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Old 23-02-2013, 01:09 AM   #391
Dark Saint Alaick
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जन्मदिन पर एक संस्मरण
भूखे पेट गाए भजन ने अनिल बिस्वास को दिलाई नौकरी



बॉलीवुड में स्थापित होने से पहले वैसे तो कई कलाकारों को काम ढूंढने के दौरान कई तरह की कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है लेकिन सुरेन्द्र, मुकेश, तलत महमूद, लता मंगेशकर, अमीरबाई कर्नाटकी और पारुल घोष जैसे पार्श्वगायकों और गायिकाओं की प्रतिभा को पहचानकर उनके गायन को तराशने में अहम भूमिका निभाने वाले दिग्गज संगीतकार अनिल बिस्वास को भूखे पेट गाए भजन ने मुम्बई में पहली नौकरी दिलाई। यह 1934 की बात है, जब फिल्मों में संगीतकार बनने की ख्वाहिश लिए कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) से मुम्बई पहुंचे अनिल बिस्वास नौकरी पाने के लिए दर-दर की खाक छान रहे थे। उसी दौरान उन्हें इसी सिलसिले में अजंता स्टूडियो में कहानी सुनाने अपने मित्र हीरेन बोस के पास जाना था। सुबह वह मामूली सा नाश्ता करके निकले थे। पहले वह प्रकाश स्टूडियो के चक्कर काट चुके थे और वहां से निकलने तक दोपहर हो चुकी थी। भूख से उनके प्राण अकुलाने लगे थे, लेकिन उनकी जेब में इतने पैसे भी नहीं थे कि कुछ खा-पी सकें। उनके पास लोकल ट्रेन या बस का टिकट खरीदने के लिए भी पर्याप्त पैसे नहीं थे। इसलिए वह भूखे, प्यासे पैदल ही चल पड़े और गिरते पड़ते लगभग दो मील का फासला तय करके अजंता स्टूडियो पहुंचे। अनिल बिस्वास ने स्टूडियो में कदम ही रखा था कि हीरेन बोस ने तुरंत उनसे गाना गाकर सुनाने को कह दिया और उनके पास सीधे आर्गन पर बैठने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया। उन्होंने बैठकर गाना शुरू कर दिया - घनश्याम भज मन बारंबार। वह स्थायी पर ही थे कि उनका गला रुंध गया और आंखों से आंसू बहने लगे। फिर भी वह गाते रहे और रोते रहे और आखिर में आर्गन पर सिर टिकाकर निढाल हो गए। अनिल बिस्वास रोए थे भूख से तड़प कर, यह सोचकर कि कैसे लोग हैं दुनिया में। आने पर खाने की बात तो छोड़ दो, किसी ने पानी तक के लिए नहीं पूछा। ऊपर से देखते ही गाना सुनाने का फरमान जारी कर दिया, लेकिन स्टूडियो के मालिक के. एस. दरयानी पर अनिल बिस्वास के रोने का दूसरा ही असर हुआ। उन्होंने सोचा कि लड़का बहुत भावुक है। गाते-गाते कैसा तल्लीन हो गया। इसके स्वर में कैसी कसक, कैसा माधुर्य है। यहूदी फिल्म के मशहूर निर्देशक प्रेमांकुर अतार्थी भी वहां मौजूद थे। वे दरयानी साहब की राय से सहमत हुए। अनिल बिस्वास अब तक उसी मनोस्थिति में थे। दरयानी साहब ने उन्हें पीठ थपथपाकर दिलासा दिया और हीरेन बोस को संबोधित कर बोले, क्या रतन लाया है मेरे भाई। तुम्हारी स्टोरी तो हम देख लेंगे, लेकिन यह लड़का कल से ईस्टर्न आर्ट के लिए काम करेगा। तनख्वाह ढाई सौ रुपया महीना। जिस समय अनिल बिस्वास गाना सुना रहे थे, उस समय मशहूर कॉमेडियन गोप कमलानी भी वहां मौजूद थे। गाना सुनाने के बाद अनिल बिस्वास के बाहर निकलते समय वह भी उनके साथ हो लिए और उनसे बड़ी आत्मीयता के साथ पूछा कि उन्होंने खाना खाया है या नहीं। जब उन्हें पता चला कि अनिल बिस्वास ने खाना नहीं खाया है, तो वह उन्हें कैंटीन में ले गए और उनके लिए आमलेट और चार टोस्ट मंगाए। रात का खाना भी गोप ने उन्हें अपने साथ ही खिलाया।
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Old 23-03-2013, 04:29 PM   #392
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23 मार्च को भगत सिंह के शहादत दिवस पर विशेष
भगत सिंह के बिना अधूरी रहती आजादी की कहानी



भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में शहीद ए आजम भगत सिंह एक ऐसा नाम हैं जिनके बिना शायद आजादी की कहानी अधूरी रहती। वह सिर्फ युवाओं ही नहीं, बल्कि बुजुर्गों और बच्चों के भी आदर्श हैं । लाहौर सेंट्रल जेल में उनके द्वारा लिखी गई 400 पृष्ठ की डायरी उनके विहंगम व्यक्तिव की कहानी बयां करती है । वह लेखकों, रचनाकारों, इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों सबके लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं । भगत सिंह को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चमनलाल क्रांतिवीर मानने के साथ ही वैचारिक क्रांति का पुरोधा भी मानते हैं । उनका कहना है कि मात्र 23 साल की उम्र में शहीद हो जाने वाले इस युवा के बिना शायद आजादी की कहानी अधूरी कहलाती । चमनलाल ने अपनी पुस्तक ‘क्रांतिवीर भगत सिंह : अभ्युदय और भविष्य’ में शहीद ए आजम के विहंगम व्यक्तित्व, कृतित्व और उनकी लोकप्रियता का व्यापक वर्णन किया है। उनका कहना है कि यदि भगत सिंह न होते तो आज देश के लिए शायद कोई ऐसा आदर्श न होता जिसने वैचारिक क्रांति के दम पर ऐसे शासन की नींव हिला दी जिसका साम्राज्य दुनियाभर में फैला था । उन्होंने बताया कि 23 मार्च 1931 को भगत सिंह की फांसी के बाद भारत का पत्रकारिता जगत उनसे संबंधित खबरों से अटा पड़ा रहता था । शहीद ए आजम की जीवनी लिखने के लिए जितेंद्रनाथ सान्याल