|
14-06-2012, 08:24 PM | #1 |
Special Member
Join Date: Jun 2010
Location: Jhumri Tillaiya
Posts: 2,429
Rep Power: 21 |
हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाएं
अपनी अपनी बीमारी हम उनके पास चंदा माँगने गए थे। चंदे के पुराने अभ्यासी का चेहरा बोलता है। वे हमें भाँप गए। हम भी उन्हें भाँप गए। चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं। लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं। देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं। हमें बैठते ही समझ में आ गया कि ये नहीं देंगे। वे भी शायद समझ गए कि ये टल जाएँगे। फिर भी हम दोनों पक्षों को अपना कर्तव्य तो निभाना ही था। हमने प्रार्थना की तो वे बोले - आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं। सोचा, यह टैक्स की बीमारी कैसी होती है। बीमारियाँ बहुत देखी हैं - निमोनिया, कालरा, कैंसर; जिनसे लोग मरते हैं। मगर यह टैक्स की कैसी बीमारी है जिससे वे मर रहे थे! वे पूरी तरह से स्वस्थ और प्रसन्न थे। तो क्या इस बीमारी में मजा आता है ? यह अच्छी लगती है जिससे बीमार तगड़ा हो जाता है। इस बीमारी से मरने में कैसा लगता होगा ? अजीब रोग है यह। चिकित्सा-विज्ञान में इसका कोई इलाज नहीं है। बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाइए और कहिए - यह आदमी टैक्स से मर रहा है। इसके प्राण बचा लीजिए। वह कहेगा - इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। लेकिन इसके भी इलाज करनेवाले होते हैं, मगर वे एलोपैथी या होमियोपैथी पढ़े नहीं होते। इसकी चिकित्सा पद्धति अलग है। इस देश में कुछ लोग टैक्स की बीमारी से मरते हैं और काफी लोग भुखमरी से। टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाए वह कहता है - हाय, हम टैक्स से मर रहे हैं। और जिसे न लगे वह कहता है - हाय, हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती। कितने लोग हैं कि जिनकी महत्त्वाकांक्षा होती है कि टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं निमोनिया से। हमें उन पर दया आई। सोचा, कहें कि प्रापर्टी समेत यह बीमारी हमें दे दीजिए। पर वे नहीं देते। यह कमबख्त बीमारी ही ऐसी है कि जिसे लग जाए, उसे प्यारी हो जाती है। मुझे उनसे ईर्ष्या हुई। मैं उन जैसा ही बीमार होना चाहता हूँ। उनकी तरह ही मरना चाहता हूँ। कितना अच्छा होता अगर शोक-समाचार यों छपता - बड़ी प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई टैक्स की बीमारी से मर गए। वे हिंदी के प्रथम लेखक हैं जो इस बीमारी से मरे। इस घटना से समस्त हिंदी संसार गौरवान्वित है। आशा है आगे भी लेखक इसी बीमारी से मरेंगे ! मगर अपने भाग्य में यह कहाँ ? अपने भाग्य में तो टुच्ची बीमारियों से मरना लिखा है। उनका दुख देखकर मैं सोचता हूँ, दुख भी कैसे-कैसे होते हैं। अपना-अपना दुख अलग होता है। उनका दुख था कि टैक्स मारे डाल रहे हैं। अपना दुख है कि प्रापर्टी नहीं है जिससे अपने को भी टैक्स से मरने का सौभाग्य प्राप्त हो। हम कुल 50 रु. चंदा न मिलने के दुख में मरे जा रहे थे। मेरे पास एक आदमी आता था, जो दूसरों की बेईमानी की बीमारी से मरा जाता था। अपनी बेईमानी प्राणघातक नहीं होती, बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। कई पतिव्रताएँ दूसरी औरतों के कुलटापन की बीमारी से परेशान रहती हैं। वह आदर्श प्रेमी आदमी था। गांधीजी के नाम से चलनेवाले किसी प्रतिष्ठान में काम करता था। मेरे पास घंटो बैठता और बताता कि वहाँ कैसी बेईमानी चल रही है। कहता, युवावस्था में मैंने अपने को समर्पित कर दिया था। किस आशा से इस संस्था में गया और क्या देख रहा हूँ। मैंने कहा - भैया, युवावस्था में जिनने समर्पित कर दिया वे सब रो रहे हैं। फिर तुम आदर्श लेकर गए ही क्यों ? गांधीजी दुकान खोलने का आदेश तो मरते-मरते दे नहीं गए थे। मैं समझ गया, उसके कष्ट को। गांधीजी का नाम प्रतिष्ठान में जुड़ा होने के कारण वह बेईमानी नहीं कर पाता था और दूसरों की बेईमानी से बीमार था। अगर प्रतिष्ठान का नाम कुछ और हो जाता तो वह भी औरों जैसा करता और स्वस्थ रहता। मगर गांधीजी ने उसकी जिंदगी बरबाद की थी। गांधीजी विनोबा जैसों की जिंदगी बरबाद कर गए। बड़े-बड़े दुख हैं ! मैं बैठा हूँ। मेरे साथ 2-3 बंधु बैठे हैं। मैं दुखी हूँ। मेरा दुख यह है कि मुझे बिजली का 40 रु. का बिल जमा करना है और मेरे पास इतने रुपए नहीं हैं। तभी एक बंधु अपना दुख बताने लगता है। उसने 8 कमरों का मकान बनाने की योजना बनाई थी। 6 कमरे बन चुके हैं। 