07-04-2011, 11:52 PM | #1 |
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हास्य.. व्यंग्य.. परिचर्चा
पछुआ का धुक्कड़ चल रहा है.. एक्को गो मकई में दाना नहीं धरेगा.......जो लागत लगाए उ भी डूबेगा.... काहे करें खेती... ये बात एक किसान के जवान बेटे की है जो अब खेती नहीं करना चाहता है. ज़मीन बहुत है लेकिन कहता है कि खेती से पेट नहीं भरता. उसने अपनी ज़मीनें बेचने का फ़ैसला कर लिया है और कहता है कि सारा पैसा बैंक में रखूंगा तो जो ब्याज़ मिलेगा वो भी खेती से ज्यादा है. बात वाजिब है..कौन माथापच्ची करे..ट्रैक्टर मंगाए, ज़मीन जोते, बीज बोए, खाद डाले, रातों को जग कर फसल की रखवाली करे. बारिश न हो तो बोरिंग चलवाए. फिर कटाई में मज़दूर खोजे और हिसाब करे तो पता चले कि लागत भी मुश्किल से निकल रही है. बैंक से पैसा निकालेगा, अनाज खरीदेगा, गाड़ी खरीदेगा, मॉल में जाएगा शॉपिंग करेगा और मज़े से जिएगा. मैंने पूछा कि बात तुम्हारी ठीक लेकिन अगर सारे किसानों ने यही कर दिया तो क्या होगा. जवाब मिला.... गेहूं महंगा होता है तो मिडिल क्लास बाप बाप करने लगता है. उसको सस्ता में खिलाने का हमने ठेका ले रखा है. मैंने कहा. सरकार सब्सिडी देती है. ऋण देती है तो खेती फायदे का सौदा हो सकता है. उसने कहा सब्सिडी सबसे बड़ा सरकारी धोखा है. डीजल, खाद, बीज और कीटनाशकों के बाद जो वापस मिलता है उससे लोग जहर भी नहीं खरीद सकते हैं. बचा हुआ कीटनाशक विदर्भ के किसान पी जाते हैं. वो बहुत नाराज़ था. बोला, किसान का मुंह हमेसा सुखले ही काहे रहता है. एक और बहुत बड़ा दिक्कत है कि मीडिया समझती है कि देश में किसान सिर्फ हरियाणा और पंजाब में ही रहते हैं. कभी सड़क से चंडीगढ़ जाईये... वोक्सवैगन की बहुत सारी दुकानें खुली हैं.बिहार में एक्को ठो शो रूम नहीं है. बात सोलह आने सच्ची थी. हरित क्रांति का जो लाभ पंजाब हरियाणा को हुआ वो बिहार और उत्तर प्रदेश को नहीं हुआ. वैसे आजकल पंजाब मे किसान गले तक कर्ज़े में डूबे बताए जाते हैं. लाभ क्यों नहीं हुआ कैसे नहीं हुआ वो एक अलग ही कहानी है. फिलहाल खेती की बात. मैंन पूछा तो क्या करना चाहते हो खेती छोड़कर बोलने लगा, खेती छोड़ने का विकल्प जिस दिन भी किसान को मिल जायेगा.. वो खेती छोड़ देगा... लोग खेती विकल्पहीनता की स्थिति में कर रहे हैं... विकल्प देकर पूछिए कि क्या वे खेती ही करना पसंद करेंगे. इससे पहले कि मैं कुछ और पूछता उसने कहा, मेरी पूरी बात सुनिए...बाबू जी पटना यूनीवर्सिटी से पोस्ट ग्रैजुएट थे. बड़े किसान के बेटे थे. मेरे दादा जी 1200 बीघा के जोतदार थे और बड़ी कार पर चढ़ा करते थे मैंने अपने पिता को साइकिल पर चढ़ते देखा .खेती में वे असफल रहे पर जमीन बचाकर रखी. शायद मेरे लिए. मैंने स्कूल कॉलेज के समय खेती की है लेकिन अब और नहीं. बात सोचने वाली थी. मैंने थोड़ा सोचा तो याद आया. मेरे चार मामा हैं. एक भी गांव में नहीं रहते. सब बंबई, दिल्ली रहते हैं. कोई ड्राइवर है कोई दरबान है. महीने के दो चार हज़ार मिलते हैं. आधा पेट खाते हैं आधा घर भेजते हैं. कहते हैं खेती का झंझट कौन करे. नगद है जीवन चल जाता है. बाल बच्चों को पढ़ाएंगे. खेती कर के क्या करेगा. डॉक्टर-इंजीनियर बनेगा तो बाप का नाम रोशन होगा. कोई भी किसान नहीं चाहता उसका बेटा खेती करे क्योंकि खेती में कुछ नहीं धरा है. हां आजकल बात बहुत होती है. एग्रीकल्चर फार्मिंग, सस्टेनेबल डेवलपमेंट, वगैरह वगैरह लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है. मेरे पास भी नहीं. मेरे पास भी एक सवाल ही है...अगर सभी किसानों ने खेती छोड़ दी और सब डॉक्टर इंजीनियर बन गए तो अनाज कौन उगाएगा और फिर मंहगाई के मुद्दे पर पत्रकार कागज कैसे काले करेंगे. फिर गरीब अनाज के लिए लड़ेगा कैसे. सरकार किस बात की सब्सिडी देगी, किसका ब्याज़ माफ़ करेगी और आखिरकारएक निजी सवाल - मेरा पेट कैसे भरेगा..