को गोरी हुकूमत ने दो साल कैद की सजा सुनाई थी । चमनलाल के अनुसार भगत सिंह ने जहां क्रांतिवीर के रूप में दुनिया के मानसपटल पर अपनी छाप छोड़ी, वहीं पत्रकार के रूप में भी उन्होंने अपनी भूमिका बखूबी निभाई । उन्होंने कहा कि अलीगढ के शादीपुर गांव में स्थित स्कूल आज भी इस बात का गवाह है कि देश के लिए मर मिटने वाला यह नौजवान एक कुशल शिक्षक भी था। समाजशास्त्री स्वर्ण सहगल के अनुसार भगत सिंह के लिए क्रांति का मतलब हिंसा से नहीं, बल्कि वैचारिक परिवर्तन से था । बहरों को सुनाने के लिए सेंट्रल असेंबली में धमाका कर वह दुश्मन को उसी की भाषा में जवाब देने वाले योद्धा के रूप में नजर आते हैं । लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए सांडर्स को गोली से उड़ा देना भी उनके इसी जज्बे का प्रतीक था । शहीए ए आजम के पोते :भतीजे बाबर सिंह संधु के पुत्र: यादविंदर सिंह ने कहा कि उनके दादा द्वारा लाहौर सेंट्रल जेल में लिखी गई डायरी इस बात की गवाह है कि उनके बिना भारत का स्वाधीनता संग्राम संभवत: अधूरा कहलाता । उन्होंने कहा कि भगत सिंह की इस डायरी में जहां वैचारिक तूफान दिखाई देता है, वहीं उनके द्वारा लिखे गए गणित और राजनीति के सूत्र उनके व्यक्तित्व की विशालता को दर्शाते हैं । यादविंदर के अनुसार उनके दादा द्वारा जेल में की गई लंबी भूख हड़ताल उनकी दृढ इच्छाशक्ति का प्रतीक थी जो युवाओं को देश के लिए अपने भीतर संकल्प शक्ति पैदा करने की सीख देती है ।
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Old 30-03-2013, 01:16 AM   #393
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पुण्यतिथि पर स्मरण
गायक बनने की तमन्ना रखते थे आनंद बख्शी



सदाबहार गीतों से श्रोताओं को दीवाना बनाने वाले गीतकार आनंद बख्शी के बारे में बहुत कम लोगों को पता होगा कि वह गीतकार नहीं, बल्कि पार्श्वगायक बनना चाहते थे। पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में 21 जुलाई 1930 को जन्मे बख्शी साहब बचपन से ही फिल्मों में काम कर शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचने का सपना देखते थे, लेकिन लोगों के मजाक उड़ाने के डर से उन्होंने अपनी यह मंशा कभी जाहिर नहीं की। फिल्म इंडस्ट्री में बतौर गीतकार स्थापित होने के बाद भी पार्श्व गायक बनने की आनंद बख्शी की हसरत हमेशा बनी रही। वैसे उन्होंने वर्ष 1970 में प्रर्शित फिल्म में ‘मैं ढूंढ रहा था सपनों में... और बागों में बहार...’ जैसे दो गीत गाए जो लोकप्रिय भी हुए। इसके साथ ही फिल्म ‘चरस’ के गीत ‘आजा तेरी याद आई...’ कि चंद पंक्तियों और कुछ अन्य फिल्मों में भी आनंद बख्शी ने अपना स्वर दिया। चार दशक तक फिल्मी गीतों के बेताज बादशाह रहे आनंद बख्शी ने 550 से भी ज्यादा फिल्मों में लगभग 4000 गीत लिखे। बख्शी अपने कॅरियर में चार बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। आनंद बख्शी 30 मार्च 2002 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

कुछ खास थे वो 100 रुपए

बॉलीवुड के जाने-माने निर्माता-निर्देशक सुभाष घई ने आनंद बख्शी को कर्मा के एक गीत ‘दिल दिया है जान भी देंगे ए वतन तेरे लिए...’ गीत की पंक्ति सुनकर इनाम के रूप में 100 रुपए दिए थे। 3 अगस्त 1984 का दिन था। सुभाष घई उन दिनों अपनी महत्वकांक्षी फिल्म ‘कर्मा’ का निर्माण कर रहे थे। सुभाष घई ने आंनद बख्शी को गीत की कुछ पंक्ति सुनाने को कहा। जैसे ही आनंद बख्शी ने ‘दिल दिया है जान भी देंगे...’ गीत की पंक्ति घई को सुनाई तो वह भाव विभोर हो गए और अपने अपने पर्स से 100 रुपए निकाल कुछ लिखा और उन्हें दे दिया। आनंद बख्शी की यह आदत रही थी कि वह उन चीजों को सदा अपने साथ रखते थे, जिनसे उनकी भावना जुड़ी हों। बताया जाता है अपने जीवन के अंतिम दिनों तक आनंद बख्शी ने सुभाष घई के दिए गए नोट को संभाल कर रखा था। अपने गीतों से लगभग चार दशक तक श्रोताओं को भावविभोर करने वाले गीतकार आनंद बख्शी 30 मार्च 2002 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। उल्लेखनीय है कि सुभाष घई ने वर्ष 1985 में दिलीप कुमार, नूतन, अनिल कपूर, जैकी श्राफ, नसीरूद्दीन शाह और अनुपम खेर जैसे सितारों को लेकर ‘कर्मा’ का निर्माण किया था। देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत फिल्म का एक ‘दिल दिया है जान भी देंगे ए वतन तेरे लिए...’ आज भी श्रोताओं में देशभक्ति के जज्बे को बुंलद कर देता है।
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Old 10-04-2013, 10:28 AM   #394
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डॉ. बीरबल साहनी की पुण्यतिथि पर विशेष
कई खोजों से खोली दुनिया की आंखें



भारत में जीवाश्म की सहायता से भूगर्भ शास्त्र के निर्णयों को बदलने वाले व्यक्ति का नाम है -डॉ. बीरबल साहनी, जिन्होने वर्तमान तथा पुराकालीन वनस्पतियों तथा जीवाश्म पौधों पर की गई विस्तृत खोजों और उनके सम्बंध में अनसुलझे-अबूझे तथ्यों को उद्घाटित करके हिन्दुस्तान का नाम दुनिया में ऊंचा उठाया। डॉ. बीरबल साहनी ने जीवाश्म की सहायता से, डेक्कन टैऊप तथा सलाइन रैंज की काल गणना की। वर्तमान तथा पुराकालीन दोनों प्रकार की वनस्पतियों पर डॉ. साहनी ने शोध किया और जीवाश्म पर की गई उनकी विस्तृत खोज के परिणामस्वरूप अज्ञात तथ्य खुलकर सामने आए। साथ ही कश्मीर की केरवा रचनाओं पर डॉ. साहनी के किए कामों ने पुरानी धारणाओं को बदल डाला।
