24-11-2014, 05:05 PM | #11 |
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Re: पेशावर एक्सप्रेस: कृशन चंदर
चंद मिंटों में चार सौ आदमी ख़तम कर दीए गए और फिर मैं आगे चली। अब मुझे आपणे जिस्म के ज़रे ज़रे से घिण आने लगी। इस कदर पलीद और मताफ़न महिसूस कर रही थी। जैसे मुझे शैतान ने सीधा जहंनम से धका दे कर पंजाब में भेज दिआ हो। अटारी पहुंच कर फ़ज़ा बदल सी गई। मुग़लपुरा ही से बलोची सिपाही बदले गए थे और उन की जग्हा डोगरों और सिख सिपाहीओं ने लै ली थी। लेकिन अटारी पहुंच कर तो मुसलमानों की इतनी लाशें हिंदू महाजर ने देखीं कि उन के दिल फ़ुरत मुसरत से बाग़ बाग़ हो गए। आज़ाद हिंदुसतान की सरहद आ गई थी वरना इतना हुसीन मंज़र किस तर्हां देखणे को मिलता और जब मैं अंम्रितसर स्टेशन पर पहुंची तो सिखों के नाअरों ने ज़मीन आसमान को गूंजा दिआ । यहां भी मुसलमानों की लाशों के ढेर के ढेर थे और हिंदू जाट और सिख और डोगरे हर डबे मैं झांक कर पूछते थे, कोई शिकार है, मतलब ये कि कोई मुसलमान है। >>>
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24-11-2014, 05:06 PM | #12 |
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Re: पेशावर एक्सप्रेस: कृशन चंदर
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इक डबे में चार हिंदू व ब्राहमण सवार होए। सिर घटा हुआ, लंबी चोटी, राम नाम की धोती बांधे, हर दवारका सफ़र कर रहे थे। यहां हर डबे मैं आठ दस सिख और जाट भी बैठ गए, ये लोग राइफ़लों और बलमों से मसला थे और मशरकी पंजाब में शिकार की तलाश मैं जा रहे थे। उन में से इक के दिल मैं कुछ शुब्हा सा हुआ। उस ने इक ब्राहमण से पूछा । ब्राहमण देवता किधर जा रहे हो? हर दवार। तीरथ करने। हर दवार जा रहे हो कि पाकिसतान जा रहे हो। मीआं अल्हा अल्हा करो। दूसरे ब्राहमण के मूंह से निकला। जाट हिंसा, तो आओ अल्हा अल्हा करीं। औनथा सिहां, शिकार मिल गिआ भई आओ रहीदा अल्हा बैली करए। इतना कहि कर जाट ने बलम नकली ब्राहमण के सीने में मारा। दूसरे ब्राहमण भागने लगे। जाटों ने इनहें पकड़ लिया। इसे नहीं ब्राहमण देवता, ज़रा डाकटरी माअना कराते जाओ। हर दवार जाणे से पहिले डाकटरी माअना बहुत ज़रूरी होता है। डाकटरी मुआइने से मुराद ये थी कि वोह लोग ख़तना दिखते थे और जिस के ख़तना हुआ होता उसे वहीं मार डालते। चारों मुसलमान जो ब्राहमण का रूप बदल कर आपणी जान बचाने के लिए भाग रहे थे। वहीं मार डाले गए और मैं आगे चली। रासते मैं इक जग्हा जंगळ मैं मुझे खड़्हा कर दिआ गिआ और महाजरीन और सिपाही और जाट और सिख सभ निकल कर जंगळ की तरफ़ भागने लगे। मैं ने सोचा शाइद मुसलमानों की बहुत बड़ी फ़ौज उन पर हमला करने के लिए आ रही है। >>>
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24-11-2014, 05:08 PM | #13 |
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Re: पेशावर एक्सप्रेस: कृशन चंदर