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08-04-2011, 09:52 AM | #3 |
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Re: काहे करें खेती....(सुशील झा )
काफी विचारोतेजक..
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08-04-2011, 10:04 AM | #4 |
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Re: काहे करें खेती....(सुशील झा )
वाह जवाब नहीं आपका कृपया इसे गती देते रहें
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08-04-2011, 05:19 PM | #6 |
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Re: काहे करें खेती....(सुशील झा )
रणवीर जी ,
एक ज्वलन्त समस्या पर विचारोत्तेजक प्रस्तुति हमारे सम्मुख लाये हैँ । एक कृषि प्रधान देश होने के बावज़ूद किसानोँ की स्थिति निरन्तर बदतर होती जा रही है । ग्रामीण अंचलोँ मेँ बड़े काश्तकार लघु कृषक मेँ , लघु कृषक सीमान्त कृषक मेँ और अन्ततोगत्वा खेतिहर मजदूर मेँ तब्दील होते जा रहे हैँ । किसी भी क्षेत्र के मुक़ाबले कृषि मेँ मुनाफा नगण्य है बल्कि यूँ कहेँ कि लागत ही निकल आये तो संतोषजनक है । दलहन , तिलहन और मोटे अनाज पर मिलने वाले सरकारी अनुदान को मलाईदार पोस्टिँग समझकर विभागीय अधिकारी चट्ट कर जाते हैँ और डकार तक नहीँ लेते । उनके खेतोँ के सुधार के लिये कार्यक्रम यथा मेड़बन्दी , समतलीकरण , समोच्च बाँध , वॉटरशेड योजनाओँ का नंगा सच तो यह है कि 85 से 90 फीसदी की बंदरबाँट हो जाती है और रही डीजल की बात तो उसका उपभोग तो धनाढ्य वर्ग अपनी कारोँ मेँ खुलेआम कर रहा है मगर सरकारेँ चिल्लाती हैँ कि किसानोँ के हित मेँ सब्सिडी जारी रहेगी । विकल्पहीनता की स्थिति मेँ भी कुछ लोगोँ ने शहरोँ का पलायन शुरु किया परन्तु वे मजदूर से ज़्यादा अपनी पहचान न बना पाये । गत वर्षोँ मेँ वोट बैँक की राजनीति के तहत महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कार्यक्रम यानि नरेगा मेँ भोले भाले मजदूर / किसानोँ को छः माह तक सौ रुपये की नित् अफीम चटाने की व्यवस्था कर दी । विकल्पहीनता और किँकर्तव्यविमूढ़ता उसे उन्हीँ खेतोँ से जोड़े है । प्रति व्यक्ति आय भले ही बढ़ी है पर हमारा किसान अधोगति की ही ओर अग्रसर है । एक सरकारी बाबू तो सपने देखता है पर हमारा अन्नदाता किसान उपेक्षित , सर्वहारा सपनोँ की परिभाषा भी नहीँ जानता । अपने धूल धूसरित जीवन को खेतोँ मेँ ही रोपता रह जाता है । अगर हम अभी भी नहीँ चेते , अगर हमने अभी भी उनके कल्याण के लिये समग्र रूप से नहीँ सोचा तो उनका तो पता नहीँ परन्तु हम तथाकथित भलेमानुषोँ का अस्तित्व ही संकट से घिर जायेगा । इस यक्ष प्रश्न का जबाब ढूँढ़ना ही पड़ेगा ।
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दूसरोँ को ख़ुशी देकर अपने लिये ख़ुशी खरीद लो । |
08-04-2011, 05:38 PM | #7 |
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Re: काहे करें खेती....(सुशील झा )
मेरा गांव शहर में रहता है और मेरा शहर ......माफ़ कीजिएगा मेरा नहीं. शहर तो शहर है वो हम सबके दिमाग में रहता है.
