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24-12-2012, 12:08 PM | #1 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
[QUOTE=Dark Saint Alaick;114315]गुलाम जीलानी 'असगर'
आज तक गुमसुम खड़ी हैं शहर में जाने दीवारों से तुम क्या कह गए मेरी बदकिस्मती रही कि जनाबे असग़र का कलाम अब तक मेरी नज़रों से ओझल ही रहा. इनका ऊपर लिखा एक अश'आर कई शेरी मजमुओं से बढ़ कर है. धन्यवाद. Last edited by rajnish manga; 24-12-2012 at 12:12 PM. |
26-01-2013, 09:26 PM | #2 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
ग़ ज़ ल
(शायर: डा. अल्लामा मोहम्मद इक़बाल) गुलज़ारे-हस्त-ओ-बूद न बेगाना वार देख है दे ख ने की चीज़, इसे बार बार देख आया है तू जहाँ में,मिसाले- शरार देख दम दे न जाए हस्ति-ए-नापायेदार देख माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूँ मैं तू मेरा शौक़ देख, मेरा इज़्तरार देख खोली हैं ज़ौके-दीद ने आँखें तेरी अगर हर रह-गुज़र में नक्शे-कफ़े-पा-ए-यार देख. |
24-10-2011, 01:42 AM | #3 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
बिमल कृष्ण 'अश्क'
जिला गुडगाँव की छोटी सी जगह भान्गरोला में 1924 के किसी रोज़ पैदा हुए बिमल कृष्ण 'अश्क' उर्दू साहित्य संसार में एक जाना-पहचाना नाम हैं ! नए बिम्ब विधान और नए प्रतीकों की बदौलत 'अश्क' ने ग़ज़ल को नई ऊंचाइयां तो अता की हीं, यथार्थ चित्रण के कई प्रयोग भी किए ! दरअसल उनकी समूची शायरी में वर्तमान की धडकनें हैं, तिस पर भी वह सार्वजनीन और सर्वकालिक भी है ! यही 'अश्क के सृजन की वह बड़ी खूबी है, जो उन्हें एक महान शायर बनाती है ! डूब गए हो देख के जिनमें ठहरा, गहरा, नीला पानी आंख झपकते मर जाएगा 'अश्क' उन्हीं आंखों का पानी तू, मैं, फूल, सितारा, मोती सब उस दरिया की मौजें जैसा - जैसा बर्तन, वैसा - वैसा भेष बदलता पानी बारह मास हरी टहनी पर पीले फूल खिला करते हैं दुख के पौदे को लगता है जाने किस दरिया का पानी बीती उम्र सरहाना सींचे, आंखें रोती हैं कन्नियों को दुख का सूरज पीकर डूबा दोनों दरियाओं का पानी चौखट-चौखट आंगन-आंगन, खट्टी छाछ, कसैला मक्खन गांव के हर घर में दर आया बस्ती का मटमैला पानी तन का लोभी क्या जाने, तन-मन का दुख दोनों तीरथ हैं पाक-बदन काशी की मिट्टी, आंसू गंगा मां का पानी __________________________________ अश्क : आंसू, किन्तु यहां यह इस शे'र की विशेषता है कि शायर ने अपने तखल्लुस का इस प्रकार उपयोग किया है, मौजें : लहरें, दर आया : आ गया, पाक-बदन : पवित्र शरीर
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 16-11-2011 at 02:55 AM. |
24-10-2011, 01:43 AM | #4 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
'रिफ़अत' सरोश
बिजनौर के पास स्थित एक छोटे से स्थान नगीना में 1926 के किसी रोज जन्मे 'रिफ़अत' सरोश का वास्तविक नाम है सैयद शौकत अली, जिसे उन्होंने शायरी के लिए बदल लिया ! 