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Old 05-02-2012, 10:18 PM   #18
Dr. Rakesh Srivastava
अति विशिष्ट कवि
 
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच


( 12 )


पायल को जिस घड़ी का बेसब्री से इन्तजार था , वो नज़दीक आ गयी थी . चंचल और पायल की शादी की तारीख सांचे में ढलकर स्पष्ट आकार ले चुकी थी . कार्ड भी छप चुके थे .
पायल गुलशन के घर उसको अपनी शादी का निमंत्रण - पत्र देने जा रही थी . आज उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी , गुलशन से नज़रें मिलानें की . एक तरफ उसे अपनी और चंचल की शादी तय होने की ख़ुशी थी , तो दूसरी और अंध प्रेम के कारण गुलशन की बर्बादी का गम था . वह जानती थी कि गुलशन अभी तक आस लगाए बैठा है कि वो चंचल से दूर छिटककर उसकी बाहों में कभी न कभी आ गिरेगी .
जब वो गुलशन के घर पहुँची , तो उसने देखा कि वह दरवाजे की तरफ पीठ किये बैठा है और हाथ में उसी की तस्वीर लिये देख रहा है .
पायल के पसीज गए दिल की नमी आँखों में उतर आयी . वह दबे पाँव गुलशन के सामने खड़ी हो गयी .
उसे सामने देखकर गुलशन बोला -- " बैठो . "
बैठते हुए पायल ने बात शुरू करने की गरज से पूछ लिया -- " किसकी तस्वीर देखी जा रही थी ? "
गुलशन निराशा से बोला -- " जिसे पाने की आस लिये जिन्दा हूँ . "
उसकी बात सुनकर पायल ने सोचा कि वो बिना कार्ड दिए ही वापस लौट जाये . मगर फिर उसके दिमाग में दूसरा विचार आया कि उसे अँधेरे में रखना उचित नहीं . बता देना ही ठीक रहेगा . सच्चाई से मुंह मोड़ना हितकर नहीं .
पायल ने अपराधी सा सर झुकाकर अपनी शादी का एक कार्ड गुलशन की ओर बढ़ा दिया .
गुलशन ने लिफाफा हाथ में थामते हुए पूछा -- "क्या है ? "
जवाब देने के लिये पायल के होठ काँपे , मगर जुबान कमजोर पड़कर गूँगी हो गयी .
गुलशन ने लिफाफा खोलकर जैसे ही कार्ड देखा , उसका पूरा शरीर सूखे पत्ते कि भाँति काँप गया और चेहरा अचानक इस कदर अपशगुनी पीला पड़ गया जैसे कि लिफ़ाफ़े पर लगी शगुन की हल्दी का रंग . उसे लगा - - - उसकी आँखों में खूब बड़े दो मोतियाबिन्द उभर आये हैं , जिनके चलते उसके दिमाग में कुछ देर को अँधेरा छा गया हो . और सहमी पायल ने उस क्षण उसकी पथराई आँखों में भयंकर पीड़ा को पसीजते देखा . गुलशन ने अपनी बाईं छाती को हाथ से मसलकर थोड़ी देर तक अपने फड़कते होठ काटे , चेहरे पर बेचैनी लाया और फिर लगातार पायल की तरफ कातर दृष्टि से निहारने लगा . पायल की नज़रें स्वतः झुक गईं .
थोड़ी देर बाद !
पायल बिना आँख मिलाये ही उससे बोली -- " गुलशन ! एक बात पूछूँ ? "
वह धीमी पराजित आवाज़ में बोला -- " अभी भी कुछ पूछने को बचा है ? "
" हाँ . तुम्हें अपना वादा याद है न ? जो तुमने चंचल के घर पर पहली मुलाक़ात में मुझसे किया था . "
और उसके इस प्रश्न के साथ ही अपमान और पीड़ा की न जाने कितनी सूइयाँ गुलशन के शरीर में घुस गयीं . ऐसा लगा , जैसे उसे किसी ने तमाचा मारकर तेज़ाब से भरे टब में धकेल दिया हो .
