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Old 30-11-2012, 03:08 PM   #31
bindujain
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

लेकिन पापनाशी ने केवल इतना कहा-'ईश्वर, तू इस अबोध बालकों को सुबुद्धि दे, वह नहीं जानते कि वे क्या करते हैं।
वह आगे चला तो सोचने लगा-उस वृद्घा स्त्री ने मेरा कितना सम्मान किया और इन लड़कों ने कितना अपमान किया। इस भांति एक ही वस्तु को भरम में पड़े हुए पराणी भिन्नभिन्न भावों से देखते हैं। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि टिमाक्लीज मिथ्यावादी होते हुए भी बिल्कुल निबुद्धि न था। वह अंधा तो इतना जानता था कि मैं परकाश से वंचित हूं। उसका वचन इन दुरागरहियों से कहीं उत्तम था जो घने अंधकार में बैठे पुकारते हैं-'वह सूर्य है !' वह नहीं जानते कि संसार में सब कुछ माया, मृगतृष्णा, उड़ता हुआ बालू है। केवल ईश्वर ही स्थायी है।
वह नगर में बड़े वेग से पांव उठाता हुआ चला। दस वर्ष के बाद देखने पर भी उसे वहां का एकएक पत्थर परिचति मालूम होता था, और परत्येक पत्थर उसके मन में किसी दुष्कर्म की याद दिलाता था। इसलिए उसने सड़कों से जड़े हुए पत्थरों पर अपने पैरों को पटकना शुरू किया और जब पैरों से रक्त बहने लगा तो उसे आनन्दसा हुआ। सड़क के दोनों किनारों पर बड़ेबड़े महल बने हुए थे जो सुगन्ध की लपटों से अलसित जान पड़ते थे। देवदार, छुहारे आदि के वृक्ष सिर उठाये हुए इन भवनों को मानो बालाकों की भांति गोद में खिला रहे थे। अधखुले द्वारों में से पीतल की मूर्तियां संगरममर के गमलों में रखी हुई दिखाई दे रही थीं और स्वच्छ जल के हौज कुंजों की छाया में लहरें मार रहे थे। पूर्ण शान्ति छाई थी। शोरगुल का नाम न था। हां, कभीकभी द्वार से आने वाली वीणा की ध्वनि कान में आ जाती थी। पापनाशी एक भवन के द्वार पर रुका जिसकी सायबान के स्तम्भ युवतियों की भांति सुन्दर थे। दीवारों पर यूनान के सर्वश्रेष्ठ ऋषियों की परतिमाएं शोभा दे रही थीं। पापनाशी ने अफलातूं, सुकरात अरस्तू, एपिक्युरस और जिनों की परतिमाएं पहचानीं और मन में कहा-इन मिथ्याभरम में पड़ने वाले मनुष्यों को कीर्तियों को मूर्तियों को मूर्तिमान करना मूर्खता है। अब उनके मिय्या विचारों की कलई खुल गयी। उनकी आत्मा अब नरक में पड़ी सड़ रही है, और यहां तक कि अफलातूं भी, जिसने संसार को अपनी परगल्भता से गुंजरित कर दिया था, अब पिशाचों के साथ तूतू मैंमैं कर रहा है। द्वार पर एक हथौड़ी रखी हुई थी। पापनाशी ने द्वार खटखटाया। एक गुलाम ने तुरन्त द्वार खोल दिया और एक साधु को द्वार पर खड़े देखकर कर्कश स्वर में बोला-'दूर हो यहां से, दूसरा द्वार देख, नहीं तो मैं डंडे से खबर लूंगा।'
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Old 30-11-2012, 03:08 PM   #32
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी ने सरल भाव से कहा-'मैं कुछ भिक्षा मांगने नहीं आया हूं। मेरी केवल यही इच्छा है कि मुझे अपने स्वामी निसियास के पास ले चलो।'
गुलाम ने और भी बिगड़कर जवाब दिया-'मेरा स्वामी तुमजैसे कुत्तों से मुलाकात नहीं करता !'