'रिफ़अत' की शायरी उर्दू ग़ज़ल के रिवायती (पारम्परिक) खाके की दहलीज़ पर खड़े होकर नए ज़माने को देखती है, उसकी बात करती है ! यही कारण है कि 'रिफ़अत' कठिन शब्दों से बचते हैं और आम जन की बात आमफ़हम अल्फाज़ में ही करते हैं ! यही उनकी शायरी की एक बड़ी ताकत भी है ! अपने घर, अपनी धरती की आस लिए, बू-बास लिए जंगल-जंगल घूम रहा हूं, जनम-जनम की प्यास लिए जितने मोती, कंकर और खज़फ़ थे अपने पास लिए मैं अनजान सफ़र पर निकला, मधुर मिलन की आस लिए कच्ची गागर फूट न जाए, नाज़ुक शीशा टूट न जाए जीवन की पगडंडी पर चलता हूं ये एहसास लिए वो नन्ही सी ख़्वाहिश अब भी दिल को जलाए रखती है जिसके त्याग की खातिर मैंने कितने ही बनबास लिए सोच रही है कैसे आशाओं का निशेमन बनता है मन की चिड़िया, तन के द्वारे बैठी चोंच में घास लिए जब परबत पर बर्फ गिरेगी सब पंछी उड़ जाएंगे झील किनारे जा बैठेंगे, इक अनजानी प्यास लिए छोड़ के संघर्षों के झंझट, तोड़ के आशा के रिश्ते गौतम बरगद के साये में बैठा है संन्यास लिए _____________________________ खज़फ़ : कंकरिया, निशेमन : घोंसला
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 16-11-2011 at 02:57 AM. |
24-10-2011, 08:10 AM | #5 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
बहुत ही उम्दा ग़ज़लें है, बार बार पढने और सहेज कर रखने वाली गजलें प्रस्तुत करने के लिए सूत्रधार को बहुत बहुत धन्यवाद.
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अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
24-10-2011, 02:49 PM | #6 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गजल अच्छी हैं पर मुझे आपकी सिगरेट वाली दलील पसंद नहीं आई। इसीलिए मैं आपको धन्यवाद नहीं दुँगा।
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02-04-2012, 08:33 PM | #7 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
???
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"खैरात में मिली हुई ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती,
मैं अपने दुखों में भी रहता हूँ नवाबों की तरह !!" |
25-10-2011, 01:35 PM | #8 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
'कैफ़ी' आज़मी
आजमगढ़ की छोटी सी जगह निजवान में 1926 में पैदा हुए 'कैफ़ी' उर्दू अदब और हिंदी फिल्म जगत की एक बहुचर्चित हस्ती हैं ! उर्दू की प्रगतिवादी काव्य-धारा के अगुआ शोअरा में से एक 'कैफ़ी' का रचना संसार बहुत विस्तृत, किन्तु आडम्बरविहीन है ! सादा अल्फाज़ में आलंकारिक गहराई लाने में उन्हें कमाल हासिल है ! उनके अनेक काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं और देश-विदेश के अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया है ! सुना करो मिरी जान, इनसे उनसे अफ़साने सब अजनबी हैं यहां, कौन किसको पहचाने यहां से जल्द गुज़र जाओ काफ़िले वालो हैं मेरी प्यास के फूंके हुए ये वीराने मिरे जुनूने-परस्तिश से तंग आ गए लोग सुना है बंद किए जा रहे हैं बुतखाने जहां से पिछले पहर कोई तश्नाकाम उट्ठा वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने बहार आए तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने हुआ है हुक्म कि 'कैफ़ी' को संगसार करो मसीह बैठे हैं छुप के कहां खुदा जाने _____________________________ जुनूने-परस्तिश : उपासना का उन्माद, बुतखाने : मंदिर, तश्नाकाम : प्यासा, सहरा : रेगिस्तान, संगसार : अरब की एक परम्परा, जिसमें अपराधी को पत्थर मार-मार कर मृत्यु-दंड दिया जाता है, मसीह : मृतकों को जीवित करने वाले पैगम्बर हज़रत मसीह !
