03-04-2011, 06:30 PM | #11 |
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Re: !!वसंत ऋतु के गीत!!
इस बार
कुछ नहीं बदला वसंत में न बाबा का सलूखा न गुड़िया की फ़्राक न माँ की साड़ी सिर्फ़ बदली सरकार बदले राजनेता ज्यों की त्यों रही पुरानी छप्पर और सायकिल का पिछला टायर रुक गई फिर बहन की शादी पत्ते ही झड़ते रहे हमारे सपनों में इस बार कुछ नहीं बदला वसंत में । निर्मल आनन्द
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03-04-2011, 06:44 PM | #12 |
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Re: !!वसंत ऋतु के गीत!!
इस साल वसन्त में मेरी बेटी दो बरस की हो जाएगी ख़ुशी आएगी हमारे घर में भी वसन्त में हम मनाएंगे विवाह की तीसरी सालगिरह मेरी बहन ने नौकरी के लिए की है किसी से बात वसन्त तक मिलेगा जवाब वसन्त आने में एक जन्म का फ़ासला है. सुन्दरचन्द ठाकुर
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03-04-2011, 06:56 PM | #13 |
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Re: !!वसंत ऋतु के गीत!!
उम्र के चालीसवें वसंत में-
गिरती है समय की धूप और धूल फ़र-फ़र करती झरती हैं तरुण कामनाएँ थोड़े और घने हो जाते है मौन के प्रायः दीप फिर, फिर खोजता है मन सताए हुए क्षणों में सुख! उम्र के चालीसवें वसंत में- छातों और परिभाषाओं के बगैर भी गुज़रता है दिन सपने और नींद के बावजूद बीतती है रात नैराश्य के अन्तिम अरण्य के पार भी होता है सवेरा जीवन के घने पड़ोस में भी दुबकी रहती है अनुपस्थिति! उम्र के चालीसवें वसंत में- स्थगित हो जाता है समय खारिज हो जाती है उम्र बीतना हो जाता है बेमानी! मनीष मिश्र
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03-04-2011, 07:13 PM | #14 |
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Re: !!वसंत ऋतु के गीत!!
ऋतु वसंत की आयी नव प्रसून फूले, तरुओं ने नव हरियाली पायी पाकर फिर से रूप सलोना महक उठा वन का हर कोना करती जैसे जादू-टोना फिरी नवल पुरवाई लज्जा के अवगुंठन सरके नयनों में नूतन रस भरके गले लगी लतिका तरुवर के भरती मृदु अँगड़ाई ऋतु वसंत की आयी नव प्रसून फूले, तरुओं ने नव हरियाली पायी गुलाब खंडेलवाल
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07-04-2011, 01:42 PM | #15 |
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Re: !!वसंत ऋतु के गीत!!
एक दिन वासंती संध्या में
खड़े सिन्धु-तट पर थे जब हम, हाथ हाथ में थामे ढलते रवि को मुझे दिखाकर तुमने पूछा था अकुलाकर 'तुम भी लौट सकोगे जाकर क्या कल नयी उषा में?' 'और लौट भी सके दुबारा, क्या होगा फिर मिलन हमारा? पा लूँगी फिर प्रेम तुम्हारा भाव यही मन का मैं? तभी पलट कर ज्वार बह गया पल में रज का महल ढह गया प्रश्न वहीं का वहीं रह गया उड़ता हुआ हवा में एक दिन वासंती संध्या में खड़े सिन्धु-तट पर थे जब हम, हाथ हाथ में थामे
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09-04-2011, 09:55 AM | #16 |
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Re: !!वसंत ऋतु के गीत!!
ज़िंदगी के अथाह वीरानों में यह कौन आवाज़ देता है
यह कौन पगध्वनि आती है कितने जंगलों, मैदानों, पर्वतों को पार करती असंख्य फूलों का पराग लिए, रंग से सराबोर दिशाएं और अनंत उजास लिए जीवन का यह वैभव यह उठान यह भव्यता, यह दूसरा ही संसार ये जाने कब की देखी स्वप्न-छवियां यह कौन रचता है ज़िंदगी के दुखों को इस विराट स्वप्नमाला में यह कौन पुकारता है नदी के कांठों पर उड़ते इस आंचल का रंग फैलता ही जाता है खेतों के पार संगीत के झरने बहते हैं दिशाओं को छूते और एक छवि में लीन हो जाते हैं -- इन रूपों में तो तुम्हारी कल्पना न थी भव्यता ऐसी भी होती है ! वसंत ऐसे भी आता है !!
