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Old 12-07-2013, 05:16 PM   #11
VARSHNEY.009
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छान्गू झील, नाथू ला और बाबा मंदिर

अगली सुबह पता चला कि भारी बारिश और चट्टानों के खिसकने की वजह से नाथू–ला का रास्ता बंद हो गया है। मन ही मन मायूस हुए कि इतने पास आकर भी भारत–चीन सीमा को देखने से वंचित रह जाएँगे पर बारिश ने जहाँ नाथू–ला जाने में बाधा उत्पन्न कर दी थी तो वहीं ये भी सुनिश्चित कर दिया था कि हमें सिक्किम की बर्फीली वादियाँ के पहली बार दर्शन हो ही जाएँगे। इसी खुशी को मन में संजोए हुए हम छान्गू (या त्सेंग अब इसका उच्चारण मेरे वश के बाहर है, वैसे भूतिया भाषा में त्सेंग का मतलब झील का उदगम स्थल है) की ओर चल पड़े। ३७८० मीटर यानि करीब १२००० फीट की ऊँचाई पर स्थित छान्गू झील गंगतोक से मात्र ४० कि .मी .की दूरी पर है।

गंगतोक से निकलते ही हरे भरे देवदार के जंगलों ने हमारा स्वागत किया। हर बार की तरह धूप में वही निखार था। कम दूरी का एक मतलब ये भी था की रास्ते भर ज़बरदस्त चढ़ाई थी। ३० कि.मी. पार करने के बाद रास्ते के दोनों ओर बर्फ के ढेर दिखने लगे। मैदानों में रहने वाले हम जैसे लोगों के लिए बर्फ की चादर में लिपटे इन पर्वतों को इतने करीब से देख पाना अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी पर ये तो अभी शुरुआत थी। छान्गू झील के पास हमें आगे की बर्फ का मुकाबला करने के लिए घुटनों तक लंबे जूतों और दस्तानों से लैस होना पड़ा। दरअसल हमें बाबा हरभजन सिंह मंदिर तक जाना था जो कि नाथू–ला और जेलेप–ला के बीच स्थित है। ये मंदिर २३ वीं पंजाब रेजीमेंट के एक जवान की याद में बनाया है जो डयूटी के दौरान इन्हीं वादियों में गुम हो गया था। बाबा मंदिर की भी अपनी एक रोचक कहानी है जिसकी चर्चा हाल–फिलहाल में हमारे मीडिया ने भी की थी। छान्गू से १० कि .मी .दूर हम नाथू ला के इस प्रवेश द्वार की बगल से गुज़रे।

हमारे गाइड ने इशारा किया की सामने के पहाड़ के उस ओर चीन का इलाका है। मन ही मन कल्पना की कि रेड आर्मी कैसी दिखती होगी वैसे भी इसके सिवाय कोई चारा भी तो ना था। थोड़ी ही देर में हम बाबा मंदिर के पास थे। सैलानियों की ज़बरदस्त भीड़ वहाँ पहले से ही मौजूद थी। मंदिर के चारों ओर श्वेत रंग में डूबी बर्फ ही बर्फ थी। उफ्फ क्या रंग था प्रकृति का, ज़मीं पर बर्फ की दूधिया चादर और ऊपर आकाश की अदभुत नीलिमा, बस जी अपने आप को इसमें। विलीन कर देने को चाहता था। इन अनमोल लमहों को कैमरे में कैद कर बर्फ के बिलकुल करीब जा पहुँचे।

हमने घंटे भर जी भर के बर्फ पर उछल कूद मचाई। ऊँचाई तक गिरते पड़ते चढ़े और फिर फिसले। अब फिसलने से बर्फ भी पिघली। कपड़ो की कई तहों के अंदर होने की वजह से हम इस बात से अनजान बने रहे कि पिघलती बर्फ धीरे–धीरे अंदर रास्ता बना रही है। जैसे ही इस बर्फ ने कपड़ों की अंतिम तह को पार किया, हमें वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ और हम वापस अपनी गाड़ी की ओर लपके। कुछ देर तक हमारी क्या हालत रही वो आप समझ ही गए होंगे। खैर वापसी में भोजन के लिए छान्गू में पुनः रुके। भोजन में यहाँ के लोकप्रिय आहार मोमो का स्वाद चखा। भोजन कर के बाहर निकले तो देखा कि ये सुसज्जित याक अपने साथ तसवीर लेने के लिए पलकें बिछाए हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। अब हमें भी इस याक का दिल दुखाना अच्छा नहीं लगा सो खड़े हो गए गलबहियाँ कर। नतीजा आपके सामने है। अगला दिन गंगतोक में बिताया हमारा आखरी दिन था।

सिक्किम प्रवास के आखिरी दिन हमारे पास दिन के ३ बजे तक ही घूमने का वक्त था। तो सबने सोचा क्यों ना गंगतोक में ही चहलकदमी की जाए। सुबह जलपान करने के बाद सीधे जा पहुँचे फूलों की प्रदर्शनी देखने। वहाँ पता चला कि इतने छोटे से राज्य में भी ऑर्किड की ५०० से ज़्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिसमें से कई तो बेहद दुर्लभ किस्म ही हैं। इन फूलों की एक झलक हमें चकित करने के लिए काफी थी। भांति–भांति के रंग और रूप लिए इन फूलों से नज़रें हटाने को जी नहीं चाहता था। ऐसा खूबसूरत रंग संयोजन विधाता के अलावा भला कौन कर सकता है।

फूलों की दीर्घा से निकल हमने रोपवे की राह पकड़ी। ऊँचाई से दिखते गंगतोक की खूबसूरती और बढ़ गई थी। हरे भरे पहाड़ सीढ़ीनुमा खेत सर्पाकार सड़कें और उन पर चलती चौकोर पीले डिब्बों जैसी दिखती टैक्सियाँ। रोपवे से आगे बढ़े तो सिक्किम विधानसभा भी नज़र आई। रोपवे से उतरने के बाद बौद्ध स्तूप की ओर जाना था। स्तूप की चढ़ाई चढ़ते चढ़ते हम पसीने से नहा गए। इस स्तूप के चारों ओर १०८ पूजा चक्र हैं जिन्हे बौद्ध भक्त मंत्रोच्चार के साथ घुमाते हैं।

वापसी का सफ़र ३ की बजाय ४ बजे शुरू हुआ। गंगतोक से सिलीगुड़ी का सफ़र चार घंटे मे पूरा होता है। इस बार हमारा ड्राइवर बातूनी ज़्यादा था और घाघ भी। टाटा सूमो में सिक्किम में १० से ज़्यादा लोगों को बैठाने की इजाजत नहीं है पर ये जनाब १२ लोगों को उस में बैठाने पर आमादा थे। खैर हमारे सतत विरोध की वजह से ये संख्या १२ से ज़्यादा नहीं बढ़ पाई। सिक्किम में कायदा कानून चलता है और लोग बनाए गए नियमों का सम्मान करते हैं पर जैसे ही सिक्किम की सीमा खत्म होती है कायदे–कानून धरे के धरे रह जाते हैं। बंगाल आते ही ड्राइवर की खुशी देखते ही बनती थी। पहले तो सवारियों की संख्या १० से १२ की और फिर एक जगह रोक कर सूमो के ऊपर लोगों को बैठाने लगा पर इस बार सब यात्रियों ने मिलकर ऐसी झाड़ पिलाई की वो मन मार के चुप हो गया।

उत्तरी बंगाल में घुसते ही चाँद निकल आया था। पहाड़ियों के बीच से छन कर आती उसकी रोशनी तिस्ता नदी को प्रकाशमान कर रही थी। वैसे भी रात में होने वाली बारिश की वजह से चाँद हमसे लाचेन और लाचुंग दोनों जगह नज़रों से ओझल ही रहा था, जिसका मुझे बेहद मलाल था। शायद यही वजह थी कि चाँदनी रात की इस खूबसूरती को देख मन में एतबार साजिद की ये पंक्तियाँ याद आ रही थीं–
वहाँ घर में कौन है मुंतज़िर कि हो फिक्र दर सवार की
बड़ी मुख्तसर सी ये रात है, इसे चाँदनी में गुज़ार दो
कोई बात करनी है चाँद से, किसी शाखसार की ओट में
मुझे रास्ते में यहीं कहीं किसी कुंज–ए–गुल में उतार दो

चंद दिनों की मधुर स्मृतियों को लिए हमारा समूह वापस लौट रहा था कुछ अविस्मरणीय छवियों के साथ। उनमें एक छवि इस बच्चे की भी थी जिसे हमने चुन्गथांग में खेलते देखा था! सिक्किम के सफ़र का पटाक्षेप करने से पहले तहे दिल से सलाम हमारे ट्रेवेल एजेन्ट प्रधान को जिसने बंदगोभी की सब्जी खिला–खिला कर ना केवल १५,००० फीट पर भी हमारे खून में गर्मी बनाए रखी बल्कि रास्ते भर अपने हँसोड़ स्वभाव से माहौल को भी हल्का–फुल्का बनाए रखा।

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इतिहास प्रसिद्ध इस्तांबूल -पर्यटक नैसर्गिक एवं प्राकृतिक सौन्दर्य की अनुपम छटा बिखेरती सूर्यरश्मियाँ, बफार्नी पहाडियाँ, समुद्रीतट व झीलों के नयनाभिराम परिदृश्यों से पर्यटको को लुभाता, दो महाद्वीपों के आलिंगन में बंधा राष्ट्र टर्की। भारत से यूरोप जाते समय टर्की रास्ते में पडता है, बिना किसी अतिरिक्त किराये के आप इसकी राजधानी अंकारा एवं प्रसिद्ध नगर इस्तंबूल के भमण की सुखद अनुभूति कर सकते है।

बोसफोरस की संकरी जल प्रणाली दोनो महाद्वीपो के मध्य सीमारेखा के रूप मे विद्यमान है, किन्तु टर्की का अधिकांश भू भाग एशिया महाद्वीप के अन्र्तगत पडता है। बोसफोरस के एक तरफ यूरोपियन इस्तंबूल का पुराना शहर है जो पर्यटको के आर्कषण का केन्द्र है। इस्तंबूल का दूसरा भाग नया शहर है, जो पाश्चात्य तरीके का व्यवस्थित उपनगर है। बोसफोरस के ऊपर दो आकर्षक पुल हैं। फातिह सुल्तान मुहम्मद पुल तथा बोस्फोरस पुल। बोस्फोरस पुल विश्व का सबसे बडा झूले पर आधारित पुल है। बोसफोरस की यह खूबसूरत नहर पर्यटकों के लिये आकर्षण का केन्द्र है। सूर्यास्त के सुंदर चित्रों के लिये प्रसिद्ध दृश्यों वाली इस नहर पर दिन में अनेक प्रकार की नावों द्वारा नौकाविहार की व्यवस्था है किन्तु एकांत में शांत पानी को देखते रहने का सुख भी कुछ कम नहीं।


प्राकृतिक सौन्दर्य के आनंद को दुगना करने के लिये बोसफोरस के तट पर स्थित रेस्त्राओं मे हर प्रकार का भोजन मिलता है और इनकी साज सज्जा व चहल पहल देखते ही बनती है। शाकाहार के प्रेमियों के लिये थोड़ी कठिनाई ज़रूर होती है पर भूख मिटाने के लिये कुछ न कुछ मिल ही जाता है।

सूर्यास्त के समय बोसफोरस के जल पर झिलमिलाती लालिमा और दूसरे तट पर स्थित इमारतों की प्रतिछाया का मोहक दृश्य देखकर लगता है कि शताब्दी पूर्व इन्हीं दृश्यों के लिये इस
विलक्षण स्थान पर इमारते बनायी गयी होंगी।

यहाँ के ढाई हजार वर्ष पुराने स्मारक टर्की के सुदूर गौरवमयी अतीत के साक्षी देते हैं।संसार के प्रसिद्ध ऐताहासिक नगरों में इस्तंबूल की गणना होती है। समय के साथ साथ इस्तंबूल का नामकरण होता रहा, परन्तु आज भी इसे यूरोप और एशिया के संगम के रूप में जाना जाता है। विभिन्न प्राकृतिक परिदृश्यों के कारण यहाँ एक दिन में ही आप तीनों ऋतुओं का आनन्द उठा सकते हैं, जहाँ एक ओर अप्रैल की तीक्ष्ण गर्मी वहीं बैगनी पुष्पों से आच्छादित सम्पूर्ण नगर मनोहारी लगता है।

