12-06-2014, 02:23 PM | #1 |
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काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
टेढी हुयी तो कान पकड कर उठा गये। सुन कर रिजल्ट गिर पडे दौरा पडा दिल का। डाक्टर इलेक्शन का रियेक्शन बता गये । अन्दर से हंस रहे है विरोधी की मौत पर। ऊपर से ग्लीसरीन के आंसू बहा गये । भूंखो के पेट देखकर नेताजी रो पडे । पार्टी में बीस खस्ता कचौडी उडा गये । जब देखा अपने दल में कोई दम नही रहा । मारी छलांग खाई से “आई“ में आ गये । करते रहो आलोचना देते रहो गाली मंत्री की कुर्सी मिल गई गंगा नहा गए । काका ने पूछा 'साहब ये लेडी कौन है' थी प्रेमिका मगर उसे सिस्टर बता गए।।
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12-06-2014, 02:31 PM | #2 |
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Re: काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?नाम बड़े दर्शन छोटे / काका हाथरसी नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और। शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने, बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने। कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर, विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर। मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप, श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप। जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में- ज्ञानचंद छ्ह बार फेल हो गए टैंथ में। कहं ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे, पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे। देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट, सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ। मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे, धनीरामजी हमने प्राय: निर्धन देखे। कहं ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए कंवारे, बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे। दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल, मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल। रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं, ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भोंक रहे हैं। ‘काका’ छ्ह फिट लंबे छोटूराम बनाए, नाम दिगम्बरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए। पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल, बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल। मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी- बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी। कहं ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा, नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा। दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर, भागचंद की आज तक सोई है तकदीर। सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले, निकले प्रिय सुखदेव सभी, दु:ख देने वाले। कहं ‘काका’ कविराय, आंकड़े बिल्कुल सच्चे, बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे। चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध, श्री आनन्दीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध। रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते, इंसानों को मुंशी, तोताराम पढ़ाते, कहं ‘काका’, बलवीरसिंहजी लटे हुए हैं, थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं। बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल, सूखे गंगारामजी, रूखे मक्खनलाल। रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी- निकले बेटा आसाराम निराशावादी। कहं ‘काका’, कवि भीमसेन पिद्दी-से दिखते, कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते। आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद, कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद। भागे पूरनचंद, अमरजी मरते देखे, मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे। कहं ‘काका’ भण्डारसिंहजी रोते-थोते, बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते। शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर, कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर। निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली। कहं ‘काका’ कवि, बाबू जी क्या देखा तुमने? बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने। तेजपालजी मौथरे, मरियल-से मलखान, लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान। करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई, वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई। कहं ‘काका’ कवि, फूलचंदनजी इतने भारी- दर्शन करके कुर्सी टूट जाय बेचारी। खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन, मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन। चिलगोजा-से नैन, शांता करती दंगा, नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा। कहं ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है, दर्शनदेवी लम्बा घूंघट काढ़ रही है। कलीयुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ, चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ। बाबू भोलानाथ, कहां तक कहें कहानी, पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी। ‘काका’ लक्ष्मीनारायण की गृहणी रीता, कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता। अज्ञानी निकले निरे, पंडित ज्ञानीराम, कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम। रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खुब मिलाया, दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया। ‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा- पार्वतीदेवी है शिवशंकर की अम्मा। पूंछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान, मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान। घर में तीर-कमान, बदी करता है नेका, तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा। सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं, विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं। सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त, हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ। रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया, प्रेमचंद