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30-11-2012, 03:02 PM | #1 |
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अलंकार (प्रेमचंद)
पेश है मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास अलंकार
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
30-11-2012, 03:02 PM | #2 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
उन दिनों नील नदी के तट पर बहुतसे तपस्वी रहा करते थे। दोनों ही किनारों पर कितनी ही झोंपड़ियां थोड़ीथोड़ी दूर पर बनी हुई थीं। तपस्वी लोग इन्हीं में एकान्तवास करते थे और जरूरत पड़ने पर एकदूसरे की सहायता करते थे। इन्हीं झोंपड़ियों के बीच में जहांतहां गिरजे बने हुए थे। परायः सभी गिरजाघरों पर सलीब का आकार दिखाई देता था। धमोर्त्सवों पर साधुसन्त दूरदूर से वहां आ जाते थे। नदी के किनारे जहांतहां मठ भी थे। जहां तपस्वी लोग अकेले छोटीछोटी गुफाओं में सिद्धि पराप्त करने का यत्न करते थे।
यह सभी तपस्वी बड़ेबड़े कठिन वरत धारण करते थे, केवल सूयार्स्त के बाद एक बार सूक्ष्म आहार करते। रोटी और नमक के सिवाय और किसी वस्तु का सेवन न करते थे। कितने ही तो समाधियों या कन्दराओं में पड़े रहते थे। सभी बरह्मचारी थे, सभी मिताहारी थे। वह ऊन का एक कुरता और कनटोप पहनते थे; रात को बहुत देर तक जागते और भजन करने के पीछे भूमि पर सो जाते थे। अपने पूर्वपुरुष के पापों का परायश्चित करने के लिए वह अपनी देह को भोगविलास ही से दूर नहीं रखते थे, वरन उसकी इतनी रक्षा भी न करते थे जो वर्तमानकाल में अनिवार्य समझी जाती है। उनका विश्वास था कि देह को जितना कष्ट दिया जाए, वह जितनी रुग्णावस्था में हो, उतनी ही आत्मा पवित्र होती है। उनके लिए को़ और फोड़ों से उत्तम शृंगार की कोई वस्तु न थी।
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30-11-2012, 03:02 PM | #3 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
इस तपोभूमि में कुछ लोग तो ध्यान और तप में जीवन को सफल करते थे, पर कुछ ऐसे लोग भी थे जो ताड़ की जटाओं को बटकर किसानों के लिए रस्सियां बनाते या फल के दिनों में कृषकों की सहायता करते थे। शहर के रहने वाले समझते थे कि यह चोरों और डाकुओं का गिरोह है, यह सब अरब के लुटेरों से मिलकरा काफिलों को लूट लेते हैं। किन्तु यह भरम था। तपस्वी धन को तुच्छ समझते थे, आत्मोद्घार ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। उनके तेज की ज्योति आकाश को भी आलोकित कर देती थी।
स्वर्ग के दूत युवकों या यात्रियों का वेश रहकर इन मठों में आते थे। इसी परकार राक्षस और दैत्य हब्शियों या पशुओं का रूप धरकर इस धमार्श्रम में तपस्वियों के बहकाने के लिए विचरा करते थे। जब ये भक्त गण अपनेअपने घड़े लेकर परातःकाल सागर की ओर पानी भरने जाते थे तो उन्हें राक्षसों और दैत्यों के पदचिह्न दिखाई देते थे। यह धमार्श्रम वास्तव में एक समरक्षेत्र था जहां नित्य और विशेषतः रात को स्वर्ग और नरक, धर्म और अधर्म में भीषण संगराम होता रहता था। तपस्वी लोग स्वर्गदूतों तथा ईश्वर की सहायता से वरत, ध्यान और तप से इन पिशाचसेनाओं के आघातों का निवारण करते थे। कभी इन्द्रियजनित वासनाएं उनके मर्मस्थल पर ऐसा अंकुश लगाती थीं कि वे पीड़ा से विकल होकर चीखने लगते थे और उनकी आर्तध्वनि वनपशुओं की गरज के साथ मिलकर तारों से भूषित आकाश तक गूंजने लगती थी। तब वही राक्षस और दैत्य मनोहर वेश धारण कर लेते थे, क्योंकि यद्यपि उनकी सूरत बहुत