जीवन परिचय
डॉ. बीरबल साहनी का जन्म 14 नवम्बर,1891 को पंजाब के ऐतिहासिक शाहपुर जिले अब पाकिस्तान में नमक की पहाड़ियों के समीप बसे ‘मेरा’ नामक गांव में एक शिक्षक के घर हुआ था। बचपन से ही बीरबल साहनी को वनस्पति से काफी प्रेम था। वर्ष 1911 में बी.एस.सी. करने के बाद वह इंग्लैण्ड चले गए। यहां उन्होंने प्रख्यात जीवाश्म और वनस्पति शास्त्र के ज्ञाता सर एम. सी. सीवर्ड के साथ संशोधन कार्य किया। वर्ष 1914 में साहनी ने वनस्पति शास्त्र में डिग्री ली। वर्ष 1919 में उन्हें लंदन विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि मिली।
पृथ्वी पर वनस्पतियों का क्या स्वरूप
साहनी ने जीवाश्म की सहायता से यह साबित किया कि डेक्कन टैऊप तथा सलाइन रैंज की काल गणना,जिसे भूगर्भ विज्ञानी क्रेबियन यानी सात करोड़ साल पूर्व बताते हैं, वह ‘टरशरी’ काल की एक करोड़ साल पुरानी है। उनके अनुसार नीपा नामक पौधे से डैक्कन ट्रैप काल की प्रायद्वीपीय वनस्पति में तथा प्रारंभिक टर्शियरी काल की पश्चिमी यूरोपीय वनस्पति में समानता प्रमाणित होती है। इससे उन्होंने भूगर्भ शास्त्र के निर्णयों का बदल डाला। उन्होंने देश में जीवाश्म के अध्ययन व उसके शोध किए जाने की शुरुआत की। देश की धरती और पहाड़ियों में छिपे राज को उन्होंने हिमालय और महाद्वीपों के स्वरूप को स्पष्ट किया और कहा कि लगातार यह बदलता रहा है और आज जहां हिमालय है, लगभग तीन सौ करोड़ वर्ष पहले वहां समुद्र रहा है। उनके अध्ययन और शोध से यह जानकारी मिलती है कि पृथ्वी पर वनस्पतियों का क्या स्वरूप था। कुछ वृक्ष तो ऐसे भी हैं, जो करोड़ों साल पहले पृथ्वी पर मौजूद थे। उनमें से कुछ समाप्त हो चुके हैं, कुछ लुप्त हैं और कुछ जंगलों में आज भी मिल जाते हैं। कुछ जिनकी ऊंचाई 50-60 फु ट थी, लेकिन आज वह केवल कुछेक इंच वाले पौधे होकर रह गए हैं। इसके लिए उन्होंने चट्टानों को भी तोड़ा। तकरीबन 90 साल पहले उनकी राजमहल की पहाड़ियों में छिपे जीवाश्म की खोज अनुपम और बेजोड़ है।
जीवाश्म पर की गई खोज
वर्ष 1929 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने बीरबल साहनी को एससीडी की पदवी से और बाद में भारत सरकार ने उन्हें ‘पदमश्री’ की उपाधि से सम्मानित किया। गौरतलब है कि इंग्लैण्ड जाने से पूर्व उन्होंने तिब्बत का भ्रमण किया, जहां उनकी प्रख्यात स्वीडिश संशोधक ‘स्वेन हेडिन’ से मुलाकात हुई। इंग्लैण्ड में अध्ययन के दौरान लॉसन की लिखी वनस्पति शास्त्र की पुस्तक का एक उपयोगी संस्करण तैयार करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उनको सौंपी गई। आज यह पुस्तक ‘लॉसन एवं साहनी’ के नाम से जानी जाती है। वर्तमान तथा पुराकालीन दोनों प्रकार की वनस्पतियों पर डॉ. साहनी ने शोध किया। जीवाश्म पर की गई उनकी विस्तृत खोज के परिणामस्वरूप अज्ञात तथ्य खुलकर सामने आए। आक्मोपीले, नेफोलिस, नीफ़ोबोलुस, टाक्सुम, प्सीलोटुम, स्मेसिप्टेरिस और आस्फोडेलुस आदि पौधों पर किए उनके शोध से इन वंशों, जातियों उनकी संरचना तथा विकास के भिन्न-भिन्न पहलुओं का खुलासा हुआ। पौधों के अध्ययन और उसके बारे में विस्तृत जानकारी करने की खातिर उन्होंने हिमालय में पठानकोट से रोहतांग दर्रा, तिब्बत, कालका से कसौली, शिमला आदि पहाड़ी तथा पठारी भारतीय क्षेत्रों के भ्रमण के साथ-साथ विदेशों की भी यात्राएं की। गोंडवाना प्रदेश के पौधों पर तो डॉ. साहनी ने कई शोध पत्र भी लिखे।
गुलमर्ग में झील नहीं थी
कश्मीर की केरवा रचनाओं पर डॉ. साहनी के किए कामों ने पुरानी धारणाओं को बदल डाला। केरवा में अनेक समुद्री जंतुओं के अवशेष मिलने से वैज्ञानिकों की यह धारणा बनी कि कश्मीर के पर्वत कभी समुद्र की तलहटी में डूबे रहे होंगे। वहां पर्वतों के बीच झीलें भी रही होंगी। लेकिन उन्होने खोज के बाद स्पष्ट किया कि गुलमर्ग के निकट आठ-नौ हजार फीट की ऊंचाई पर अवशेष तो हैं लेकिन प्राचीनकाल में वहां झीलें नहीं थी। ये झीलें सैकड़ों मील दूर चार-पांच हजार फीट की ऊंचाई वाली किसी और जगह पर रही होंगी और पीरपंजाल पर्वतमाला के कई हजार फीट ऊंचा उठ जाने से ये जीवाश्म वहां पहुंच गए होंगे। उन्होंने हिमालय में स्पीती, बिहार में राजमहल, पंजाब में नमक की पहाड़ियों तथा असम में वहां की पुरावनस्पति पर भी शोध कार्य किया। वर्ष 1936 में उन्होंने रोहतक में खोखराकोट में पाए गए प्राचीन सिक्कों के सांचों तथा चीन में पाए जाने वाले सिक्कों का अध्ययन कर उस दौरान सिक्कों की ढलाई, सांचों की रचना आदि के बारे में भी खुलासा किया।
‘जीवाश्म संस्थान’ की स्थापना
