25-09-2011, 07:44 PM | #71 |
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Re: प्रणय रस
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला, 'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे, किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला। |
13-10-2011, 03:45 PM | #72 |
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Re: प्रणय रस
पानी पर लिखा
एक ने संदेश दूसरे ने ठीक-ठीक पढ़ा समझ लिया गढ़ा नया वाक्य नयी लिपि नयी भाषा का जैसे आविष्कार किया दौर की हवा कुल हवा से एक की साँसों की हवा को चुम्बन में चुना होंठों पर सजा लिया प्रेम में उन पर जैसे सच साबित हुए घटिया फ़िल्मों के गाने बहाने भी कितने विश्वसनीय लगे प्रेम में चुना क्या शब्द कोई एक नया वाक्य नई लिपि नई भाषा महसूस सका? पूछूँ जो कविता से- "तेरी कुड़माई हो गई?"- - "धत्*" -कहे और भाग जाये ऐसे कि लगे सिमट आई है और... और पास।
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27-11-2011, 09:44 AM | #73 |
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Re: प्रणय रस
जब तुम्हारी ही हृदय में याद हर दम,
लोचनों में जब सदा बैठे स्वयं तुम, फिर अरे क्या देव, दानव क्या, मनुज क्या? मैं जिसे पूजूं जहां भी तुम वहीं साकार ! किसलिए आऊं तुम्हारे द्वार ? क्या कहा- 'सपना वहां साकार होगा, मुक्ति औ अमरत्व पर अधिकार होगा, किन्तु मैं तो देव! अब उस लोक में हूं है जहां करती अमरता मत्यु का श्रृंगार। क्या करूं आकर तुम्हारे द्वार ? तृप्ति-घट दिखला मुझे मत दो प्रलोभन, मत डुबाओ हास में ये अश्रु के कण, क्योंकि ढल-ढल अश्रु मुझ से कह गए हैं 'प्यास मेरी जीत, मेरी तृप्ति ही है हार!' मत कहो- आओ हमारे द्वार। आज मुझमें तुम, तुम्हीं में मैं हुआ लय, अब न अपने बीच कोई भेद-संशय, क्योंकि तिल-तिलकर गला दी प्राण! मैंने थी खड़ी जो बीच अपने चाह की दीवार। व्यर्थ फिर आना तुम्हारे द्वार॥ दूर कितने भी रहो तुम पास प्रतिपल, क्योंकि मेरी साधना ने पल-निमिष चल कर दिए केन्द्रित सदा को ताप-बल से विश्व में तुम और तुम में विश्वभर का प्यार। हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार॥ gopal das niraj
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27-11-2011, 09:46 AM | #74 |
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Re: प्रणय रस
बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,
बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में, अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी, बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में, आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का। बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥ मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता, जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता, किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में, प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता, जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने, वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का। बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥ जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी, आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी, करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है, अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी, और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का। बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥ आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है, नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है, सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है, जो मुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का। बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥ gopal das niraj
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09-12-2012, 08:00 PM | #75 |
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Re: प्रणय रस
घिरे काजल मेघ मन स्वप्निल हुआ है
रेशमी एहसास ने मनो छुवा है सुखद पुरवा , वृष्टि बदरौखा उजाला ज्यों झुका चेहरा बिखरे प्रीत हाला इस सूरा से फिर खुमारी - तन हुआ है रेशमी एहसास ने मानो छुवा है रिमझिम रवगान मेघों का बरसना गंध सोंधी - सिक्त माती का परसना लगा बाँहों ने तुम्हारी छवि छुवा हो रेशमी एहसास मानों छुवा हो मेह के जल से अटारी बनी झरना सब लुटाकर प्यास ज्यों चाहे हर्षना हर्ष चाहे प्यास मन पारा हुआ है रेशमी एहसास मानो छुवा है कौंधती बिजली की जैसे याद आये विवश मन बौछार से बस भीग जाये अनमना फिर हो गया द्रग का सुवा है रेशमी एहसास मानो छुवा है | साभार :- शशि भूषण अवस्थी
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