12लाख लोगो के जनसंकुल और कोलाहल ने इस शहर को चित्ताकर्षक बना दिया है। वास्तव में इस्तंबूल की मिश्रित संस्कृति, राजप्रासाद, संग्रहालय, चर्च, विशाल मस्जिद, बाजार और प्राकृतिक दृश्यों का सौन्दर्य अनन्त प्रतीत होता है। नगर के बीच स्थित विशालकाय स्टेडिायम "हिप्पोड्रोम" इस्तांबूल का एक जीवंत परिसर है। यह विशाल मनोरंजन का क्षेत्र आज घुडदौड, रथदौड, सर्कस, प्रर्दशनी एवं सभी प्रकार के मनोरंजन का केन्द्र बन गया है।

बस से जाते समय अया सोफिया का बाहरी हिस्सा बहुत आर्कषक नही लगा लेकिन अन्दर पहुँचने पर विस्मयकारी लगता है। इसकी विलक्षणता देखकर स्वमेव ही लगता है कि बाइजन्टाइन स्थापत्य कला कितनी विकसित थी। इस चर्च का 105 फुट घेरे वाले गुम्बद की गणना विश्व के सबसे बडे एवं खूबसूरत गुम्बदों में की जाती थी, जब तक रोम के सेन्ट बेसिलका का निमार्ण नही हुआ था। कानस्टेनटाइन के द्वारा बनाये गये चर्च को 1453 में ओटोमन ने मस्जिद के रूप में परिवर्तित करा दिया था। बाद में टर्की गणतन्त्र के संस्थापक अतातुर्क मुस्तफा कमाल ने इसे संग्रहालय के रूप मे प्रतिष्ठित कर दिया।

आज यह पैलेस इस्तांबूल के महत्वपूर्ण संग्रहालयों में से एक है। 700,000 वर्ग मीटर तक फैला हुआ यह वृहदाकार किला 1459 में मुहम्मद द्वितीय ने अपने रहने के लिये बनवाया था। इस किले में तीन विशाल चौक और एक हरम शामिल है। हरम बाद में 16वीं शताब्दी में बनवाया गया। 1839 तक यह भवन राजमहल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा। इसके बाद तत्कालीन बादशाह मुहम्मद मसीत ने अपने लिये बोसफोरस के किनारे नये महल का निर्माण करवाया और यह महल संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
समुद्र तट पर थोडी उँचाई पर एक बहुत बडे घेरे के अन्दर निर्मित टोपकपी पैलेस तक अया सोफिया से पहुँचने में 5 मिनट लगते हैं ,जहाँ इस्तंबूल का अत्यन्त ऐताहासिक परिदृश्य आपका स्वागत करता है। सभी ओटोमन सुल्तानों ने इसे अपनी स्थापत्य कल्पनाओं के अनुरूप अलंकृति करते रहे हैं।यहाँ पर संग्रहीत शाही वस्तुओं को देखने से टर्की के ओटोमन सुल्तानों की विलासता एवं वैभव की स्पष्ट झलक मिलती है। टर्की ऐतिहासिक इमारतों और संग्रहालयों का देश है। केवल इस्तांबूल में ही ग्यारह से अधिक संग्रहालय हैं। पुरातात्विक संग्रहालय में ग्रीस और रोमन सभ्यताओं तथा ट्राय और एफेस्स द्वारा निर्मित दुर्लभ व प्राचीन वस्तुओ का संग्रह हैं जो उनके अतीत की गरिमा का परिचय देता प्रतीत होता है।

सुल्तान अहमद स्क्वायर इस्तंबूल के ऐताहासिक,सांस्कृतिक एवं पयर््ाटकीय गतिविधियो का केन्द्र है। ओटोमन शाही वंश के दीप बुझने के बावजूद शाही राजप्रसाद आज भी अपनी गरिमा के दीप से प्रज्वालित हो रहा है। तुर्की और इस्लामिक कलाकृतियों के संग्रहालय को भी यहीं स्थापित कर दिया गया है, जहाँ विभिन्न हस्तलिपियों की पुस्तकें, एवं अन्य दुर्लभ
वस्तुओं को संग्रहित किया गया है।

अतीत के भाव मे डूबे हुए बढते कदम ‘ब्लू मास्क’ यानी नीली मस्जिद के प्रागंण पहुँच गये, जिसे इजनिक क्षेत्र से लाये गये नीले रंग के टाइल्स से सजाया गया है। यहाँ के फर्श को अदभुत मोजे.क से सजाया गया है जो दस्तकारी की अनुपम कृति प्रतीत होती है।

विदेशों से लाये गये खूबसूरत क्रिस्टल लैम्प प्रकाश के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं। इस मस्जिद की एक और विशेषता है इसके कोणो पर बनी हुयी 6 मीनारे। टर्की में ऐसी कोई अन्य मस्जिद नही है। इसके अवलोकन से प्रतीत होता है कि इसका अद्वितीय अलंकरण मानव जाति के चमत्कारों का अनूठा उदाहरण है। यदि आप अपनी प्रथम यात्रा में ही सब कुछ देख लेना चाहते है तो कुछ विशेष स्थानो को अनदेखा नही किया जा सकता। ट्रेजरी चैम्बर उनमे से एक है जहाँ शाही वंश के सिंहासन, हीरे जवाहरात के विशिष्ठ संग्रह तथा रत्न जडित अस्त्र शस्त्र एवं शाही वंश के वस्त्रो को देखकर उनके वैभव पूर्ण जीवन की कल्पना की जा सकती है। विश्व का सबसे बडा हीरा यहाँ देखा जा सकता है। इसी प्रागंण मे संचालित रेस्त्रा में सुस्वादु भोजन का आनन्द लेते हुये बोसफोरस का मनमोहक नजारा किया जा सकता है।

इस्तंबूल जाडे में अत्याधिक ठंडा एवं गर्मी में काफी गर्म रहता है। स्थानीय लोगो के अनुसार वसन्त या बरसात का मौसम अत्यन्त लुभावना रहता है। यहाँ के स्थानीय लोग सप्ताहांत मे अपनी छुट्टियाँ मनाने मारमरा समुद्री द्वीप पर जाते है जहाँ पहुचने में लगभग 45 मिनट लगते है।ग्रीनबरसा शहर के बगीचों, पार्को और हरे भरे मैदानों की निराली प्राकृतिक छटा के कारण यहां पर्यटको का जमावडा बना रहता है। यह नगर फलों और सिल्क व्यवसाय के लिए चर्चित है।

टर्की में दो प्रमुख बाज़ार हैं। खुला बाज़ार जिसे मिस्र बाजार कहते हैं और दूसरा लंबे बारामदों और गुंबदों से सुसज्जित ग्रैड बाजार। इन दोनों बाज़ारों का सौंदर्य देखने लायक है। ग्रैंड बाज़ार के लंबे बरामदों की रंगीन नक्काशीदार छतों का सौन्दर्य देखते ही बनता है और मिस्र बज़ार में मिठाइयों और मसालों की रंगीन दूकानों का आकर्षण अनुपम है। टर्की में प्रतिवर्ष लगभग तीन लाख पर्यटको का सैलाब उमडता रहता ह। यहाँ ज्यादातर पर्यटक पश्चिमी राष्ट्रों से आते क्योंकि यहाँ उनको अपनी मुद्रा की वास्तविक कीमत प्राप्त हो जाती है।

खरीद फरोख्त अपनी उच्च प्राथमिकता बनाए हुए है। शोर मचाते पर्यटकों के झुंड को मिट्टी के बर्तन, चित्रो के पोस्टकार्ड, कपडे एवं अन्य वस्तुए खरीदते देखा जा सकता है। टर्की के बने हुए कम्बल और कालीन काफी प्रसिद्ध है। सस्ते क्रिस्टल, रंगीन कांच की वस्तुएं और नीले टाइल के लिये टर्की सारी दुनियाँ में जाना जाता है।

अभी टर्की में देखने को बहुत कुछ शेष था किन्तु समय सीमा को ध्यान में रखते हुए मेरे कदम स्वमेव ही वापस मुड गये मानस पटल पर अकित टर्की की सुखद स्मृति के पल आखो के सामने नाच रहे थे।
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एक स्मृति-यात्रा महोबा होकर खजुराहो की
ग्रीष्मावकाश, ईस्वी सन् १९८०

`बारह बरस लौं कूकुर जीवे,
सोलह बरस लौं जिये सियार
अठारह बरस लौं छत्री जीवे,
आगे जीवन को धिक्कार ।`

डिंगल काव्य का यह बहुश्रुत दोहा मेरी साँसों में ऊभ-चूभ कर रहा है कानपुर से महोबा जाती बस के शोर के साथ-साथ।धुर बचपन में सुनी लोककाव्य आल्हा की अनूठी स्वर-लहरियाँ भी गूँज-अनुगूँज बन कर साँसों में व्याप रहीं हैं। महोबा जैसे-जैसे नज़दीक आ रहा है, `आल्ह-खंड' के नायक-द्वय आल्हा और ऊदल के शौर्य के प्रसंग भी जैसे साकार होते जा रहे हैं। बुंदेलखंड की भूमि अप्रतिम शौर्य की भूमि रही है। उसमें भी झाँसी और महोबा का अपना अलग ही स्थान है।

उत्सुक-उत्कंठित हूँ मैं। बस की खिड़की से मैं देख रहा हूँ धरती की उन अनगढ़ ऊँची-नीची होतीं आदिम आकृतियों को, जिनमें पग-पग पर बिछी हैं अनन्त शौर्यगाथाओं की अनगिनत स्मृतियाँ। भारत के सामूहिक अवचेतन का जो हिस्सा मुझे मिला है, उनमें ये कथाएँ भी समोई हुई हैं।

महोबा आए हुए तीन दिन हो चुके हैं। भारत में मुस्लिम शासन के तुरन्त पूर्व के इतिहास के एक खंडावशेष को अवलोकने, उसके खंडहर हो चुके अस्तित्व को परखने का जो मौका मुझे मिला है, उससे मैं अभिभूत और असंतुष्ट, दोनों हूँ। राजपूत इतिहास की ढलती हुई प्रभा का साक्षी रहा है यह नगर भी। `पृथ्वीराजरासो' के महानायक पृथ्वीराज चौहान की राज्य-लिप्सा एवं उसके शौर्य का, उससे उपजे जन-संहार का भी। दिल्ली के रायपिथौरा के खंडहरों से मैं उस उत्कट राजपूत महानायक की शौर्य-गाथा सुन चुका था। आल्हा-ऊदल की इस वीरभूमि ने उसके महानायकत्व को चुनौती दी थी। महोबा का किला तो साधारण-सा ही, किंतु उसे विशिष्टता प्रदान कर रहीं थीं मेरी कल्पना में उभरतीं कृपाण एवं कंकण-किंकिण की मिली-जुली ध्वनियाँ और शौर्य तथा सौन्दर्य की जीवंत होतीं आकृतियाँ। कभी आल्हा-ऊदल इसी भूमि पर विचरे होंगे। इन्हीं छोटी-छोटी बीहड़ पहाड़ियों में उनके घोड़ों की टापों की, उनकी युद्धोन्मुख ललकारों की, उनके शस्त्रों-शिरस्त्राणों-कवचों की झंकारों की गूँज भरी होगी। आज सब कुछ शांत है। मन विचरण कर रहा है और मैं उदास हो गया हूँ मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं के बारे में सोचकर। हमारा यह जो आज है, यह भी तो कभी अतीत हो जाएगा इसी तरह।

महोबा एक छोटा-सा शहर है। मेरे पैतृक-स्थान लखनऊ के मुकाबले में बहुत ही छोटा। छोटा-सा ही है हाट-बाज़ार, जिसका प्रमुख आकर्षण है पान की मंडी। हाँ, महोबा आज पान के उत्पादन का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है।पान का एक खेत मैं भी देख आया हूँ छोटे भाई महेन्द्र के साथ। महेन्द्र यहाँ पी०डब्ल्यू०डी० में इंजीनियर है। उसी के पास हम आये हैं, हम यानी मैं, पत्नी सरला और हमारे दोनों बच्चे, अपर्णा और राहुल। महेन्द्र की पत्नी मिलनसार, हंसमुख और स्नेहिल है, एक कुशल गृहिणी भी। उनके दो छोटी-छोटी प्यारी-सी बेटियाँ हैं- हमारे लिए यहाँ आने का एक विशेष आकर्षण। ग्रीष्मावकाश में हम सुदूर हरियाणा के हिसार शहर से पितृगृह लखनऊ हर वर्ष आते हैं। महेन्द्र और उसका परिवार अबकी बार हमसे मिलने वहाँ नहीं आ सके। इसीलिए हम आ गये। साल भर में एक बार अपने सभी आत्मीयों-प्रियजनों से मिलकर उनके स्नेह की ऊर्जा संजोने का यह सुयोग ही हमें अगले ग्रीष्मावकाश तक सक्रिय रखता है।