भयंकर होती है पर वह कभीकभी सुन्दर रूप धर लिया करते हैं जिसमें उनकी पहचान न हो सके। तपस्वियों को अपनी कुटियों में वासनाओं के ऐसे दृश्य देखकर विस्मय होता था जिन पर उस समय धुरन्धर विलासियों का चित्त मुग्ध हो जाता। लेकिन सलीब की शरण में बैठे हुए तपस्वियों पर उनके परलोभनों का कुछ असर न होता था, और यह दुष्टात्माएं सूयोर्दय होते ही अपना यथार्थ रूप धारण करके भाग जाती थीं। कोई उनसे पूछता तो कहते 'हम इसलिए रो रहे हैं कि तपस्वियों ने हमको मारकर भगा दिया है।'
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30-11-2012, 03:03 PM | #4 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
धमार्श्रम के सिद्धपुरुषों का समस्त देश के दुर्जनों और नास्तिकों पर आतंकसा छाया हुआ था। कभीकभी उनकी धर्मपरायणता बड़ा विकराल रूप धारण कर लेती थी। उन्हें धर्मस्मृतियों ने ईश्वरविमुख पराणियों को दण्ड देने का अधिकार परदान कर दिया था और जो कोई उनके कोप का भागी होता था उसे संसार की कोई शक्ति बचा न सकती थी। नगरों में, यहां तक कि इस्कन्द्रिया में भी, इन भषण यन्त्रणाओं की अद्भुत दन्तकथाएं फैली हुई थीं। एक महात्मा ने कई दुष्टों को अपने सोटे से मारा, जमीन फट गयी और वह उसमें समा गये। अतः दुष्टजन, विशेषकर मदारी, विवाहित पादरी और वेश्याएं, इन तपस्वियों से थरथर कांपते थे।
इन सिद्धपुरुषों के योगबल के सामने वनजन्तु भी शीश झुकाते थे। जब कोई योगी मरणासन्न होता तो एक सिंह आकर पंजों से उसकी कबर खोदता था इससे योगी को मालूम होता था कि भगवान उसे बुला रहे हैं। वह तुरन्त जाकर अपने सहयोगियों के मुख चूमता था। तब कबर में आकर समाधिस्थ हो जाता था।
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30-11-2012, 03:03 PM | #5 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
अब तक इस तपाश्रम का परधान एण्तोनी था। पर अब उसकी अवस्था सौ वर्ष की हो चुकी थी। इसीलिए वह इस स्थान को त्याग कर अपने दो शिष्यों के साथ जिनके नाम मकर और अमात्य थे, एक पहाड़ी में विश्राम करने चला गया था। अब इस आश्रम में पापनाशी नाम के एक साधू से बड़ा और कोई महात्मा न था। उसके सत्कर्मों की कीर्ति दूरदूर फैली हुई थी और कई तपस्वी थे जिनके अनुयायियों की संख्या अधिक थी और जो अपने आश्रमों के शासन में अधिक कुशल थे। लेकिन पापनाशी वरत और तप में सबसे ब़ा हुआ था, यहां तक कि वह तीनतीन दिन अनशन वरत रखता था रात को और परातःकाल अपने शरीर को बाणों से छेदता था और वह घण्टों भूमि पर मस्तक नवाये पड़ा रहता था। उसके चौबीस शिष्यों ने अपनीअपनी कुटिया उसकी कुटी के आसपास बना ली थीं और योगक्रियाओं में उसी के अनुगामी थे। इन धर्मपुत्रों में ऐसेऐसे मनुष्य थे जिन्होंने वर्षों डकैतियां डाली थीं, जिनके हाथ रक्त से रंगे हुए थे, पर महात्मा पापनाशी के उपदेशों के वशीभूत होकर अब वह धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे और अपने पवित्र आचरणों से अपने सहवर्गियों को चकित कर देते थे। एक शिष्य, जो पहले हब्श देश की रानी का बावरची था, नित्य रोता रहता था। एक और शिष्य फलदा नाम का था जिसने पूरी बाइबिल कंठस्थ कर ली थी और वाणी में भी निपुण था। लेकिन जो शिष्य आत्मशुद्धि में इन सबसे ब़कर था वह पॉल नाम का एक किसान युवक था। उसे लोग मूर्ख पॉल कहा करते थे, क्योंकि वह अत्यन्त सरल हृदय था। लोग उसकी भोलीभाली बातों पर हंसा करते थे, लेकिन ईश्वर की उस पर विशेष कृपादृष्टि थी। वह आत्मदर्शी और भविष्यवक्ता था। उसे इलहाम हुआ करता था।
