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Old 08-04-2011, 09:27 PM   #21
naman.a
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Default Re: रामचरित मानस से सीख

भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥


भावार्थ:-भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्* कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥4-5॥दोहा :

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥


भावार्थ:-भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में॥5॥

***
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Old 08-04-2011, 10:02 PM   #22
Hamsafar+
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Default Re: रामचरित मानस से सीख

जय श्री राम मित्र
(भाई क्या बदला ले रहे हो, या गुस्सा हो, मेरा फोन क्यों नहीं ले रहे हो ???)
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हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है कृपया हिंदी में लेखन व् वार्तालाप करे ! हिंदी लिखने के लिए मुझे क्लिक करें!
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Old 09-04-2011, 01:52 PM   #23
naman.a
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Default Re: रामचरित मानस से सीख

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥


भावार्थ:-भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥2॥

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥


भावार्थ:-दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥3-5॥दोहा :

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥


भावार्थ:-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥
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Old 12-04-2011, 08:10 PM   #24
naman.a
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Default Re: रामचरित मानस से सीख

अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥

भावार्थ:-विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥

भावार्थ:-भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
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Old 12-04-2011, 08:12 PM   #25
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Default Re: रामचरित मानस से सीख

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥

भावार्थ:-जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ ॥3॥
किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥

भावार्थ:-बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान्* और हनुमान्*जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥
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Old 12-04-2011, 10:39 PM   #26
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रामनवमी के पावन अवसर पर इस सूत्र की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है. नमन जी को इसके लिए खास धन्यवाद.
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Old 13-04-2011, 07:28 AM   #27
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हर ग्रन्थ की एक विशेषता होती है ,
ऐसी ही बहुत साड़ी विशेषता रामायण में भी है,
मैं ज्यादा तो नहीं जानता पर कुछ रामायण में लिखी व लोगों से सुनी कुछ कमियां मुझे प्रेषण करती है ,
जैसे एक धोबी के कहने पर सीता का त्याग, राम को लंका में जाने के लिए पुल बनाने की आवश्यकता पड़ी लेकिन
विभिष्ण राम के पास बिना किसी साधन के पहुँच गया , औरत को ढोल ,गंवार.व पशु के समान बताना आदि आदि.....
कृपया मेरे संशय को अन्यथा में न लें,व ना ही मीरा मकसद किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचन है..........
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कबीरा खड़ा बाज़ार में,मांगे सबकी खेर !
ना कहू से दोस्ती और ना कहू से बैर !!
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Old 13-04-2011, 08:57 PM   #28
naman.a
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Originally Posted by A-TO-Z View Post
हर ग्रन्थ की एक विशेषता होती है ,
ऐसी ही बहुत साड़ी विशेषता रामायण में भी है,
मैं ज्यादा तो नहीं जानता पर कुछ रामायण में लिखी व लोगों से सुनी कुछ कमियां मुझे प्रेषण करती है ,
जैसे एक धोबी के कहने पर सीता का त्याग, राम को लंका में जाने के लिए पुल बनाने की आवश्यकता पड़ी लेकिन
विभिष्ण राम के पास बिना किसी साधन के पहुँच गया , औरत को ढोल ,गंवार.व पशु के समान बताना आदि आदि.....
कृपया मेरे संशय को अन्यथा में न लें,व ना ही मीरा मकसद किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचन है..........
A To Z जी माफ़ी चाहता हुं आपके नाम से अवगत नही हूं इस लिये आई डी का नाम प्रयोग कर रहा हूं । संशय होना ये कोई गलत बात नही है वैसे इतना ज्ञानी मै भी नही पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिस करता हूं शायद आपके संशय मिट सके ।

आपने सीता के त्याग की बात कही उस पर अगर हम बात करते है तो आप ये बताये कि 14 वर्ष वनवास सिर्फ़ श्री राम जी को हुआ था तो फ़िर सीता जी और लक्ष्मण जी उनके साथ वन में क्यो गये ? हालाकि वो नही जाते तो भी उनको दोष नही था क्योकि उनके लिये वनवास नही था । पर वो धर्म के विरुद्ध होता सीता का पतिव्रत धर्म और लक्ष्मण का सेवक धर्म के विरुद्ध । और जनता के इसी अपवाद के कारण सीता ने स्वेच्छा से अग्निपरिक्षा भी दी थी क्योकि सीता जी को ये मालूम था कि ये उस समय के अनुसार कितनी जरुरी है । अगर वो गलत होता तो उनका विरोध होता वहा लक्ष्मण, भरत जैसे धर्मवीर पुरुष थे महार्षि वसिष्ट जैसे ज्ञानी थे और एक धोबी की ही बात क्यो करते हो बाकि प्रजा क्यो देख रही थी उन्होने क्यो नही कुछ बोला क्यो विरोध नही किया । जब राम जी वन मे गये थे तो वो सब साथ हो लिये थे और वन मे चले भी गये फ़िर उस समय क्यो चुप रही क्योकि वो निर्णय उचित लगा था । राम जी का स्वार्थ होता तो वो राजा होकर भी सीता जी के जाने बाद वैराग्य का जीवन क्यो व्यतित किया क्योकि राम जी को सीता जी से प्रेम था । बहु विवाह प्रथा होने के बाद भी वो एक पत्नि धर्म का पालन किया ।