पिछले तीन दिनों में मैंने पूरा महोबा छान मारा है। बाज़ार तो सिर्फ एक दिन सभी के साथ गया था। पान की मंडी देखकर मैं चकित रह गया। पूरा एक महाहाट। हाँ, यहाँ का पान पूरे उत्तर भारत में जाता है। नवीं शताब्दी के चंदेल राजा राहिला द्वारा निर्मित सूर्यमंदिर अनूठा लगा। भारतभूमि पर कुछ गिने-चुने ही मंदिर हैं सूर्य के। सूर्य को एकमात्र जाग्रत देवता कहा गया है शास्त्रों में। इसीलिए संभवत: उनके प्रतिमा-विग्रह के पूजन का चलन कम ही रहा है। महोबा नगर की जल-आपू़र्ति हेतु जिन कीरत सागर, विजय सागर, मदन सागर नाम के तीन महातालों का निर्माण चंदेल-प्रतिहार राजाओं ने करवाया था, उन्हें भी देख आये हैं हम। जल-संरक्षण एवं जल-आपूर्ति की यह व्यवस्था अपने समय में यानी ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में सचमुच अनूठी-अद्भुत रही होगी। हमारे धर्मग्रन्थों में ताल-कुएँ-बावड़ी बनवाने को एक महापुण्य माना गया है। अंग्रेजी शासन में और उसके बाद इन पारंपरिक जल-संरक्षण प्रविधियों के रख-रखाव की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। इसी से पानी की भयंकर समस्या आज पैदा हो रही है। महोबा की गोरख पहाड़ी भी ऐतिहासिक है। कहते हैं नाथपंथ के बाबा गोरखनाथ ने यहाँ कुछ काल तक वास किया था और यह एक सिद्धभूमि है। आज भी यहाँ गुरू गोरखनाथ के अनुयाइयों का हर वर्ष जमावड़ा होता है।

सुबह घूमने जाने की मेरी आदत है। यहाँ भी सुबह तड़के ही निकल जाता हूँ मैं आसपास की पहाड़ियों पर चढ़ने-उतरने। धरती की उतार-चढ़ाव वाली ऊबड़-खाबड़ संरचना मुझे सदैव ही लुभाती रही है। महोबा के पहाड़ काफी टूटे-फूटे हैं। चढ़ते-उतरते तमाम छोटे-छोटे पत्थर बिखरे दीखते हैं। एक दिन एक अज़ीब बात हुई। मेरे दोनों बच्चे, महेन्द्र की बड़ी बेटी शालू भी साथ थे। अचानक मेरी नज़र एक पत्थर पर पड़ी। छोटा-सा बेडौल तिकोना पत्थर। उसके उभरे-हुए तल पर मुझे एक आकृति दिख गई थी। बच्चों को मैंने वह पत्थर दिखाया। उन्हें उसमें कुछ भी नहीं दिखा। घर पर सरला, महेन्द्र और पुष्पा को भी उसमें कुछ नहीं दिखा। मैंने शालू के कलर-बॉक्स से काला रंग लेकर उसमें छिपी आकृति को उभार दिया। अब सभी को वह दिखने लगी। बाद में मैंने उसे शीर्षक दिया- `कंकाल का वीणा-वादन'। हाँ, महोबा के कंकाल हुए इतिहास का अनन्त वीणा-वादन उसमें अंकित था। हर अतीत की गूँज ऐसी ही तो होती है। सुरीली किंतु मृत्यु की झंकृति से भरी हुई। वह पत्थर आज भी मेरे ड्राइंग रूम में टंगा इतिहास की उस यात्रा की सुखद स्मृतियों से मुझे जोड़ता रहता है। जीवन की जिज्ञासा और मृत्यु के अतीन्द्रिय रहस्य से भी।

महोबा से बीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है चरखारी, जिसे `बुदेलखंड का कश्मीर' कहा जाता है। यह एक खूबसूरत रियासत नगर है। इसे बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल ने मदनशाह और वंशियाशाह नामके दो भाईयों को उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर जागीर के रूप में दिया था। इसका प्राचीन नाम मांडवपुरी था। कहते हैं मांडव ऋषि का आश्रम यहीं पर था। इसे मिनी-वृंदावन की मान्यता भी प्राप्त है।यहाँ भगवान कृष्ण के कई मंदिर हैं, जिनमें गुमान बिहारी मंदिर और गोवर्धन मंदिर की विशेष ख्याति है। कार्तिक मास में यहाँ गोवर्धन मेला का आयोजन होता है, जिसमें आसपास के क्षेत्र से बड़ी संख्या में भक्तजन एकत्रित होते हैं। यहाँ का कालीमाता का मंदिर भी दर्शनीय है। चरखारी एक रमणीय स्थान है। रतन सागर, कोठी ताल और टोला ताल के साथ लगभग ६०३ फीट की ऊँचाई वाले इस स्थान की शोभा देखते ही बनती है। मुलिया पहाड़ी पर स्थित चरखारी का किला, जिसे मंगलगढ़ कहा जाता है, लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व बनवाया गया था। काफी ऊँचा है यह किला। इसमें प्रवेश करते ही मुझे रोमांच हो आया। इतिहास और काल के व्यतीत का आतंक मेरे मन-प्राण पर छा गया। हम कल तीसरे पहर यहाँ के पी०डब्ल्यू०डी० के रेस्टहाउस में आ गए थे। आज पूरा दिन चरखारी में बिताकर भी मन की संतुष्टि नहीं हो पाई। पर लौटना तो था ही। कल सोमवार है और महेन्द्र को ऑफिस जाना है।
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गतांक से आगे
महोबा उत्तर प्रदेश के दक्षिण सीमांत पर स्थित है। उसके ठीक दक्षिण में उससे बिल्कुल सटा हुआ है मध्य प्रदेश का छतरपुर। छतरपुर जिले में ही स्थित हैं विश्वविख्यात खजुराहो के मंदिर। महोबा से केवल चव्वन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है कामतीर्थ खजुराहो। मनुष्य के रतिभाव का यहाँ जिस रूप में उदात्तीकरण किया गया है, वह भारतीय मनीषा के धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के पुरूषार्थ चतुष्टय को ही परिभाषित-व्याख्यायित करता है। बाहर की दीवारों पर मनुष्य की वासना का अंकन और भीतर देवालय में मनुष्य की दैवी आस्था का आस्तिक रूपायन- यही तो है इस कामतीर्थ का विरोधाभासपरक दार्शनिक रूपक। मनुष्य की देह और उसकी आत्मा का रूपक भी तो यही है। मैं खजुराहो के कंदारिया महादेव मंदिर के परिसर में खड़ा अपने मन के इसी विरोधाभास से जूझ रहा हूँ। देह की वासनाएँ मुझे परिसीमित करती हैं। वहीं भीतर निरन्तर जाग्रत देवभाव मुझे अनन्त-असीम भी बनाता है। हाँ, मै भी तो हूँ देह-प्राण से एक ऐसा ही कामतीर्थ।

मंदिर का एक शिलालेख बताता है कि कलियुग के सत्ताइस सौ वर्ष बीतते-बीतते सीमांत प्रदेश पर म्लेच्छों के बार-बार आक्रमण के कारण राजपूतों की बड़गुज्जर शाखा पूर्व की ओर पलायन कर गई और मध्यभारत में उन्होंने अपने राज्य स्थापित किए। वर्तमान राजस्थान के धुन्धार क्षेत्र से लेकर आज के बुंदेलखंड तक उनके राज्य का विस्तार था। वे महापराक्रमी शासक महादेव शिव के उपासक थे। उन्हीं शासकों द्वारा नवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के बीच खजुराहो के मंदिरों का निर्माण कराया गया। कहते हैं कि मूल स्वरूप में हिन्दू एवं जैन मतावलंबियों द्वारा निर्माण कराए गए मंदिरों की कुल संख्या पच्चासी थी, जिन्हें आठ द्वारों का एक विशाल परकोटा घेरता था और उसके हर द्वार पर दो-दो सुनहरे खजूर वृक्ष लगे हुए थे। आज न तो वह परकोटा है और न ही उतनी संख्या में मंदिर ही। मुस्लिम आक्रमणकारियों की धर्मान्धता का शिकार हुआ यह विशाल मंदिर-परिसर भी। अधिकांश मंदिर विनष्ट हो गए। आज जो बीस-पच्चीस मंदिर लगभग बीस वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में बिखरे पड़े हैंं, उनमें से कुछ ही संपूर्ण हैं।

मंदिर तीन भौगोलिक इकाइयों में बंटे हैं- पश्चिम,पूर्व और दक्षिण। ये मंदिर अधिकांशत: बलुहा पत्थर के बने हैं। खजुराहो के मंदिरों को आम तौर पर कामसूत्र मंदिरों की संज्ञा दी जाती है, किंतु वस्तुत: केवल दस प्रतिशत शिल्पाकृतियाँ ही रतिक्रीड़ा से संबंधित हैं। न ही वात्स्यायन के `कामसूत्र `में वर्णित आसनों अथवा वात्स्यायन की काम-संबंधी मान्यताओं और उनके कामदर्शन से इनका कोई संबंध है।

हाँ, खजुराहो का प्रमुख एवं सबसे आकर्षक मंदिर है कंदारिया महादेव मंदिर। आकार में तो यह सबसे विशाल है ही, स्थापत्य एवं शिल्प की दृष्टि से भी सबसे भव्य है। समृद्ध हिन्दू निर्माण-कला एवं बारीक शिल्पकारी का अद्भुत नमूना प्रस्तुत करता है यह भव्य मंदिर। बाहरी दीवारों की सतह का एक-एक इंच हिस्सा शिल्पाकृतियों से ढंका पड़ा है। सुचित्रित तोरण-द्वार पर नाना प्रकार के देवी-देवताओं, संगीत-वादकों, आलिंगन-बद्ध युग्म आकृतियों, युद्ध एवं नृत्य, सृजन-संरक्षण-संहार, सद्-असद्, राग-विराग की विविध मुद्राओं का विशद अंकन हुआ है। उपासना-कक्ष के मंडपों की सुंदर चित्रमयता मन मोह लेती है। सुरबालाओं की कमनीय देह-वल्लरी की हर भंगिमा का मनोरम अंकन हुआ है इस भव्य शिवालय में। उनके अंगांे-प्रत्यंगों पर सजे एक-एक आभूषण की स्पष्ट आकृति शिल्पकला के कौशल को दर्शाती है। मुख्य वेदी के प्रवेश-द्वार पर पवित्र नदी-देवियों गंगा और यमुना की शिल्पाकृतियाँ मंत्रमुग्ध कर देती हैं। गर्भगृह में संगमरमर का शिवलिंग स्थापित है। गर्भगृह की परिक्रमा-भित्तियों को भी मनोरम शिल्पाकृतियों से सजाया गया है। नीचे की पंक्ति में आठों दिशाओं के संरक्षक देवताओं का अंकन किया गया है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर चारों दिशाओं में देवी-देवताओं, देवदूतों, यक्ष-गंधर्वों, अप्सराओं, किन्नरों आदि का तीन वलय वाले आवरण-पटकों के रूप में चित्रण किया गया है। वस्तुत: यह मंदिर हिन्दू शिल्पकला का एक पूरा संग्रहालय है। प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक ऑल्डस हक्सले ने ताज़महल को शिल्प की दृष्टि से बंजर कहा है। शिल्प-समृद्धि की दृष्टि से उसने राजस्थान के मंदिरों का विशेष उल्लेख किया है। उसने खजुराहो की इस महान कलाकृति को नहीं देखा होगा, वरना निश्चित ही वह इसका भी ज़िक्र करता। इस मंदिर को देखते हुए मैं बार-बार अभिभूत होता रहा, आत्मस्थ होता रहा। सरला भी मंत्रमुग्ध निहार रहीं थीं इस शिल्प-समृद्धि को।

