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14-04-2013, 08:12 PM | #1 |
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
जनार्दन की छाती में दर्द हुआ। छूकर देखा कि कहीं 'हार्ट अटैक' तो नहीं है लेकिन फिर महसूस हुआ कि गैस का दर्द है। रीना दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गई। ललिता रो पड़ी एवं जनार्दन को अपने बाबूजी व माताजी की याद आ गई कि एक दिन उन्हें भी ऐसा ही लगा होगा।
जनार्दन दरवाजा बन्द करने के लिए आगे बढ़े तो देखा कि रीना एक गोरे युवक के साथ आलिंगनबद्ध होकर चुंबनरत थी। आज बिन ब्याहे बेटी की डोली उठ रही थी, बचपन में सुने विदाई के गीत कानों में बेसुरे बज उठे। "काहे को ब्याही विदेश।" जनार्दन को लगा कि जैसे बिना मौत के उनकी अर्थी उठ रही हो। जनार्दन सोफे पर बैठ गए एवं आँखों को बंद कर लिया। ध्यान में भगवान श्रीकृष्ण आए और बोले, "हे वत्स! व्यर्थ चिन्ता करते हो। आत्मा अजर-अमर है। तुम्हीं बताओ, कभी विदेशी मुर्गी से कोई देसी बोल बुलवा पाया है? फिर तुम किस खेत की मूली हो।" जनार्दन ने आँखें खोल दीं। भगवान अन्तर्ध्यान हो चुके थे। जनार्दन ने खुशी-खुशी अपनी नियति स्वीकार कर ली। (अंतरजाल के सौजन्य से)
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
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