2 के लिए पैसे की तंगी आ गई है। वह बहुत-बहुत दुखी है। वह अपने दुख का वर्णन करता है। मैं प्रभावित नहीं होता। मगर उसका दुख कितना विकट है कि मकान को 6 कमरों का नहीं रख सकता। मुझे उसके दुख से दुखी होना चाहिए, पर नहीं हो पाता। मेरे मन में बिजली के बिल के 40 रु. का खटका लगा है। दूसरे बंधु पुस्तक-विक्रेता हैं। पिछले साल 50 हजार की किताबें पुस्तकालयों को बेची थीं। इस साल 40 हजार की बिकीं। कहते हैं - बड़ी मुश्किल है। सिर्फ 40 हजार की किताबें इस साल बिकीं। ऐसे में कैसे चलेगा ? वे चाहते हैं, मैं दुखी हो जाऊँ, पर मैं नहीं होता। इनके पास मैंने अपनी 100 किताबें रख दी थीं। वे बिक गईं। मगर जब मैं पैसे माँगता हूँ, तो वे ऐसे हँसने लगते हैं जैसे मैं हास्यरस पैदा कर रहा हूँ। बड़ी मुसीबत है व्यंग्यकार की। वह अपने पैसे माँगे, तो उसे भी व्यंग्य-विनोद में शामिल कर लिया जाता है। मैं उनके दुख से दुखी नहीं होता। मेरे मन में बिजली कटने का खटका लगा हुआ है। तीसरे बंधु की रोटरी मशीन आ गई। अब मोनो मशीन आने में कठिनाई आ गई है। वे दुखी हैं। मैं फिर दुखी नहीं होता। अंतत: मुझे लगता है कि अपने बिजली के बिल को भूलकर मुझे इन सबके दुख में दुखी हो जाना चाहिए। मैं दुखी हो जाता हूँ। कहता हूँ - क्या ट्रेजडी है मनुष्य-जीवन की कि मकान कुल 6 कमरों का रह जाता है। और कैसी निर्दय यह दुनिया है कि सिर्फ 40 हजार की किताबें खरीदती है। कैसा बुरा वक्त आ गया है कि मोनो मशीन ही नहीं आ रही है। वे तीनों प्रसन्न हैं कि मैं उनके दुःखों से आखिर दुखी हो ही गया। तरह-तरह के संघर्ष में तरह-तरह के दुख हैं। एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक संपन्नता का संघर्ष है। एक न्यूनतम जीवन-स्तर न कर पाने का दुख है, एक पर्याप्त संपन्नता न होने का दुख है। ऐसे में कोई अपने टुच्चे दुखों को लेकर कैसे बैठे ? मेरे मन में फिर वही लालसा उठती है कि वे सज्जन प्रापर्टी समेत अपनी टैक्सों की बीमारी मुझे दे दें और मैं उससे मर जाऊँ। मगर वे मुझे यह चांस नहीं देंगे। न वे प्रापर्टी छोड़ेंगे, न बीमारी, और मुझे अंततः किसी ओछी बीमारी से ही मरना होगा। |
14-06-2012, 08:25 PM | #2 |
Special Member
Join Date: Jun 2010
Location: Jhumri Tillaiya
Posts: 2,429
Rep Power: 21 |
Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
पुराना खिलाड़ी सरदारजी जबान से तंदूर को गर्म करते हैं। जबान से बर्तन में गोश्त चलाते हैं। पास बैठे आदमी से भी इतने जोर से बोलते हैं, जैसे किसी सभा में बिना माइक बोल रहे हों। होटल के बोर्ड पर लिखा है - ‘यहाँ चाय हर वक्त तैयार मिलती है।’ नासमझ आदमी चाय माँग बैठता है और सरदारजी कहते हैं - चाय ही बेचना होता, तो उसे बोर्ड पर क्यूँ लिखता बाश्शाओ! इधर नेक बच्चों के लिए कोई चाय नहीं है। समझदार ‘चाय’ का मतलब समझते हैं और बैठते ही कहते हैं - एक चवन्नी ! सरदारजी मुहल्ले के रखवाले हैं। इधर के हर आदमी का चरित्र वे जानते हैं। अजनबी को ताड़ लेते हैं। तंदूर में सलाख मारते हुए चिल्लाते हैं - - वो दो बार ससुराल में रह आया है जी। जरा बच के। - उसके घर में दो हैं जी। किसी के गले में डालना चाहता है। जरा बच के बाश्शाओ! - दो जचकी उसके हो चुकी हैं। तीसरी के लिए बाप के नाम की तलाश जारी है। जरा बच के। - उसकी खादी पर मत जाणाजी। गांधी को फुटकर बेचता है। जरा बच के। उस आदमी को मेरे साथ दो-तीन बार देखकर सरदारजी ने आगाह किया था - वह पुराना खिलाड़ी है। जरा बच के। जिसे पुराना खिलाड़ी कहा था, वह 35-40 के बीच का सीधा आदमी लगता था। हमेशा परेशान। हमेशा तनाव में। कई आधुनिक कवि उससे तनाव उधार माँगने आते होंगे। उसमें बचने लायक कोई बात मुझे नहीं लगती थी। एक दिन वह अचानक आ गया था। पहले से बिना बताए, बिना घंटी बजाए, बिना पुकारे, वह दरवाजा खोलकर घुसा और कुर्सी पर बैठ गया। बदतमीजी पर मुझे गुस्सा आया था। बाद में समझ गया कि इसने बदतमीजी का अधिकार इसलिए हासिल कर लिया है कि वह अपने काम से मेरे पास नहीं आता। देश के काम से आता है। जो देश का काम करता है, उसे थोड़ी बदतमीजी का हक है। देश-सेवा थोड़ी बदतमीजी के बिना शोभा नहीं देती। थोड़ी बेवकूफी भी मिली हो, तो और चमक जाती है। वह उत्तेजित था। उसने अपना बस्ता टेबिल पर पटका और सीधे मेरी तरफ घूरकर बोला - तुम कहते हो कि बिना विदेशी मदद के योजना चला लोगे। मगर पैसा कहाँ से लाओगे? है तुम्हारे पास देश में ही साधन जुटाने की कोई योजना? वह जवाब के लिए मुझे घूर रहा था और मैं इस हमले से उखड़ गया था। योजना की बात मैंने नहीं, अर्थ मंत्री ने कही थी। वह अर्थ मंत्री से नाराज था। डाँट मुझे पड़ रही थी। उत्तेजना में उसने तीन कुर्सियाँ बदलीं। बस्ते से पुलिंदा निकाला। बोला - जीभ उठाकर तालू से लगा देते हो। लो, आंतरिक साधन जुटाने की यह स्कीम। घंटा-भर अपनी योजना समझाता रहा। कुछ हल्का हुआ। पुलिंदा बस्ते में रखा और चला गया। हफ्ते-भर बाद वह फिर आया। वैसे ही तनाव में। भड़ से दरवाजा खोला। बस्ते को टेबिल पर पटका और अपने को कुर्सी पर। बोला - तुम कहते हो रोड ट्रांसपोर्ट के कारण रेलवे की आमदनी कम हो रही है। मगर कभी सोचा है, मोटर-ट्रकवाले माल भेजनेवालों को कितने सभीते देते हैं ? लो यह स्कीम। इसके मुताबिक काम करो। उसने रेलवे की आमदनी बढ़ाने के तरीके मुझे समझाए। वह जब-तब आता। मुझे किसी विभाग का मंत्री समझकर डाँटता और फिर अपनी योजना समझाता। उसने मुझे शिक्षा