विशालता और शिल्प-वैभव की दृष्टि से दूसरा उल्लेखनीय मंदिर है लक्ष्मण मंदिर। इसे रामचन्द्र मंदिर या चतुर्भुज मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इसके चारों कोनों पर बने उपमंदिर आज भी सुरक्षित हैं। इस मंदिर का मुख्य आकर्षण इसका सुसज्जित प्रवेश-द्वार है। द्वार के शीर्ष पर भगवती महालक्ष्मी की प्रतिमा है। उसके बाएँ स्तम्भ पर प्रजापति ब्रह्मा एवं दाहिने पक्ष पर शिव के संहारक स्वरूप की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में चतुर्भुज और त्रिमुखी सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु की लगभग चार फुट ऊँची प्रतिमा अलंकृत तोरण के मध्य स्थापित है। मूर्ति का बीच का मुख तो मानुषी है, किन्तु पार्श्ववर्ती शीश नृसिंह और वाराह अवतारों के हैं। मंदिर के भीतरी और बाहरी भित्तियों पर दशावतारों, अप्सराओं, योद्धाओं आदि की आकृतियों के साथ-साथ प्रेमालाप, आखेट, नृत्य, मल्लयुद्ध एवं अन्य क्रीड़ाओं का सुन्दर अंकन किया गया है। मंडप में एक शिलालेख है, जिसके अनुसार मंदिर का निर्माण नृप यशोवर्मन ने करवाया था। इसमें स्थापित भगवान विष्णु की प्रतिमा उसे कन्नौज के राजा महिपाल से प्राप्त हुई थी। यशोवर्मन का एक नाम लक्षवर्मन भी था। इसी से इस मंदिर का नाम लक्ष्मण मंदिर पड़ा।

तीसरा उल्लेखनीय हिन्दू मंदिर है चित्रगुप्त मंदिर। यह मंदिर बाहर से चौकोर, किन्तु अंदर से अष्टकोण है और उस अष्टकोण को भी क्रमश: घटते हुए गोलाकारों का आकार दिया गया है- अष्टदल कमल के समान। इसमें सात घोडों के रथ पर आसीन पांच फीट ऊँची सूर्यदेव की भव्य प्रतिमा स्थापित है। वेदी की दक्षिण दिशा में एक ताखे में स्थापित है भगवान विष्णु की एक अनूठी मूर्ति-ग्यारहमुखी इस विग्रह का बीच का मुख भगवान विष्णु का स्वयं का है और शेष मुख उनके दशावतारों के हैं।यह मूर्ति वास्तुशिल्प का एक अद्भुत नमूना है। बाहर चबूतरे पर हस्तियुद्धों, उत्सव एवं आखेट दृष्यों का अंकन मन मोह लेता है।

खजुराहो का सबसे प्राचीन मंदिर है चौसठ योगिनी मंदिर। कनिंघम के अनुसार यह ईस्वी सन् आठ सौ से भी पहले का बना हुआ है। कभी पूरे भारत में चौसठ योगिनी मंदिरों की संख्या भी चौसठ थी, किंतु अब केवल चार मंदिर ही बचे हैं, जिनमें से दो हैं उड़ीसा में, एक है जबलपुर में और एक यह खजुराहो में है। स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर सामान्य हिन्दू मंदिरों से बिल्कुल अलग है। पहली बात तो यह कि इस मंदिर में कोई मंडप या छत नहीं है। संभवत: यह इस कारण है क्योंकि योगनियाँ गगनचारी होती हैं और अपनी इच्छा से कहीं भी उड़कर जा सकती हैं। इसकी दूसरी विशेषता है आम हिन्दू मंदिरों से अलग इसका उत्तरपूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर उन्मुख होना। इसकी तीसरी ख़ास बात यह है कि खजुराहो का यह एकमात्र मंदिर है, जो पूरी तरह अनगढ़ गे्रनाइट पत्थरों का बना है और चौथी विशेषता यह कि अन्य मंदिरों से अलग इस मंदिर-परिसर में कोई भी मिथुन शिल्पाकृति नहीं है। मंदिर का अनगढ़ सादा परिवेश अपनी गुह्य रहस्यमयता से आतंकित करता है। ऊँचे चबूतरे पर १०३ फीट लंबे और ६० फीट चौड़े विस्तृत प्रांगण में कभी पूरे पैंसठ कक्ष थे, किंतु अब केवल पैंतीस ही बचे हैं। दक्षिण-पश्चिमी दीवार के मध्य स्थित है मुख्य कक्ष, जिसके पास एक विवर है। उसी से प्रवेश होता है मंदिर के चारों ओर बने गुप्त गलियारों में। उन गलियारों के रहस्यमय वातावरण में प्रवेश करने का हमारा साहस नहीं हुआ। कोठरियों के शिखर कोणस्तूप के आकार के हैं और उनके निचले भाग में त्रिभुजाकार चैत्य-खिड़कियाँ हैं। बीच की बड़ी कोठरी में महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा है और उसके दोनों बगल की कोठरियों में चतुर्भुजा ब्रह्माणी एवं महेश्वरी की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के परिसर से बाहर निकलकर भी कुछ देर तक मंदिर की रहस्यमयता का आतंक मेरे मन पर बना रहा। मेरे मन में तांत्रिक साधना से जुड़े तमाम संदर्भ उभरते रहे। भैरवी या देवी महाकाली की उपासना नवीं से तेरहवीं शताब्दी तक भारत में अपने पूरे उत्कर्ष पर रही। संथाल जनजातियों में आज भी इसके अवशेष वनदेवी की गुह्य उपासना-क्रियाओं में मिलते हैं।
बौद्धधर्म की वज्रयान शाखा में भगवान बुद्ध की मातुश्री महामाया की उपासना में भी इसी प्रकार की गुह्य पूजाक्रियाओं का समावेश हुआ।मध्यकाल में प्रचारित नाथ पंथ में भी गुरू मत्स्येन्द्रनाथ ने असम के कामरूप प्रदेश में जाकर इसी प्रकार की कोई साधना की होगी। कौल संप्रदाय के प्रभाव से वाममार्गी अर्थात् योगिनी-डाकिनी-शाकिनी के साथ-साथ पंचमकारों यानी मत्स्य-मद्य-मांस-मुद्रा-मैथुन के माध्यम से सिद्धि प्राप्त करने की कई क्रियाएँ शक्ति-उपासना में शामिल हो गईं। संभवत: यही विकृति इसके पतन का कारण भी बनी। महाकाली या भद्रकाली की उपासना में आज भी एक गुह्य रहस्यमयता का पुट विद्यमान है। भारत से इतर देशों में भी मातृशक्ति की पूजा की गुह्य क्रियाओं का चलन रहा है। प्राचीन मिस्र में मुख्य देवी आइसिस की पूजा में कुछ तांत्रिक साधना जैसी क्रियाएँ की जातीं थीं। प्राचीन यूनान की मातृदेवी हेरा की उपासना भी गुह्य रूप में ही की जाती थी। उसी का प्रवेश आरम्भिक ईसाई धर्म में भी हुआ। उसमें एक अलग पंथ बना, जो ईसा और मैरी मैग्डलीन को पति-पत्नी के रूप में पूजता था। किंतु ईसा के प्रमुख शिष्यों के प्रबल विरोध के कारण वह संप्रदाय शीघ्र ही पहले गुप्त हुआ और फिर लुप्त हो गया। उसमें भी कुछ गुह्य क्रियाओं का समावेश था। इन्हीं सब पर विचार करता हुआ मैं अन्य मंदिरों की ओर बढ़ चला।

जगदम्बी देवी का मंदिर वर्तमान में कालीमंदिर के रूप में जाना जाता है, पर मूल रूप में यह विष्णु मंदिर रहा होगा, क्योंकि इसके वेदीगृह के द्वार पर विष्णु की मूर्ति खुदी हुई है एवं इसमें जो मूर्ति स्थापित है, वह मकरासन पर विराजमान है, जो यह दर्शाता है कि वह देवी गंगा की मूर्ति है। इसके महामंडप एवं अर्धमंडप की छतें देखने योग्य हैं। बाहरी सजावट कंदारिया मंदिर के समान ही दर्शनीय है। वेदी के दक्षिण में स्थित यमराज की मूर्ति भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से बड़ी ही चित्ताकर्षक है। पश्चिम में अष्टाशिर शिव की प्रतिमा भी ध्यान आकर्षित करती है।

दूल्हादेव या नीलकंठ मंदिर खजुराहो के सर्वोत्तम मंदिरों में गिना जाता है। अन्य मंदिरों के समान इसमें पांच कोष्ठ तो हैं, किन्तु इसमें प्रदक्षिणा-पथ नहीं है। इसकी महामण्डप की छत अन्य मंदिरों की छतों से अलग ढंग से बनी है। एक-दूसरे पर आरोपित प्रस्तर-खंडों के उत्तरोत्तर छोटे होते वृत्तों वाली यह छत, सच मंे, स्थापत्य की दृष्टि से अनूठी एवं अद्भुत है। नारी के अंग-प्रत्यंगों के सौन्दर्य का अंकन इसमें भी अत्यन्त समृद्ध है। इसमें अंकित विद्याधरों के हाव-भाव, उनकी भवों और बरौनियों की भंगिमा अत्यन्त आकर्षक है।

कुछ अन्य महत्वपूर्ण मंदिर हैं मातंगेश्वर मंदिर, पार्वती मंदिर, विश्वनाथ एवं नन्दी मंदिर, वराह मंदिर तथा जतकारी या चतुर्भुज मंदिर। मातंगेश्वर मंदिर एक अलंकरण-विहीन वर्गाकार मंदिर है, जिसमें पूजा-अर्चना आज भी चलती है। इसमें स्थापित महाकाय स्फटिक शिवलिंग को परम पूजनीय माना जाता है। पार्वती मंदिर में स्थापित गौरी पार्वती की प्रतिमा गोह पर सवार दिखाई गई है। विश्वनाथ मंदिर में प्रजापति ब्रह्मा की एक अत्यन्त भव्य मूर्ति है। उसी चबूतरे पर उसके ठीक सामने शिव-वाहन नन्दी की एक विशाल प्रतिमा है। वराह मंदिर में भगवान वराह की एक भव्य महाकाय प्रतिमा है। जतकारी गांव में स्थित चतुर्भुज मंदिर में भगवान विष्णु की नौ फुट की विशाल मूर्ति के अतिरिक्त भगवान शिव की अर्धनारीश्वर मूर्ति एवं नृसिंह भगवान की शक्ति को रूपायित करती एक नारीसिंही मूर्ति है, जो इस मंदिर को विशिष्ट बनाती है। इनके अतिरिक्त हिन्दू मंदिर-शृंखला में हनुमान मंदिर, वामन मंदिर, ब्रह्मा मंदिर, जवेरी मंदिर और लाल गुआन महादेव मंदिर हैं।

जैन मंदिर समूह में पार्श्वनाथ मंदिर, आदिनाथ मंदिर, शांतिनाथ मंदिर एवं घंटाई मंदिर विशिष्ट हैं।

पार्श्वनाथ मंदिर को पुरातत्त्ववेत्ताओं एवं कलामर्मज्ञों द्वारा खजुराहो के मंदिरों में सर्वश्रेष्ठ और सुन्दरतम माना गया है। किसी भी मंदिर के स्थापत्य में पांच अंगों को अनिवार्य माना जाता है अर्थात् अर्धमण्डप, महामण्डप,अन्तराल, प्रदक्षिणा एवं गर्भगृह। इस मंदिर के ये सभी अंग समृद्ध एवं सम्पन्न हैं। मंदिर के अंतरंग में प्रकाश की व्यवस्था करने के लिए झरोखों या मोखों के स्थान पर छोटे-छोटे छिद्रोंवाली प्रस्तर-जालियों का निर्माण किया गया है। इसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी की आराध्य-देवी चक्रेश्वरी की अष्टभुजा प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के बाहर और भीतर जो शिल्प उकेरे गए हैं, वे सभी बड़े कलापूर्ण एवं मनोरम हैं। जैन देव-प्रतिमाओं के अतिरिक्त इसमें हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों की उपस्थिति उस युग की समन्वयवादी दृष्टि की साक्षी देती है। इसमें विविध रूपों, मुद्राओं एवं क्रियाकलापों में नारी-आकृतियों का विशद अंकन किया गया है। हम अपलक इन कलाकृतियों को निहारते रहे।बार-बार देखकर भी तृप्ति नहीं हो रही थी।़ मन तो यही कर रहा था कि वहीं समाधिस्थ हो जाएँ।

आदिनाथ मंदिर में कोई प्रदिक्षणा-पथ नहीं है। इसके बाहरी भाग पर तीन पंक्तियों में मूर्तियाँ अंकित है। ऊपर की पंक्ति में गंधर्व-किन्नर तथा विद्याधरों की आकृतियाँे तथा अन्य दो पंक्तियों में देवों, यक्षों-अप्सराओं एवं विभिन्न मिथुन-मुद्राओं का अंकन किया गया है। बीचवाली पंक्ति में कुलिकाएँ हैं, जिनमें सोलह देवियों की चतुर्भुज ललितासन मूर्तियाँ स्थापित हैं। इन अप्सरा-शिल्पों में अपने शिशु पर ममता से निहारती, उसे दुलराती एक मां की आकृति अत्यन्त स्वाभाविक बन पड़ी है। तोरण-द्वार के सबसे ऊपरी भाग में तीर्थंकर महावीर की मातुश्री के सोलह स्वप्न बड़े ही सुन्दर ढंग से उकेरे गये हैं।