अपने जीवन के आखिरी वर्षों में वह पेलियो बॉटनी ‘जीवाश्म संस्थान’ की स्थापना के महाकार्य में लगे रहे। उनका मानना था। कि पुरावनस्पति विश्वाान को संयोजित और प्रोत्साहित करने की देश में महती आवश्यकता है। लखनऊ विश्वविद्यालय के उत्तरी प्रांगण में 3 अप्रेल,1949 को इस संस्थान का शिलान्यास कर भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. साहनी के दस साल पुराने सपने को साकार किया। लेकिन नियति है कि उसके एक हफ्ते बाद ही डॉ. साहनी दुनिया को अलविदा कह गए। उनके सम्मान में संस्थान का नाम ‘बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान’ कर दिया गया। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व अविस्मरणीय है और उनका शोध समूचे विश्व के लिए अमूल्य देन।
सम्मान-पुरस्कार
उनको मिलने वाले पदकों व सम्मान की सूची बहुत लम्बी है। वे वर्ष 1936 में रॉयल सोसायटी ऑफ़ इंग्लैण्ड के सदस्य चुने गए। रॉयल एशियाटिक सोसायटी ने उन्हें ‘वर्कले पदक’ से सम्मानित किया। अमेरिकन एकेडमी ऑफ़ आर्ट्स एण्ड साइंस ने उन्हें मानद सभासद चुना। उन्हें वर्ष 1930 में कैम्ब्रिज तथा वर्ष 1935 में स्टॉहकोम में आयोजित बॉटनी कांग्रेस का उपाध्यक्ष चुना गया। मृत्यु से कुछ समय पहले स्टॉकहोम में वर्ष 1950 में आयोजित इंटरनेशनल बॉटनी कांग्रेस के लिए उन्हें अध्यक्ष चुना गया था। इंडियन एकेडमी आफ साइंस के वह दो बार उपाध्यक्ष, नेशनल एकेडमी के संस्थापक तथा दो बार अध्यक्ष रहे। इंडियन सांइस कांग्रेस के वर्ष 1940 में वह अध्यक्ष रहे। वर्ष 1947 में उन्हें सर सी. आर. रेड्डी पारितोषिक से सम्मानित किया गया।
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पुण्यतिथि 13 अप्रैल पर
रियल लाइफ को रील लाइफ में जीवंत करते थे बलराज साहनी



भारतीय सिनेमा जगत में बलराज साहनी को एक ऐसे अभिनेता के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने रियल लाइफ किरदारों को रील लाइफ में खूबसूरती के साथ अदा किया। वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में बलराज साहनी ने एक रिक्शावाले के किरदार को जीवंत कर दिया था। रिक्शावाले को फिल्मी पर्दे पर साकार करने के लिए बलराज साहनी ने कोलकाता की सड़कों पर 15 दिनों तक खुद रिक्शा चलाया और रिक्शेवालों की जिंदगी के बारे में उनसे बातचीत की। इसी तरह वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म ‘काबुलीवाला’ में भी बलराज साहनी ने अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों को भावविभोर किया। उनका मानना था कि पर्दे पर किसी किरदार को साकार करने के पहले उस किरदार के बारे में पूरी तरह से जानकारी हासिल की जानी चाहिए। इसीलिए वह मुंबई में एक काबुलीवाले के घर में लगभग एक महीना तक रहे। रावलपिंडी शहर (अब पाकिस्तान) में एक मध्यम वर्गीय व्यवसायी परिवार में एक मई 1913 को जन्में बलराज साहनी (मूल नाम युधिष्ठर साहनी) ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी स्नातकोत्तर की शिक्षा लाहौर के मशहूर गवर्नमेट कॉलेज से पूरी की। वर्ष 1951 में जिया सरहदी की फिल्म ‘हमलोग’ के जरिए बतौर अभिनेता वह अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। बलराज साहनी के कॅरियर की उल्लेखनीय फिल्मों में गरम कोट, सीमा, कठपुतली, लाजवंती, सोने की चिड़िया, घर संसार, सट्टा बाजार, भाभी की चूड़िया, हकीकत, वक्त, दो रास्ते, एक फूल दो माली, मेरे हमसफर , गर्म हवा आदि हैं। अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों को भावविभोर करने वाले बलराज साहनी 13 अप्रैल 1973 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।
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एक किस्सा
अमृता शेरगिल ने कभी नेहरू को कैनवस पर क्यों नहीं उतारा

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू अमृता शेरगिल की असाधारण प्रतिभा और सुंदरता से बेहद प्रभावित थे और दोनों के बीच अच्छी मित्रता भी हो गयी थी लेकिन उन्हें इस असाधारण कलाकार के कैनवस पर कभी जगह नहीं मिल पाई। इसका कारण महिला चित्रकार की यह सोच थी कि नेहरू ‘काफी सुंदर दिखायी देते हैं।’ अमृता ने अपनी शर्तों पर जीवन जिया था तथा अपने प्रेम प्रसंगों एवं अपारंपरिक शैली के कारण उस दौर के समाज में वह चर्चा का केन्द्र बन गयी थीं। उनका करिश्माई व्यक्तित्व, उनकी शारीरिक सुंदरता और उनका नाटकीय जीवन, इन सब के कारण वे कई लोगों की कल्पना को आकर्षित करती थीं। एक महिला के रूप में एकांत के प्रति उनकी भूख तथा विरोधाभासों के प्रति उनके संघर्ष ने उनकी जिंदगी को और भी उल्लेखनीय बना दिया था। अमृता के व्यक्तित्व के इन बारीक पहलुओं को कला इतिहासकार यशोधरा डालमिया द्वारा लिखी गयी उनकी जीवनी ‘अमृता शेरगिल : ए लाइफ’ में संजीदा ढंग से पेश किया गया है। अमृता की 1941 में जब महज 28 साल की आयु में मृत्यु हुई तो वह अपने पीछे ऐसी कलाकृतियां छोड़ गयीं जिन्होंने उन्हें शताब्दी के अग्रणी कलाकारों की पंक्ति में ला खड़ा किया। पूर्व एवं पश्चिम के कला संगम में वह एक मनोहारी प्रतीक बनकर उभरी।