पापनाशी-'पुत्र, जो मैं कहता हूं वह करो, अपने स्वामी से इतना ही कह दो कि मैं उससे मिलना चाहता हूं।'
दरबान ने क्रोध के आवेश में आकर कहा-'चला जा यहां से, भिखमंगा कहीं का !' और अपनी छड़ी उठाकर उसने पापनाशी के मुंह पर जोर से लगाई। लेकिन योगी ने छाती पर हाथ बांधे, बिना जरा भी उत्तेजित हुए, शांत भाव से यह चोट सह ली और तब विनयपूर्वक फिर वही बात कही-'पुत्र, मेरी याचना स्वीकार करो।'
दरबान ने चकित होकर मन में कहा-यह तो विचित्र आदमी है जो मार से भी नहीं डरता और तुरन्त अपने स्वामी से पापनाशी का संदेशा कह सुनाया।
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Old 30-11-2012, 03:09 PM   #33
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

निसियास अभी स्नानागार से निकला था। दो युवतियां उसकी देह पर तेल की मालिश कर रही थीं। वह रूपवान पुरुष था, बहुत ही परसन्नचित्त। उसके मुख पर कोमल व्यंग की आभा थी। योगी को देखते ही वह उठ खड़ा हुआ और हाथ फैलाये हुए उसकी ओर ब़ा-आओ मेरे मित्र, मेरे बन्धु, मेरे सहपाठी, आओ। मैं तुम्हें पहचान गया, यद्यपि तुम्हारी सूरत इस समय आदमियों कीसी नहीं, पशुओं कीसी है। आओ, मेरे गले से लग जाओ। तुम्हें वह दिन याद है जब हम व्याकरण, अलंकार और दर्शन शास्त्र पॄते थे ? तुम उस समय भी तीवर और उद्दण्ड परकृति के मनुष्य थे, पर पूर्ण सत्यवादी तुम्हारी तृप्ति एक चुटकी भर नमक में हो जाती थी पर तुम्हारी दानशीलता का वारापार न था। तुम अपने जीवन की भांति अपने धन की भी कुछ परवाह न करते थे। तुममें उस समय भी थोड़ीसी झक थी जो बुद्धि की कुशलता का लक्षण है। तुम्हारे चरित्र की विचित्रता मुझे बहुत भली मालूम होती थी। आज तुमने उस वर्षों के बाद दर्शन दिये हैं। हृदय से मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं। तुमने वन्यजीवन को त्याग दिया और ईसाइयों की दुर्मति को तिलांजलि देकर फिर अपने सनातन धर्म पर आऱु हो गये, इसके लिए तुम्हें बधाई देता हूं। मैं सफेद पत्थर पर इस दिन का स्मारक बनाऊंगा।यह कहकर उसने उन दोनों युवती सुन्दरियों को आदेश दिया-'मेरे प्यारे मेहमान से हाथोंपैरों और दा़ी में सुगन्ध लगाओ।'
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Old 30-11-2012, 03:09 PM   #34
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

युवतियां हंसीं और तुरन्त एक थाल, सुगन्ध की शीशी और आईना लायीं। लेकिन पापनाशी ने कठोर स्वर से उन्हें मना किया और आंखें नीची कर लीं कि उन पर निगाह न पड़ जाए क्योंकि दोनों नग्न थीं। निसियास ने तब उसके लिए गावत किये और बिस्तर मंगाये और नाना परकार के भोजन और उत्तम शराब उसके सामने रखी। पर उसने घृणा के साथ सब वस्तुओं को सामने से हटा दिया। तब बोला-'निसियास, मैंने उस सत्पथ का परित्याग