों के मां-बाप घबराए। वे सिर झुकाए, खामोशी से सब कुछ सुनते रहे। लेकिन एक बच्चे के पिता से रहा नहीं गया। उसने पूछा- बापू क्षमा करें। हम समझ नहीं पा रहे कि हमसे क्या गलती हो गई है? गांधीजी ने स्थिति स्पष्ट की- सुनो। तुम लोगों के बच्चे यहां खेल रहे थे। अचानक उनमें झगड़ा हो गया और वे एक-दूसरे को गाली देने लगे। इस पर उस व्यक्ति ने कहा- लेकिन इसके लिए आपने हमें क्यों बुलाया? आप उन्हें बुलाकर डांट देते। आपको उन्हें डांटने का पूरा अधिकार है। गांधीजी बोले- देखो। मैं उन्हें डांट सकता था। पर तब न जब वे दोषी होते। ये गालियां उन्होंने तुम लोगों से ही सीखी होंगी। या कहीं और किसी से भी सीखी हो तो तुम लोगों ने उन्हें सुधारने की कोशिश नहीं की। इसलिए दोषी तुम लोग हुए। डांट तुम्हें पड़नी चाहिए। यह सुनकर बच्चों के अभिभावकों ने सिर झुका लिया। |
02-07-2013, 01:22 PM | #96 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241 |
Re: इधर-उधर से
सच्ची निष्ठा
विश्वबंधु शवर आखेट की खोज में भटकता हुआ नीलपर्वत की एक गुफा में जा पहुंचा। वहां भगवान नीलमाधव की मूर्ति के दर्शन पाते ही शवर के हृदय में भक्ति भावना का स्रोत उमड़ पड़ा। वह हिंसा छोड़ करभगवान नील माधव की रात दिन पूजा करने लगा। उन्हीं दिनों मालवराज इंद्र प्रद्युम्न किसी अपरिचित तीर्थमें मंदिर बनवाना चाहते थे। उन्होंने स्थान की खोज केलिए अपने मंत्री विद्यापति को भेजा। विद्यापति ने वापसजाकर राजा के नील पर्वत पर विश्वबंधु शवर द्वारा पूजितभगवान नील माधव की मूर्ति की सूचना दी। राजा तुरंतमंदिर बनवाने के लिए चल दिया। विद्यापति राजा इंदप्रद्युम्न को उस गुफा के पास लाया , किंतु आश्चर्य। मूर्तिवहां नहीं थी। राजा ने क्रोधित होकर कहा, 'विद्यापति ! तुमने व्यर्थ ही कष्ट दिया है। यहां तो मूर्ति नहीं है। ' विद्यापति ने कहा ,'महाराज मैंने अपनी आंखों से इसी गुफा में भगवान नीलमाधव की मूर्ति देखी है। अवश्य ही कोई ऐसी बात हुई है, जिस से भगवान की मूर्ति अंतर्धान हो गई है। राजन ! आते समय आप क्या सोचते आए हैं ?'राजा इंद प्रद्युम्न ने बताया, 'मैं केवल इतना ही सोचता आया हूं कि अपने स्पर्श से भगवान की मूर्ति को अपवित्र करने वाले शवरको भगा दूंगा और कोई अच्छा पुजारी नियुक्त कर दूंगा। फिर मंदिर बनवाने का आयोजन करूंगा। ' विद्यापति ने बड़ी नम्रता से कहा, 'आपकी इसी मंद भावना के कारण भगवान रुष्ट हो कर चले गए हैं। समदर्शी भगवान जात पात नहीं हृदय की सच्ची निष्ठा ही देखते हैं। ' राजा ने अपनी भूल सुधारी। भगवान से क्षमा मांगी, उनकी स्तुति की और उसी स्थान पर जाकर जगन्नाथ जी के प्रसिद्ध मंदिर की स्थापना कराई। ** |
02-07-2013, 02:41 PM | #97 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241 |
Re: इधर-उधर से
मैं ने चाहा तो बस इतना |
02-07-2013, 04:03 PM | #98 |
Junior Member
Join Date: Jul 2013
Posts: 1