मंत्री, कृषि मंत्री, विदेश मंत्री सब बनाया। उसे लगता था, वह सब ठीक कर सकता है, लेकिन विवश है। सत्ता उसके हाथ में है नहीं। उससे जो बनता है, करता है। योजना और सुझाव भेजता रहता है। देश के लिए इतना दुखी आदमी मैंने दूसरा नहीं देखा। सड़क पर चलता, तो दूर से ही दुखी दिखता। पास पहुँचते ही कहता - रिजर्व बैंक के गवर्नर का बयान पढ़ा? सारी इकॉनमी को नष्ट कर रहे हैं ये लोग। आखिर यह किया हो रहा है? जरा प्रधानमंत्री से कहो न! सरदारजी ने फिर आगाह किया - बहुत चिपकने लगा है। पुराना खिलाड़ी है। जरा बच के। मैंने कहा - मालूम होता है, उसका दिमाग खराब है। सरदारजी हँसे। बोले - दमाग? अजी दमाग तो हमारा-आपका खराब है जो दिन-भर काम करते हैं, तब खाते हैं। वह 10 सालों से बिना कुछ किए मजे में दिल्ली में रह रहा है। दिमाग को उसका आला दर्जे का है। मैंने कहा - मगर वह दुखी है। रात-दिन उसे देश की चिंता सताती रहती है। सरदारजी ने कहा - अजब मुल्क है ये। भगवान ने इसे सट्टा खेलते-खेलते बनाया होगा। इधर मुल्क की फिक्र में से भी रोटी निकलती है। फिर मैं आपसे पूछता हूँ, पिद्दी का कितना शोरबा बनता है? बताइए, कुछ अंदाज दीजिए। मुल्क की फिक्र करते-करते गांधी और नेहरू जैसे चले गए। अब यह पिद्दी क्या सुधार लेगा ? इस मुल्क को भगवान ने खास तौर से बनाया है। भगवान की बनाई चीज में इंसान सुधार क्यों करे? मुल्क सुधरेगा तो भगवान के हाथ से ही सुधरेगा। मगर इस इंसान से जरा बच के। पुराना खिलाड़ी है। मैंने कहा - पुराना खिलाड़ी होता तो ऐसी हालत में रहता? सरदारजी ने कहा - उसका सबब है। वह छोटे खेल खेलता है। छोटे दाँव लगाता है। मैंने उसे समझाया कि एक-दो बड़े दाँव लगा और माल समेटकर चैन की बंसी बजा। मगर उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ती। सरदारजी मुझे उससे बचने के लिए बार-बार आगाह करते, पर खुद उसे कभी नाश्ता करा देते, कभी रोटियाँ दे देते, कभी रुपए दे देते। मैंने पूछा, तो सरदारजी ने कहा - आखिर इंसान है। फिर उसके साथ बीवी भी है। उसने वह कमाल कर दिखाया है, जो दुनिया में किसी से नहीं हुआ - उसने बीवी को यह मनवा लिया कि वह देश की किस्मत पलटने के लिए पैदा हुआ है। वह कोई मामूली काम करके जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता। उसका एक मिशन है। बीवी खुद भी भगवान से प्रार्थना करती है कि उसके घरवाले का मिशन पूरा हो जाए। वह दिन पर दिन ज्यादा परेशान होता गया। जब-तब मुझे मिल जाता और किसी मंत्रालय की शिकायत करता। अचानक वह गायब हो गया। 8-10 दिन नहीं दिखा, तो मैंने सरदारजी से पूछा। उन्होंने कहा - डिस्टर्ब मत करो। बड़े काम में लगा है। मैंने पूछा - कौन काम ? सरदारजी ने कहा - उसकी तफसील में मत जाओ। बम बना रहा है। इन्कलाबी काम कर रहा है। एक दिन वह सरकार के सिर पर बम पटकनेवाला है। मैंने कहा - सच, वह बम बना रहा है ? सरदारजी ने कहा - हाँ जी, वह नया कांस्टीट्यूशन बना रहा है। उसे सरकार के सिर पर दे मारेगा। दुनिया पलट देगा, बाश्शाओ। एक दिन वह संविधान लेकर आ गया। और दुबला हो गया था। मगर चेहरा शांत था। फरिश्ते की तरह बोला - नथिंग विल चेंज अंडर दिस कांस्टीट्यूशन। संविधान बदलना ही पड़ेगा। इस देश को बुनियादी क्रांति चाहिए और बुनियादी क्रांति के लिए क्रांतिकारी संविधान चाहिए। मैंने नया संविधान बना लिया है। बस्ते से उसने पुलिंदा निकाला और मुझे संविधान समझाने लगा - यह प्रीएंबल है - यह फंडामेंटल राइट्स का खंड है। इस संविधान में एक बुनियादी क्रांति की बात है। देखो, मनुष्य ने अपने को राज्य के हाथों क्यों सौंपा था ? इसलिए कि राज्य उसका पालन करे। राज्य का यह कर्तव्य है। मगर राज्य आदमी से काम करवाना चाहता है। यह गलत है। बिना काम किए आदमी का पालन होना चाहिए। मैं जो पिछले 10 सालों से कुछ नहीं कर रहा हूँ, सो मेरा प्रोटेस्ट है। मैं राज्य पर नैतिक दबाव डालकर उसका कर्तव्य कराना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ, लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं। आई डोंट माइंड। छोटे लोग हैं। मेरे मिशन को नहीं समझ सकते। मैंने कहा - कोई काम नहीं करेगा, तो उत्पादन नहीं होगा। तब राज्य पालन कैसे कर सकेगा ? उसने समझाया - आप आदमी को नहीं जानते। वह मना करने पर भी काम करता है। यह उसकी मजबूरी है। मैन इज डूम्ड टू वर्क। अगर राज्य कह भी दे कि कोई काम मत करो, तुम्हारा पालन हम करेंगे, तब भी लोग काम माँगेंगे। साधारण आदमी ऐसा ही होता। इने-गिने मुझ-आप जैसे लोग होंगे, जो काम नहीं करेंगे। हमारा पालन उन घटिया बहुसंख्यकों के उत्पादन से होगा। वह अपने संविधान से बहुत संतुष्ट था। एक दिन वह फोटोग्राफ लेकर आया। फोटो में वह संविधान प्रधानमंत्री को दे रहा है। बोला - मैंने संविधान प्रधानमंत्री को दे दिया। उन्होंने आश्वासन दिया कि जल्दी ही इसे लागू किया जाएगा। सरदारजी ने कहा - आजकल फोटो पर जिंदा है। प्रधानमंत्री से मिल आया है। उसकी बीवी घर भाग रही थी, सो थम गई। इस फोटो को अच्छे धंधे में लगाएँ तो अच्छी कमाई कर सकता है। मगर वह जिंदगी-भर ‘रिटेल’ करता रहेगा। 