घंटाई मंदिर में उच्च कोटि की शैल्पिक कला देखने को मिलती है। इसके स्तम्भों पर उकेरी घंटियों की बेलनुमा लड़ियाँ एवं वेणियाँ इतनी सुन्दर एवं सजीव हैं कि उन्हें देखते ही रहने का मन करता है। इस मंदिर में भी तीर्थंकर महावीर के गर्भावतरण के समय उनकी माता को दिखाई दिये सोलह स्वप्नों का अंकन किया गया है।
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शांतिनाथ मंदिर प्राचीन जैन मंदिरों की खंडित शिल्प-सामग्री को उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पुनर्संयोजित करके बनाया गया था। इसमें भगवान शांतिनाथ की बारह फुट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा की अतिशय मनोज्ञ प्रतिमा है। मूर्ति के पृष्ठ पर संवत् १०८५ का एक पंक्ति का लेख तथा हिरण का चिह्न बना हुआ है। मंदिर के आँगन में बायीं दीवार पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सेवक धरणेन्द्र और माता पद्मावती की अत्यन्त सुन्दर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। किंवदंती है कि मुगल सम्राट औरंगजेब ने जब इस क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ भगवान शांतिनाथ की मूर्ति को तोड़ने के लिए ज्यों ही मूर्ति की कनिष्ठिका पर टांकी चलाई, उस स्थान से दूध की धार बह निकली और फिर तत्काल ही मधु-मक्खियों ने उसकी सेना पर आक्रमण कर दिया, जिससे घबराकर वह सेना सहित वहाँ से भाग खड़ा हुआ।

शाम होने लगी है और महोबा जाने के लिए आखिरी बस का समय भी होने लगा है। हमने जल्दी-जल्दी खजुराहो की शिल्पाकृतियों की कुछ अनुकृतियाँ बतौर स्मृतिचिह्न खरीद ली हैं और बस में आकर बैठ गए हैं। महोबा है तो केवल चव्वन किलोमीटर, पर यहाँ की बसें धीमी चलती हैं, कुछ सड़कों का भी हाल ठीक नहीं है। आते समय दो घंटे से ऊपर ही लग गए थे।
और इस प्रकार साक्षी हुए हम भारत के इस महान कामतीर्थ के। इसके माध्यम से हमने सभ्यता के आवरण से ढंके-मुँदे अपने आदिम स्वभाव का, उसमें छिपी अपनी आवरण-रहित वासनाओं का सीधा-सच्चा साक्षात्कार किया, उन्हें परखा-जाँचा और समझा; मनुष्य की ऊर्जा के मूल स्रोत को देखा; उस कामवृत्ति को महसूसा, जाना, जो देवत्व की भावभूमि बनाती है और जिससे समस्त मानुषी कलात्मकता का उद्भव होता है। हाँ, यही तो है मानुषी अवचेतना में युगों-युगों का समोया वह कामतीर्थ, जिसके हमने आज दर्शन किए हैं। लौटती यात्रा में मेरे मन में कविवर केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता `खजुराहो के मन्दिर' की ये पंक्तियाँ गूँज रही हैं -
`चंदेलों की कला-प्रेम की देन देवताओं के मन्दिर बने हुए अब भी अनिंद्य जो खडे हुए हैं खजुराहो में याद दिलाते हैं हमको उस गए समय की जब पुरूषों ने उमड़-घुमड़ कर
रोमांचित होकर समुद्र-सा
कुच-कटाक्ष वैभव विलास की
कला-केलि की कामनियों को
बाहु-पाश में बांध लिया था
और भोग-संभोग सुरा का सरस पानकर
देश-काल को, जरा-मरण को भुला दिया था ।'
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कालिंजर बाँदा जनपद का ऐतिहासिक गौरव है। कहा जाता है कि यहाँ शंकर ने कालकूट विष पीकर शांति प्राप्त की। अनेक पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंग जुड़े हैं कालिंजर से। कालिंजर के दुर्ग ने देखे हैं अनेक युद्ध। अनेक आक्रमण झेले हैं उसने।

कालिंजर बाँदा जिले के दक्षिण पूर्व में बाँदा से पचपन किलो मीटर दूर है। बाँदा से बस द्वारा गिरवाँ होते हुए नरौनी और फिर कालिंजर पहुँचा जा सकता है। कालिंजर दुर्ग का प्रथम द्वार सिंह द्वार के नाम से पुकारा जाता है। दूसरा द्वार गणेश द्वार तथा तीसरा द्वार चंडी द्वार कहलाता है। चौथा बुद्धगढ़ द्वार (स्वर्गारोहण द्वार) है जिसके पास भैरवकुंड नामक सुंदर जलाशय है, जो गंधी कुंड नाम से प्रसिद्ध है। दुर्ग का पाचवाँ द्वार अत्यंत कलात्मक है जिसे हनुमान द्वार कहते हैं। यहाँ कलात्मक पत्थर की मूर्तियाँ और शिलालेख उपलब्ध हैं। इन शिलालेखों का संबंध चंदेल शासकों से है। जिनमें मुख्यतः कीर्ति वर्मन और मदन वर्मन मुख्य हैं। यहाँ श्रवण कुमार का चित्र भी देखने को मिलता है। छठा द्वार लाल द्वार है जिसके पश्चिम में हम्मीर कुंड है। चंदेल वंश की कला की प्रतिभा इस द्वार के समीप की दो मूर्तियों से भली भाँति व्यक्त हुई है। सातवाँ द्वार अंतिम द्वार है जिसे नेमि द्वार कहा जाता है। इसे महादेव द्वार भी कहते हैं।

कालिंजर दुर्ग में नीलकंठ महादेव का प्राचीन मंदिर है। यह दुर्ग के पश्चिम कोने में स्थित है। नीलकंठ महादेव कालिंजर के अधिष्ठाता देवता हैं। नीलकंठ मंदिर जाने के लिए दो द्वारों से होकर जाना पड़ता है। यहाँ पर अनेक गुफ़ाएँ तथा मूर्तियाँ पर्वत को काट कर बनाई गई है। नीलकंठ मंदिर का मंडप चंदेल वास्तुशिल्प की अनुपम कृति है। मंदिर के प्रवेशद्वार पर चंदेल शासक परिमाद्रदेव द्वारा शिवस्तुति है। मंदिर के अंदर स्वयंभू लिंग स्थापित है। मंदिर के ऊपर पर्वत को काटकर दो जलकुंड बनाए गए हैं। जिन्हें स्वर्गारोहण कुंड कहते हैं। इसके नीचे पर्वत को काटकर बनाई गई कालभैरव की प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त मंदिर परिसर में ही सैकड़ों मूर्तियाँ पर्वत को काट काट कर उत्कीर्ण की गई हैं।

दुर्ग के दक्षिण मध्य की ओर मृगधारा है। यहाँ पर पर्वत को तराश कर के दो कक्ष बनाए गए हैं। एक कक्ष में सप्तमृगों की मूर्तियाँ हैं यहाँ पर निरंतर जल बहता रहता है। यह स्थान पुराणों में वर्णित सप्त ऋषियों की कथा से समृद्ध माना जाता है। यहाँ पर गुप्त काल से मध्यकाल के अनेक तीर्थयात्री अभिलेख हैं। सबसे ज्यादा दुर्गम स्थान पर शिला के अंदर वह खोदकर बनाई भैरव व भैरवी की मूर्ति बहुत सुंदर तथा कलात्मक है।

कालिंजर दुर्ग के अंदर ही पाषाण द्वारा निर्मित एक शैय्या और तकिया है। इसे सीता सेज कहते हैं। यहाँ पर शैलोत्तीर्ण एक लघु कक्ष है। जन श्रुति के अनुसार इसे सीता का विश्राम स्थल कहा जाता है। यहाँ पर तीर्थ यात्रियों के आलेख हैं। एक जलकुंड है जो सीताकुंड कहलाता है। वृद्धक क्षेत्र में दो संयुक्त तालाब हैं। इसका जल चर्म रोगों के लिए लाभकारी कहा जाता है। ऐसी अनुश्रुति है कि यहाँ स्नान करने से कुष्टरोग दूर हो जाता है। चंदेल शासक कीर्ति वर्मन का कुष्ट रोग यहाँ पर स्नान करने से दूर हो गया है। कोटि तीर्थ अर्थात जहाँ पर सहस्रों तीर्थ एकाकार हों यहाँ के ध्वंसावशेष अनेक मंदिरों का आभास कराते हैं। वर्तमान में यहाँ पर एक तालाब तथा कुछ भवन हैं।

यहाँ पर गुप्त काल से लेकर मध्य काल के अनेक अभिलेख विद्यमान हैं। शंखलिपि के तीन अभिलेख भी दर्शनीय हैं। बुंदेलवंश शासक अमानसिंह ने अपने रहने के लिए कालिंजर दुर्ग के कोटि तीर्थ तालाब के तट पर एक महल बनवाया था। यह बुंदेली स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। अब यह ध्वस्त अवस्था में है तथा यहाँ पर पुरातत्त्व विभाग द्वारा दुर्ग में बिखरी हुई मूर्तियों का संग्रहालय बना दिया गया है। यहाँ पर रखी मूर्तियाँ शिल्प कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। दुर्ग के प्रथम द्वार के पहले आकर्षक महल है जो सन १५८३ ईस्वी में अकबर द्वारा निर्मित किया गया था।

कालिंजर दुर्ग में पातालगंगा, भैरवकुंड, पांडुकुंड, सिद्ध की गुफ़ा, राम कटोरा, चरण पादुका, सुरसरि गंगा, बलखंडेश्वर, भड़चाचर आदि अन्य स्थल भी दर्शनीय हैं। कालिंजर दुर्ग में एक भव्य महल है। जिसे चौबे महल के नाम से जाना जाता है। इसे चौबे बेनी हजूरी तथा खेमराज ने निर्मित कराया था। कालिंजर के संबंध में यह जनश्रुति प्रचलित है कि जो व्यक्ति कालिंजर के प्रसिद्ध देवताओं की झील में स्नान करेगा उसे एक हज़ार गायों के दान के समान पुण्य प्राप्त होगा।
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दो संस्कृतियों का सेतुः जनकपुर
जनकपुर वो पवित्र स्थान है जिसका धर्मग्रंथों, काव्यों एवं रामायण में उत्कृष्ट वर्णन है। उसे स्वर्ग से ऊँचा स्थान दिया गया है जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र एवं आदर्श नारी सीता का विवाह संपन्न हुआ। त्रेता युग के प्रकांड विद्वान एवं तत्कालीन मिथिला नरेश शिरध्वज जनक ने अपने राज्य में आए अकाल के निवारण हेतु ऋषि-मुनियों के सुझाव पर हल जोतना प्रारंभ किया। हल जोतने के क्रम में एक लड़की मिली। राजा ने उसे अपनी पुत्री स्वीकार किया। फलस्वरूप सीता, 'जानकी' भी कही जाती है। राजा जनक शिवधनुष की पूजा करते थे। एक दिन उन्होंने देखा जानकी इसे हाथ में उठाए हुई थीं। शिवधनुष उठाना किसी साधारण व्यक्ति के बस का नहीं, जनक समझ गए कि जानकी साधारण नारी नहीं है। अतः राजा जनक ने प्रतिज्ञा की कि जो शिवधनुष तोड़ेगा उसी से जानकी की शादी होगी। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार राजा जनक ने धनुष-यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ से संपूर्ण संसार के राजा, महाराजा, राजकुमार तथा वीर पुरुषों को आमंत्रित किया गया। समारोह में अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र रामचंद्र और लक्ष्मण अपने गुरु विश्वामित्र के साथ उपस्थित थे। जब धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की बारी आई तो वहाँ उपस्थित किसी भी व्यक्ति से प्रत्यंचा तो दूर धनुष हिला तक नहीं। इस स्थिति को देख राजा जनक को अपने-आप पर बड़ा क्षोभ हुआ। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है-
अब अनि कोउ माखै भट मानी, वीर विहीन मही मैं जानी
तजहु आस निज-निज गृह जाहू, लिखा न विधि वैदेही बिबाहू
सुकृतु जाई जौ पुन पहिहरऊँ, कुउँरि कुआरी रहउ का करऊँ
जो तनतेऊँ बिनु भट भुविभाई, तौ पनु करि होतेऊँ न हँसाई