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इतने मैं किआ देखती हूं कि जंगळ में बहुत सारे मुसलमान मज़ारा आपणे बीवी बचों को लिए छपे बैठे हैं। सिरी असत अकाल और हिंदू धरम की जै के नाअरों की गूंज से जंगळ कांप उठा, और वोह लोग नर गे में लै लिए गए। आधे घंटे मैं सभ सफ़ाइआ हो गिआ। बुढे, जवान, औरतें और बचे सभ मार डाले गए। इक जाट के नेज़े पर इक नंन्हे बचे की लाश थी और वोह उस से हवा मैं घुमा घुमा कर कहि रिहा था। आई बैसाखी। आई बैसाखी जटा लाए है़ है़। जलंधर से इधर पठानों का इक गांव था। यहां पर गाड़ी रोक कर लोग गांव मैं घुस गए। सिपाही और महाजरीन और जाट पठानों ने मुकाबिल किआ। लेकिन आख़िर मैं मारे गए, बचे और मरद हलाक हो गए तो औरतों की बारी आई और वहीं इसी खुले मैदान मैं जहां गेहूं के खलियाण लगाए जाते थे और सरसों के फूल मुसकराते थे और ग़ुफ़त मआब बीबीआं आपणे ख़ावंदों की निगाह शौक की ताब ना लाकर कमज़ोर शाखों की तर्हां झुकी झुकी जाती थीं। इसी वसीअ मैदान मैं जहां पंजाब के दल ने हीर रांझे और सोहणी महींवाल की लाफ़ानी उलफ़त के तराने गाए थे। इनहें शीशम, सरस और पीपल के द्रख़तों तळे वकती चकले आबाद होए। पचास औरतें और पांच सौ ख़ावंद, पचास भेड़ें और पांच सौ कसाब, पचास सोहणीआं और पांच महींवाल, शाइद अब चनाब में कभी तुग़िआनी ना आएगी। शाइद अब कोई वारिस शाह की हीर ना गाएगा। शाइद अब मिरज़ा साहिबान की दासतान उलफ़त व अफ़त उन मैदानों में कभी ना गूंजेगी। >>>
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24-11-2014, 05:09 PM | #14 |
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Re: पेशावर एक्सप्रेस: कृशन चंदर
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लाखों बार लाहनत हो इन राहनमाओं पर और उन की सात पुशतों पर, जिनहों ने इस ख़ूबसूरत पंजाब, इस अलबेले पिआरे, सुनहिरे पंजाब के टुकड़े टुकड़े कर दीए थे और उस की पाकीज़ा रूह को गहिणा दीआ था और उस के मज़बूत जिस्म में नफ़रत की पीप भरदी थी, आज पंजाब मर गिआ था, उस के नग़मे गुंगे हो गए थे, उस के गीत मुरदा, उस की ज़बान मुरदा, उस का बेबाक निडर भोळा भाला दिल मुरदा, और ना महिसूस करते होए और आंख और कान ना रखते होए भी मैं ने पंजाब की मौत देखी और ख़ौफ़ से और हैरत से मेरे कदम इस पटरी पर रुक गए। पठान मरदों और औरतों की लाशें उठाए जाट और सिख और डोगरे और सरहदी हिंदू वापस आए और मैं आगे चली। आगे इक नहिर आती थी ज़रा ज़रा वकफ़े के बाद मैं रुकदी जाती, जिउं ही कोई डबा नहिर के पुळ पर से गुज़रता, लाशों को ऐन नीचे नहिर के पाणी में गिरा दिआ जाता। इस तर्हां जब हर डबे के रुकने के बाद सभ लाशें पाणी मैं गिरा दी गई तो लोगों ने देसी शराब की बोतलें खोल्हीं और मैं ख़ून और शराब और नफ़रत की भाप उगलती होई आगे बड़्ही। लुधिआणा पहुंच कर लुटेरे गाड़ी से उतर गए और शहिर में जा कर उनहों ने मुसलमानों के महलों का पता ढूंड निकाला। और वहां हमला किया और लूट मार की और माल ग़नीमत आपणे कंधों पर लादे होए तिंन चार घंटों के बाद स्टेशन पर वापस आए जब तक लूट मार ना हो चुकी। जब तक दस बीस मुसलमानों का ख़ून ना हो चुकता। >>>