2-3 महीने उसने इंतजार किया। संविधान लागू नहीं हुआ। वह अब फिर परेशान हो गया। कहता - यह सरकार झूठ पर जिंदा है। मुझे प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया था कि जल्दी ही वे मेरा संविधान लागू करेंगे, पर अभी तक संसद को सूचना नहीं दी। अंधेर है। मगर मैं छोड़ूँगा नहीं। एक दिन सरदारजी ने बताया - पुराना खिलाड़ी संसद के सामने अनशन पर बैठ गया है। राम-धुन लग रही है। बीवी गा रही है - सबको सन्मति दे भगवान। इसे सबकी क्या पड़ी है? यही क्यों नहीं कहती कि मेरे घरवाले को सन्मति दे भगवान! तीसरे दिन उसे देखने गया। वह दरी पर बैठा था। उसका चेहरा सौम्य हो गया था। भूख से आदमी सौम्य हो जाता है। तमाशाइयों को वह बड़ी गंभीरता से समझा रहा था - देखो, इंसान आजाद पैदा होता है, मगर वह हर जगह ज़ंजीरों से जकड़ा रहता है। मनुष्य ने अपने को राज्य को क्यों सौंपा? इसलिए न, कि राज्य उसका पालन करेगा। मगर राज्य की गैरजिम्मेदारी देखिए कि मुझ जैसे लोगों को राज्य ने लावारिस की तरह छोड़ रखा है। ‘नथिंग विल चेंज अंडर दिस कान्स्टीट्यूशन’ मेरा संविधान लागू करना ही होगा। लेकिन इसके पहले राज्य को फौरन मेरे पालन की व्यवस्था करनी होगी। यह मेरी माँगें हैं। सरदारजी ने उस दिन कहा - बिजली मँडरा रही है बाश्शाओ! देखो किसके सिर पर गिरती है। जरा बच के। सरकार की तरफ से उसे धमकी दी जा रही थी। घर जाने के लिए किराए का लोभ भी दिया जा रहा था। मगर वह अपना संविधान लागू करवाने पर तुला था। सातवें दिन सुबह जब मैं बैठा अखबार पढ़ रहा था, वह अचानक अपनी बीवी के सहारे मेरे घर में घुस आया। पीछे कुली उसका सामान लिए थे। उसने मुझे मना करने का मौका ही नहीं दिया। वह अपने घर की तरह इत्मीनान से घुस आया था। मेरे सामने वह बैठ गया। आँखें धँस गई थीं। शरीर में हड्डियाँ रह गई थीं। मैं भौंचक उसे देख रहा था। वह इस तरह मेरे घर में घुस आया था कि मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा था। मगर उसके चेहरे पर सहज भाव था। धीरे-धीरे बोला - प्रधानमंत्री ने आश्वासन दे दिया है। मैं कुछ नहीं बोल सका। वह बोला - कमजोरी बहुत आ गई है। कुछ ऐसा भाव था उसका जैसे मेरे लिए प्राण दे रहा हो। कमजोरी भी उसे मेरे लिए आई हो। उसने बीवी से कहा - उस कमरे में कुछ दिन रहने का जमा लो। मेरी बोलती बंद थी। उसने अचानक हमला कर दिया था। मुझे लगा, जैसे किसी ने पीछे से मेरी कनपटी पर ऐसा चाँटा जड़ दिया है कि मेरी आँखों में तितलियाँ उड़ने लगी हैं। उसने मना करने की हालत भी मेरी नहीं रहने दी। मैं मूढ़ की तरह बैठा था और वह बगल के कमरे में जम गया था। थोड़ी देर बाद वह आया। बोला - जरा एक-दो सेर अच्छी मुसम्मी मँगा दो। कहकर वह चला गया। मैं सोचता रहा - इसने मुझे किस कदर अपाहिज बना दिया है। इस तरह मुसम्मी मँगाने के लिए कहता है, जैसे मैं इसका नौकर हूँ और इसने मुझे पैसे दे रखे हैं। मैंने मुसम्मी मँगा दी। वह मेरे नौकर को जब-तब पुकारता और हुक्म दे देता - शक्कर ले आओ! चाय ले आओ! उसने मुझे अपने ही घर में अजनबी बना दिया था। वह दिन में दो बार मुझे दर्शन देने निकलता। कहता - वीकनेस अभी काफी है। 10-15 दिन में निकलेगी। जरा दो-तीन रुपए देना। मैं रुपए दे देता। बाद में मुझे अपने पर खीझ आती। मैं किस कदर सत्वहीन हो गया हूँ। मैं मना क्यों नहीं कर देता? चौथे दिन सरदारजी ने कहा - घुस गया घर में बाश्शाओ। मैंने पहले कहा था -पुराना खिलाड़ी है, जरा बच के। 6 महीने से पहले नहीं निकलेगा। यही उसकी तरकीब है। जब वह किसी मकान से निकाला जाता है, तो कोई ‘इशू’ लेकर अनशन पर बैठ जाता और उसी गिरी हालत में किसी के घर में घुस जाता है। मैंने कहा - उसकी हालत जरा ठीक हो जाए तो मैं उसे निकाल बाहर करूँगा। सरदारजी ने कहा - नहीं निकाल सकते। वह पूरा वक्त लेगा। जब वह चलने-फिरने लायक हो गया, तो सुबह-शाम खुले में वायु-सेवन के लिए जाने लगा। लौटकर मेरे पास दो घड़ी बैठ जाता। कहता - प्राइम मिनिस्टर अब जरा सीरियस हुए हैं। एक कमेटी जल्दी ही बैठनेवाली है। एक दिन मैंने कहा - अब आप दूसरी जगह चले जाइए। मुझे बहुत तकलीफ है। उसने कहा - हाँ-हाँ, प्रधानमंत्री का पी.ए. मकान का इंतजाम कर रहा है। होते ही चला जाऊँगा। मुझे खुद यहाँ बहुत तकलीफ है। उसमें न जाने कहाँ का नैतिक बल आ गया था कि मेरे घर में रहकर, मेरा सामान खाकर, वह यह बताता था कि मुझपर एहसान कर रहा है। कहता है - मुझे खुद यहाँ बहुत तकलीफ है। सरदारजी पूछते हैं - निकला? मैं कहता हूँ - अभी नहीं। सरदारजी कहते हैं - नहीं निकलेगा। पुराना खिलाड़ी है। मैंने कहा - सरदारजी, आपके यहाँ इतनी जगह है। उसे यहीं कुछ दिन रख लीजिए। सरदारजी ने कहा - उसके साथ औरत है। अकेला होता, तो कहता, पड़ा रह। मगर औरत! औरत के डर से तो पंजाब से भागकर आया और तुम इधर औरत ही यहाँ डालना चाहते हो। उसके रवैए में कोई फर्क नहीं पड़ा। सुबह स्नान-पूजा के बाद वह नाश्ता करता। फिर पोर्टफोलियो लेकर निकल