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30-11-2012, 03:03 PM | #6 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
पापनाशी का जन्मस्थान इस्कन्द्रिया था। उसके मातापिता ने उसे भौतिक विद्या की ऊंची शिक्षा दिलाई थी। उसने कवियों के शृंगार का आस्वादन किया था और यौवनकाल में ईश्वर के अनादित्व, बल्कि अस्तित्व पर भी दूसरों से वादविवाद किया करता था। इसके पश्चात कुछ दिन तक उसने धनी पुरुषों के परथानुसार ऐन्द्रिय सुखभोग में व्यतीत किये, जिसे याद करके अब लज्जा और ग्लानि से उसको अत्यन्त पीड़ा होती थी। वह अपने सहचरों से कहा करता 'उन दिनों मुझ पर वासना का भूत सवार था।' इसका आशय यह कदापि न था कि उसने व्यभिचार किया था; बल्कि केवल इतना कि उसने स्वादिष्ट भोजन किया था और नाटयशालाओं में तमाशा देखने जाएा करता था। वास्तव में बीस वर्ष की अवस्था तब उसने उस काल के साधारण मनुष्यों की भांति जीवन व्यतीत किया था। वही भोगलिप्सा अब उसके हृदय में कांटे के समान चुभा करती थी। दैवयोग से उन्हीं दिनों उसे मकर ऋषि के सदुपदेशों को सुनने का सौभाग्य पराप्त हुआ। उसकी कायापलट हो गयी। सत्य उसके रोमरोम में व्याप्त हो गया, भाले के समान उसके हृदय में चुभ गया। बपतिस्मा लेने के बाद वह साल भर तक और भद्र पुरुषों में रहा, पुराने संस्कारों से मुक्त न हो सका। लेकिन एक दिन वह गिरजाघर में गया और वहां उपदेशक को यह पद गाते हुए सुना-'यदि तू ईश्वरभक्ति का इच्छुक है तो जा, जो कुछ तेरे पास हो उसे बेच डाल और गरीबों को दे दे।' वह तुरन्त घर गया, अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर गरीबों को दान कर दी और धमार्श्रम में परविष्ट हो गया और दस साल तक संसार से विरक्त होकर वह अपने पापों का परायश्चित करता रहा।
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30-11-2012, 03:05 PM | #7 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
यह वाक्य समाप्त होते ही सिंफक्स के नेत्रों में अग्निज्योति परस्फुटित हुई, उसकी पलकें कांपने लगीं और उसके ष्पााणमुख से 'मसीह' की ध्वनि निकली; माना पापनाशी के शब्द परतिध्वनित हो गये हों। अतएव पापनाशी ने दाहिना हाथ उठाकर उस मूर्ति को आशीवार्द दिया।
इस परकार ष्पााणहृदय में भक्ति का बीज आरोपित करके पापनाशी ने अपनी राह ली। थोड़ी देर के बाद घाटी चौड़ी हो गयी। वहां किसी बड़े नगर के अवशिष्ट चिह्न दिखाई दिये। बचे हुए मन्दिर जिन खम्भों पर अवलम्बित थे, वास्तव के उन बड़ीबड़ी ष्पााण मूर्तियों ने ईश्वरीय पररेणा से पापनाशी पर एक लम्बी निगाह डाली। वह भय से कांप उठा। इस परकार वह सत्रह दिन तक चलता रहा, क्षुधा से व्याकुल होता तो वनस्पतियां उखाड़कर खा लेता और रात को किसी भवन के खंडहर में, जंगली बिल्लियों और चूहों के बीच में सो रहता। रात को ऐसी स्त्रियां भी दिखायी देती थीं जिनके पैरों की जगह कांटेदार पूंछ थी। पापनाशी को मालूम था कि यह नारकीय स्त्रियां हैं और वह सलीब के चिह्न बनाकर उन्हें भगा देता था।
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30-11-2012, 06:38 PM | #8 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
