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Old 11-01-2014, 08:27 PM   #1
bindujain
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Default लघुकथाएँ

प्रेरक लघुकथा : बड़ी सोच

एक बार एक आदमी ने देखा कि एक गरीब फटेहाल बच्चा बड़ी उत्सुकता से उसकी महंगी ऑडी कार को निहार रहा था। गरीब बच्चे पर तरस खा कर अमीर आदमी ने उसे अपनी कार में बैठा कर घुमाने ले गया।

लड़के ने कहा : साहब आपकी कार बहुत अच्छी है, यह तो बहुत कीमती होगी न...।

अमीर आदमी ने गर्व से कहा : हां, यह लाखों रुपए की है।

गरीब लड़का बोला : इसे खरीदने के लिए तो आपने बहुत मेहनत की होगी?

अमीर आदमी हंसकर बोला : यह कार मुझे मेरे भाई ने उपहार में दी है।

गरीब लड़के ने कुछ सोचते हुए कहा : वाह! आपके भाई कितने अच्छे हैं।

अमीर आदमी ने कहा : मुझे पता है कि तुम सोच रहे होंगे कि काश तुम्हारा भी कोई ऐसा भाई होता जो इतनी कीमती कार तुम्हे गिफ्ट देता!!

गरीब लड़के की आंखों में अनोखी चमक थी, उसने कहा : नहीं साहब, मैं तो आपके भाई की तरह बनना चाहता हूं...

सार : अपनी सोच हमेशा ऊंची रखो, दूसरों की अपेक्षाओं से कहीं अधिक ऊंची, तो तुम्हें बड़ा बनने से कोई रोक नहीं सकता।

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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
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Old 11-01-2014, 08:32 PM   #2
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Default Re: लघुकथाएँ

मेजबान


'कभी हमारे घर को भी पवित्र करो।' करूणा से भीगे स्वर में भेड़िये ने भोली-भाली भेड़ से कहा।

'मैं जरूर आती बशर्ते तुम्हारे घर का मतलब तुम्हारा पेट न होता।' भेड़ ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया।



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Old 11-01-2014, 08:34 PM   #3
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Default Re: लघुकथाएँ

मोती

एक बार, एक सीप ने अपने पास पड़ी हुई दूसरी सीप से कहा, “मुझे अंदर ही अंदर अत्यधिक पीड़ा हो रही है। इसने मुझे चारों ओर से घेर रखा है और मैं बहुत कष्ट में हूँ।”


दूसरी सीप ने अंहकार भरे स्वर में कहा, “शुक्र है. भगवान का और इस समुद्र का कि मेरे अंदर ऐसी कोई पीड़ा नहीं है । मैं अंदर और बाहर सब तरह से स्वस्थ और संपूर्ण हूँ।”

उसी समय वहाँ से एक केकड़ा गुजर रहा था । उसने इन दोनों सीपों की बातचीत सुनकर उस सीप से, जो अंदर और बाहर से स्वस्थ और संपूर्ण थी, कहा, “हाँ, तुम स्वस्थ और संपूर्ण हो; किन्तु तुम्हारी पड़ोसन जो पीड़ा सह रही है वह एक नायाब मोती है।”
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Old 11-01-2014, 08:37 PM   #4
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Default Re: लघुकथाएँ