जाता। जाते-जाते मुझसे कहता - जरा संसदीय मामलों के मंत्री से मिल आऊँ। आखिर मैंने सख्ती करना शुरू किया। सुबह-शाम उसे डाँटता। उसका अपमान करता। उसके चेहरे पर शिकन नहीं आती। कभी वह कह देता - मैं अपमान का बुरा नहीं मानता। मुझे इसकी आदत पड़ चुकी है। फिर जिस महान ‘मिशन’ में मैं लगा हुआ हूँ, उसे देखते छोटे-छोटे अपमानों की अवहेलना ही करनी चाहिए। कभी जब वह देखता कि मेरा ‘मूड’ बहुत खराब है, तो वह बात करना टाल जाता। कागज पर लिख देता - आज मेरा मौन व्रत है। आखिर मैंने पुलिस की मदद लेने का तय किया। उसने कागज पर लिख दिया - आज मेरा मौन व्रत है। मैंने कहा - तुम मौन व्रत रखे रहो। कल पुलिस तुम्हारा सामान बाहर फेंक देगी। उसने मौन व्रत फौरन त्याग दिया और मुझे मनाता रहा। कहा - 3-4 दिनों में कहीं रहने का इंतजाम कर लूँगा। सुबह वह तैयार होकर निकला। मुझसे कहा - एक जगह रहने का इंतजाम कर रहा हूँ। जरा पाँच रुपए दीजिए। मैंने कहा - पाँच रुपए किसलिए? उसने कहा - जगह तय करने जाना है न। स्कूटर से जाऊँगा। मैंने कहा - बस में क्यों नहीं जाते? मैं रुपया नहीं दूँगा। उसने कहा - तो मैं नहीं जाता। यहीं रहा आऊँगा। मैंने पस्त होकर उसे पाँच रुपए दे दिए। शाम को वह लौटा और बोला - मैं दूसरी जगह जा रहा हूँ। आपको एक महीने में ही छोड़ दिया। किसी का घर मैंने 6 महीने से पहले नहीं छोड़ा। एक तरह से आपके ऊपर मेरा अहसान ही है। जरा 25 रुपए दीजिए। मैंने कहा - पच्चीस रुपए किसलिए। वह बोला - कुली को पैसे देने पड़ेंगे। फिर नई जगह जा रहा हूँ। 2-4 दिनों का खाने का इंतजाम तो होना चाहिए। मैंने कहा - यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है। मेरे पास रुपए नहीं हैं। उसने शांति से कहा - तो फिर आज नहीं जाता। जिस दिन आपके पास पच्चीस रुपए हो जाएँगे, उस दिन चला जाऊँगा। मैंने पच्चीस रुपए उसे फौरन दे दिए। उसने सामान बाहर निकलवाया। बीवी को बाहर निकाला। फिर मुझसे हाथ मिलाते हुए बोला - कुछ ख्याल मत कीजिए। नो इल विल! मैं जिस मिशन में लगा हूँ उसमें ऐसी स्थितियाँ आती ही रहती हैं। मैं बिलकुल फील नहीं करता। मैं बाहर निकला, तो सरदारजी चिल्लाए - चला गया? मैंने कहा - हाँ, चला गया। वे बोले - कितने में गया? मैंने कहा - पच्चीस रुपए में। सरदारजी ने कहा - सस्ते में चला गया। सौ रुपए से कम में नहीं जाता वह। पुराना खिलाड़ी अब भी कभी-कभी कहीं मिल जाता है। वैसा ही परेशान, वैसा ही तनाव। वह भूल गया कि कभी मैंने उसे जबरदस्ती घर से निकाला था। कहता है - प्रधानमंत्री की अक्ल पर क्या पाला पड़ गया? कहते हैं, कि हम किसी भी स्थिति में रुपए को ‘डिवैल्यू’ नहीं करेंगे। मैं कहता हूँ, डिवैल्यू नहीं करोगे, तो दुनिया के बाजार से निकाल नहीं दिए जाओगे। जरा प्रधानमंत्री को समझाइए न! वह चिंता करता हुआ आगे बढ़ जाता है। |
14-06-2012, 08:26 PM | #3 |
Special Member
Join Date: Jun 2010
Location: Jhumri Tillaiya
Posts: 2,429
Rep Power: 21 |
Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
अपील का जादू एक देश है! गणतंत्र है! समस्याओं को इस देश में झाड़-फूँक, टोना-टोटका से हल किया जाता है! गणतंत्र जब कुछ चरमराने लगता है, तो गुनिया बताते हैं कि राष्ट्रपति की बग्घी के कील-काँटे में कुछ गड़बड़ आ गई है। राष्ट्रपति की बग्घी की मरम्मत कर दी जाती है और गणतंत्र ठीक चलने लगता है। सारी समस्याएँ मुहावरों और अपीलों से सुलझ जाती हैं। सांप्रदायिकता की समस्या को इस नारे से हल कर लिया गया - हिंदू-मुस्लिम, भाई-भाई! एक दिन कुछ लोग प्रधानमंत्री के पास यह शिकायत करने गए कि चीजों की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं। प्रधानमंत्री उस समय गाय के गोबर से कुछ प्रयोग कर रहे थे, वे स्वमूत्र और गाय के गोबर से देश की समस्याओं को हल करने में लगे थे। उन्होंने लोगों की बात सुनी, चिढ़कर कहा - आप लोगों को कीमतों की पड़ी है! देख नहीं रहे हो, मैं कितने बड़े काम में लगा हूँ। मैं गोबर में से नैतिक शक्ति पैदा कर रहा हूँ। जैसे गोबर गैस ‘वैसे गोबर नैतिकता’। इस नैतिकता के प्रकट होते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। तीस साल के कांग्रेसी शासन ने देश की नैतिकता खत्म कर दी है। एक मुँहफट आदमी ने कहा - इन तीस में से बाइस साल आप भी कांग्रेस के मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहे हैं, तो तीन-चौथाई नैतिकता तो आपने ही खत्म की होगी! प्रधान मंत्री ने गुस्से से कहा - बको मत, तुम कीमतें घटवाने आए हो न! मैं व्यापारियों से अपील कर दूँगा। एक ने कहा - साहब, कुछ प्रशासकीय कदम नहीं उठाएँगे? दूसरे ने कहा - साहब, कुछ अर्थशास्त्र के भी नियम होते हैं। प्रधानमंत्री ने कहा - मेरा विश्वास न अर्थशास्त्र में है, न प्रशासकीय कार्यवाही में, यह गांधी का देश है, यहाँ हृदय परिवर्तन से काम होता है। मैं अपील से उनके दिलों में लोभ की जगह त्याग फिट कर दूँगा। मैं सर्जरी भी जानता हूँ। रेडियो से प्रधानमंत्री ने व्यापारियों से अपील