अमृता की नेहरू से मुलाकात दिल्ली में हुई थी। लेखिका के अनुसार नेहरू से उनकी मुलाकात ऐसे माहौल में एकमात्र घटनापूर्ण चीज थी जो चित्रकार के अनुसार चित्रांकन के लिए हर्गिज भी उपयुक्त नहीं थी। राजधानी के कामकाजी माहौल के बीच नेहरू उन्हें काफी भिन्न नजर आये। दोनों के बीच कई बार पत्राचार हुआ, कुछ मुलाकातें हुई लेकिन उन्होंने नेहरू का चित्र कभी नहीं बनाया। अमृता की अपने नजदीकी मित्र एवं विश्वासपात्र इकबाल सिंह से 1937 में मुलाकात हुई थी। इकबाल ने उनसे एकबार पूछा था कि उन्होंने नेहरू का चित्र क्यों नहीं बनाया। इस पर अमृता ने जवाब दिया कि वह नेहरू का चित्र कभी नहीं बनायेंगी क्योंकि नेहरू काफी सुंदर हैं। फरवरी 1937 में नेहरू ने दिल्ली में हुई उनकी प्रदर्शनी में भाग लिया था। चित्रकार ने अपने एक मित्र को लिखे पत्र में नेहरू का जिक्र करते हुए कहा था, ‘मुझे लगता है कि वह भी मुझे पसंद करते हैं जितना कि मैं उन्हें करती हूं। वह मेरी प्रदर्शनी में आये थे और हमारी लंबी बातचीत हुई।’ जीवनी में सवाल उठाया गया है कि क्या उनके बीच प्रेम प्रसंग था। यदि था तो यह कोई गंभीर प्रसंग था या केवल पे्रम पूर्व खिलवाड़ था। डालमिया कहती हैं, ‘उनके संबंधों का सही स्वरूप पता लगा पाना मुश्किल है क्योंकि बाद में नेहरू के कई पत्रों को अमृत के अभिभावकों ने उस समय जला दिया जब वह शादी :अपनी रिश्तेदार की: में भाग लेने के लिए बुडापेस्ट गयी थी। उनके पिता एक सिख सामंतवादी और मां हंगेरियाई थी। उनका जन्म शताब्दी के शुरू में 1913 में बुडापेस्ट में हुआ था।’ अपने पत्रों को जलाये जाने पर अचंभा जताते हुए अमृता ने अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था, ‘‘मैं उन्हें इसलिए नहीं छोड़कर गयी थी कि वे मेरे पापपूर्ण विगत के खतरनाक गवाह है बल्कि मैं अपने पहले से ही भारी सामान को नहीं बढाना चाहती थी। बहरहाल, मुझे लगता है कि मुझे अब उदास वृद्धावस्था में संतोष करना पड़ेगा जो पुराने पे्रम पत्रों को पढने से मिलने वाले मजे से वंचित होगी।’
नेहरू ने अपनी आत्मकथा की प्रति अमृता के पास भिजवाई थी। अमृता ने इसके लिए उन्हें धन्यवाद दिया और लिखा, ‘नियम के तौर पर मैं आत्मकथा एवं जीवनियां पसंद नहीं करती। उनमें गलत बातें पेश की जाती है। दिखावा और दावे होते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि मुझे आपकी (आत्मकथा) पसंद आयी। आप कई बार अपने आभामंडल को काटने में कामयाब हुए है। आपने यह कहा है, ‘मैंने जब पहली बार समुद्र को देखा, जबकि अन्य लोग कहते हैं, ‘जब समुद्र ने मुझे पहली बार देखा।’ अमृता लिखती हैं, ‘मैं आपको अच्छी तरह से जानना पसंद करूंगी। मैं हमेशा उन लोगों के प्रति आकर्षित रहती हूं जो विसंगितयों के बिना अस्थिरता से पर्याप्त रूप से जुड़े होते हैं। साथ ही वे अपने पीछे आदर का चिपचिपा धागा नहीं लटकाये रहते हैं। मुझे नहीं लगता कि जीवन की कगार पर आदमी अस्त-व्यस्तता महसूस करता है। इस कगार को पार करने के बाद ही आदमी को लगता है कि जो चीज सरल लग रही थी या जो भावना सरल महसूस हो रही थी वह अनंत गुना पेचीदा एवं जटिल है।’ उन्होंने लिखा है, ‘अस्थिरता के भीतर ही कोई स्थिरता होती है। लेकिन निश्चित तौर पर आपका संतुलित दिमाग है। मुझे नहीं लगता कि आप वाकई में मेरी कलाकृतियों में रूचि रखते हैं। आप मेरी कलाकृतियों को देखे बिना उनका अवलोकन करते हैं। आप कठोर नहीं है। आपका मृदु चेहरा है। मुझे आपका चेहरा, उसकी संवेदनशीलता, ऐन्द्रियता और साथ ही निस्संगता पसंद है।’
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जयन्ती पर विशेष
उपेक्षित समाज के मसीहा ‘अम्बेडकर’



विलक्षण क्षमताओं के आधार पर एक विशिष्ट स्थान पाने वाले डा. भीमराव अम्बेडकर का जीवन अनेक प्रकार की विविधिताओं से परिपूर्ण है। उनकी सर्वाधिक ख्याति संविधान निर्माता तथा समाज के उपेक्षित और वंचित वर्ग के अधिकारों की रक्षा हेतु संघर्षरत योद्धा के रूप में ही अधिक है। जात-पांत, छूत-अछूत, ऊंच-नीच आदि विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए अम्बेडकर ने कई काम किए।
जीवन परिचय
भारतीय संविधान की रचना में महान योगदान देने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रेल, 1891 को ब्रिटिशों के केंद्रीय प्रांत (अब मध्य प्रदेश में) में स्थापित नगर व सैन्य छावनी मऊ में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14वीं संतान थे। कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स से पढ़ाई करने वाले डॉ. अंबेडकर ने देश की सामाजिक विषमता और छुआछूत के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई। वे हमेशा दलित उत्थान और सामाजिक समता को लेकर आगे बढ़े। वे भारतीय विधिवेत्ता होने के साथ ही बहुजन राजनीतिक नेता और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी भी थे। उनको बाबा साहेब के नाम से भी जाना जाता है। 6 दिसम्बर,1956 को उन्होंने देह त्याग दी।
सामाजिक कार्यों में योगदान