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24-11-2014, 05:11 PM | #15 |
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Re: पेशावर एक्सप्रेस: कृशन चंदर
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जब तक सभ महाजरीन आपणी नफ़रत को आलूदा ना कर लीते मेरा आगे बड़ना दुशवार किआ नामुमकिन था, मेरी रूह मैं इतने घाउ थे और मेरे जिस्म का ज़रा ज़रा गंदे नापाक ख़ूनीओं के कहकहों से इस तर्हां रच गिआ था कि मुझे ग़ुसल की शदीद ज़रूरत महिसूस होई। लेकिन मुझे मलूम था कि इस सफ़र मैं कोई मुझे नहाने ना देगा। अंबाला स्टेशन पर रात के वकत मेरे इक फ़सट कलास के डबे मैं इक मुसलमान डिपटी कमिशनर और उस के बीवी बचे सवार होए। इस डिबे मैं इक सरदार साहिब और उन की बीवी भी थे, फ़ौजिओं के पहिरे मैं मुसलमान डिपटी कमिशनर को सवार कर दिआ गिआ और फ़ौजिओं को उन की जान व माल की सख़त ताकीद कर दी गई। रात के दो बजे मैं अंबाले से चली और दस मीळ आगे जा कर रोक दी गई। फ़रसट कलास का डबा अंदर से बंद था। इस लिए खिड़की के शीशे तोड़ कर लोग अंदर घुस गए और डिपटी कमिशनर और उस की बीवी और उस के छोटे छोटे बचों को कतल किया गिआ, डिपटी कमिशनर की इक नौजवान लड़की थी और बड़ी ख़ूबसूरत, वोह किसी कालज में पड़्हती थी। दो इक नौजवानों ने सोचा इसे बचा लीआ जाए। >>>
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24-11-2014, 05:12 PM | #16 |
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Re: पेशावर एक्सप्रेस: कृशन चंदर
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ये हुसन, ये रोनाई,ये ताज़गी ये जवानी किसी के काम आ सकती है। इतना सोच कर उनहों ने जलदी से लड़की और ज़ेवरात के बकस को संभाला और गाड़ी से उतर कर जंगळ में चले गए। लड़की के हाथ में इक किताब थी। यहां ये कानफ़रंस शुरू होई कि लड़की को छोड़ दीआ जाए या मार दीआ जाए। लड़की ने किहा। मुझे मारते किउं हो? मुझे हिंदू कर लौ। मैं तुमहारे मज़हब में दाख़ल हो जाती हूं। तुम मैं से कोई इक मुझ से बिआह कर ले। मेरी जान लैणे से किआ फ़ाइदा! ठीक तो कहिती है, इक बोळा। मेरे ख़िआल में , दूसरे ने कत्हा कलाम करते होए और लड़की के पेट मैं छुरा घोंपते होए किहा। मेरे ख़िआल मैं उसे ख़तम कर देणा ही बिहतर है। चलो गाड़ी में वापस चलो। किआ कानफ़रंस लगा रखी है तुम ने। लड़की जंगळ में घास के फ़रश पर तड़प तड़प कर मर गई।उस की किताब उस के ख़ून से तरबतर हो गई।किताब का उनवान था इशतराकीअत अमल और फ़लसफ़ा इज़ जान सटरैटजी।वोह ज़हीन लड़की होगी।उसके दिल में आपणे मुलको कौम की ख़िदमत के इरादे होंगे। उस की रूह में किसी से मुहबत करने, किसी को चाहने, किसी के गले लग जाणे, किसी बचे को दुध पिलाने का जज़बा होगा। वोह लड़की थी, वोह मां थी, वोह बीवी थी, वोह महिबूबा थी। वोह काइनात की तख़लीक का मुकदस राज़ थी और अब उस की लाश जंगळ में पड़ी थी और गिदड़, गिध और कऊए उस की लाश को नोच नोच कर खाएंगे। >>>