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11-04-2011, 08:24 AM | #17 |
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Re: !!वसंत ऋतु के गीत!!
पहली अनुभूति:
गीत नहीं गाता हूँ बेनक़ाब चेहरे हैं, दाग़ बड़े गहरे हैं टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ गीत नहीं गाता हूँ लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर अपनों के मेले में मीत नहीं पता हूँ गीत नहीं गाता हूँ पीठ मे छुरी सा चांद राहू गया रेखा फांद मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ गीत नहीं जाता हूँ दूसरी अनुभूति: गीत नया गाता हूँ टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ गीत नया गाता हूँ टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी हार नहीं मानूँगा, रार नई ठानूँगा, काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ गीत नया गाता हूँ अटल बिहारी वाजपेयी
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18-04-2011, 11:52 PM | #18 |
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Re: !!वसंत ऋतु के गीत!!
बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना! जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में धूल भरे थे आले सारे कमरों में उलझन और तनावों के रेशों वाले पुरे हुए थे जले सारे कमरों में बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना! एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना! पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
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05-10-2011, 06:51 PM | #19 |
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Re: !!वसंत ऋतु के गीत!!
हवा, पानी और ऋतुओं में बदल कर समय हेमंत और शिशिर का कल्याणकारी उत्पाती सहयोग ले कर अनुवांशिकी के लिए खोजता या ख़ाली करवाता है जगह संत या असंत आगंतुक वसंत ने वृक्षस्थ पूर्वज— वसंत के पीछे हेमंत—शिशिर दो वैरागियों को लगा रक्खा है जो पत्रस्थ गेरुवे को भी उतार अपने सहित सबको दिगम्बर किए दे रहे हैं और शीर्ण शिराओं से रक्तहीन पदस्थ पीलेपन के ख़ात्मे में जुटे हुए हैं हिम—शीत पीड़ित दो हथेलियों को करीब ले आने वाली रगड़ावादी ये दो ऋतुएँ जिनका काम ही है प्रभंजन से अवरोधक का भंजन करवा देना हवाओं को पेड़ों और पहाड़ों से लड़वा देना नोचा—खोंसी में सबको अपत्र करवा देना ताकि प्रकृति की लड़ाई भी हो जाए और बुहारी भी और परोपकार का स्वाभाविक ठेका छोड़ना भी न पड़े पिछला वसंत अगर एक ही महंत की तरह सब ऋतुओं को छेके रहे तो नवोदय कहाँ से होगा कैसे उगेगी नवजोत एक—एक पत्ती की हर ऋतु के अस्तित्व को कोई दूसरी ऋतु धकेल रही है चुटकी भर धक्के से ही फूटता है कोई नया फूल खिलती है कोई नई कली शुरु होता है कोई नया दिल चटकता है कोई नया फूट कछारों में ब्राह्म मुहूर्त में चटकता है पूरा जंगल रोंगटों—सी खड़ी वनस्पतियों के पोर—पोर में हेमंत और शिशिर की वैरागी हवाएँ रिक्तता भेंट कर ही शांत होती हैं जिनकी चाहें और बाहें स्त्रांत में पत्रांत ही मुख्य वस्त्रांत है जिनका वसनांत के बाद खलियाई जगहें ऐसे पपोटिया जाती हैं जैसे पेड़ भग-वान इन्द्र की तरह सहस्त्र नयन हो गए हों घावों पर वरदान-सी फिरतीं वसंत की रफ़ूगर उँगलियाँ काढ़ती हैं पल्लव सैंकड़ों बारीक पैरों से जितना कमाते हैं पादप उतना प्रस्फुटित हज़ारों मुखों को पहुँचाते हैं टहनियों के बीच खिल उठते हैं आकाश के कई चेहरे दो रागिये—वैरागिये हेमंत और शिशिर अधोगति के तम में जाकर पता लगाते हैं उन जड़ों का जिनके प्रियतम-सा ऊर्ध्वारोही दिखता है अगला वसंत पिछली पत्तियाँ जैसे पहला प्रारूप कविता का झाड़ दिये सारे वर्ण पंक्ति—दर—पंक्ति पेड़ों के आत्म विवरण की नई लिखावट फिर से क्षर —अक्षर उभार लाई रक्त में फटी, पुरती एड़ियों सहित हाथ चमकने लगे हैं पपड़ीली मुस्कान भी स्निग्ध हुई आत्मा के जूते की तरह शरीर की मरम्मत कर दी वसंत ने हर एक की चेतना में बैठे आदिम चर्मकार तुझको नमस्कार !
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