राजा जनक के इस वचन को सुनकर लक्ष्मण के आग्रह और गुरु की आज्ञा पर रामचंद्र ने ज्यों ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई त्यों ही धनुष तीन टुकड़ों में विभक्त हो गया। बाद में अयोध्या से बारात आकर रामचंद्र और जनक नंदिनी जानकी का विवाह माघ शीर्ष शुक्ल पंचमी को जनकपुरी में संपन्न हुआ। कहते हैं कि कालांतर में त्रेता युगकालीन जनकपुर का लोप हो गया। करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व महात्मा सूरकिशोर दास ने जानकी के जन्मस्थल का पता लगाया और मूर्ति स्थापना कर पूजा प्रारंभ की। तत्पश्चात आधुनिक जनकपुर विकसित हुआ। जनकपुर नेपाल के तराई क्षेत्र में है जो भारत के बिहार राज्य के सीतामढ़ी, दरभंगा तथा मधुबनी जिले के नज़दीक है।
नौलखा मंदिर
जनकपुर में राम-जानकी के कई मंदिर हैं। इनमें सबसे भव्य मंदिर का निर्माण भारत के टीकमगढ़ की महारानी वृषभानु कुमारी ने करवाया। पुत्र प्राप्ति की कामना से महारानी वृषभानु कुमारी ने अयोध्या में 'कनक भवन मंदिर' का निर्माण करवाया परंतु पुत्र प्राप्त न होने पर गुरु की आज्ञा से पुत्र प्राप्ति के लिए जनकपुरी में १८९६ ई. में जानकी मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर निर्माण प्रारंभ के १ वर्ष के अंदर ही वृषभानु कुमारी को पुत्र प्राप्त हुआ। जानकी मंदिर के निर्माण हेतु नौ लाख रुपए का संकल्प किया गया था। फलस्वरूप उसे 'नौलखा मंदिर' भी कहते हैं। परंतु इसके निर्माण में १८ लाख रुपया खर्च हुआ। जानकी मंदिर के निर्माण काल में ही वृषभानु कुमारी के निधनोपरांत उनकी बहन नरेंद्र कुमारी ने मंदिर का निर्माण कार्य पूरा करवाया। बाद में वृषभानुकुमारी के पति ने नरेंद्र कुमारी से विवाह कर लिया। जानकी मंदिर का निर्माण १२ वर्षों में हुआ लेकिन इसमें मूर्ति स्थापना १८१४ में ही कर दी गई और पूजा प्रारंभ हो गई। जानकी मंदिर को दान में बहुत-सी भूमि दी गई है जो इसकी आमदनी का प्रमुख स्रोत है।
जानकी मंदिर परिसर के भीतर प्रमुख मंदिर के पीछे जानकी मंदिर उत्तर की ओर 'अखंड कीर्तन भवन' है जिसमें १९६१ ई. से लगातार सीताराम नाम का कीर्तन हो रहा है। जानकी मंदिर के बाहरी परिसर में लक्ष्णण मंदिर है जिसका निर्माण जानकी मंदिर के निर्माण से पहले बताया जाता है। परिसर के भीतर ही राम जानकी विवाह मंडप है। मंडप के खंभों और दूसरी जगहों को मिलाकर कुल १०८ प्रतिमाएँ हैं।
विवाह पंचमी
विवाह पंचमी के दिन पूरी रीति-रिवाज से राम-जानकी का विवाह किया जाता है। जनकपुरी से १४ किलोमीटर 'उत्तर धनुषा' नामक स्थान है। बताया जाता है कि रामचंद्र जी ने इसी जगह पर धनुष तोड़ा था। पत्थर के टुकड़े को अवशेष कहा जाता है। पूरे वर्षभर ख़ासकर 'विवाह पंचमी' के अवसर पर तीर्थयात्रियों का तांता लगा रहता है। नेपाल के मूल निवासियों के साथ ही अपने देश के बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान तथा महाराष्ट्र राज्य के अनगिनत श्रद्धालु नज़र आते हैं। जनकपुर में कई अन्य मंदिर और तालाब हैं। प्रत्येक तालाब के साथ अलग-अलग कहानियाँ हैं। 'विहार कुंड' नाम के तालाब के पास ३०-४० मंदिर हैं। यहाँ एक संस्कृत विद्यालय तथा विश्वविद्यालय भी है। विद्यालय में छात्रों को रहने तथा भोजन की निःशुल्क व्यवस्था है। यह विद्यालय 'ज्ञानकूप' के नाम से जाना जाता है।
मिथिला-राजधानीः जनकपुर
जनकपुर के बाज़ार में भारतीय मुद्रा से आसानी से व्यापार होता है। जनकपुर से करीब १४ किलोमीटर उत्तर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। जनकपुर से राष्ट्रीय स्तर पर विमान सेवा उपलब्ध है। नेपाल की रेल सेवा का एकमात्र केंद्र जनकपुर है। जनकपुर जाने के लिए बहार राज्य से तीन रास्ते हैं। पहला रेल मार्ग जयनगर से है, दूसरा सीतामढ़ी जिले के भिठ्ठामोड़ से बस द्वारा है, तीसरा मार्ग मधुबनी जिले के उमगाँउ से बस द्वारा है। जनकपुर से काठमांडू जाने के लिए हवाई जहाज़ भी उपलब्ध हैं। जनकपुर में यात्रियों के ठहरने हेतु होटल एवं धर्मशालाओं का उचित प्रबंध है। यहाँ के रीति-रिवाज बिहार राज्य के मिथलांचल जैसे ही हैं। क्यों न हो मिथिला की राजधानी मानी जाती है जनकपुर। भारतीय पर्यटक के साथ ही अन्य देश के पर्यटक भी काफी संख्या में जनकपुर आते हैं।
जनकपुर आकर ऐसा नहीं लगता कि हम किसी और देश में हैं। यहाँ की हर चीज़ अपनेपन से परिपूर्ण लगती है। नेपाल हमारा सर्वाधिक निकट पड़ोसी राष्ट्र है। खासकर जनकपुर में दो देशों की संस्कृतियों के अभूतपूर्व संगम पर आश्चर्य होना स्वाभाविक है। यहाँ के परिवेश के निरीक्षण के पश्चात यदि हम जनकपुर को दो देशों तथा दो संस्कृतियों का 'सेतु' कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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न्यूजीलैंड का नैसर्गिक सौंदर्य

सन दो हज़ार पाँच के बड़े दिन की छुट्टी में मुझे न्यूज़ीलैंड के दक्षिणी द्वीप और कुछ अन्य भागों की सैर करने का एक अनोखा मौका मिला, जब मेलबोर्न में रहने वाले मेरे एक 'कीवी' मित्र ने मुझे अपने घर आने का निमंत्रण दिया। न्यूज़ीलैंड की रोमांचक छवि के चलते और ऑस्ट्रेलिया में टीवी पर आकर्षक विज्ञापन देखने के बाद मैं इस प्रलोभन को ठुकरा न पाया और हम दोनों ने आख़िरकार न्यूज़ीलैंड की दस–दिवसीय भ्रमण–योजना बना ही डाली।

२४ दिसंबर की सुबह की मेलबोर्न से ड्यूनेडिन की फ्रीडम एयर की उड़ान काफ़ी रोमांचकारी रही। करीब सवा लाख की आबादी वाला ड्यूनेडिन नगर न्यूज़ीलैंड के ओटागो प्रांत की राजधानी है और यह क्राइस्टचर्च के बाद दक्षिणी द्वीप का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। हवाईअड्डे पर मेरे मित्र के परिवारजन हमें लेने के लिए आ रहे थे, इसलिए मैं बिल्कुल निश्चिंत हो कर विमान से नीचे धरती के बदलते हुए परिवेश को निहार रहा था। तस्मान सागर पार करने के बाद न्यूज़ीलैंड के दक्षिण–पश्चिम में स्थित अदभुत प्रांत फ़ियोर्डलैण्ड के दर्शन हुए। फ़ियोर्डलैण्ड में सामान्यतः कोई आबादी नहीं बसी हुई है। यहाँ बस आड़ी–तिरछी लकीरों की तरह नीला समुंदर हिमाच्छादित पहाड़ियों को चीरते हुए धरती पर अपना रास्ता बनाता हुआ दिखाई देता है। न्यूज़ीलैंड की सबसे बड़ी झील 'वाकाटिपू' और इसके मनोहारी तट पर बसा नगर क्वींसटाउन भी आकाश से दिखाई पड़ा। कुछ समय पश्चात ड्यूनेडिन हवाईअड्डे पर उतर कर मेरे मित्र के परिवारजन हमें देख कर भाव–विभोर हो उठे।

हम उनकी कार में बैठकर न्यूज़ीलैंड के आठवें सबसे बड़े नगर इन्वर्कारगिल की तरफ़ चल पड़े तीन घंटे के इस सफ़र में ओटागो और साउथलैण्ड प्रांतों की ऊँची– नीची पहाड़ियों पर हरी–भरी घास पर चरती भेड़ों, गायों और हिरणों को देख कर हृदय प्रफुल्लित हो उठा। ऑस्ट्रेलिया के वीराने रेगिस्तानी भूमिपरिवेश से कहीं दूर न्यूज़ीलैण्ड में सर्वत्र ऐसी हरीतिमा देख क
र यह मानना असंभव–सा प्रतीत होता है कि यह दोनों देश ओशिएनिया में एक–साथ गिने जाते हैं।

२४ दिसंबर व क्रिसमस का दिन हमने इन्वर्कारगिल में ही बिताया। ५० हज़ार की आबादी वाला इन्वर्कारगिल शहर अपनी चौड़ी–चौड़ी सड़कों व क्वींस पार्क के लिए जाना जाता है। क्रिसमस की शाम को मेरे मित्र के कुछ अन्य संबंधी भी घर पर आए और हम सब ने मिलकर स्वादिष्ट क्रिसमस भोज का आनंद उठाया।

अगले दिन का कार्यक्रम था – न्यूज़ीलैंड के तीसरे द्वीप स्ट्युअर्ट आईलैण्ड के लिए प्रस्थान। अधिकांश लोगों ने इस द्वीप के बारे में सुना ही नहीं होता है। न्यूज़ीलैंड सरकार के शासन के तहत स्ट्युअर्ट द्वीप के अलावा औकलैंड व कैम्पबैल जैसे कई अंतः–अंटार्कटिक द्वीप भी आते हैं, पर कड़ाके की ठंड के कारण वैज्ञानिकों व पशु–पक्षियों के अतिरिक्त इन द्वीपों पर कोई नहीं रहता स्ट्युअर्ट द्वीप पर केवल एक ही कस्बा है – ओबन। सरकार ने द्वीप का ८२ प्रतिशत भाग मानव की विकासलीलाओं से बचा कर रैकुरा राष्ट्रीय उद्यान के रूप में भविष्य के लिए सुरक्षित बना कर रखा है। स्ट्युअर्ट द्वीप वस्तुतः कई छोटे–छोटे द्वीपों का एक समूह है, जिनमें से उल्वा द्वीप अपने अनोखे पक्षी उद्यान के लिए विशेषकर जाना
जाता है।

इन्वर्कारगिल से करीब २० मिनट की बस यात्रा से न्यूज़ीलैंड के दक्षिणतम शहर ब्लफ़ पहुँच कर हमने नाव द्वारा ओबन के लिए प्रस्थान किया। वैसे तो विशेष छोटे आकार के विमानों द्वारा भी स्ट्युअर्ट द्वीप पर शीघ्रता से पहुँचा जा सकता है। ब्लफ़ से नाव द्वारा यहाँ जाने में करीब एक घंटे का समय लगता है।

दक्षिण प्रशांत महासागर का यह भाग इतना गहरा नीला है जितना मैंने और कहीं नहीं देखा। पानी भी कुछ ज़्यादा ही ठंडा और खारा है ओबन कस्बे में नाव के पहुँचते ही पहले हम अपने होटल में सामान रखने के लिए गए, और फिर गर्मा–गर्म भोजन का स्वाद उठाया। सामने समुद्र–तट पर छोटी–छोटी अनेकानेक निजी नावें लहरों पर थिरकती हुई बहुत सुंदर लग रही थीं। भोजन के बाद मनमोहक प्रकृति का लुत्फ़ उठाते हुए हम पहाड़ियों पर घूमने चल पड़े पूरा का पूरा दिन न जाने कैसे बीत गया पता ही न चला।