वह तड़पकर बोला -- " वादा ! मात्र वादे की बात करती हो . अरे मुझे तो कॉलेज के जमाने के वो फागुनी बयार में डूबे सतरंगी दिन भी याद हैं , जिन्हें तुम भूल चुकी हो . फिर भी पायल - - - मेरे वादे पर यकीन रखो . वादा खिलाफी नहीं होगी . क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ . पवित्र प्यार . और असली प्यार वादे से कभी मुकर नहीं सकता . "
पायल बोली -- " गुलशन ! मैं चाहती हूँ कि शादी करके तुम भी सुख का जीवन व्यतीत करो . मानोगे न मेरी बात ? करोगे न विवाह ? "
" विवाह - - - शादी - - - ब्याह ! ये किसी और ही देश की जुबाने हैं पायल . मैं ये भाषा नहीं जानता . मै तो सिर्फ गम की जुबान बोलता हूँ . सच तो ये है पायल - - - कि जिस तरह कोई कांटेदार बेल नन्हे से पौधे को अपनी लपेट में ले लेती है , उसी तरह तुम्हारे प्यार ने मुझे अपनी बाहों में समेट लिया है . "
पायल चुप रही . वह बोलती भी क्या .
गुलशन ने बड़ी मासूमीयत व बेबसी से कहा -- " एक बात पूछूँ पायल ? क्या तुम्हें मुझ पर बिल्कुल दया नहीं आती ? "
इतना कहकर गुलशन पायल के कन्धों पर अपने कंपकपाते हाथ टिकाकर और उसकी आँखों में आँखें डालकर रो पड़ा . उसके आँसू एकबारगी भरभरा कर बह उठे . मानो कोई पहाड़ी बादल अचानक फट पड़े और अपने भीतर तैर रहे कुल पानी को एक साथ ज़मीन पर छोड़कर त्वरित बाढ़ का कारण बन जाये . ऐसी वेग वान बाढ़ ! जिसकी चपेट में आकर बड़े - बड़े स्थिर पत्थर भी लुढ़क कर बह जायें .
पायल के लिये ये बड़ी असमंजस की घड़ी थी . उसके लिये गुलशन की यह ह्रदय विदारक स्थिति असहनीय हो गयी . उसे लगा कि वह गुलशन की आँखों से उमड़ रहे आंसुओं की बाढ़ में डूबी - बही जा रही है . उसकी आँखों से भी आंसुओं की तेज़ धारायें फूट पड़ीं . उससे रहा न गया और दिल के हाथों मजबूर होकर वह गुलशन से लिपट गयी . गुलशन के प्रति उसके मन में करुणा इस तरह फूट पड़ी , जैसे पुत्र - वत्सला जननी के स्तनों से ममता की निर्झरनी दुग्ध - धारा . जब कुछ न सूझा तो उसके सिर को अपनी छाती से टिकाकर वह अपने हाथों से जहाँ - तहां गुलशन को सहलाकर उसे मौन सांत्वना देने लगी .
कुछ देर बाद !
भावुक भयी पायल ने कहा -- " गुलशन ! लगता है तुम जैसा विशाल मना भी भावना में बहकर मेरे आचरण का तटस्थ व उचित मूल्यांकन नहीं कर सका . सुनो ! प्रत्येक व्यक्ति की सोच - - - उसकी प्राथमिकतायें और जीने के तरीके प्रथक - प्रथक होते हैं . कोई ज़रूरी तो नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारे ही दृष्टिकोण से तुम्हारी सुविधानुसार सोचे व करे . स्वनिर्मित पूर्वाग्रहों के कारण शायद तुम यह सोच भी नहीं सकते कि मेरे मन में तुम्हारे प्रति कितना श्रृद्धा - भाव है . मैं तुम्हारी भलमनसाहत की बड़ी कद्र करती हूँ . किन्तु इज्जत करना एक बात है और प्यार व शादी करना बिल्कुल उलट दूसरी . इज्जत किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति की - की जा सकती है मगर गंभीर प्यार करने व उसे सफल विवाह तक पहुंचाने के वास्ते खुले व विस्तृत दिमाग से काम लेना पड़ता है . जबकि तुम प्यार और शादी के सन्दर्भ में दिमाग से नहीं बल्कि एकतरफा दिल से काम ले रहे हो . सच पूछो तो मैं स्वयं से अधिक तुम्हें पसन्द करती हूँ . इसीलिये तुम्हारा दुःख मुझसे देखा नहीं जाता . तुम्हारी दशा देखकर एक अपराध - बोध सा मुझ पर गहरा प्रभाव डाल रहा है . लगता है - -- - तुम्हारे इस बिगड़े हाल के लिये मैं और सिर्फ मैं ही जिम्मेदार हूँ . यदि कहीं यह प्रभाव स्थायी रूप धारण कर गया तो शायद मैं खुद को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगी . लेकिन हकीकत ये भी है कि मैं चंचल से अत्यधिक प्यार करती हूँ . उसके बगैर अपने भविष्य की कल्पना भी नहीं कर सकती . यह जानने सुनने के बावजूद भी अगर तुम सोचते हो कि मुझसे विवाह करने के अतिरिक्त तुम्हारे पास सुख से रहने का कोई और विकल्प नहीं है तो मैं अपने ह्रदय में तुम्हारे प्रति असीम श्रृद्धा कि खातिर तुम्हारे प्यार पर अपना प्यार कुर्बान कर दूँगी . चंचल को बेमन से त्याग कर तुमसे शादी कर लूंगी . क्योंकि युगों - युगों से स्त्री जाति से त्याग की ही अपेक्षा तो की जाती रही है और अबला स्त्री चाहे - अनचाहे मन - बेमन से प्रायः ऐसा करती भी आयी है . जाओ गुलशन - - - तुम भी क्या याद करोगे कि कोई लड़की तुम्हारी ज़िन्दगी में आयी थी . मगर हाँ - - - एक बात अभी से साफ़ करे देती हूँ - - - कि सच्चे मन से तुम्हें प्यार दे पाऊंगी या नहीं - - - ये तो अभी मैं भी नहीं कह सकती . ये तो आने वाला वक्त ही बतायेगा . चलो - - - तुमसे सहानुभूति और श्रृद्धा वश ही सही - - - किन्तु आज मैं स्वयं को तुम्हारे संरक्षण में , तुम्हारे फैसले पर समर्पित कर रही हूँ - - - आगे तुम्हारी मरजी . मैं जानती हूँ - - - अगर मैनें ऐसा न किया तो औरत जात पर बेवफाई का एक और बेमानी ठप्पा लग जायेगा . "
पायल का प्रस्ताव सुनकर गुलशन को अपने कानों पर पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ . उसे यकीन नहीं हो रहा था कि पायल पके आम सी यूँ अचानक उसकी झोली में टपक पड़ेगी . मगर ज्यों ही एक साथ उसके जिस्म , रूह और एहसास ने भी सुनने की गवाही दी और जब देर तक बिना रुके पायल के समर्पण के शब्द उसके दिमाग में शहनाई की तरह गूंजते रहे तो उसे अपने कानों पर भरोसा करना ही पड़ा . इसी के साथ उसकी नम आँखों के सामने तिरमिरे से नाचने लगे और वो कुछ बोलना भी चाहा , मगर आवाज़ में कम्पन आ गया और ऐसे नाज़ुक मौकों पर जैसा कि अक्सर होता है - - - शब्द जवाब दे गये .
और ऐसे समय पीने वालों को सिगरेट बहुत सहारा देती है . उसने एक सिगरेट मुंह से लगा कर सुलगा ली . इसी के साथ उसका दिमाग कम्प्यूटर की सी तेजी से चलने लगा .
बड़ी अजीब उलझन मुंह बाये खड़ी हो गयी थी गुलशन के सम्मुख . ऐसे हालात - - - जहाँ आवेदक भी वही था और निर्णायक भी वही . एक तरफ आवेदक की सी स्वच्छन्दता और दूसरी ओर निर्णायक की भारी भरकम ज़िम्मेदारी . वह दोनों में कोई तालमेल ही नहीं बैठा पा रहा था . आकांक्षा और उत्तरदायित्व के दो पाटों के बीच स्वयं को फंसा - पिसता अनुभव कर रहा था वह . कहाँ तो विगत कई वर्षों से वह पायल और उसके प्यार को पाने के लिये तड़प रहा था और कहाँ अब जब वह उसे नसीब भी हो रही थी तो बिना प्यार की गारन्टी के - - - उस पर रहम खाकर - - - भीख की तरह . इस हेतु उसने उसी के कन्धों पर फैसले की ज़िम्मेदारी भी डाल दी थी - - - समर्पण सहित उसका संरक्षण स्वीकार करके . वह सोच रहा था कि यदि वह चंचल के प्यार में डूबी - नहायी पायल की क्षणिक व तात्कालिक अनुकूल भावनाओं का लाभ उठाकर उससे शादी कर भी ले तो क्या इस अनमने बन्धन से उसका वैवाहिक जीवन सुखमय और सफल हो पायेगा . उसका चंचल मन बारम्बार कह रहा था कि वह पायल के द्रवित ह्रदय में अंकुरित सहानुभूति के ज्वार का लाभ उठाकर उससे शादी की हामी भर दे किन्तु उसकी सत्यवादी आत्मा इन विशेष परिस्थितियों में उसे ऐसा करने से रोक रही थी . और जैसा कि संस्कारवान लोगों में प्रायः होता है - - - मन और आत्मा के द्वंद्व में आत्मा की आवाज़ विजयी रही . इस रीति विशेष से जीतने की अपेक्षा हारने को उसके विवेक ने अधिक श्रेयस्कर समझा .