श्री राम जी राजा थे वो सीता का त्याग नही करते तो भी कोई कुछ नही कर सकता था । पर उससे उनकी वो ही यश और वो आदर्श नही रह पाते । जो लोग ये कह रहे है कि सीता का त्याग गलत था वो ही कहते की खुद अपने पर आया तो धर्म को नही निभाया सीता का त्याग क्यो नही किया । जैसे आज के नेताओ के लिये हम कहते है कि उनके लिये कोई कानून नही है वो जो बनाये वो ही कानून है । कोई नेता पकडा जाता है तो ये ही बात होती है कल छुट जायेगा और मुकदमा चलता है तो ये ही होता है कि उसका फ़ैसला नही होता । इसी कारण जनता उनको भ्रष्ट कहती है ।

उस समय के धर्म और कानून और नीतीया अलग थी उसको हम आज के अनुसार नही देख सकते है ।

धर्म अपने आप मे एक बहुत ही सुक्ष्म वस्तु है उसका पालन बहुत ही कठिन है जो एक साधारण मनुष्य के बस मे ही नही है ।

ये सब लोग अपने अपने धर्म में बंधे हुए थे.

लक्ष्मण जी की बात करे तो लक्ष्मण जी ने अपने आप को श्री राम जी का सेवक और राम जी को आपना स्वामी माना था और एक सेवक का ये धर्म ये कि अगर कोई भी उसके स्वामी को उस अपराध का दंड दे जो उन्होंने नहीं किया तो उसका विरोध करे फिर चाहे उसके सामने उसका कोई सगा या सम्बन्धी ही क्यों न हो. क्योकि सेवक का सबसे प्रथम धर्म अपने स्वामी के प्रति वफादार होना हैं. इसीलिए तुलसीदास जी ने भी ये ही कहा हैं कि "सबसे सेवक धर्म कठोर" सेवक का धर्म सबसे कठोर होता हैं. तो उन्होंने कुछ गलत नहीं किया.

राजा दशरथ जी ने अपने कुल की मर्यादा और सत्य का पालन करना था जो उन्होंने अपने प्राण देकर भी किया.

वनवास के समय श्री राम जी का सबसे बड़ा धर्म उनके पिता के वचनों को और आदेश को मानना था और अपना कर्तव्य निभाना था.

एक नारी का सबसे बड़ा धर्म अपने पतिवर्त धर्म का पालन करना ही होता हैं जो माता सीता ने निभाया. माताओ कि सेवा के लिए उनकी बहने थी तो उनका वो धर्म भी भंग नहीं होता.

उर्मिला जी भी वन में जा सकती थी पर उनको ये मालूम था कि अगर वो साथ जायेगी तो लक्षमण जी का जो राम जी सेवा का जो प्रण था उसमे बाधा पहुचेगी और कोई पतिवर्ता नारी अपने स्वामी के धर्म में बाधा कैसे पुहुचा सकती हैं इसलिए वो नहीं गयी.

धर्म छोटे और बड़े नहीं होते. समय और परिश्थिति के अनुसार ही इसका निर्णय होता हैं और उस समय जो सबसे महत्वपूर्ण होता हैं वो ही करना उचित हैं. उदाहरण के तौर पर आप मंदिर में गए आप दुकान पर जाकर पुष्प और प्रसाद और सामग्री प्रभु को चढाने के लिए खरीद रहे हैं उसी समय आप के पास एक याचक आता हैं और कहता हैं की वो बहुत भूखा हैं उसे कुछ खाने को चाहिए और अगर आपके पास ज्यादा पैसे नहीं हैं तो आपका प्रथम धर्म उस याचक को खाना खिलाना हैं न की भगवन को माला और प्रसाद चदना. वो प्रभु जो सबको देता हैं उन्हें हम क्या देगे.