भूमध्य रेखा से काफ़ी दक्षिण में होने के कारण ग्रीष्म–ऋतु में पृथ्वी के इस भाग में सूर्योदय बहुत तड़के व सूर्यास्त रात में काफ़ी देर से होता है, इसलिए दिन में लगभग १६–१७ घंटे का प्रकाश रहता है। पर्यटकों के लिए तो यह और भी अच्छा है, क्योंकि इसके चलते वे पूरे दिन–भर घूम सकते हैं। हमने भी अगले दिन उल्वा द्वीप में प्रकृति की १६–१७ घंटे की मनोहारी छटा का भरपूर आनंद उठाया। उल्वा द्वीप के राष्ट्रीय प्राणी उद्यान में न्यूज़ीलैंड के कीवी पक्षी के दिव्य–दर्शन तो नहीं हो पाए, परंतु वीका पक्षी के शिशुओं समेत एक पूरे परिवार को निकट से देख कर मानो यहाँ आने का लक्ष्य साकार हो
गया। और भी कई प्रकार के तोते, मैना और बहुरंगी चिड़ियाँ देख कर हम ब्लफ़ की ओर नाव से रवाना हो गए।

स्ट्युअर्ट द्वीप समूह से वापस आने और छुट्टी बचाने के उद्देश्य से मेरे मित्र ने यह सुझाव दिया कि क्यों न हम नववर्ष की पूर्वसंध्या तक का समय इन्वर्कारगिल और साउथलैण्ड में ही गुज़ारें। वैसे भी वह कुछ और समय अपने माता–पिता के
साथ बिताना चाहता था मैंने भी हामी भर दी और अगले दिन हम इन्वर्कारगिल देशाटन के लिए निकल पड़े। नगर का मुख्य भाग छुट्टियों के लिए किसी नववधू की तरह सजाया हुआ था। हमने पूरा दिन यहाँ के ऐतिहासिक क्वींस पार्क और संग्रहालय में गुज़ारा क्वींस पार्क में मैंने न्यूज़ीलैंड के देशीय वुड पिजीयन को अपने प्राकृतिक माहौल में देखा। हरे रंग के वक्षस्थल और भूरे रंग के शरीर वाला यह वृहदाकारी कबूतर न्यूज़ीलैंड के बड़े आकार के फलों के बीज फैला कर यहाँ के पर्यावरण के संरक्षण में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। पार्क के नज़दीक ही एक पक्षी–उद्यान में यहाँ के कई अन्य देशीय पक्षियों के दर्शन भी हुए, पर अभी तक न्यूज़ीलैंड के राजपक्षी कीवीदेव हमारे साथ लुका–छिपी का खेल खेलते रहे। मैं इस बात को लेकर थोड़ा उद्विग्न था कि क्या हम न्यूज़ीलैंड आ कर भी कभी कीवी देख पाएँगे अब तक हमें कीवी क्यों न दिखा इस बात का रहस्य तो दो दिन बाद क्वींसटाउन पहुँच कर ही प्रकट हुआ।

अग
ले दिन हम भेड़ की ऊन काटने की प्रक्रिया देखने के लिए ओहाई ग्राम में एक कृषक के घर पहुँचे। न्यूज़ीलैंड में भेड़–पालन व ऊन–उद्योग काफ़ी अच्छी तरह से विकसित है और यहाँ की अर्थव्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

संतानोत्पत्ति के महीनों में तो यहाँ भेड़ों की आबादी मानव जनसंख्या की सात गुना हो जाती है और रमादान के पावन महीने में ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड से पानी के जहाज भर–भर कर भेड़ें और मेमने हलाल के लिए मध्य–पूर्व के देशों में पहुँचाए जाते हैं। यहाँ कृषक के भेड़–फ़ार्म में करीब २०० भेड़ों का झुंड एक दड़बे में खड़ा दिखाई पड़ा। तीन भेड़ के रखवाले कुत्ते चारों तरफ़ से भौंक–भौंक कर भेड़ों का नियंत्रण कर रहे थे।

एक अन्य कमरे में तीन कर्मचारी भेड़ों को इलेक्ट्रॉनिक क्लिप्परों की सहायता से मूँड रहे थे और क्लिप्पर की आवाज़ से घबराई हुई बेचारी भेड़ें असहाय–सी कर्मचारियों के हाथों में छटपटा रही थीं। मेरे लिए जीवन में ऐसा पहला अवसर था और करीब एक घंटे तक हमने इस हास्यप्रद माहौल का पूरा मज़ा उठाया। वहाँ से निकल कर हम कार में बस ऐसे ही घूमते–घामते न जाने कैसे फ़ियोर्डलैण्ड की सीमा पर स्थित न्यूज़ीलैंड की सबसे गहरी झील 'हॉरोका' के तट पर पहुँच गए। झील के स्पष्ट जल व किनारे के घने जंगलों को निहार कर स्वर्ग का आनंद आ गया। हॉरोका झील न्यूज़ीलैंड के एक माओरी
समुदाय द्वारा 'टापू', यानि पवित्र मानी जाती है, क्योंकि इस समुदाय का मानना है कि यहाँ उनके पितरों की आत्माएँ निवास करती हैं। अन्य किसी माओरी समुदाय के लोगों का यहाँ आना निषिद्ध है, पर हमें किस बात की चिंता – हम माओरी तो नहीं। कितनी ही देर बस झील के तट पर यों ही चुपचाप बैठे रहने के बाद हम वहाँ से वापस इन्वर्कारगिल की ओर चल पड़े। रास्ते में एक दुकान से तस्मान सागर की ताज़ी पकड़ी हुई ब्लू–कॉड मछली ख़रीद कर मित्र के परिवारजनों के साथ घर पर उसका जम के आनंद उठाया।

अगले दिन नववर्ष की पूर्वसंध्या थी मित्र के परिवारगणों से विदा ले कर हम इन्वर्कारगिल से क्वींसटाउन के लिए चल पड़े। दो घंटे के इस सफ़र में प्रकृति के ऐसे दिव्य–दर्शन हुए जिसे मैं कभी भुला नहीं सकता। वाकाटिपू झील के तट पर बसा और रिमार्केबल्स पर्वत–शृंखला से घिरा क्वींसटाउन शहर 'विश्व की रोमांच राजधानी' के नाम से जाना जाता है। यहाँ आपको मनोरंजन व रोमांचक क्रीड़ाओं का कौन सा साधन नहीं मिल सकता!

यहाँ पहुँचने के तुरंत बाद टाइटेनिक से भी पुराने वाष्प–चालित जलपोत 'टी एस एस अर्नस्लॉ' पर डेढ़ घंटे की वाकाटिपू झील की हमारी सैर बेहद हृदयाह्लादक रही इस नौकायन के बाद नववर्ष पूर्वसंध्या के रात के कार्यक्रम के लिए तैयार होने के लिए हम अपने अपने ब्रेड एण्ड ब्रेकफ़ास्ट होटल में आराम करने के लिए चले गए।

नववर्ष की पूर्वसंध्या के लिए पूरा नगर रुचिकर तरीके से सजाया हुआ था हमने एक कोरियाई रेस्तरां में ऑक्टोपस स्ट्यू का भोजन किया और झील के तट पर बैठे हुए हम घड़ी की सुई के १२ बजने का इंतज़ार करने लगे। ज्यों ही घड़ी की सुइयाँ मिलीं, त्यों ही झील के अंधकार में छिपी एक नौका से आसमानी आतिशबाजी छूट पड़ी चारों तरफ़ संगीत की धुनें और तीव्र हो गईं और कुछ नौजवान लोग हड़कंप मचाने लगे। वैसे तो पुलिस ने सार्वजनिक क्षेत्रों में मदिरापान पर प्रतिबंध लगा रखा था करीब १५ मिनट तक की शानदार आतिशबाजी देख कर हृदय पुलकित हो गया।

पहली जनवरी का दिन पूरे भ्रमण काल का सबसे यादगार दिन रहा। हम प्रातः तड़के ही उठ कर घूमने के लिए चल पड़े। सूर्यदेव आज बादलों के साथ लुका–छिपी का खेल खेल रहे थे और जल्द ही मूसलाधार वर्षा शुरू हो गई पर हम युवाओं को पानी या ठंड की क्या चिंता – बारिश में भीगते–भागते हम बॉब पीक की गोंडोला राइड के स्टेशन की ओर जा ही रहे थे कि मेरी नज़र कीवी–हाउस नाम के एक पक्षी–विहार के मुख्य–द्वार पर पड़ी। एकाएक दिल में आया कि हो सकता है यहाँ हमें कीवी पक्षी के दर्शन हो जाएँ आव देखा न ताव – बस हम दोनों महँगे टिकट के बावजूद भी विहार–भ्रमण के लिए अंदर चले गए। विश्व की नवीनतम स्वचालित श्रवण–तंत्र तकनीक से युक्त यह विहार अपने–आप में एक अनोखा अनुभव था। मैं ध
न्य हो गया जब एक कृत्रिम अंधकारमय गुहा में मुझे एक मादा कीवी के दिव्य–दर्शन हुए।

वस्तुतः कीवी एक उड़ानहीन, बड़े आकार का पक्षी होता है जो कभी न्यूज़ीलैंड में लाखों की संख्या में पाया जाता था, परंतु १२वीं सदी में माओरी समुदाय के पदार्पण और फ़िर श्वेत उपनिवेशकों द्वारा बिल्लियों, कुत्तों और सियारों जैसे भक्षक पशुओं के छोड़े जाने के कारण अब यहाँ मात्र ७०,००० कीवी ही बचे हुए हैं। मादा कीवी का अंडा उसके भार का २०–३० प्रतिशत होता है – यानि कि पक्षी–जगत के हिसाब से बहुत बड़ा – और नर कीवी अंडे सेने और फ़िर चूजे की देखभाल करने का काम करता है। यह तथ्य भी यहाँ उजागर हुआ कि कीवी रात का प्राणी है, दिन का नहीं – अब समझ में आया कि उल्वा द्वीप व इन्वर्कारगिल के पक्षी उद्यान के दिन के भ्रमण में हमें कीवी क्यों न दिखाई पड़ा। वैसे भी मुक्त रूप से जंगलों में घूमने वाले अब बहुत कम कीवी बचे हुए हैं। कीवी के अलावा इस पक्षी–विहार में हमने टुआटारा नामक डायनासोर काल की न्यूज़ीलैंड की एक मूल छिपकली भी देखी। टुआटारा अब विश्व में कहीं और नहीं पाई जाती। यहाँ मा
ओरी ग्राम की एक अनुकृति भी थी जिसके माध्यम से माओरी समुदाय की दैनिक जीवन–शैली के बारे में विस्तृत जानकारी भी मिली।

कीवी दर्शन के बाद अपनी इस विजयश्री पर स्वयं को सराहते हुए हम गोंडोला स्टेशन की ओर निकले समुद्र–तल से करीब ८०० मीटर ऊँची बॉब चोटी पर जाने के लिए स्काईलाइन कंपनी ने यहाँ एक गोंडोला–तंत्र का निर्माण किया है। करीब १० मिनट की यह यात्रा बहुत ही रोमांचक रही और चोटी पर पहुँच कर हमें नीचे क्वींसटाउन नगर का विहंगम दृश्य देखने को मिला। शीत–ऋतु में यहाँ बर्फ़ जमी रहती है और जम कर स्कीइंग की जाती है आजकल तो यहाँ बर्फ़ नहीं थी, पर थोड़ी ही दूरी पर बंजी–जंपिंग और फ्री–स्विंग क्रीड़ाओं का आनंद उठाते पर्यटकों को देख कर दिल दहल गया। ऊँची चोटी से गुरूत्वाकर्षण द्वारा सीधे नीचे गिरते हुए भारहीनता कैसी प्रतीत होती होगी, मैं तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता बस दू
र से ही उन पर्यटकों को इतनी ऊँची चोटी से नीचे गिरते देख कर रोमांच का मुफ़्त में आनंद उठा लिया।

गोंडोला से नीचे क्वींसटाउन नगर आने तक हम बारिश में पूरी तरह भीग चुके थे और फ़िर कुछ करने का साहस नहीं रह गया था। रात भी ढल रही थी मित्र ने सुझाव दिया कि क्यों न गर्म भोजन कर सिनेमा देखने चला जाए। सुझाव पसंद आया और हम एक तुर्क रेस्तरां में मेमने के कबाब का आनंद उठा कर बॉक्सिंग डे को निकली ज़बर्दस्त फ़िल्म 'नार्निया' देखने गए। इसकी शूटिंग न्यूज़ीलैंड में ही की गई थी और आजकल यह हॉलीवुड में ब्लॉकबस्टर चल रही थी। रात में १२ बजे फ़िल्म समाप्त होने के बाद टैक्सी द्वारा हम अपने ब्रेड एण्ड ब्रेकफ़ास्ट होटल चले आए।