नहीं किया जिसे तुमने गलती से 'ईसाइयों की दुर्मति' कहा है। वही तो सत्य की आत्मा और ज्ञान का पराण है। आदि में केवल 'शब्द' था और 'शब्द' के साथ ईश्वर था, और शब्द ही ईश्वर था। उसी ने समस्त बरह्माण्ड की रचना की। वही जीवन का स्त्रोत है और जीवन मानवजाति का परकाश है।' निसियास ने उत्तर दिया-'पिरय पापनाशी, क्या तुम्हें आशा है कि मैं अर्थहीन शब्दों के झंकार से चकित हो जाऊंगा ? क्या तुम भूल गये कि मैं स्वयं छोटामोटा दार्शनिक हूं? क्या तुम समझते हो कि मेरी शांति उन चिथड़ों से हो जाएेगी जो कुछ निबुर्द्धि मनुष्यों ने इमलियस के वस्त्रों से फाड़ लिया है, जब इसलियस, फलातूं, और अन्य तत्त्वज्ञानियों से मेरी शांति न हुई ? ऋषियों के निकाले हुए सिद्घान्त केवल कल्पित कथाएं हैं जो मानव सरलहृदयता के मनोरंजन के निमित्त कही गयी है। उनको पॄकर हमारा मनोरंजन उसी भांति होता है जैसे अन्य कथाओं को पॄकर।'
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Old 30-11-2012, 03:09 PM   #35
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

इसके बाद अपने मेहमान का हाथ पकड़कर वह उसे एक कमरे में ले गया जहां हजारों लपेटे हुए भोजपत्र टोकरों में रखे हुए थे। उन्हें दिखाकर बोला-'यही मेरा पुस्तकालय है। इसमें उन सिद्घान्तों में से कितनों ही का संगरह है जो ज्ञानियों ने सृष्टि के रहस्य की व्याख्या करने के लिए आविष्कृत किये हैं। सेरापियम* में भी अतुल धन के होते हुए; सब सिद्घान्तों का संगरह नहीं है ! लेकिन शोक ! यह सब केवल रोगपीड़ित मनुष्यों के स्वप्न हैं !' उसने तब अपने मेहमान को एक हाथीदांत की कुरसी पर जबरदस्ती बैठाया और खुद भी बैठ गया। पापनाशी ने इन पुस्तकों को देखकर त्यौरियां च़ायीं और बोला-'इन सबको अग्नि की भेंट कर देना चाहिए।'
निसियास बोला-'नहीं पिरय मित्र, यह घोर अनर्थ होगा; क्योंकि रुग्ण पुरुषों को मिटा दें तो संसार शुष्क और नीरस हो जाएेगा और हम सब विचारशैथिल्य के ग़े में जा पड़ेंगे।
पापनाशी ने उसी ध्वनि में कहा-'यह सत्य है कि मूर्तिवादियों के सिद्घान्त मिथ्या और भरान्तिकारक हैं। किन्तु ईश्वर ने, जो सत्य का रूप है, मानवशरीर धारण किया और अलौकिक विभूतियों द्वारा अपने को परकट किया और हमारे साथ रहकर हमारा कल्याण करता रहा।'
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Old 30-11-2012, 03:10 PM   #36
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निसियास ने उत्तर दिया-पिरय पापनाशी, तुमने यह बात अच्छी कही कि ईश्वर ने मानवशरीर धारण किया। तब तो वह मनुष्य ही हो गया। लेकिन तुम ईश्वर और उसके रूपान्तरों का समर्थन करने तो नहीं आये ? बतलाओ तुम्हें मेरी सहायता तो न चाहिए ? मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं ?'
