16-10-2011, 09:04 AM | #1 |
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ख़्वाहिश की गठरी
मौत ने हर बार खाली हाथ चलता कर दिया . जब कभी दामन पसारा दूसरों के सामने ; यूँ लगा , आकार अपना और छोटा कर लिया . इतनी कुव्वत भी न थी के मेरी ही मन्शा चले ; कुछ न कुछ हर बार खोया , जब भी समझौता किया . जिन उसूलों को गढ़ा था नाज से मैंने कभी ; मुफ़लिसी की बेबसी में बेच कर उनको जिया . आवरण चेहरे के नोचे तो बहुत हल्का हुआ ; एक बोझा सीने पर था झूठ को जब तक जिया . जब तलक बरगद के साये में रहा , पनपा था कम ; दिल लगाया धूप से , तब आसमाँ का रुख किया . तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ; उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया . रचयिता ~~डॉ.राकेश श्रीवास्तव विनय खंड-२,गोमती नगर,लखनऊ. शब्दार्थ ~~( ख़्वाहिश=इच्छा ,कुव्वत = क्षमता,मंशा = इरादा,मुफ़लिसी=कंगाली ) |
16-10-2011, 09:15 AM | #2 | |
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
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बहुत ही खूबसूरत तहेदिल से दाद कुबूल करेँ |
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16-10-2011, 09:17 AM | #3 |
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
[QUOTE=Dr. Rakesh Srivastava;112852]
तेरे इन महलों की छत से झोपड़े दिखते हैं जो ; उन्हीं ने कन्धों पे ढोकर के खड़ा इनको किया . QUOTE] पूंजीवादी व्यवस्था पर गहरी चोट. एक बार फिर से लाजवाब कविता देने के आपका बहुत बहुत आभार.
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16-10-2011, 09:59 AM | #4 | |
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
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एक और मास्टरस्ट्रोक
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
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16-10-2011, 10:54 AM | #5 | |
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
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16-10-2011, 10:57 AM | #6 |
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
nice poem. you seem to be a good poet. keep it up.
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16-10-2011, 08:25 PM | #7 |
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
आजकल इस तरह के नयी रचनाये काफी कम देखने को मिलती है. राकेश जी
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16-10-2011, 10:40 PM | #8 |
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
सिकंदर जी ,
आपका शुक्रिया . |
16-10-2011, 10:41 PM | #9 |
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
Abhisays जी ,
आपका शुक्रिया . |
16-10-2011, 10:43 PM | #10 |
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Re: ख़्वाहिश की गठरी
n d hebar जी ,
आपका शुक्रिया . |
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