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24-11-2014, 05:14 PM | #17 |
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Re: पेशावर एक्सप्रेस: कृशन चंदर
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इशतराकीअत, फ़लसफ़ा और अमल वहिशी दरिंदे इनहें नोच नोच कर खा रहे थे और कोई नहीं बोलता और कोई आगे नहीं बड़्हता और कोई अवाम में से इनकलाब का दरवाज़ा नहीं खोलता और मैं रात की तारीकी आग और शरारों को छुपाके आगे बड़ा रही हूं और मेरे डब्बों मैं लोग शराब पी रहे हैं और महातमा गांधी के जैकारे बुला रहे हैं। इक अरसे के बाद मैं बंबई वापस आई हूं, यहां मुझे नहिला धुला कर शैड में रख दिआ गिआ है। मेरे डब्बों में अब शराब के भपारे नहीं हैं, ख़ून के छींटे नहीं हैं, वहिशी ख़ूनी कहिकहे नहीं हैं मगर रात की तनहाई में जैसे भूत जाग उठते हैं मुरदा रूहें बेदार हो जाती हैं और ज़ख़मीओं की चीख़ें और औरतों के बीन और बचों की पुकार, हर तरफ़ फिज़ा मैं गूंजने लगती है और मैं चाहती हूं कि अब मुझे कभी कोई इस सफ़र पर ना ले जाए। मैं इस शैड से बाहर नहीं निकलणा चाहती हूं कि अब मुझे कभी कोई इस सफ़र पर ना ले जाए। मैं इस शैड से बाहर नहीं निकलणा चाहती, मैं उस खोफ़नाक सफ़र पर दुबारा नहीं जाणा चाहती, अब मैं उस वकत जाऊंगी। जब मेरे सफ़र पर दो तरफ़ा सुनहिरे गेहूं के खलियाण लहिर आएंगे और सरसों के फूल झूम झूम कर पंजाब के रसीले उलफ़त भरे गीत गाएंगे और किसान हिंदू और मुसलमान दोनों मिल कर के खेत काटेंगे। बीज बोएंगे। >>>
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24-11-2014, 05:15 PM | #18 |
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Re: पेशावर एक्सप्रेस: कृशन चंदर
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हरे हरे खेतों में ग़ुलाई करेंगे और उन के दिलों मैं मिहरो वफ़ा और आंखों मैं शरम और रूहों मैं औरत के लिए पिआर और मुहबत और इज़त का जज़बा होगा। मैं लकड़ी की इक बे जान गाड़ी हूं लेकिन फिर भी मैं चाहती हूं कि इस ख़ून और गोशत और नफ़रत के बोझ से मुझे ना लादा जाए। मैं कहित ज़दा इलाकों में अनाज ढोऊंगी। मैं कोइला और तेल और लोहा ले कर कारखानों में जाऊंगी मैं किसानों के लिए नए हल और नई खाद मुहईआ करूंगी। मैं आपणे डब्बों मैं किसानों और मज़दूरों को ख़ुशहाल टोलीआं लै कर जाऊंगी, और बाअसमत औरतों की मिठी निगाहें आपणे मरदों का दिल टटोल रही होंगी। और उन के आंचलों में नंन्हे मुने ख़ूबसूरत बचों के चिहरे कंवल के फूलों की तर्हां नज़र आएंगे और वोह इस मौत को नहीं बलकि आने वाळी ज़िंदगी को झुक कर सलाम करेंगे। जब ना कोई हिंदू होगा ना मुसलमान बलकि सभ मज़दूर होंगे और इनसान होंगे। **
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