पापनाशी बोला-'बहुत कुछ ! मुझे ऐसा ही सुगन्धित एक वस्त्र दे दो जैसा तुम पहने हुए हो। इसके साथ सुनहरे खड़ाऊं और एक प्याला तेल भी दे दो कि मैं अपनी दा़ी और बालों में चुपड़ लूं। मुझे एक हजार स्वर्ण मुद्राओं की एक थैली भी चाहिए निसियास ! मैं ईश्वर के नाम पर और पुरानी मित्रता के नाते तुमसे सहायता मांगने आया हूं।'
निसियास ने अपना सवोर्त्तम वस्त्र मंगवा दिया। उस पर किमख्वाब के बूटों में फूलों और पशुओं के चित्र बने हुए थे। दोनों युवतियों ने उसे खोलकर उसका भड़कीला रंग दिखाया और परतीक्षा करने लगी कि पापनाशी अपना ऊनी लबादा उतारे तो पहनायें, लेकिन पापनाशी ने जोर देकर कहा कि यह कदापि नहीं हो सकता। मेरी खाल चाहे उतर जाए पर यह ऊनी लबादा नहीं उतर सकता। विवश होकर उन्होंने उस बहुमूल्य वस्त्र को लबादे के ऊपर ही पहना दिया। दोनों युवतियां सुन्दरी थीं, और वह पुरुषों से शरमाती न थीं। वह पापनाशी को इस दुरंगे भेष में देखकर खूब हंसी। एक ने उसे अपना प्यारा सामन्त कहा, दूसरी ने उसकी दा़ी खींच ली। लेकिन पापनाशी ने उन दृष्टिपात तक न किया। सुनहरी खड़ाऊं पैरों में पहनकर और थैली कमरे में बांधकर उसने निसियास से कहा, जो विनोदभाव से उसकी ओर देख रहा था-निसियास, इन वस्तुओं के विषय में कुछ सन्देह मत करना, क्योंकि मैं इनका सदुपयोग करुंगा।
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Old 30-11-2012, 03:10 PM   #37
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

निसियास बोला-'पिय मित्र, मुझे कोई सन्देह नहीं हैं क्योंकि मेरा विश्वास है कि मनुष्य में न भले काम करने की क्षमता है न बुरे। भलाई व बुराई का आधार केवल परथा पर है। मैं उन सब कुत्सित व्यवहारों का पालन करता हूं जो इस नगर में परचलित हैं। इसलिए मेरी गणना सज्जन पुरुषों में है। अच्छा मित्र, अब जाओ और चैन करो।' लेकिन पापनाशी ने उससे अपना उद्देश्य परकट करना अवश्यक समझा। बोला-'तुम थायस को जानते हो जो यहां की रंगशालाओं का शृंगार है ?' निसियास ने कहा-'वह परम सुन्दरी है और किसी समय मैं उसके परेमियों में था। उसकी खातिर मैंने एक कारखाना और दो अनाज के खेत बेच डाले और उसके विरहवर्णन में निकृष्ट कविताओं से भरे हुए तीन गरन्थ लिख डाले। यह निर्विवाद है कि रूपलालित्य संसार की सबसे परबल शक्ति है, और यदि हमारे शरीर की रचना ऐसी होती कि हम यावज्जीवन उस पर अधिकृत रह सकते तो हम दार्शनिकों के जीवन और भरम, माया और मोह, पुरुष और परकृति की जरा भी परवाह न करते। लेकिन मित्र, मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि तुम अपनी कुटी छोड़कर केवल थायस की चचार करने के लिए आये हो।'
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Old 30-11-2012, 03:10 PM   #38
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यह कहकर निसियास ने एक ठंडी सांस खींची। पापनाशी ने उसे भीतर नेत्रों से देखा। उसकी यह कल्पना ही असम्भव मालूम होती थी कि कोई मनुष्य इतनी सावधानी से अपने पापों को परकट कर सकता है। उसे जरा भी आश्चर्य न होता, अगर जमीन फट जाती और उसमें से अग्निज्वाला निकलकर उसे निगल जाती। लेकिन जमीन स्थिर बनी रही, और निसियास हाथ पर मसतक रखे चुपचाप बैठा हुआ अपने पूर्व जीवन की स्मृतियों पर म्लानमुख से मुस्कराता रहा। योगी तब उठा और गम्भीर