11-12-2012, 11:57 PM | #11 | |
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Re: ग़ज़ल: और दुनियां में कुछ कमी न हुई
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प्रिय डॉ. राकेश श्रीवास्तव जी, गज़ल पढने और प्रतिक्रिया भेजने के लिये धन्यवाद. आपने बड़ा माकूल सवाल पूछा है. आपको बताना चाहूँगा कि मेरी एक पिछली गज़ल “कई रोज़ मेरी जानिब देखा न यार ने“ जो कि मैंने दिनांक १०/११/१०१२ को ‘महफ़िल’ फोल्डर के अन्तर्गत अपलोड की गयी थी. उसके साथ यह स्पष्ट कर दिया था कि रजनीश मंगा ‘शरर’ नजीबाबादी बकलम खुद यानि मैं खुद हूँ. अब से लगभग ३०-३५ बरस पहले जो गज़लें मैंने लिखीं उनमें शरर नजीबाबादी तखल्लुस लगाया करता था. वैसे मेरे प्रोफाइल में भी मेरे नजीबाबाद प्रवास का अंदाजा हो जाएगा. दरअस्ल, अपने नजीबाबाद प्रवास (१९६२ से १९७१) के दौरान ही मैंने कविता लिखना शुरू कर दिया था. मेरी पहली प्रकाशित कविता पं. जवाहर लाल नेहरु के सम्बन्ध में थी जो उनके स्वर्गवास (२७ मई,१९६४) के एक साल बाद छपी थी. तो इस प्रकार मैं आपकी दुआ से लगभग पिछले ५० बरस से शब्दों से अपने मोह को कविताओं (गज़लों एवं नज्मों सहित), कहानियों, निबन्धों आदि के ज़रिये कागज़ पर उतारता रहा हूँ और आप जैसे कदरदान कभी कभी उन पर दाद भी दे देते हैं. अब मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूँ. आप कृपया “महफ़िल” फोल्डर के पृष्ठ ३ क्रमांक ५ पर अंकित गज़ल “कई रोज़ मेरी जानिब देखा न यार ने“ के नीचे गौर करेंगे तो पायेंगे कि वह गज़ल आपने भी पढ़ी थी और उसको पसंद भी किया था (यदि थैंक्स क्लिक करने से यही तात्पर्य निकलता है तो). ताज्जुब है कि आपने गज़ल के नीचे मेरे शरर नजीबाबादी तखल्लुस के बाबत लिखी वजाहत नहीं पढ़ी. उम्मीद है आपकी शंका दूर हो गयी होगी. धन्यवाद. प्रेषक: रजनीश मंगा “शरर’ नजीबाबादी |
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12-12-2012, 02:08 PM | #12 | |
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Re: ग़ज़ल: और दुनियां में कुछ कमी न हुई
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12-12-2012, 04:12 PM | #13 | |
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Re: ग़ज़ल: और दुनियां में कुछ कमी न हुई
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प्रिय रजनीशजी को एक सलाह - उन्हें अपने हस्ताक्षर में कुछ विवरण लगा लेना चाहिए।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
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26-12-2012, 12:57 PM | #14 | |
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Re: ग़ज़ल: और दुनियां में कुछ कमी न हुई
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. ]न समझ आये यही बेहतर है ‘शरर’ हमसे क्योंकर भला नहीं न हुयी.
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
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