अम्बेडकर ने सामाजिक समानता को दूर करने के लिए कई प्रयत्न किए थे। यहां तक कि उन्होंने ‘आॅल इण्डिया क्लासेस एसोसिएशन’ का संगठन किया। दक्षिण भारत में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में गैर-ब्राह्मणों ने ‘सेल्फ रेस्पेक्ट मूवमेंट’ प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य उन भेदभावों को दूर करना था जिनको ब्राह्मणों ने उन पर थोप दिया था। सम्पूर्ण भारत में दलित जाति के लोगों ने उनके मन्दिरों में प्रवेश-निषेध एवं इस तरह के अन्य प्रतिबन्धों के विरुद्ध अनेक आन्दोलनों का सूत्रपात किया। परन्तु विदेशी शासन काल में अस्पृश्यता विरोधी संघर्ष पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया। विदेशी शासकों को इस बात का भय था कि ऐसा होने से समाज का परम्परावादी एवं रूढ़िवादी वर्ग उनका विरोधी हो जाएगा। अत: क्रांतिकारी समाज-सुधार का कार्य केवल स्वतन्त्र भारत की सरकार ही कर सकती थी। पुन: सामाजिक पुनरुद्वार की समस्या राजनीतिक एवं आर्थिक पुनरुद्वार की समस्याओं के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई थी। जैसे, दलितों के सामाजिक पुनरुत्थान के लिए उनका आर्थिक पुनरुत्थान आवश्यक था। इसी प्रकार इसके लिए उनके बीच शिक्षा का प्रसार और राजनीतिक अधिकार भी अनिवार्य थे।
अंग्रेजी में रचनावली
वर्ष 1926 में अम्बेडकर बम्बई विधान सभा के सदस्य नामित किए गए। उसके बाद वह निर्वाचित भी हुए। क्रमश: ऊपर चढ़ते हुए वर्ष 1942-1946 के दौर में वह गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी की सदस्यता तक पहुंचे। भारत के स्वाधीन होने पर जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में विधि मंत्री हुए। बाद में विरोधी दल के सदस्य के रूप में उन्होंने काम किया। भारत के संविधान के निर्माण में उनकी प्रमुख भूमिका थी। वह संविधान विशेषज्ञ थे। अनेक देशों के संविधानों का अध्ययन उन्होंने किया था। भारतीय संविधान का मुख्य निर्माता उन्हीं को माना जाता है। उन्होंने जो कुछ लिखा, उसका गहरा सम्बन्ध आज के भारत और इस देश के इतिहास से है। शूद्रों के उद्धार के लिए उन्होंने जीवन भर काम किया, पर उनका लेखन केवल शूद्रों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने दर्शन, इतिहास, राजनीति, आर्थिक विकास आदि अनेक समस्याओं पर विचार किया जिनका सम्बन्ध सारे देश की जनता से है। अंग्रेजी में उनकी रचनावली ‘डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज’ नाम से महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है। हिन्दी में उनकी रचनावली ‘बाबा साहब डॉक्टर आम्बेडकर सम्पूर्ण वाडम्य’के नाम से भारत सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है।
कई पत्रिका प्रकाशित की
अत्यन्त कुटिल व मानवता को शमर्सार कर देने वाली परिस्थितियों के बीच दलितों, पिछड़ों और पीड़ितों के मुक्तिदाता और मसीहा बनकर अवतरित हुए डा. भीमराव अम्बेडकर ने स्वदेश लौटकर मुम्बई में वकालत के साथ-साथ अछूतों पर होने वाले अत्याचारों के विरूद्ध आवाज उठाना शुरू कर दिया। अपने आन्दोलन को अचूक, कारगर व व्यापक बनाने के लिए उन्होंने ‘मूक नायक’ पत्रिका भी प्रकाशित करनी शुरू की। उनके प्रयासों ने रंग लाना शुरू किया और वर्ष 1927 में उनके नेतृत्व में दस हजार से अधिक लोगों ने विशाल जुलूस निकाला और ऊंची जाति के लिए आरक्षित ‘चोबेदार तालाब’ के पीने के पानी के लिए सत्याग्रह किया और सफलता हासिल की। इसी वर्ष उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक एक पाक्षिक मराठी पत्रिका का प्रकाशन करके अछूतों में स्वाभिमान और जागरुकता का अद्भुत संचार किया। देखते ही देखते वे दलितों व अछूतों के बड़े पैरवीकार के रूप में देखे जाने लगे। इसी के परिणास्वरूप डॉ. भीमराव अम्बेडकर को वर्ष 1927 में मुम्बई विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया।
देश के पहले कानून मंत्री
भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त,1947 को अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना कि लिए बनी के संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ मे संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की, और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों मे आरक्षण प्रणाली शुरू के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उनको हर क्षेत्र मे अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना मे पहले इस कदम को अस्थाई रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गई थी। 26 नवंबर,1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। वर्ष 1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गई थी। अम्बेडकर ने वर्ष 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गए। मार्च 1952 मे उनको संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।
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डॉ. मोक्षगुंडम विश्वैश्वरैया की पुण्यतिथि पर
इंजीनियरिंग के पितामह ‘सर एमवी’



सर एमवी के नाम से सम्बोधित किए जाने वाले डॉ. विश्वश्वरैया न केवल प्रख्यात अभियंता थे, बल्कि महान दूरदर्शी राजनेता और प्रशासक भी थे। अपने समय के बहुत बड़े इंजीनियर, वैज्ञानिक और निर्माता के रूप में देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले डॉ. मोक्षगुंडम विश्वश्वरैया को भारत ही नहीं वरन विश्व की महान प्रतिभाओं में गिना जाता है। इंजीनियरिंग की सेवा करते-करते 101 वर्ष की आयु में 14 अप्रेल, 1962 को देश के इस विरले सपूत का देहावसान हो गया था।