स्वर में बोला- 'नहीं निसियास, मैं अपना एकान्तवास छोड़कर इस पिशाच नगरी में थायस की चचार करने नहीं आया हूं। बल्कि, ईश्वर की सहायता से मैं इस रमणी को अपवित्र विलास के बन्धनों से मुक्त कर दूंगा और उसे परभु मसीह की सेवार्थ भेंट करुंगा। अगर निराकार ज्योति ने मेरा साथ न छोड़ा तो थायस अवश्य इस नगर को त्यागकर किसी वनिताधमार्श्रम में परवेश करेगी।' निसियास ने उत्तर दिया-'मधुर कलाओं और लालित्य की देवी वीनस को रुष्ट करते हो तो सावधान रहना। उसकी शक्ति अपार है और यदि तुम उसकी परधान उपासिका को ले जाओगे तो वह तुम्हारे ऊपर वजरघात करेगी।'
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Old 30-11-2012, 03:15 PM   #39
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी बोला-'परभु मसीह मेरी रक्षा करेंगे। मेरी उनसे यह भी परार्थना है कि वह तुम्हारे हृदय में धर्म की ज्योति परकाशित करें और तुम उस अन्धकारमय कूप में से निकल आओ जिसमें पड़े हुए एड़ियां रगड़ रहे हो।'
यह कहकर वह गर्व से मस्तक उठाये बाहर निकला। लेकिन निसियास भी उसके पीछे चला। द्वार पर आतओते उसे पा लिया और तब अपना हाथ उसके कन्धे पर रखकर उसके कान में बोला-'देखो वीनस को क्रुद्ध मत करना। उसका परत्याघात अत्यन्त भीषण होता है।'
किन्तु पापनाशी ने इस चेतावनी को तुच्छ समझा, सिर फेरकर भी न देखा। वह निसियास को पतित समझता था, लेकिन जिस बात से उसे जलन होती थी वह यह थी कि मेरा पुराना मित्र थायस का परेममात्र रह चुका है। उसे ऐसा अनुभव होता था कि इससे घोर अपराध हो ही नहीं सकता। अब से वह निसियास को संसार का सबसे अधम, सबसे घृणित पराणी समझने लगा। उसने भरष्टाचार से सदैव नफरत की थी, लेकिन आज के पहले यह पाप उसे इतना नारकीय कभी न परतीत हुआ था। उसकी समझ में परभु मसीह के क्रोध और स्वर्ग दूतों के तिरस्कार का इससे निन्द्य और कोई विषय ही न था।
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उसके मन में थायस को इन विलासियों से बचाने के लिए और भी तीवर आकांक्षा जागृत हुई। अब बिना एक क्षण विलम्ब किये मुझे थामस से भेंट करनी चाहिए। लेकिन अभी मध्याह्न काल था और जब तक दोपहर की गरमी शान्त न हो जाएे, थायस के घर जाना उचित न था। पापनाशी शहर की सड़कों पर घूमता रहा। आज उसने कुछ भोजन न किया था जिसमें उस पर ईश्वर की दया दृष्टि रहे। कभी वह दीनता से आंखें जमीन की ओर झुका लेता था, और कभी अनुरक्त होकर आकाश की ओर ताकने लगता था। कुछ देर इधरउधर निष्परयोजन घूमने के बाद वह बन्दरगाह पर जा पहुंचा। सामने विस्तृत बन्दरगाह था, जिसमें असंख्य जलयान और नौकाएं लंगर डाले पड़ी हुई थीं, और उनके आगे नीला समुद्र, श्वेत चादर ओ़े हंस रहा था। एक नौका ने, जिसकी पतवार पर एक अप्सरा का चित्र बना हुआ था अभी लंगर खोला था। डांडें पानी में चलने लगे, मांझियों ने गाना आरम्भ किया और देखतेदेखते वह श्वेतवस्त्रधारिणी जलकन्या योगी की दृष्टि में केवल एक स्वप्नचित्र की भांति रह गयी। बन्दरगाह से निकलकर, वह अपने पीछे जगमगाता हुआ जलमार्ग छोड़ती खुले समुद्र में पहुंच गयी।पापनाशी ने सोचा-मैं भी किसी समय संसारसागर पर गाते हुए यात्रा करने को उत्सुक था लेकिन मुझे शीघर ही अपनी भूल मालूम हो गयी। मुझ पर अप्सरा का जादू न चला।
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