कर दी - व्यापारियों को नैतिकता का पालन करना चाहिए। उन्हें अपने हृदय में मानवीयता को जगाना चाहिए। इस देश में बहुत गरीब लोग हैं। उन पर दया करनी चाहिए। अपील से जादू हो गया। दूसरे दिन शहर के बड़े बाजार में बड़े-बड़े बैनर लगे थे - व्यापारी नैतिकता का पालन करेंगे। मानवता हमारा सिद्धांत है। कीमतें एकदम घटा दी गई हैं। जगह-जगह व्यापारी नारे लगा रहे थे - नैतिकता! मानवीयता! वे इतने जोर से और आक्रामक ढंग से ये नारे लगा रहे थे कि लगता था, चिल्ला रहे हैं -हरामजादे! सूअर के बच्चे! गल्ले की दुकान पर तख्ती लगी थी - गेहूँ सौ रुपए क्विंटल! ग्राहक ने आँखें मल, फिर पढ़ा। फिर आँखें मलीं फिर पढ़ा। वह आँखें मलता जाता। उसकी आँखें सूज गईं, तब उसे भरोसा हुआ कि यही लिखा है। उसने दुकानदार से कहा - क्या गेहूँ सौ रुपए क्विंटल कर दिया? परसों तक दो सौ रुपए था। सेठ ने कहा - हाँ, अब सौ रुपए के भाव देंगे। ग्राहक ने कहा - ऐसा गजब मत कीजिए। आपके बच्चे भूखे मर जाएँगे। सेठ ने कहा - चाहे जो हो जाए, मैं अपना और परिवार का बलिदान कर दूँगा, पर कीमत नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता का तकाजा है। ग्राहक गिड़गिड़ाने लगा - सेठजी, मेरी लाज रख लो। दो सौ पर ही दो। मैं पत्नी से दो सौ के हिसाब से लेकर आया हूँ, सौ के भाव से ले जाऊँगा, तो वह समझेगी कि मैंने पैसे उड़ा दिए और गेहूँ चुरा कर लाया हूँ। सेठ ने कहा - मैं किसी भी तरह सौ से ऊपर नहीं बढ़ाऊँगा। लेना हो तो लो, वरना भूखों मरो। दूसरा ग्राहक आया। वह अक्खड़ था। उसने कहा - ऐ सेठ, यह क्या अंधेर मचा रखा है, भाव बढ़ाओ वरना ठीक कर दिए जाओगे। सेठ ने जवाब दिया - मैं धमकी से डरने वाला नहीं हूँ। तुम मुझे काट डालो; पर मैं भाव नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता भी कोई चीज है। एक गरीब आदमी झोला लिए दुकान के सामने खड़ा था। दुकानदार आया और उसे गले लगाने लगा। गरीब आदमी डर से चिल्लाया - अरे, मार डाला! बचाओ! बचाओ! सेठ ने कहा - तू इतना डरता क्यों है? गरीब ने कहा - तुम मुझे दबोच जो रहे हो! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? सेठ ने कहा - अरे भाई, मैं तो तुझसे प्यार कर रहा हूँ। प्रधान मंत्री ने मानवीयता की अपील की है न! एक दुकान पर ढेर सारे चाय के पैकेट रखे थे। दुकान के सामने लगी भीड़ चिल्ला रही थी - चाय को छिपाओ। हमें इतनी खुली चाय देखने की आदत नहीं है। हमारी आँखें खराब हो जाएँगी। उधर से सेठ चिल्लाया - मैं नैतिकता में विश्वास करता हूँ। चाय खुली बेचूँगा और सस्ती बेचूँगा। कालाबाजार बंद हो गया है। एक मध्यमवर्गीय आदमी बाजार से निकला। एक दुकानदार ने उसका हाथ पकड़ लिया। उस आदमी ने कहा - सेठजी, इस तरह बाजार से बेइज्जत क्यों करते हो! मैंने कह तो दिया कि दस तारीख को आपकी उधारी चुका दूँगा। सेठ ने कहा - अरे भैया, पैसे कौन माँगता है? जब मर्जी हो, दे देना। चलो, दुकान पर चलो। कुछ शक्कर लेते जाओ। दो रुपए किलो। |
14-06-2012, 08:27 PM | #4 |
Special Member
Join Date: Jun 2010
Location: Jhumri Tillaiya
Posts: 2,429
Rep Power: 21 |
Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
पुलिस मंत्री का पुतला एक राज्य में एक शहर के लोगों पर पुलिस-जुल्म हुआ तो लोगों ने तय किया कि पुलिस-मंत्री का पुतला जलाएँगे। पुतला बड़ा कद्दावर और भयानक चेहरेवाला बनाया गया। पर दफा 144 लग गई और पुतला पुलिस ने जब्त कर लिया। अब पुलिस के सामने यह समस्या आ गई कि पुतले का क्या किया जाए। पुलिसवालों ने बड़े अफसरों से पूछा, ‘साहब, यह पुतला जगह रोके कब तक पड़ा रहेगा? इसे जला दें या नष्ट कर दें?’ अफसरों ने कहा, ‘गजब करते हो। मंत्री का पुतला है। उसे हम कैसे जलाएँगे? नौकरी खोना है क्या?’ इतने में रामलीला का मौसम आ गया। एक बड़े पुलिस अफसर को ‘ब्रेनवेव’ आ गई। उसने रामलीलावालों को बुलाकर कहा, ‘तुम्हें दशहरे पर जलाने के लिए रावण का पुतला चाहिए न? इसे ले जाओ। इसमें सिर्फ नौ सिर कम हैं, सो लगा लेना।’ |
14-06-2012, 08:28 PM | #5 |
Special Member
Join Date: Jun 2010
Location: Jhumri Tillaiya
Posts: 2,429
Rep Power: 21 |
Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
अश्लील शहर में ऐसा शोर था कि अश्लील साहित्य का बहुत प्रचार हो रहा है। अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुलेआम अश्लील पुस्तकें बिक रही हैं। दस-बारह उत्साही समाज-सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे। उन्होंने एक दुकान पर छापा मारकर बीच-पच्चीस अश्लील पुस्तकें हाथों में कीं। हरके के पास दो या तीन किताबें थीं। मुखिया ने कहा - आज तो देर हो गई। कल शाम को अखबार में सूचना देकर परसों किसी सार्वजनिक स्थान में इन्हें जलाएँगे। प्रचार करने से दूसरे लोगों पर भी असर पड़ेगा। कल शाम को सब मेरे घर पर मिलो। पुस्तकें में इकट्ठी अभी घर नहीं ले जा सकता। बीस-पच्चीस हैं। पिताजी और चाचाजी हैं। देख लेंगे तो आफत हो जाएगी। ये दो-तीन किताबें