Rep Power: 0 |
Re: इधर-उधर से
deleted as spam
Last edited by dipu; 03-07-2013 at 02:45 PM. |
02-07-2013, 10:37 PM | #99 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241 |
Re: इधर-उधर से
Last edited by dipu; 03-07-2013 at 02:45 PM. |
03-07-2013, 12:01 PM | #100 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241 |
Re: इधर-उधर से
भाग्य और पुरुषार्थ
भाग्य और पुरुषार्थ एक ही सिक्के के दो पहलू है. कुछ व्यक्ति भाग्य के भरोसे रहते है अर्थात वह अपने पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं करते. कुछ लोग पुरुषार्थ पर ही विश्वास करते हैं, भाग्य के भरोसे नहीं रहते. भाग्यवादी दर्शन के कारण कितने भविष्यवक्ता अपना भाग्य बना रहे है. भविष्यवक्ताओं से भ्रमित होकर कई भाग्यवादी अपना वर्तमान और भविष्य खराब कर रहे है. कई लोग जीवन में प्राप्त हो रही असफलताओं के पीछे अपना दुर्भाग्य होना बता रहे है. वास्तव में भाग्य और पुरुषार्थ के सिद्धांतो में से कौनसा सिद्धांत सही है. किस मार्ग का अनुसरण हमारे लिए श्रेयस्कर होगा? इस विषय पर यह हमें यह विचार करना चाहिए कि आखिर भाग्य क्या है ? भाग्य भगवान् शब्द से बना है, अर्थात जो व्यक्ति भाग्य पर भरोसा करता है उसे भगवान् पर भरोसा करना चाहिए. यदि कोई व्यक्ति भगवान पर भरोसा करता है तो उसे यह बात समझनी चाहिए कि भगवान् कभी अकर्मण्य व्यक्तियों का सहयोगी नहीं हो सकता है. यद्यपि कुछ व्यक्तियों को जीवन में कुछ उपलब्धियां भाग्य के कारण हासिल हुई दिखाई देती है, परन्तु सूक्ष्मता से देखने पर ज्ञात होगा की वह उस व्यक्ति के पूर्व कर्मो का परिणाम है. भौतिक जगत में हमारी दृष्टि व्यक्ति के मात्र वर्तमान जन्म से जुड़े कर्मो को ही देख पाती है जबकि व्यक्ति तो आत्मा और देह का सम्मिश्रण है आत्मा प्रत्येक जन्म में भिन्न भिन्न देह धारण करती है देह की आयु पूर्ण होने पर व्यक्ति का भौतिक स्वरूप देह नष्ट हो जाती है. आत्मा के साथ व्यक्ति के संस्कार और कर्म रह जाते है जो व्यक्ति के भावी जन्मो में उसका भाग्य निर्धारित करते है. इसलिए पुरुषार्थ को भाग्य से भिन्न नहीं माना जा सकता है. क्षमतावान और पुरुषार्थी व्यक्ति सदा आस्तिक रहता है. अर्थात वह एक हाथ में भाग्य और दूसरे हाथ में पुरुषार्थ रख कर कर्मरत रहता है. गीता में इस सिध्दांत को कर्मयोग के रूप में संबोधित किया है. ऐसा व्यक्ति अपना कर्म पूर्ण समर्पण परिश्रम से करता है परन्तु अहंकार की भावना को परे रख कर. स्वयम की कार्य क्षमता को ईश्वरीय कृपा ही मानता है. परिणाम स्वरूप ऐसा व्यक्ति कभी भी दुर्भाग्य को दोष नहीं देता. ऐसे व्यक्ति को ही भगवान् अर्थात भाग्य की कृपा प्राप्त होने लगती है. Last edited by dipu; 03-07-2013 at 02:45 PM. |
Bookmarks |
Tags |
इधर उधर से, रजनीश मंगा, idhar udhar se, misc, potpourri, rajnish manga, yahan vahan se |
|
|