17-11-2013, 04:20 PM | #1 |
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साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे.....
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17-11-2013, 04:21 PM | #2 |
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Re: साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे.....
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17-11-2013, 04:22 PM | #3 |
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Re: साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे.....
साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का देहरादून के एक अस्पताल में निधन हो गया। वे 67 साल के थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि पिछले कुछ समय से पेट के कैंसर से पीड़ित थे और कुछ दिन पहले उन्हें भर्ती कराया गया था। ओमप्रकाश वाल्मीकि(1950) का जन्म ग्राम बरला, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनका बचपन सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाइयों में बीता। पढ़ाई के दौरान उन्हें अनेक आर्थिक, सामाजिक और मानसिक कष्ट झेलने पड़े। वाल्मीकि जी कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहे। वहां वे दलित लेखकों के संपर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डॉ. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं का अध्ययन किया। इससे उनकी रचना-दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन हुआ।
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17-11-2013, 04:24 PM | #4 |
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Re: साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे.....
देहरादून स्थित आर्डिनेंस फॅक्टरी में एक अधिकारी के रूप में कार्यरत थे। हिन्दी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने अपने लेखन में जातीय-अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया। वे मानते थे कि दलित ही दलित की पीडा़ को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। उन्होंने सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया। उनकी भाषा सहज, तथ्यपरक और आवेगमय थी। उसमें व्यंग्य का गहरा पुट भी दिखता था। नाटकों के अभिनय और निर्देशन में भी उनकी रुचि थी।
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17-11-2013, 04:24 PM | #5 |
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Re: साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे.....
आत्मकथा 'जूठन' के कारण उन्हें हिन्दी साहित्य में पहचान और प्रतिष्ठा मिली। उन्हें सन् 1993 में डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार और सन् 1995 में परिवेश सम्मान से अलंकृत किया गया। उनकी प्रमुख रचनाएं - सदियों का संताप (1989), बस्स, बहुत हो चुका (1997), अब और नहीं (2009) (तीनों कविता-संग्रह)। जूठन (1997, आत्मकथा), सलाम (2000)¸ घुसपैठिए (2004) (दोनों कहानी-संग्रह), दलित साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र (2001, आलोचना), सफ़ाई देवता (2009, वाल्मीकि समाज का इतिहास)।
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17-11-2013, 05:41 PM | #6 |
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ओमप्रकाश वाल्मिकी जी का परिनिर्वाण
साँझ ढले हर पंछी को घर जाना पड़ता है | कौन चाहता है मरना बस सबको मर जाना पड़ता है | आपका ओजस्वी स्वर, मुखर व्यक्तित्व हमें हमेशा प्रेरणा देता रहेगा , आपके सानिध्य से बहुत कुछ जिन्दगी को आसान बनाने का और सुखद जीवन को उत्साह से, शोषण से लडते हुए सिखा था और भी सिखना अभी बाकि था, आपके इस जिवट को सलाम तब तुम क्या करोगे ओमप्रकाश वाल्मीकि यदि तुम्हें , धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाय पानी तक न लेने दिया जाय कुएं से दुत्कारा फटकारा जाय चिल-चिलाती दोपहर में कहा जाय तोड़ने को पत्थर काम के बदले दिया जाय खाने को जूठन तब तुम क्या करोगे ? ** यदि तुम्हें , मरे जानवर को खींचकर ले जाने के लिए कहा जाय और कहा जाय ढोने को पूरे परिवार का मैला पहनने को दी जाय उतरन तब तुम क्या करोगे ? ** यदि तुम्हें , पुस्तकों से दूर रखा जाय जाने नहीं दिया जाय विद्या मंदिर की चौखट तक ढिबरी की मंद रोशनी में काली पुती दीवारों पर ईसा की तरह टांग दिया जाय तब तुम क्या करोगे ? ** यदि तुम्हें , रहने को दिया जाय फूस का कच्चा घर वक्त-बे-वक्त फूंक कर जिसे स्वाहा कर दिया जाय बर्षा की रातों में घुटने-घुटने पानी में सोने को कहा जाय तब तुम क्या करोगे ? ** यदि तुम्हें , नदी के तेज बहाव में उल्टा बहना पड़े दर्द का दरवाजा खोलकर भूख से जूझना पड़े भेजना पड़े नई नवेली दुल्हन को पहली रात ठाकुर की हवेली तब तुम क्या करोगे ? ** यदि तुम्हें , अपने ही देश में नकार दिया जाय मानकर बंधुआ छीन लिए जायं अधिकार सभी जला दी जाय समूची सभ्यता तुम्हारी नोच-नोच कर फेंक दिए जाएं गौरव में इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे तब तुम क्या करोगे ? ** यदि तुम्हें , वोट डालने से रोका जाय कर दिया जाय लहू-लुहान पीट-पीट कर लोकतंत्र के नाम पर याद दिलाया जाय जाति का ओछापन दुर्गन्ध भरा हो जीवन हाथ में पड़ गये हों छाले फिर भी कहा जाय खोदो नदी नाले तब तुम क्या करोगे ? ** यदि तुम्हें , सरे आम बेइज्जत किया जाय छीन ली जाय संपत्ति तुम्हारी धर्म के नाम पर कहा जाय बनने को देवदासी तुम्हारी स्त्रियों को कराई जाय उनसे वेश्यावृत्ति तब तुम क्या करोगे ? ** साफ सुथरा रंग तुम्हारा झुलस कर सांवला पड़ जायेगा खो जायेगा आंखों का सलोनापन तब तुम कागज पर नहीं लिख पाओगे सत्यम , शिवम, सुन्दरम! देवी-देवताओं के वंशज तुम हो जाओगे लूले लंगड़े और अपाहिज जो जीना पड़ जाय युगों-युगों तक मेरी तरह ? तब तुम क्या करोग
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17-11-2013, 05:50 PM | #7 |
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Re: ओमप्रकाश वाल्मिकी जी का परिनिर्वाण
नमन नमन , मिट्टी की दबी जबान को बोलने वाले , बेजुबानो को जुबान देने वाले , नमन नमन
पग पग पे बरछी बिछे थी सांस साँस पर चुभे थे तीर जब दर्द मजे का आया तो अब सोये पड़े थे बाँके पीर साजिन को घऱ दूर हैं जैसे लम्बी खजूर चढ़े सो प्रेम रस चखे और गिरे तो चकनाचूर
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17-11-2013, 10:30 PM | #8 | |
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Re: ओमप्रकाश वाल्मिकी जी का परिनिर्वाण
Quote:
धन्यवाद दीपू जी.........