गांव अब जीता नहीं. इंतज़ार करता है उनका जो शहर चले गए हैं और साथ ले गए हैं गांव का लड़कपन, उसका बांकपन, उसकी मिट्टी, उसके सपने और उसका दीवानापन. फागुन में अब गांव में फाग नहीं गाए जाते बल्कि होली वाले दिन लाउडस्पीकर पर शहर के गुड्डू रंगीला और चंदू चमकीला अपनी भौंडी आवाज़ में छींटाकशी वाले गाने गाते हैं. साथ में होती है मदिरा और पैंट बुश्शर्ट वाले नौजवान जो भांग नहीं बल्कि बोतल से शराब पीते हैं. बरसात में बूढ़े दालान पर बैठकर अपनी बूढ़ी बीवियों और जवान बहुओं को गरियाते हैं या फिर अपने छोटे छोट पोते पोतियों की नाक से निकलता पोटा पोंछते हुए कहते हैं कि छोटा ही रह. उन्हें डर है कि पोता भी बड़ा होते ही शहर हो जाएगा. जवान औरतें अब मेला नहीं जाती हैं बल्कि मोबाइल फोन पर अपने शहर में रह रहे पतियों या किसी और से गप्प लड़ाती हैं.घर से बाहर निकलती हैं और बूढ़ों की भाषा में लेफ्ट राइट करती हैं. शहर कभी कभी गांव आता है. होली दीवाली में. दो चार दिन रहता है. अपने कोलगेट से मांजे गए दांतों से ईख चबाने की कोशिश में दांत तुड़ाता है और फिर ईख को गरियाते हुए गांव को रौंद कर निकल जाता है. फिर गांव इंतज़ार करता रहता है कि कब शहर आएगा और भैंस को दाना खिलाएगा. हल या ट्रैक्टर से खेत जोतेगा और बीज बोएगा. कब अपनी भीनी आवाज़ में गीत गाते हुए फसल काटेगा और कब चांदनी रात में कटी फसल पर अपनी बीवी के पसीने में लथपथ होगा. ऐसा होता नहीं है. शहर अब फ़िल्मी गाने गाता है. ट्रैक्टर चलाने की बजाय ट्रैक्टर के पीछे हेलमेट लगा कर बैठता है. बुलडोज़र और गारा मशीन की आवाज़ों के बीच मशीन हो जाता है. दिन रात ठेकेदार की गालियां सुनता है. शाम को अपनी दिहाड़ी लेकर कमरे पर लौटता है और दो रोटियां सेंककर सो जाता है कल फिर मुंह अंधेरे उठ कर काम के इंतजा़र में. सब कहते हैं गांव बदल गया है. हां गांव बिल्कुल बदल गया है. अब गांव भी शहर की तरह भूतिया हो गया है जहां सिर्फ़ औरतें और बूढ़े दिखते हैं. खेत खलिहान सूखे और पानी की किल्लत दिखती है. लोकगीतों की बजाय फ़िल्मी गाने सुनाई पड़ते हैं और लोग कहते हैं अपने काम से काम रखो.
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10-04-2011, 10:39 AM | #8 |
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Re: काहे करें खेती....(सुशील झा )
रणवीर भाई आपने दिल कि व्यथा को शब्दों में पिरो दिया हैं
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
21-04-2011, 10:45 PM | #9 |
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Re: हास्य.. व्यंग्य.. परिचर्चा
काश, हमारा ऑफिस आज गांव में होता…
तो हम आज सुबह उठते, छोटे से ट्रांजिस्टर पर आकाशवाणी से समाचार सुनते कि मुम्बई में पेट्रोल नहीं मिलने से लोगों को भारी दिक्कत हो रही है, और आश्चर्य करते कि पेट्रोल की इतनी क्या जरूरत है। फिर नाश्ता करके घर से निकलते और खरामा- खरामा टहलते हुए ऑफिस पहुंच जाते जो कि घर से दस कदम की दूरी पर होता। रास्ते में साइकिल से शहर जाते स्कूल के गुरु जी से दुआ- सलाम भी कर लेते। ऑफिस जाकर कुर्सी- टेबल बाहर निकालते और नीम पेड़ के नीचे, गुनगुनी धूप में काम करने बैठ जाते। पास की गुमटी से चूल्हे में लकड़ी जला कर बनाई गई दस पैसे की अदरकवाली चाय भी आ जाती। चाय आती तो साथी भी आ जाते, अखबार भी ले आते। फिर अखबार में छपी दुनिया भर की खबरों पर चर्चा की जाती, सुबह सुने समाचार को “ब्रेकिंग न्यूज” की तरह पेश किया जाता और मुम्बई के लोगों की हंसी उड़ाई जाती कि बेचारे बिना पेट्रोल के ऑफिस नहीं जा पा रहे हैं। फिर चर्चा की जाती कि मुम्बई के लोगों को ऎसी