अब राम राज्य आएगा


बापू के तीनों बंदर बापू की मुसकुराती प्रतिमा के सामने जा कर खड़े हो गये। तीनों की आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। कान बंद किये हुए बंदर बोला-‘बापू बहुत समय हो गया। कान बंद करके भले ही बुरा न सुना हो, पर जो न चाहा था उसे मजबूरी से देखना पड़ रहा है, बहुत कहा किंतु किसी ने उस पर अमल नहीं किया। अब सहा नहीं जाता। कहते जबान थक चली है। असहनीय इतना है कि अब देखा भी नहीं जाता।'
मुँह बंद किये हुए बंदर की आपबीती कान बंद किये बंदर ने सुनाई। बोला-‘बापू इतना कुछ देखने के बाद तो अब इससे बोले बिना नहीं रहा जाता, बहुत विचलित रहता है। सुना इतना कि अब तो कान भी पक गये हैं।'
आँखे बंद किये तीसरा बंदर बोला- ‘बापू, ये सच बोल रहे हैं, मैं भी जो सुन रहा हूँ, असहनीय होता जा रहा है। बोलने की क्या कहूँ, मुझे कायर तक समझने लगते हैं, व्यंग्य करते हैं। देखने और सुनने से जब ये इतने व्यथित हैं, तो मैंने भी यदि देखा, तो मैं भी सह नहीं पाउँगा। क्या हो गया है मेरे देश को? आपने राम राज्य का सपना देखा था, हम तीनों आपके लिए कुछ नहीं कर सके।'
तीनों ने हाथ नीचे करते हुए कहा- हमें क्षमा करें बापू, इतने समय से हम यह बात नहीं समझ पाये कि हमारे हाथ बँधे हुए थे। आपने हाथ बाँधने के लिए तो नहीं कहा था !हमें अपने हाथ खोलने होंगे बापू। अब समय आ गया है,हमें अब इन हाथों से कुछ कर गुजरना होगा,तब ही देश के हालात बदलेंगे।
बापू अब भी मुसकुरा रहे थे। ऐसा लगा, वे कह रहे हों-‘अब राम राज्य आएगा !!
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Old 11-01-2014, 08:39 PM   #5
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Default Re: लघुकथाएँ

भ्रष्टाचार मिट सकता है

दो साहित्यकार घर पर मिले। एक बहुत चिन्तित थे। दूसरे ने पहले साहित्यकार से कहा-‘क्या बात है, बहुत चिन्तित दिखाई दे रहे हो। घर में सब ठीक तो है। पहले साहित्यकार ने कहा-‘घर में तो सब ठीक है, पर देश में कुछ ठीक नहीं चल रहा। अब तो विदेशों में भी अपने देश के भ्रष्टाचार के बारे में जानने लगे हैं लोग। पिछले दिनों ही अखबार में पढ़ा था कि एशिया प्रशांत में अपना देश भ्रष्ट देशों में चौथे नम्बर पर है।'

'हाँ, मैंने भी पढ़ा था।' क्या कर सकते हैं, कैंसर की तरह फैल चुका है यह रोग। कैसे मिटेगा यह लाइलाज रोग?'

पहले साहित्*यकार ने कहा-‘मैं आजकल इसी विचार में रहता हूँ। भ्रष्*टाचार की जड़ है यह रुपया। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पहले के राजा महाराजाओं की तरह देश में शासन करने वाली सरकार के ही नोट चलन में आयें और सरकार बदलने पर वे नोट चलन से बाहर हो जायें। इतिहास गवाह है, चमड़े के सिक्के चले, जॉर्ज पंचम के बाद महारानी के चित्र वाले नोट चले। फिर क्यों नहीं हमारे राष्ट्रपिता को इस मुद्रागार से मुक्त कर स्वच्छंद मुस्कुराने दें। डाक घर में देखो तो इनकी टिकिट पर ठप्पे से चोट पर चोट लगती है, शादी विवाह, पार्टियों में नोट उड़ाये जाते हैं। नोटों की कालाबाजारी, भ्रष्टाचारी, सट़टेबाजी में बापू को खुले आम शर्मसार किया जाता है। जो सरकार आये उसके चुनाव चिह्न वाले या सरकार के प्रमुख प्रधानमंत्री के चित्र वाले नोट छपें और सरकार के बदलते ही उनके नोट चलन से बाहर हो जायें। इससे कालाबाजारी, जमाखोरी भी कम होगी। करोड़ों अरबों के भ्रष्टाचार भी कम होंगे। कहो कैसी रही?’

दूसरे साहित्यकार अट्टहास करते हुए कहा-‘खूब रही।'
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Old 11-01-2014, 10:01 PM   #6
rajnish manga
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Default Re: लघुकथाएँ

मनोरंजन और शिक्षा देने वाली लघुकथाएं.