अब हमारा भ्रमण–काल ख़त्म होने को आ रहा था अगले दिन हम बस द्वारा क्वींसटाउन से ड्यूनेडिन के लिए निकल पड़े। चार घंटे के सफ़र के बाद ड्यूनेडिन पहुँच कर एक बैकपैकर्स में रात के लिए कमरा ले लिया। अगले दिन वापस मेलबोर्न की उड़ान दोपहर में थी, अतः सवेरे ड्यूनेडिन के कला–संग्रहालय व फ़र्स्ट चर्च देखने की योजना बनाई गई। दोनों ही स्थान काफ़ी पसंद आए।

अब न्यूज़ीलैंड से विदा लेने का समय आ गया था। विमान से क्राइस्टचर्च व मेलबोर्न की ओर प्रस्थान करते समय इस यादगार यात्रा का स्मरण करते हुए हृदय भाव–विभोर हो उठा व मन ही मन हमने संकल्प किया कि एक दिन फ़िर से न्यूज़ीलैंड की नैसर्गिक सुंदरता देखने अवश्य आएँगे।


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गोवा की गलियों में
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गोवा की गलियों में

भारत के पश्चिमी घाट के पश्चिम किनारे पर स्थित गोवा एक छोटा राज्य है। ३० मई, १९८७ को इसे राज्य का दरजा दिया गया। गोवा की राजधानी है पणजी। इस शहर के एक तरफ़ मांडवी नदी बहती है और दूसरी तरफ़ समुद्र है, जो इसकी शोभा को बढ़ाने में सहायक हैं। गोवा के अन्य प्रमुख नगर हैं मडगाँव, म्हापासा, कांदा और वास्को। पश्चिमी घाट (सह्याद्रि पर्वत) से निकलकर अनेक नदियाँ अरब सागर में मिलती हैं। किंतु गोवा की दो ही नदियाँ प्रमुख हैं- मांडवी और जुवारी।
गोवा में अनेक मंदिर हैं, जो बड़े स्वच्छ, प्रकृति की गोद में निर्मित तथा अपने सुंदर, आकर्षक परिसरों से युक्त हैं। हर मंदिर के सामने तालाब और दीप स्तंभ बने हुए हैं। श्री मंगेश मंदिर, रामनाथ का मंदिर, शांता दुर्गा मंदिर, गोपाल-गणेश का मंदिर, शिव मंदिर, भगवती मंदिर, श्री दामोदर मंदिर, पांडुरंग मंदिर, महालसा मंदिर उल्लेखनीय मंदिर हैं। प्रत्येक मंदिर के अपने संस्थान हैं, जहाँ रहने और भोजन की सुचारु रूप से व्यवस्था की जाती है।
पणजी-पेंडा की मुख्य सड़क पर पणजी से २२ कि.मी. दूर श्री मंगेश संस्थान का मंदिर है। इस बड़े संस्थान के आराध्य श्री मंगेश जी हैं। मंगेश जी के पास ही लगभग एक कि.मी. की दूरी पर महालसा देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। यहाँ नवरात्र का उत्सव और अत्यधिक ऊँचाई पर समई (दीप) दर्शनीय हैं। बांदोडा गाँव में पोंडा से ८ कि.मी. दूर नागेश संस्थान का नागेश मंदिर रामायण के चित्रित प्रसंगों के कारण प्रसिद्ध है। इसके पास ही महालक्ष्मी का मंदिर भी है।
पोंडा से चार कि.मी. की दूरी पर स्थित रामनाथ संस्थान का शिव मंदिर अपने शिवरात्रि के भव्य विशाल मेले के कारण जाना जाता है। पोंडा से ही तीन कि.मी. दूर कवले गाँव में शांता दुर्गा संस्थान का विख्यात मंदिर स्थित है, जिसे शांता दुर्गा का मंदिर कहते हैं। यह बहुत ही भव्य और प्राचीन मंदिर है। शांता दुर्गा गोवा निवासियों की ख़ास देवी हैं। कहते हैं कि बंगाल की क्षुब्धा दुर्गा गोवा में आकर शांत हो गईं और शांता दुर्गा के नाम से पूजी जाने लगीं।
पणजी से ६० कि.मी. दूर सह्याद्री घाटी में गोवा-कर्नाटक सड़क के पास तांबडासुर्ल गाँव में तांबड़ीसुर्ल-शिव मंदिर अपने कलात्मक शिल्प एवं वैभव के कारण जाना जाता है। चौदहवीं शताब्दी में कदंब राजाओं के समय इसका निर्माण हुआ।
मडगाँव से ४० कि.मी. दूर कोणकोण गाँव में श्री मल्लिकार्जुन का मंदिर है। वन-श्री हरीतिमा वेष्ठित चतुर्दिक पहाड़ियों से घिरे इस मंदिर को देखने जो भी यात्री आता है, वह इसके प्राकृतिक श्री-सौंदर्य कोदेख मुग्ध होकर वहीं का हो जाता है। मडगाँव से १८ कि.मी. दूर गोवा के लोगों की अपार श्रद्धा का केंद्र दामोदर मंदिर है। नार्वे-डिचोली गाँव में पणजी से ३७ कि.मी. दूर श्री सप्त कोटेश्वर मंदिर है। ऊँचे पहाड़ों पर अवस्थित चंद्रेश्वर तथा सिद्धनाथ मंदिर भी देखने लायक हैं।
वस्तुतः सर्वाधिक मनोमुग्धकारी परिदृश्य गोवा के समुद्र तट ही उपस्थित करते हैं। मीराभार, कलंगुट, बागा, अंजुना, बागातोर, हरमट, कोलवा, बेतुल, पालालें आदि समुद्र तट अपनी सुंदरता के कारण जाने जाते हैं। गोवा का पश्चिमी किनारा अनेक सागर तटों से भरा-पूरा है। बेतुल के समुद्र तट में दो नदियाँ इधर-उधर से आकर मिलती हैं, जिससे वहाँ एक विशेष आकर्षण पैदा हो जाता है। इसी तरह का सौंदर्य बागा का समुद्र तट भी प्रदान करता है। देशी-विदेशी पर्यटकों का मेला-सा समुद्र तटों पर लगा रहता है। भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति के समरूप हैं ये समुद्र तट। प्राकृतिक सौंदर्यानुभूतियों की संवेदनशीलता भी समुद्र के साहचर्य से केंद्रीभूत हो उठती हैं। प्रकृति एवं मानवी सौंदर्य का ऐसा समवेत उद्रेक दुर्लभ है।
गोवा के किलों, गिरजाघरों, मसजिदों तथा अभयारण्यों का भी महत्त्व है। शत्रुओं से रक्षार्थ पुर्तगालियों ने वार्देज तालुका में मांडवी नदी जहाँ समुद्र से संगम बनाती हैं, भाग्वाद का किला बनवाया था। पास में ही वागाताटे समुद्र तट पर निर्मित कामसुख का किला भी दर्शनीय है। गोवा की राजधानी पणजी के पास मांडवी नदी के किनारे रेयश मागुश का किला स्थित है। पणजी से ही यह दिखाई पड़ जाता है। गोवा-महाराष्ट्र सीमा के उत्तरी छोर पर तेरे खोल का किला है। ये सभी किले मज़बूत, विशाल और अभेद्य हैं।
>प्राचीन और विशाल गिरजाघरों के दर्शन गोवा में होते हैं। पुराने गोवा के गिरजाघर सोलहवीं शताब्दी में निर्मित हुए हैं। आज भी वे पणजी-पोंडा मुख्य मार्ग के किनारे शान से खड़े हैं। इसी स्थान पर एक ओर पुर्तगाल के महान कवि तुईशद कामोंइश का विशाल पुतला खड़ा है, तो दूसरी ओर महात्मा गांधी की भव्य प्रतिमा।
चार सौ वर्षों से सुरक्षित विख्यात संत फ्रांसिस जेवियर का शव बासिसलका बॉम जीसस गिरजाघर में रखा हुआ है। पुराने गोवा में सर्वाधिक विशाल और आकर्षक चर्च है- सा कैथेड्राल चर्च। इसका आंतरिक भाग कलात्मक संत पाँच घंटियों से सुशोभित है। इनमें से एक घंटी सोने की है और बड़ी भी। संत फ्रांसिस आसिसी चर्च का प्रवेश द्वार भव्य और आंतरिक भाग चित्रों से सज्जित है।
इसके पीछे गोवा का प्रसिद्ध संग्रहालय है। संत काटेजान चर्च के प्रवेशद्वार को कहा जाता है कि आदिलशाह के शासनकाल में क़िले का दरवाज़ा था। और भी दर्शनीय गिरजाघर हैं। सांगेगाँव की जामा मस्जिद और पोंडागाँव की साफा मस्जिद के अतिरिक्त बहुत-सी छोटी-छोटी मसजिदें हैं।
गोवा में अनेक सुंदर और विशाल जल प्रपात हैं, जो पर्यटकों को अपनी ओर खींचते रहते हैं। मडगाँव से ४० कि.मी. दूर सह्याद्रि घाटी में है- दूध सागर जल प्रपात। केवल रेल से ही यहाँ पहुँचा जा सकता है। पर्वत शिखर से झरता फेनिल जल-प्रवाह दूध-धारा का भ्रम पैदा करता है। यहाँ पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है और घंटों बैठे-बैठे लोग इस मनोरम नयनाभिराम दृश्य का अवलोकन कर रोमांचित होते रहते हैं। सांखली गाँव में एक लघु जल प्रपात है, जिसे हरवलें जल प्रपात कहा जाता है।
डिचोली के पास मायम गाँव में मायम झील है, जिसमें पर्यटक नौका विहार का आनंद उठाते हैं। गोवा के अभयारण्य भी पर्यटकों के आकर्षण के केंद्र हैं। भगवान महावीर वन्य पशु रक्षित वन, बोंडला वन्य पशु रक्षित वन, खोती गाँव वन्य पशु रक्षित वन, विभिन्न जानवरों से सुशोभित हैं। सलीम अली पक्षी रक्षित केंद्र चोडण द्वीप में स्थित है। यहाँ रंग-बिरंगे पक्षियों का कलरव-कूजन संगीत का-सा आनंद प्रदान करता है। पणजी और मडगाँव से पर्यटन विभाग की बसें चलती हैं, जिनसे कम खर्च में गोवा के सभी दर्शनीय स्थानों को सरलता से देखा जा सकता है। जिसने एक बार भी गोवा के श्री-सौंदर्य, रम्य प्रकृति और विभिन्न मनमोहक नयनाभिराम छवि को देख लिया, वह बार-बार देखना चाहता है और उसके लिए गोवा-पर्यटन का आनंद भूल पाना कठिन है।
आवागमन-
कलकलाती, छलछलाती सरिताओं, हरी-भरी वन-श्री सुशोभित पर्वत श्रेणियों, रम्य, सुदर्शन सागर-तटों के कारण गोवा का सारा क्षेत्र दर्शनीय है। इसकी श्री-सुषमा एवं प्राकृतिक सौंदर्यमय वैभव के कारण इसे दक्षिण का कश्मीर कहलाने का गौरव प्राप्त है। गोवा में यातायात के प्रचुर साधन उपलब्ध हैं। रेल से, बस से, पानी के जहाज से, हवाई जहाज से गोवा जाया जा सकता है। मडगाँव रेलवे का महत्वपूर्ण जंक्शन है। यहाँ से केरल को उत्तर भारत से जोड़नेवाली कोंकण रेलवे तथा गोवा को दक्षिण भारत से जोड़नेवाली दक्षिण मध्य रेलवे गुजरती है। कोणकोण, करमली, थिर्वी, पेड़पे कोंकण रेलवे के अन्य महत्त्वपूर्ण स्टेशन हैं। वास्को, सावर्डे और कुर्ले दक्षिण मध्य रेलवे के प्रमुख स्टेशन हैं। मुंबई, पुणे, कोल्हापुर, बंगलौर, मंगलूर से बस के रास्ते गोवा पहुँच सकता है। दामोली हवाई अड्डे से भारत के विभिन्न स्थानों में हवाई जहाज़ से भी जाया जा सकता है। मुंबई से गोवा तक पानी का जहाज़ भी चलता है। विश्राम हेतु होटल, कॉटेज एवं धर्मशालाएँ सुलभ हैं।


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