तुम लोग छिपाकर घर ले जाओ। कल शाम को ले आना। दूसरे दिन शाम को सब मिले पर किताबें कोई नहीं लाया था। मुखिया ने कहा - किताबें दो तो मैं इस बोरे में छिपाकर रख दूँ। फिर कल जलाने की जगह बोरा ले चलेंगे। किताब कोई लाया नहीं था। एक ने कहा - कल नहीं, परसों जलाना। पढ़ तो लें। दूसरे ने कहा - अभी हम पढ़ रहे हैं। किताबों को दो-तीन बाद जला देना। अब तो किताबें जब्त ही कर लीं। उस दिन जलाने का कार्यक्रम नहीं बन सका। तीसरे दिन फिर किताबें लेकर मिलने का तय हुआ। तीसरे दिन भी कोई किताबें नहीं लाया। एक ने कहा - अरे यार, फादर के हाथ किताबें पड़ गईं। वे पढ़ रहे हैं। दसरे ने कहा - अंकिल पढ़ लें, तब ले आऊँगा। तीसरे ने कहा - भाभी उठाकर ले गई। बोली की दो-तीन दिनों में पढ़कर वापस कर दूँगी। चौथे ने कहा - अरे, पड़ोस की चाची मेरी गैरहाजिर में उठा ले गईं। पढ़ लें तो दो-तीन दिन में जला देंगे। अश्लील पुस्तकें कभी नहीं जलाई गईं। वे अब अधिक व्यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं। |
14-06-2012, 08:29 PM | #6 |
Special Member
Join Date: Jun 2010
Location: Jhumri Tillaiya
Posts: 2,429
Rep Power: 21 |
Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
पवित्रता का दौरा सुबह की डाक से चिट्ठी मिली, उसने मुझे इस अहंकार में दिन-भर उड़ाया कि मैं पवित्र आदमी हूँ क्योंकि साहित्य का काम एक पवित्र काम है। दिन-भर मैंने हर मिलनेवाले को तुच्छ समझा। मैं हर आदमी को अपवित्र मानकर उससे अपने को बचाता रहा। पवित्रता ऐसी कायर चीज है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है। अपने पवित्र होने का एहसास आदमी को ऐसा मदमाता है कि वह उठे हुए साँड़ की तरह लोगों को सींग मारता है, ठेले उलटाता है, बच्चों को रगेदता है। पवित्रता की भावना से भरा लेखक उस मोर जैसा होता है जिसके पाँव में घुँघरू बाँध दिए गए हों। वह इत्र की ऐसी शीशी है जो गंदी नाली के किनारे की दुकान पर रखी है। यह इत्र गंदगी के डर से शीशी में ही बंद रहता है। वह चिट्ठी साहित्य की एक मशहूर संस्था के सचिव की तरफ से थी। मैं उस संस्था का, जिसका लाखों का कारोबार है, सदस्य बना लिया गया हूँ। स्थायी समिति का सदस्य हूँ। यह संस्था हम लोगों को बैठकों में शामिल होने का खर्च नहीं देती क्योंकि पैसा साहित्य के पवित्र काम में लगे हुए पवित्र पदाधिकारियों के हड़पने में ही खर्च हो जाता है। सचिव ने कि साहित्य भवन के सामने एक सिनेमा बनाने की मंजूरी मिल रही है। सिनेमा बनने से साहित्य भवन की पवित्रता, सौम्यता और शांति भंग होगी। वातावरण दूषित होगा। हम मुख्यमंत्री को सिनेमा निर्माण न होने देने के लिए ज्ञापन दे रहे हैं। आप भी इस पर दस्तखत कर दीजिए। इस चिट्ठी से मुझे बोध हुआ कि साहित्य पवित्र है, हम साहित्यकार पवित्र हैं और साहित्य की यह संस्था पवित्र है। मेरे दुष्ट मन ने एक शंका भी उठाई कि हो सकता है किसी ऐसे पैसेवाले ने, जिसे उस जगह दुकान खोलनी है, हमारे पवित्र साहित्य के पवित्र सचिव को पैसा खिला दिया हो कि सिनेमा न बनने दो। पर मैंने इस दुष्ट शंका को दबा दिया। नहीं, नहीं, साहित्य की संस्था पवित्र है, सिनेमा अपवित्र है। हमें अपवित्रता से अपना पल्ला बचा लेना चाहिए। शाम की डाक से संस्था के विपक्षी गुट के नेता की चिट्ठी आई जिसमें संस्था में किए जा रहे भ्रष्टाचार का ब्यौरा दिया गया था। इस पत्र ने मुझे झकझोरा। अपनी पवित्रता पर मुझे शंका हुई। साहित्य के काम की पवित्रता पर शंका हुई। साहित्य की संस्था की पवित्रता की मेरी उठान शांत हुई और मैं नार्मल हो गया। इतने साल साहित्य के क्षेत्र में हो गए। मैं कई बार पवित्र होने की दुर्घटना में फँसा, पर हर बार बच गया। मुझे लिखते जब कुछ ही समय हुआ था, तभी बुजुर्ग साहित्यकार मुझसे कहते थे - आपने साहित्य रचना का कार्य अपने हाथ में लिया है। माता वीण-पाणि के मंदिर की पवित्रता बनाए रखिए। मैं थोड़ा फूलता था। सोचता था, सिगरेट पीना छोड़ दूँ क्योंकि इस धुएँ से देवी के मंदिर के धूप की सुगंध दबती होगी। पर मैं उबर आया। वे बुजुर्ग कहते – माँ भारती ने आपके सामने आँचल फैलाया है। उसे मणियों से भर दीजिए। (वैसे कवि ‘अंचल’ उस दिन कह रहे थे कि हम तो अब ‘रजाई’ हो गए)। जी हाँ, माँ भारती के अंचल में आप कचरा डालते जाएँ और उसी में मैं मणि छोड़ता जाऊँ। ये पवित्र लोग और पवित्र ही लिखने वाले लोग बड़े दिलचस्प होते हैं। एक मुझसे बार-बार कहते - आप अब कुछ शाश्वत साहित्य लिखिए। मैं तो शाश्वत साहित्य ही लिखता हूँ। वे सट्टे का फिगर रोज नया लगाते थे, मगर साहित्य शाश्वत लिखते थे। वे मुझे बाल्मीकि की तरह दीमकों के बमीठे में दबे हुए लगते थे। शाश्वत साहित्य लिखने का संकल्प लेकर बैठनेवाले मैंने तुरंत मरते देखे हैं। एक शाश्वत साहित्य लिखनेवाले ने कई साल पहले मुझसे कहा था - अरे, आप स्कूल मास्टर होकर भी इतना अच्छा लिखते हैं। मैं तो सोचता था, आप प्रोफेसर होंगे। उन्होंने स्कूल-मास्टर लेखक की हमेशा उपेक्षा की। वे खुद