जय श्री राम

आपकी दुसरे संसयो पर भी अपनी तुच्छ बुद्धि अनुसार जरुर प्रकाश डालूगा ।
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Last edited by naman.a; 13-04-2011 at 09:02 PM.
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Old 13-04-2011, 09:13 PM   #29
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Default Re: रामचरित मानस से सीख

आपका संशय है कि मानस मे नारी का अपमान हुआ है तो उस पर फ़िर विचार करे ।

ताडन का अर्थ किस तरह "मारना " नहीं है और उस दोहे का अर्थ किस तरह किया जाना चाहिए और क्यूँ ?
ये स्पष्ट करें पहले |

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥

ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं.

यहाँ ताड़ना का अर्थ ''शिक्षा'' मानना चाहिए.

ये चौपाई सुन्दरकाण्ड में आई हैं जब सुमंद्र देव ने रास्ता नहीं दिया तो श्री राम जी ने समुन्द्र पर कोप किया तब समुन्द्र देव ने ये बात कही हैं.
मतलब जिस को ताड़ना (शिक्षा) दी हैं उसीने ये बात स्वयं कही हैं तो इसका मतलब मारना नहीं निकाल सकते क्योकि अगर किसी को अगर मारा जाता हैं तो वो ऐसा नहीं कहेगा की हम तो मार खाने के ही अधिकारी हैं.
तात्पर्य ये हैं कि यह उक्ति राम जी ने नहीं कही बल्कि एक अपराधी पत्र के मुख से उसकी गलती के पश्चताप के रूप में कही गयी हैं.
'अधिकारी' शब्द पर भी विचार करने से यह भाव कदापि नहीं प्रकट होता कि शुद्रो, गवारों, पशुओ और नारियो को पीटना या मरना चाहिए
क्योकि यहाँ ताड़ना कर्तव्य रूप में नहीं हैं, बल्कि अधिकार रूप में हैं.
अधिकार और कर्त्तव्य दोनों एक नहीं. कर्तव्य का पालन आवयश्यक हैं परन्तु अधिकार के विषय में यह बात नहीं, उसका तो जरूरत पड़ने पर ही प्रयोग होता हैं.
अतः: इस चौपाई का अभिप्राय कदापि यह नहीं हो सकता कि जो लोग अच्छे हैं उन्हें भी व्यर्थ ताड़ना दी जाये बल्कि जिन लोगो में सुधर की जरूरत हो.

यहाँ ताड़ना शब्द केवल सुधार मात्र के लिए हैं दंड के लिए नहीं.
जैसे ढोल को इस प्रकार से कसना और ठोकना जिससे वो सुरीली आवाज दे सके इतनी जोर से नहीं ठोका या कसा जाता हैं जिससे वो बेकार हो जाये तोल को ताड़ना का मतलब ये नहीं होता हैं की उसे उठाकर पटक दिया जाये या उसका चमडा उखाड़ दिया जाये.

वैसे ही गंवार और क्षुद्र मनुष्य को शिक्षा दे कर ही सदगुनी और बुद्धिमान बनाने का अभिप्राय हैं ना कि उन्हें मारने का.

अगर श्रीगोस्वामी जी का नारियो के प्रति ऐसा स्वाभाव होता तो वो सीता माता को जगत जननी, कौशल्या, सुमित्रा आदि को दिव्य नारी तथा शबरी व् त्रिजटा आदि नीच कुल कि नारियों की सुन्दर व्याख्या नहीं करते. उन्होंने रावन की पत्नी मंदोदरी और मेघनाद की पत्नी सुलोचना को भी पतिव्रता नारी बताया हैं.

विचारवान मनुष्य को ग्रंथकार के उद्देश्य को देखकर तथा ग्रन्थ के अनुबंध पर विचार करके ही टिपण्णी करनी चाहिए अन्यथा आलोचना का मूल अभिप्राय ही नष्ट हो जाता हैं.
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Default Re: रामचरित मानस से सीख

नमन जी माफ़ी चाहूँगा मैंने शुरू की में कहा है की मेरा उद्देश्य किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना नहीं,
ये तो मात्र मैंने मन की जिज्ञासा थी ,जो की मुझे सोचने पर मजबूर रही थे,

बहुत अच्छी तरह से आपने व्याख्या की है इसलिए आपका धन्यवाद !
परन्तु मुझे अभी भी कुछ संशय है ,जैसे की आपने कहा ढोल को कसने पर
मधुर आवाज़ देता है, लेकिन ये भी बात सही है की ढोल को पीटने पर ही उसकी
असली आवाज़ सुनाई देती है ,उसी प्रकार पशु को समझाया तो नहीं जा सकता है ,
इसलिए पशु के बिगड़ने पर उसे भी पिटा ही जाता है ,
इसी प्रकार मैंने पूछा था की राम को लंका में जाने के लिए पूल बनाना पड़ा,
जबकि विभिष्ण बिना किसी साधन के राम के पास पहुँच गया ,ये कैसे सम्भव हुआ ?
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