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25-10-2011, 01:36 PM | #9 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
कैसर-उल-जाफ़री
इलाहाबाद में 1926 में जन्मे जुबैर अहमद ग़ज़लों की दुनिया में कैसर-उल-जाफ़री के नाम से विख्यात हैं ! ज़िन्दगी की कड़वी सचाई को भी बड़े सहज अंदाज़ में कह जाने की खूबी उन्हें एक मीठा और बड़ा शायर बनाती है ! उर्दू के पारंपरिक शब्दों, प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग उनकी शायरी में अधिक अवश्य है, फिर भी उनकी ग़ज़लों में सहज रवानी कहीं भी देखी जा सकती है ! लुत्फ़ लीजिए उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल का - दिल में चुभ जाएंगे जब अपनी ज़बां खोलेंगे हम भी अब शहर में कांटों की दुकां खोलेंगे शोर करते रहें गलियों में हज़ारों सूरज धूप आएगी तो हम अपना मकां खोलेंगे आबले पाओं के चलने नहीं देते हमको हमसफ़र रख्ते - सफ़र जाने कहां खोलेंगे इतना भीगे हैं कि उड़ते हुए यूं लगता है टूट जाएंगे परो - बाल जहां खोलेंगे एक दिन आपकी गज़लें भी बिकेंगी 'कैसर' लोग बोसीदा किताबों की दुकां खोलेंगे ______________________________ ध्यानार्थ : 'शोर करते रहें गलियों में हज़ारों सूरज' में कई जगह शोर की जगह रक्स (नृत्य) भी मिलता है यानी 'रक्स करते रहें गलियों में हजारों सूरज ...' ! ______________________________ आबले : छाले, हमसफ़र : सहयात्री, सफ़र के साथी, रख्ते-सफ़र : सफ़र में साथ लाया हुआ सामान, परो-बाल : पंख और बाल, बोसीदा : पुरानी, जर्जर
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28-10-2011, 06:03 PM | #10 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
जमीलुद्दीन 'आली'
लोहारू के नवाब अमीरुद्दीन के पुत्र जमीलुद्दीन का जन्म 1926 के जनवरी माह की पहली तारीख को दिल्ली में हुआ ! इब्ने इंशा की तरह 'आली' भी कबीर, मीर और नजीर अकबराबादी की परम्परा के शायर हैं ! 1947 में पाकिस्तानी बन जाने का दर्द झेलते 'आली' अपने दोहों में 'दिल्ली के यमुना तट पर बैठ कर भारतीय सभ्यता के दीपक जलाते' नज़र आते हैं ! पाकिस्तान में जो हों 'आली' दिल्ली में थे नवाब - उनके एक दोहे की यह पंक्ति उनके जीवन का निचोड़ है ! 'गज़लें दोहे गीत' और 'लाहासिल' उनके प्रसिद्ध काव्य संकलन हैं ! 'आली' जी अब आप चलो तुम अपने बोझ उठाए साथ भी दे तो आखिर हमारे कोई कहां तक जाए जिस सूरज की आस लगी है, शायद वो भी आए तुम ये कहो, खुद तुमने अब तक कितने दीये जलाए अपना काम है सिर्फ मोहब्बत, बाक़ी उसका काम जब चाहे वो रूठे हमसे, जब चाहे मन जाए क्या-क्या रोग लगे हैं दिल को, क्या-क्या उनके भेद हम सबको समझाने वाले, कौन हमें समझाए एक इसी उम्मीद पे हैं सब दुश्मन दोस्त क़बूल क्या जाने इस सादा-रवी में कौन कहां मिल जाए दुनिया वाले सब सच्चे पर जीना है उसको भी एक गरीब अकेला पापी किस किस से शर्माए इतना भी मजबूर न करना वर्ना हम कह देंगे ओ 'आली' पे हंसने वाले तू 'आली' बन जाए _________________________ सादा-रवी : धीमी चाल
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