और उधर !
सुलग कर क्षीण होती सिगरेट के साथ - साथ गुलशन के निर्णय हेतु बेचैनी से प्रतीक्षारत पायल का धैर्य भी समाप्त होता जा रहा था . गुलशन की आकाश से भी लम्बी लगती खामोशी के मध्य उसके उत्सुक कानों से जब और अधिक बर्दाश्त न हुआ तो उसके धड़ - धड़ धड़कते दिल ने डरे - दबे पाँव जबान पर आकर गुलशन से जिज्ञासा प्रकट की -- " क्या फैसला रचा तुमने ? किस विधि लिखी मेरी तकदीर ? "
" हँ हं ! " गुलशन ने संतोष से लबालब मंद मुस्कान बिखेर कर कहा -- " हम कौन होते हैं किसी की तकदीर लिखने वाले ! ईश्वर का लिखा भला कोई पलट सका है !!हम तो अधिक से अधिक उसे बांचने का अधकचरा प्रयास भर कर सकते हैं . "
" फिर भी - - - क्या बाँचा ? मैं भी तो कुछ सुनूँ . " उसके शरीर का एक - एक रोम - कूप कान बनकर सुनने को चौकन्ना हो गया .
गुलशन परिपक्वों की तरह बोला -- " पायल ! जिस घड़ी तुमने परम विश्वास से मुझे अपना संरक्षक कहकर निर्णय का अधिकार भी मुझे ही सौंप दिया , उसी पल मुझ पर यह जिम्मेदारी स्वतः नियत हो गयी थी कि मैं खुद से ऊपर उठकर तुम्हारे हितों को सर्वोपरि रखूँ ."
" गुलशन ! यूँ पहेलियाँ न बुझाओ . ज़रा जल्दी स्पष्ट कहो - - - मुझे करना क्या होगा ? "
" करना क्या है - - - तुम्हारी व चंचल की शादी के जो कार्ड छपे हैं - - - उन्हें जल्द से जल्द बांटना भर होगा . " उसने बुजुर्गों की तरह पायल के सिर पर हाथ सहलाकर पूछा -- " समझी कि नहीं ? ''
पायल आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी से आँखें नम करके रुंधे कंठ से बोली -- " समझी ! खूब समझी . "
" पगली ! क्या समझी ? "
" यही - - - कि अब तक मैं ये समझती थी कि केवल ऐफिल टॉवर ही बहुत ऊँचा है - - - किन्तु आज तुम्हें और भी ठीक से समझने के बाद समझी कि अब तक मैं गलत समझती थी . " इतना कहकर उसने अपने पांवों के पंजों पर खूब तनकर बड़ी मुश्किल से गुलशन के चौड़े बुलंद मस्तक को श्रृद्धा वश चूम लिया . न जाने आज क्यों उसे गुलशन का कद कुछ बढ़ा - बढ़ा सा लग रहा था .
" चहचहाकर पायल पुनः बोली -- " अच्छा - - - अब मैं चलती हूँ . मुझे अपनी एक सहेली को कार्ड देने जाना है . अभी तो जल्दी है . अगली बार जब मिलूंगी - - - तो बड़े अधिकार पूर्वक तुम्हारे वास्ते भी दो गाँठ हल्दी का प्रबन्ध करने का प्रयास करूंगी . तुम पर दबाव बनाकर . तुम्हें राजी करके . तुम्हारी तन्हाई की दवा की खातिर . किसी सुशीला के साथ तुम्हें गृहस्थी में जकड़ने के लिये . जिससे तुम्हें मेरी छाया से भी मुक्त होने में आसानी रहे . " इसी के साथ - - - गुज़रे ग्रहण के पश्चात भय मुक्त होकर नीड़ से बाहर उजाले में निकले पँछी की भांति वह फुर्र से कमरे के बाहर उड़ - सी गयी . और - - - और उसकी प्रसन्नता को आँखों से नापकर , स्वयं को अपनी उम्र से बड़ा अनुभव करते गुलशन ने यह सोचकर मुस्कान भरी संतोष की एक गहरी सांस ली - - - कि जोड़े निश्चित ही ऊपर से तय होकर नीचे आते हैं . व्यक्ति तो बस अपने तय जोड़ीदार की तलाश में तब तक भटकता है , जब तक वह मिल नहीं जाता .

[19]
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