यह सुनते ही उसने सिर उठाया और तहखाने की दीवारों पर दृष्टिपात किया तो उसे चारों ओर सामाजिक दृश्य अंकित दिखाई दिये। जीवन की साधारण घटनाएं जीतीजागती मूर्तियों द्वारा परकट की गयी थीं। यह बड़े पराचीन समय की चित्रकारी थी और इतनी उत्तम कि जान पड़ता मूर्तियां अब बोलना ही चाहती हैं। चित्रकार ने उनमें जान डाल दी थी। कहीं कोई नानबाई रोटियां बना रहा था और गोलों को कुप्पी की तरह फुलाकर आग फूंकता था, कोई बतखों के पर नोंच रहा था ओैर कोई पतीलियों में मांस पका रहा था। जरा और हटकर एक शिकारी कन्धों पर हिरन लिये जाता था जिसकी देह में बाण चुभे दिखाई देते थे। एक स्थान पर किसान खेती का कामकाज करते थे। कोई बोता था, कोई काटता था, कोई अनाज बखारों से भर रहा था। दूसरे स्थान पर कई स्त्रियां वीणा, बांसुरी और तम्बूरों पर नाच रही थीं। एक सुन्दर युवती सितार बजा रही थी। उसके केशों में कमल का पुष्प शोभा दे रहा था। केश बड़ी सुन्दरता से गुंथे हुए थे। उसके स्वच्छ महीन कपड़ों से उसके निर्मल अंगों की आभा झलकती थी। उसके मुख और वक्षस्थल की शोभा अद्वितीय थी। उसका मुख एक ओर को फिरा हुआ था, पर कमलनेत्र सीधे ही ताक रहे थे। सवारंग अनुपम, अद्वितीय, मुग्धकर था। पापनाशी ने उसे देखते ही आंखें नीची कर लीं और उस आवाज को उत्तर दिया-'तू मुझे इन तस्वीरों का अवलोकन करने का आदेश क्यों देता है। इसमें तेरी क्या इच्छा है ? यह सत्य है कि इन चित्रों में परतिमावादी पुरुष के सांसारिक जीवन का अंकन किया गया है जो यहां मेरे पैरों के नीचे* एक कुएं की तह में, काले पत्थर के सन्दूक में बन्द, गड़ा हुआ है। उनसे एक मरे हुए पराणी की याद आती है, और यद्यपि उनके रूप बहुत चमकीले हैं, पर यथार्थ में वह केवल छाया नहीं, छाया की छाया है, क्योंकि मानवजीवन स्वयं छायामात्र है। मृतदेह का इतना महत्व इतना गर्व !'
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30-11-2012, 07:10 PM | #9 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
यह बातें सुनकर पापनाशी ने अपनी आंखें आकाश की ओर उठायीं और यों गिला की-'भगवान ! तुम इस पराणी पर दयादृष्टि रखते हो जिस पर व्यभिचार, अधर्म और विषयभोग जैसे पापों की कालिमा पुती हुई है, और मुझ पर, जिसने सदैव तेरी आज्ञाओं का पालन किया, कभी तेरी इच्छा और उपदेश के विरुद्ध आचरण नहीं किया, तेरी इतनी अकृपा ? तेरा न्याय कितना रहस्यमय है और तेरी व्यवस्थाएं कितनी दुगार्ह्य ?'
जोजीमस ने अपने हाथ फैलाकर कहा-पूज्य पिता, देखिये, क्षितिज के दोनों ओर कालीकाली शृंखलाएं चली आ रही हैं, मानो चीटियां किसी अन्य स्थान को जा रही हों। यह सब हमारे सहयात्री हैं जो पिता एण्तोनी के दर्शन को आ रहे हैं।' जब यह लोग उन यात्रियों के पास पहुंचे तो उन्हें एक विशाल दृश्य दिखाई दिया। तपस्वियों की सेना तीन वृहद अर्धगोलाकार पंक्तियों में दूर तक फैली हुई थी। पहली श्रेणी में मरुभूमि के वृद्ध तपस्वी थे, जिनके हाथों में सलीबें थीं और जिनकी दायिं जमीन को छू रही थीं। दूसरी पंक्ति में एफ्रायम और सेरापियन के तपस्वी और नील के तटवर्ती परान्त के वरतधारी विराज रहे थे। उनके पीछे के महात्मागण थे जो अपनी दूरवर्ती पहाड़ियों से आये थे ? कुछ लोग अपने संवलाये और सूखे हुए शरीर को बिना सिले हुए चीथड़ों से के हुए थे, दूसरे लोगों की देह पर वस्त्रों की जगह केवल नरकट की हिड्डयां थीं जो बेंत की डालियों को ऐंठकर बांध ली गयी थीं। कितने ही बिल्कुल नंगे थे लेकिन ईश्वर ने उनकी नग्नता को भेड़ के घनेघने बालों में छिपा दिया था। सभी के हाथों में खजूर की डालियां थीं। उनकी शोभा ऐसी थी मानो पन्ने के इन्द्रधनुष हों अथवा उनकी उपमा स्वर्ग की दीवारों से जी सकती थी।
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