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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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Old 16-01-2014, 04:58 AM   #7
bindujain
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Default Re: लघुकथाएँ

अनुताप
“बाबूजी आइए---मैं पहुँचाए देता हूँ।”एक रिक्शेवाले ने उसके नज़दीक आकर कहा, “असलम अब नहीं आएगा।” “क्या हुआ उसको ?” रिक्शे में बैठते हुए उसने लापरवाही से पूछा। पिछले चार-पाँच दिनों से असलम ही उसे दफ्तर पहुँचाता रहा था।
“बाबूजी, असलम नहीं रहा---”
“क्या?” उसे शाक-सा लगा, “कल तो भला चंगा था।”
“उसके दोनों गुर्दों में खराबी थी, डाक्टर ने रिक्शा चलाने से मना कर रखा था,” उसकी आवाज़ में गहरी उदासी थी, “कल आपको दफ्तर पहुँचा कर लौटा तो पेशाब बंद हो गया था, अस्पताल ले जाते समय उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था---।”
आगे वह कुछ नहीं सुन सका। एक सन्नाटे ने उसे अपने आगोश में ले लिया---कल की घटना उसकी आँखों के आगे सजीव हो उठी। रिक्शा नटराज टाकीज़ पार कर बड़े डाकखाने की ओर जा रहा था। रिक्शा चलाते हुए असलम धीरे-धीरे कराह रहा था।बीच-बीच में एक हाथ से पेट पकड़ लेता था। सामने डाक बंगले तक चढ़ाई ही चढ़ाई थी।एकबारगी उसकी इच्छा हुई थी कि रिक्शे से उतर जाए। अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया था-‘रोज का मामला है---कब तक उतरता रहेगा---ये लोग नाटक भी खूब कर लेते हैं, इनके साथ हमदर्दी जताना बेवकूफी होगी--- अनाप-शनाप पैसे माँगते हैं, कुछ कहो तो सरेआम रिक्शे से उतर पड़ा था, दाहिना हाथ गद्दी पर जमाकर चढ़ाई पर रिक्शा खींच रहा था। वह बुरी तरह हाँफ रहा था, गंजे सिर पर पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदें दिखाई देने लगी थीं---।
किसी कार के हार्न से चौंककर वह वर्तमान में आ गया। रिक्शा तेजी से नटराज से डाक बंगले वाली चढ़ाई की ओर बढ़ रहा था।
“रुको!” एकाएक उसने रिक्शे वाले से कहा और रिक्शे के धीरे होते ही उतर पड़ा।
रिक्शे वाला बहुत मज़बूत कद काठी का था। उसके लिए यह चढ़ाई कोई खास मायने नहीं रखती थी। उसने हैरानी से उसकी ओर देखा। वह किसी अपराधी की भाँति सिर झुकाए रिक्शे के साथ-साथ चल रहा था।

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Old 16-01-2014, 05:02 AM   #8
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Default Re: लघुकथाएँ