प्रोफेसर रहे। पर आगे उनकी यह दुर्गति हुई कि उन्हें कोर्स में लगी मेरी ही रचनाएँ कक्षा में पढ़ानी पड़ीं। उनका शाश्वत साहित्य कोर्स में नहीं लगा। सोचता हूँ, हम कहाँ के पवित्र हैं। हममें से अधिकांश ने अपनी लेखनी को रंडी बना दिया है, जो पैसे के लिए किसी के भी साथ सो जाती है। सत्ता इस लेखनी से बलात्कार कर लेती है और हम रिपोर्ट तक नहीं करते। कितने नीचों की तारीफ मैंने नहीं लिखी। कितने मिथ्या का प्रचार मैंने नहीं किया। अखबारों के मालिकों का रुख देखकर मेरे सत्य ने रूप बदले हैं। मुझसे सिनेमा के चाहे जैसे डायलाग कोई लिखा ले। मैं इसी कलम से बलात्कार की प्रशंसा में भी फिल्मी गीत लिख सकता हूँ और भगवद् भजन भी लिख सकता हूँ। मुझसे आज पैसे देकर मजदूर विरोधी अखबार का संपादन करा लो और कल मैं उससे ज्यादा पैसे लेकर ट्रेड-यूनियन के अखबार का संपादन कर दूँ। इसी कलम से मैंने पहले ‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद’ लिखा था, फिर ‘इंदिरा गांधी मुर्दाबाद’ लिखा था, और अब फिर ‘इंदिरा भारत है’ लिख रहा हूँ। क्या हमारी पवित्रता है? साहित्य भवन की पवित्रता को सिनेमा भवन क्या नष्ट कर देगा? पर होता तो है पवित्रता, शराफत, चरित्र का एक गुमान। इधर ही एक मुहल्ले में सिनेमा बनने वाला था, तो शरीफों ने बड़ा हल्ला मचाया - यह शरीफों का मोहल्ला है। यहाँ शरीफ स्त्रियाँ रहती हैं और यहाँ सिनेमा बन रहा है। गोया सिनेमा गुंडों के मोहल्ले में बनना चाहिए ताकि इनके घरों की शरीफ औरतें सिनेमा देखने गुंडों के बीच जाएँ। मुहल्ले में एक आदमी रहता है। उससे मिलने एक स्त्री आती है। एक सज्जन कहने लगे - यह शरीफों का मुहल्ला है। यहाँ यह सब नहीं होना चाहिए। देखिए, फलाँ के पास एक स्त्री आती है। मैंने कहा - साहब, शरीफों का मुहल्ला है, तभी तो वह स्त्री अपने पुरुष मित्र से मिलने बेखटके आती है। क्या वह गुंडों के मुहल्ले में उससे मिलने जाती? पवित्रता का यह हाल है कि जब किसी मंदिर के पास से शराब की दुकान हटाने की माँग लोग करते हैं, तब पुजारी बहुत दुखी होता है। उसे लेने के लिए दूर जाना पड़ेगा। यहाँ तो ठेकेदार भक्ति-भाव में कभी-कभी मुफ्त भी पिला देता था। मैं शामवाले पत्र से हल्का हो गया। पवित्रता का मेरा नशा उतर गया। मैंने सोचा, साहित्य भवन के सचिव को लिखूँ - मुझे दूसरे पक्ष का पत्र भी मिल गया है जिसमें बताया गया है कि अपनी संस्था में कितना भ्रष्टाचार है। अब तो सिनेमा-मालिक को ही माँग करनी चाहिए कि यह साहित्य की संस्था यहाँ से हटाई जाए, जिससे दर्शकों की नैतिकता पर बुरा असर न पड़े। इसमें बड़ा भ्रष्टाचार है। |
22-01-2013, 07:57 PM | #7 |
Member
Join Date: Jan 2013
Posts: 15
Rep Power: 0 |
Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
दस दिनों का अनशन [ हरिशंकर परसाई ]
|
22-01-2013, 07:57 PM | #8 |
Member
Join Date: Jan 2013
Posts: 15
Rep Power: 0 |
Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
१० ज़नवरी
आज मैंने बन्नू से कहा, “देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है कि संसद, कानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गये हैं। बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं। 20 साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने से पचास करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है। इस वक्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल।” बन्नू सोचने लगा। वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है। भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है। तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकता, क्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है। सोचकर बोला, “मगर इसके लिए अनशन हो भी सकता है?” मैंने कहा, “इस वक्त हर बात के लिए हो सकता है। अभी बाबा सनकीदास ने अनशन करके कानून बनवा दिया है कि हर आदमी जटा रखेगा और उसे कभी धोएगा नहीं। तमाम सिरों से दुर्गंध निकल रही है। तेरी मांग तो बहुत छोटी है – सिर्फ एक औरत के लिए।” |
22-01-2013, 07:58 PM | #9 |
Member
Join Date: Jan 2013
Posts: 15
Rep Power: 0 |
Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
सुरेन्द्र वहां बैठा था। बोला, “यार कैसी बात करते हो! किसी की बीवी को हड़पने के लिए अनशन होगा? हमें कुछ शर्म तो आनी चाहिए। लोग हंसेंगे।”
मैंने कहा, “अरे यार, शर्म तो बड़े-बड़े अनशनिया साधु-संतों को नहीं आयी। हम तो मामूली आदमी हैं। जहां तक हंसने का सवाल है, गोरक्षा आंदोलन पर सारी दुनिया के लोग इतना हंस चुके हैं कि उनका पेट दुखने लगा है। अब कम-से-कम दस सालों तक कोई आदमी हंस नहीं सकता। जो हंसेगा वो पेट के दर्द से मर जाएगा।” |
22-01-2013, 07:59 PM | #10 |
Member
Join Date: Jan 2013
Posts: 15
Rep Power: 0 |
Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
बन्नू ने कहा, “सफलता मिल जाएगी?” |
Bookmarks |
|
|