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18-11-2013, 04:23 PM | #9 |
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Re: साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे.....
(ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ से एक अंश)
उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था। एक t*****i लड़के ने चिल्लाकर कहा, ‘‘मास्साब, वो बैट्ठा है कोणे में।’’ हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, ‘‘जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू...नहीं तो गांड में मिर्ची डालके स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा।’’ भयभीत होकर मैंने तीन दिन पुरानी वही शीशम की झाड़ू उठा ली। मेरी तरह ही उसके पत्ते सूखकर झरने लगे थे। सिर्फ बची थीं पतली-पतली टहनियाँ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे थे। रोते-रोते मैदान में झाड़ू लगाने लगा। स्कूल के कमरों की खिड़की, दरवाजों से मास्टरों और लड़कों की आँखें छिपकर तमाशा देख रही थीं। मेरा रोम-रोम यातना की गहरी खाई में लगातार गिर रहा था। मेरे पिताजी अचानक स्कूल के पास से गुजरे। मुझे स्कूल के मैदान में झाड़ू लगाता देखकर ठिठक गए। बाहर से ही आवाज देकर बोले, ‘‘मुंशी जी, यो क्या कर रा है ?’’ वे प्यार से मुझे मुंशी जी ही कहा करते थे। उन्हें देखकर मैं फफक पड़ा। वे स्कूल के मैदान में मेरे पास आ गए। मुझे रोता देखकर बोले, ‘‘मुंशी जी..रोते क्यों हो ? ठीक से बोल, क्या हुआ है ?’’ मेरी हिचकियाँ बँध गई थीं। हिचक-हिचककर पूरी बात पिताजी को बता दी कि तीन दिन से रोज झाड़ू लगवा रहे हैं। कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते। पिताजी ने मेरे हाथ से झाड़ू छीनकर दूर फेंक दी। उनकी आँखों में आग की गर्मी उतर आई थी। हमेशा दूसरों के सामने तीर-कमान बने रहनेवाले पिताजी की लंबी-लंबी घनी मूछें गुस्से में फड़फड़ाने लगी थीं। चीखने लगे, ‘‘कौण-सा मास्टर है वो द्रोणाचार्य की औलाद, जो मेरे लड़के से झाड़ू लगवावे है...’’ पिताजी की आवाज पूरे स्कूल में गूँज गई थी, जिसे सुनकर हेडमास्टर के साथ सभी मास्टर बाहर आ गए थे। कलीराम हेडमास्टर ने गाली देकर मेरे पिताजी को धमकाया। लेकिन पिताजी पर धमकी का कोई असर नहीं हुआ। उस रोज जिस साहस और हौसले से पिताजी ने हेडमास्टर का सामना किया, मैं उसे कभी भूल नहीं पाया। कई तरह की कमजोरियाँ थीं पिताजी में लेकिन मेरे भविष्य को जो मोड़ उस रोज उन्होंने दिया, उसका प्रभाव मेरी शख्सियत पर पड़ा। हेडमास्टर ने तेज आवाज में कहा था, ‘‘ले जा इसे यहाँ से..चूहड़ा होके पढ़ने चला है...जा चला जा...नहीं तो हाड़-गोड़ तुड़वा दूँगा।’’ पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ा और लेकर घर की तरफ चल दिए। जाते-जाते हेडमास्टर को सुनाकर बोले, ‘‘मास्टर हो...इसलिए जा रहा हूँ...पर इतना याद रखिए मास्टर...यो चूहड़े का यहीं पढ़ेगा...इसी मदरसे में। और यो ही नहीं, इसके बाद और भी आवेंगे पढ़ने कू।’’
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18-11-2013, 04:37 PM | #10 | |
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Re: साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे.....
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सुंदर.....................
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