ऑक्सीजन

वह सड़क पर नज़रें गड़ाए बहुत ही सुस्त चाल से चल रहा था। मजबूरी में मुझे बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ाने पड़ रहे थे।
“भाई साहब---दो मिनट सुस्ता लें?” उसने पुलिया के नज़दीक रुकते हुए पूछा।
“हाँ---हाँ, जरूर ।” मैंने कहा।
“बहुत जल्दी थक जाता हूँ, लगता है जैसे शरीर में जान ही नहीं है।” वह निराशा से बुदबुदाया। फिर उसने एक सिगरेट सुलगा ली।
सुबह की सैर पर निकले लोग उसके सिगरेट पीने की हैरानी से देख रहे थे। तभी कुछ फौजी दौड़ते हुए हमारे सामने से गुज़रे।
“मैं आपको भी इन फौजियों की तरह दौड़ लगाते देखा करता था,” उसने कहा, “मेरी वजह से आप दौड़ नहीं पाते----।”
“नहीं---नहीं, आप गलत सोच रहे हैं,” मैंने उसकी बात काटते हुए जल्दी से कहा, “मुझे तो आपका साथ बहुत पसंद है।”
उसने मेरी ओर देखा। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, आँखों से जीवन के प्रति घोर निराशा झाँक रही थी। चार दिन पहले गाँधी पार्क में टहलते हुए मेरा और उसका साथ हो गया था। ज़िदगी कुछ लोगों के साथ कितना क्रूर मज़ाक करती है, एक के बाद एक हादसों ने उसे तोड़कर रख दिया था।
हम फिर टहलने लगे थे, वह लगातार निराशाजनक बातें कर रहा था।
“मुझे थकान-सी महसूस हो रही है।” थोड़ी देर बाद मैंने उससे झूठ बोलते हुए कहा।
“आप थक गए? इतनी जल्दी!---मैं तो नहीं थका!!” उसकें मुँह से निकला।
“फिर भी दो मिनट बैठिए---मेरी खातिर!!”
“क्यों नहीं---क्यों नहीं!” इन चार दिनों में पहली बार उसके होंठों पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान रेंगती दिखाई दी।
इस बार उसने सिगरेट नहीं सुलगाई बल्कि दो-तीन बार लंबी साँस खींचकर फेफड़ों में ताजी हवा भरने का प्रयास किया। थोड़ा सुस्ताने के बाद जब हम चले तो मैंने देखा, उसकी चाल में पहले जैसी सुस्ती नहीं थी।

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Old 16-01-2014, 05:13 AM   #9
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Default Re: लघुकथाएँ

आखिरी तारीख

“वर्माजी !”उसने पुकारा।
बड़े बाबू की मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उनकी आँखें बंद थीं और दाँतों के बीच एक बीड़ी दबी हुई थी। ऐश-ट्रे माचिस की तीलियाँ और बीड़ी के अधजले टुकड़ों से भरी पड़ी थी।
सुरेश को आश्चर्य हुआ। द्फ्तर के दूसरे भागों से भी लड़ने-झगड़ने की आवाज़ें आ रही थीं। बड़े बाबू की अपरिवर्तित मुद्रा देखकर वह सिर से पैर तक सुलग उठा। उसकी इच्छा हुई एक मुक्का उनके जबड़े पर जड़ दे ।
“वर्माजी, आपने आज बुलाया था!” अबकी उसने ऊँची आवाज में कहा।
बड़े बाबू ने अपनी लाल सुर्ख आँखें खोल दीं। सुरेश को याद आया---पहली दफा वह जब यहाँ आया था तो बड़े बाबू के व्यवहार से बहुत प्रभावित हुआ था। तब बड़े बाबू ने आदर के साथ उसे बिठाया था और उसके पिता की फाइल ढ़ूँढ़कर सारे कागज़ खुद ही तैयार कर दिए थे। दफ्तर के लोग भी एकाग्रचित् हो काम कर रहे थे।
बड़े बाबू अभी भी उसकी उपस्थिति की परवाह किए बिना टेबल कैलेंडर पर एक तारीख के इर्द-गिर्द पेन से गोला खींच रहे थे। उसने बड़े बाबू द्वारा दायरे में तारीख को ध्यान से देखा तो उसे ध्यान आया, आज महीने का आखिरी दिन है और पिछली दफा जब वह यहाँ आया था, तब महीने का प्रथम सप्ताह था। बड़े बाबू के तारीख पर चलते हाथ से ऐसा लग रहा था मानो वे इकतीस तारीख को ठेलकर आज ही पहली तारीख पर ले आना चाहते थे।
एकाएक उसका ध्यान आज सुबह घर के खर्चे को लेकर पत्नी से हुए झगड़े की तरफ चला गया। पत्नी के प्रति अपने क्रूर व्यवहार के बारे में सोचकर उसे हैरानी हुई। अब उसके मन में बड़े बाबू के प्रति गुस्सा नहीं था बल्कि वह अपनी पत्नी के प्रति की गई ज्यादती पर पछतावा हुआ।वह कार्यालय से बाहर आ गया।

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Greenlandzone
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