मुसीबत से बचने के लिए क्या करना चाहिए। आधे लोग आश्चर्य करते कि मुम्बई वाले चीन की तरह साइकिल पर क्यों नहीं चलते, बाकी आधे आश्चर्य करते कि पेट्रोल नहीं है तो छुट्टी क्यों नहीं ले लेते मुम्बई वाले, ऑफिस जाने की क्या जरूरत है? और फिर सब दोपहर का खाना खा कर एक झपकी लेने अपने- अपने घर चले जाते… लेकिन ऑफिस तो हमारा है मुम्बई में.. इसलिए तेल कर्मचारियों की हड़ताल का असर झेल रहे हैं, भीड़ से खचाखच भरी लोकल ट्रेनों और बसों में सफर कर ऑफिस पहुंच रहे हैं और बंद ऑफिस में बिना एसी के बैठे यह चिंता कर रहे हैं कि हड़ताल खत्म नहीं हुई तो शाम तक बसें भी बंद हो जाएंगी फिर घर कैसे जाएंगे, 20-22 किलोमीटर दूर घर है- पैदल चल कर कैसे जाएंगे, रसोई गैस भी नहीं मिली तो खाना कैसे पकेगा, शहर में खाने –पीने के सामान की किल्लत हो जाएगी… काश, हमारा ऑफिस आज गांव में होता…
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21-04-2011, 10:48 PM | #10 |
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Re: हास्य.. व्यंग्य.. परिचर्चा
‘होली’ शब्द कान में पड़ते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है और अतीत की उनींदी यादों के कपाट-दर-कपाट उघड़ने लगते हैं। गांवों में एक-दो नहीं, पूरे पांच दिनों तक अबीर-गुलाल में रंगे दिन, मौज-मस्ती में सने दिन होते हैं, जिनकी तैयारी पूरे एक माह पूर्व से होना शुरू होती थी।
माघ पूर्णिमा के दिन होली का डांडा (खम्ब) गाड़ दिया जाता था, डांडा गड़ते ही चौपाल पर डाक-डफली के साथ शिव-पार्वती का ब्याह, औघढ़ धाणी की बारात के गीतों के स्वर वातावरण को आनन्दित कर देने वाले होते थे। वहीं, दूसरी ओर युवाओं-किशोरों के जत्थे के जत्थे लकड़ी चोरी में भिड़ जाते थे। गांवों में लकड़ी-कण्डे की क्या कमी! पर भी लकड़ी चुराना भी एक परम्परा के तहत होता था! ‘होली’ आनन्द और उल्लास के साथ-साथ सांस्कृतिक परम्परा और अध्यात्म को भी पोषित करती है। महिलाएं पूजन करतीं, ‘पूरण पोळई’ का भोग लगातीं एवं गोबर के बनाए आभूषण चढ़ाती थीं। होलिका दहन के मुहूर्त पर पूरा गांव एकत्रित होता था, मंत्रोच्चार के साथ होलिका में अग्नि प्रज्वलित होती और बड़ी-बड़ी लपटों से घिरी होलिका की परिक्रमा करते-करते होली की ‘बोम’ शुरू हो जाती थी। भोर होते ही गोबर-मिट्टी की होली होती थी। गांव में धूल के गुबार उठते थे। इसीलिए आज के दिन को ‘धुलेंडी’ भी कहते हैं। सांझ के पहले ही मंदिर में रंग-गुलाल के साथ ही ठंडाई-भांग का भी रंग जमता था। पांच दिनों तक फगुआरों की टोलियां गाती-बजाती रंग में सराबोर रहतीं। रंग-पंचमी के दिन सामूहिक रूप से मंदिर में या चौपाल पर सभी लोग एकत्रित हो पलाश के रंग व गुलाल से होली खेलते थे और बड़े-बुजुर्गों को शीश झुकाकर प्रणाम करते थे। जात-पात, अमीर-गरीब के दायरे से ऊपर उठकर, अगला साल अच्छा आए, सबसे मंगल आशीष मांगते थे। किन्तु अब सब बदल गया है! अब तो गांवों में भी होलियां अलग-अलग जलने लगी हैं। गांववासी भी पलाश के केशरिया रंग को भूलकर ‘कलर पेस्ट’ से फाग खेलने लगे हैं। आज राजनीति का ग्रहण –‘होली’ पर्व पर भी लग गया है। टी.वी. संस्कृति ने गांव की भोली-भाली संस्कृति व परम्पराओं को निगल लिया है। पारम्परिक फाग की ओर से लोगों का रुझान खत्म होता जाता रहा है। लोकगीतों और लोकनृत्यों की जगह अश्लील कानफोडू गाने व भद्दे नृत्य होली की पहचान बनते जा रहे हैं। अब नवयुवकों को लगता है, लोकगीतों और लोकनृत्यों से जुड़े रहना पिछड़ापन है। अत: शहरी बनने की होड़ में वे एक अपसंस्कृति को पोषित कर रहे हैं।
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