इंजीनियरिंग को दिखाई प्रगति की राह
मैसूर रियासत के कोलार जिले (वर्तमान में कर्नाटक) के मुद्देहल्ली गांव में 15 सितम्बर, 1861 को जन्में डॉ. एमवी ने प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा चिकबल्लापुर में पूरी की। वर्ष 1881 में बेंगलूरु से स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद मैसूर रियासत की ओर से आर्थिक सहायता मिली और उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना स्थित साइंस कॉलेज में प्रवेश लिया। वर्ष 1883 में एलसीई और एफसीई परीक्षा में प्रथम स्थान हासिल किया। इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही तत्कालीन बम्बई सरकार ने डॉ. विश्वश्वरैया को नौकरी की पेशकश की और नासिक में सहायक अभियंता के पद पर नियुक्त किया। उनकी अभियांत्रिकी क्षमता का पहला परिचय तब हुआ, जब उन्हें दशहरी धुलिया से करीब 35 मील दूर गांव में पांजरा सिफोन के निर्माण का कार्य सौंपा गया। इसमें उन्होंने इंजीनियर के रूप में विशेष अनुभव हासिल किया। इसके बाद शहर में जलापूर्ति की एक नई और बेहतरीन योजना बनाई, जिसे आधुनिक सिंचाई प्रणाली में ‘ब्लॉक सिस्टम’ कहा जाता है। इसके अलावा उन्होंने पानी के अनावश्यक बहाव को रोकने के लिए लोहे के आॅटोमेटिक दरवाजे ईजाद किए। अपने इस आविष्कार का इस्तेमाल उन्होंने खड़कवास्ला बांध के निर्माण के दौरान किया। वे मैसूर के कृष्णराजसागर बांध के वास्तुकार भी थे। मौजूदा समय में यह बांध कर्नाटक के महत्वपूर्ण बांधों में से एक है।
सरल जीवन, उच्च विचार
सादा-सरल जीवन के साथ ही विशुद्ध शाकाहारी डॉ. विश्वैश्वरैया ने अपना कार्य पूरी लगन और ईमानदारी के साथ निभाया। उनकी कर्तव्य परायणता से प्रभावित होकर मैसूर रियासत के महाराजा ने उन्हें वर्ष 1912 में दीवान बनने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने मैसूर के दीवान के रूप में शिक्षा को बढ़ावा देने के साथ ही औद्योगिक विकास पर भी विशेष जोर दिया। इसके साथ ही उन्होंने चप्पल, साबुन, धातु और क्रोम ट्रेनिंग फैक्ट्री की शुरुआत की। इसके अलावा उन्होंने राज्य में कई कल-कारखानों की स्थापना में भी अहम भूमिका निभाई। उन्हीं के अथक प्रयासों से भद्रावती में आयरन और स्टील फैक्ट्री का निर्माण हुआ। वर्ष 1918 में उन्होंने मैसूर रियासत के दीवान पद से अपनी इच्छा से सेवानिवृत्ति ली।
सेवानिवृति के बाद भी कार्यरत
मैसूर के दीवान पद से मुक्त होने के बाद वे फिर से अपने काम में सक्रिय हो गए। उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर कंसल्टेंसी इंजीनियरिंग का कार्य शुरू किया। इस तरह उन्होंने अपनी अभियांत्रिकी क्षमता का लोहा विश्व स्तर पर भी मनवाया। देश के विकास में किए गए उनके उल्लेखनीय कार्य के लिए वर्ष 1955 में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। उनके सम्मान में विश्वस्तरीय तकनीकी संस्थान की स्थापना की गई, जिसका नामकरण भी उन्हीं के नाम पर किया गया।
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नई किताब
मोदी बचपन में तार्किक थे और अकसर अध्यापकों की बात नहीं माना करते थे



गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर छपी एक नई किताब में बताया गया है कि बचपन में मोदी काफी तार्किक थे और अकसर अध्यापकों के आदेश की अवज्ञा किया करते थे लेकिन शुरुआत से ही उनमें नेतृत्व का गुण था। पत्रकार निलंजन मुखोपाध्याय ने ‘ नरेंद्र मोदी : द मैन द टाइम्स’ नामक किताब में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता के जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला है। पुस्तक में मोदी के बचपन, उनके युवा जीवन, राजनीति में उनके उदय, उनके संघर्षों और आखिरकार मुख्यमंत्री बनने की उनकी जीत से जुड़े पहलुओं का जिक्र किया गया है। इस पुस्तक का प्रकाशन वेस्टलैंड लिमिटेड ने किया है। दुबले पतले युवा मोदी से लेकर आत्मविश्वास से लबरेज मुख्यमंत्री बनने तक की उनकी दुर्लभ तस्वीरें किताब में छापी गई हैं। पुस्तक में मोदी के कार्यकाल में आंकड़ों और तथ्यों के साथ गुजरात विकास की व्यापक तस्वीर पेश की गई है। बी.एन. हाईस्कूल में मोदी के अध्यापक प्रह्लादभाई जी. पटेल को याद है कि मोदी अत्यंत तार्किक छात्र थे जो कि अकसर अध्यापकों की बात नहीं माना करते थे। पटेल ने बताया कि एक बार उन्होंने मोदी से अपना गृहकार्य कक्षा के एक मॉनिटर को दिखाने को कहा तो उन्होंने (मोदी) जवाब दिया कि यदि उन्हें किसी अन्य से अपने काम का मूल्यांकन कराना है तो वह अध्यापक के बिना कोई नहीं होना चाहिए। मुखोपाध्याय के अनुसार पटेल ने मोदी से गृहकार्य अपने सहपाठी को दिखाने के लिए इसलिए कहा क्योंकि वह ‘बहुत अच्छे छात्र’ नहीं थे। पुस्तक में लिखा गया है, ‘50 छात्रों की कक्षा में हालांकि मोदी को कमजोर छात्र नहीं कहा जा सकता था लेकिन पटेल ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि मोदी औसत दर्जे के छात्र थे।’ लेखक ने मोदी के बचपन के मित्र सुधीर जोशी के हवाले से कहा कि मोदी पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य गतिविधियों में काफी सक्रिय थे और उन्हें सुर्खियों में बने रहना पसंद था। वह अपने सहपाठियों की समस्याओं को प्रधानाचार्य के सामने रखते थे। मोदी एक अच्छे तैराक थे और वाद विवाद प्रतियोगिताओं एवं नाटकों में हिस्सा लिया करते थे। किताब में इस बात का भी जिक्र है कि मोदी जब छह साल के थे तो वह अपने पिता की मदद करने के लिए चाय बेचा करते थे और एक स्थानीय नेता के कहने पर नारेबाजी किया करते थे। पुस्तक में बताया गया है कि मोदी ने सच की तलाश के लिए किस तरह अपने परिवार का परित्याग कर दिया और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता बने। लेखक लिखता है, ‘युवा मोदी चाय की दुकान चलाने में अपने पिता दामोदरन की मदद करता था। पिता चाय बनाया करते थे। बेटा उसे केतली में भरता था और रेलगाडियों के आने पर उसे बेचा करता था।’ पुस्तक में बताया गया है कि मोदी अपने पांच अन्य भाई- बहनों और माता - पिता के साथ 12 फुट चौड़े और 40 फुट लंबे मकान में रहा करते थे। वह अपने पहनावे के बारे में हमेशा सचेत रहा करते थे।
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नया अध्ययन
गूगल से लेकर फेसबुक तक ‘सर्वत्र’ मौजूद हैं नरेंद्र मोदी

जनता से सीधे जुड़ने का प्रयास कहें या अपनी छवि बदलने की कोशिश, भाजपा की ओर से आगामी आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की दौड़ में सबसे आगे चल रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सोशल मीडिया की 11 प्रमुख वेबसाइटों पर न केवल मौजूद हैं बल्कि पूरी सक्रियता के साथ अपनी बात रख रहे हैं । दुनिया की सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर लोकप्रियता के मामले में नरेंद्र मोदी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम करूणानिधि जैसे चर्चित नेताओं को पीछे छोड़ते हुये पहले स्थान पर पहुंच गये हैं । फेसबुक पर उनके आधिकारिक पेज को 14,90,818 लोगों ने ‘लाइक’ किया है जबकि 1,25,629 लोग उनके बारे में चर्चा कर रहे हैं । मोदी ने पांच मई, 2009 को फेसबुक की दुनियां में कदम रखा था । जनता से जुड़ने के लिये मोदी अपने फेसबुक पेज का जोरदार इस्तेमाल करते हैं । इस पेज पर मोदी की फोटो और वीडियो तथा उनके विचार देखे और पढे जा सकते हैं । उल्लेखनीय है कि आईआरआईएस ज्ञान फाउंडेशन और भारतीय इंटरनेट एवं मोबाइल संघ द्वारा हाल ही में कराये गये एक अध्ययन में कहा गया है कि अगले आम चुनाव में सोशल मीडिया लोकसभा की 543 में से 160 सीटों को प्रभावित कर सकता है । अध्ययन में कहा गया है कि इनमें से महाराष्ट्र से सबसे अधिक फेसबुक के प्रभाव वाली 21 सीटें और गुजरात से 17 सीटें शामिल है। सबसे अधिक प्रभाव वाली सीट से आशय उन सीटों से है जहां पिछले लोकसभा चुनाव में विजयी उम्मीदवार के जीत का अंतर उस क्षेत्र विशेष में फेसबुक का प्रयोग करने वालों की संख्या से कम है अथवा जिन सीटों पर फेसबुक का प्रयोग करने वालों की संख्या कुल मतदाताओं की संख्या का 10 प्रतिशत है। माइक्रो ब्लागिंग वेबसाइट ट्विटर पर भी नरेंद्र मोदी बेहद सक्रिय हैं जहां उनके 14,59,356 ‘फालोअर’ हैं और वह खुद 346 लोगों को ‘फालो’ करते हैं जिनमें कई नामचीन हस्तियां शामिल हैं । मोदी की सक्रियता का पता इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अब तक 2276 ट्वीट किया है । मोदी की वेबसाइट ‘नरेंद्रमोदीडॉटइन’ पूरी तरह से चुनावी रंग में रंगी नजर आती है । इस वेबसाइट के पहले पेज पर उनका नया नारा ‘पहले भारत :इंडिया फर्स्ट’ लिखा नजर आता है । साथ ही इस पर लिखा है ‘दल से पहले देश है’ । मोदी की वेबसाइट तीन भाषाओं अंग्रेजी, हिंदी और गुजराती में है । दुनियाभर की वेबसाइटों की रैंकिंग करने वाली चर्चित वेबसाइट ‘अलेक्सा डॉट कॉम’ के मुताबिक विश्व स्तर पर नरेंद्र मोदी की वेबसाइट का रैंक 17,681 हैं जबकि भारत में इसकी रैंक 1338 है। अलेक्सा के मुताबिक नरेंद्र मोदी की वेबसाइट सबसे अधिक अमेरिका में देखी जाती है और इसके बाद ब्रिटेन तथा नीदरलैंड का नंबर आता है । नरेंद्र मोदी गूगल की चर्चित सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट ‘गूगल प्लस’ पर भी मौजूद हैं जहां उन्हें 5,01,864 लोगों ने अपने ‘सर्कल’ में शामिल कर रखा है । ‘गूगल प्लस’ पर मोदी ने श्रीराम कालेज ऑफ़ कामर्स में छात्रों के साथ खींची गई अपनी फोटो लगा रखी है । गुजरात के मुख्यमंत्री का वीडियो शेयरिंग वेबसाइट यूट्यूब पर अपना एक चैनल है जिसको 36,177 लोगों ने ‘सब्सक्राइब’ कर रखा है । मोदी से जुड़े वीडियो को अब तक 61,56,676 बार देखा गया है । यूट्यूब के इस चैनल पर मोदी के भाषणों को देखा जा सकता है । इसके अलावा नरेंद्र मोदी फोटो शेयरिंग वेबसाइट ‘पिंटरेस्ट’, ‘फ्लिकर’, ‘टंबलर’ तथा ‘स्टंबलअपान’ जैसी भारत में कम लेकिन विदेशों में ज्यादा प्रचलित वेबसाइटों पर भी दमदार तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। यही नहीं उनके नाम से एंड्रायड और आईफोन इस्तेमाल करने वालों के लिये आधिकारिक एप्लीकेशन भी बनाया गया है ।
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