में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया। कहं ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते, त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते। रामराज के घाट पर आता जब भूचाल, लुढ़क जायं श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल। बैठें घूरेलाल, रंग किस्मत दिखलाती, इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती। कहं ‘काका’, गंभीरसिंह मुंह फाड़ रहे हैं, महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं। दूधनाथजी पी रहे सपरेटा की चाय, गुरू गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय। घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण- मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण। ‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे, हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे। रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र, चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र। कामराज का चित्र, थक गए करके विनती, यादराम को याद न होती सौ तक गिनती, कहं ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी, भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी। नाम-धाम से काम का क्या है सामंजस्य? किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य। झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटें न रेखा, स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा। कहं ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की, माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की।
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12-06-2014, 02:37 PM | #3 |
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Re: काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
मुर्ग़ी और नेता / काका हाथरसी नेता अखरोट से बोले किसमिस लाल
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12-06-2014, 02:47 PM | #4 |
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Re: काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
बड़ा भयंकर जीव है , इस जग में दामादजम और जमाई / काका हाथरसी सास - ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद कर देता बरबाद , आप कुछ पियो न खाओ मेहनत करो , कमाओ , इसको देते जाओ कहॅं ‘ काका ' कविराय , सासरे पहुँची लाली भेजो प्रति त्यौहार , मिठाई भर- भर थाली लल्ला हो इनके यहाँ , देना पड़े दहेज लल्ली हो अपने यहाँ , तब भी कुछ तो भेज तब भी कुछ तो भेज , हमारे चाचा मरते रोने की एक्टिंग दिखा , कुछ लेकर टरते ‘ काका ' स्वर्ग प्रयाण करे , बिटिया की सासू चलो दक्षिणा देउ और टपकाओ आँसू जीवन भर देते रहो , भरे न इनका पेट जब मिल जायें कुँवर जी , तभी करो कुछ भेंट तभी करो कुछ भेंट , जँवाई घर हो शादी भेजो लड्डू , कपड़े, बर्तन, सोना - चाँदी कहॅं ‘ काका ', हो अपने यहाँ विवाह किसी का तब भी इनको देउ , करो मस्तक पर टीका कितना भी दे दीजिये , तृप्त न हो यह शख़्श तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स ? अथवा लैटर बक्स , मुसीबत गले लगा ली नित्य डालते रहो , किंतु ख़ाली का ख़ाली कहँ ‘ काका ' कवि , ससुर नर्क में सीधा जाता मृत्यु - समय यदि दर्शन दे जाये जमाता और अंत में तथ्य यह कैसे जायें भूल आया हिंदू कोड बिल , इनको ही अनुकूल इनको ही अनुकूल , मार कानूनी घिस्सा छीन पिता की संपत्ति से , पुत्री का हिस्सा ‘ काका ' एक समान लगें , जम और जमाई फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाई
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12-06-2014, 05:06 PM | #5 |
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Re: काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
अच्छी प्रस्तुति है
काका की कविताओं का अंदाज ही निराला था...
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
12-06-2014, 05:08 PM | #6 |
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Re: काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
धन्यवाद ,भाई
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12-06-2014, 10:22 PM | #7 |
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Re: काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
मज़ेदार प्रस्तुतियों का खजाना.........
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12-06-2014, 10:48 PM | #8 |
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Re: काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
धन्यवाद, काका का स्मरण कराने के लिये और उनकी कविताओं के पुनर्पाठ के लिये. कुछ पंक्तियाँ मुझे भी याद आ रही हैं, सो वही काका को श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पित कर रहा हूँ:
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16-06-2014, 09:52 AM | #9 |
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Re: काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
पुलिस-महिमा... पड़ा - पड़ा क्या कर रहा, रे मूरख नादान दर्पण रख कर सामने , निज स्वरूप पहचान निज स्वरूप पह्चान , नुमाइश मेले वाले झुक - झुक करें सलाम , खोमचे - ठेले वाले कहँ ‘ काका ' कवि , सब्ज़ी - मेवा और इमरती चरना चाहे मुफ़्त , पुलिस में हो जा भरती कोतवाल बन जाये तो , हो जाये कल्यान मानव की तो क्या चले , डर जाये भगवान डर जाये भगवान , बनाओ मूँछे ऐसीं इँठी हुईं , जनरल अयूब रखते हैं जैसीं कहँ ‘ काका ', जिस समय करोगे धारण वर्दी ख़ुद आ जाये ऐंठ - अकड़ - सख़्ती - बेदर्दी शान - मान - व्यक्तित्व का करना चाहो विकास गाली देने का करो , नित नियमित अभ्यास नित नियमित अभ्यास , कंठ को कड़क बनाओ बेगुनाह को चोर , चोर को शाह बताओ ‘ काका ', सीखो रंग - ढंग पीने - खाने के ‘ रिश्वत लेना पाप ' लिखा बाहर थाने के
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16-06-2014, 10:00 AM | #10 |
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Re: काका हाथरसी की हास्य कविताएँ
मूर्खिस्तान जिंदाबाद स्वतंत्र भारत के बेटे और बेटियो ! माताओ और पिताओ, आओ, कुछ चमत्कार दिखाओ। नहीं दिखा सकते ? तो हमारी हाँ में हाँ ही मिलाओ। हिंदुस्तान, पाकिस्तान अफगानिस्तान मिटा देंगे सबका नामो-निशान बना रहे हैं-नया राष्ट्र ‘मूर्खितान’ आज के बुद्धिवादी राष्ट्रीय मगरमच्छों से पीड़ित है प्रजातंत्र, भयभीत है गणतंत्र इनसे सत्ता छीनने के लिए कामयाब होंगे मूर्खमंत्र-मूर्खयंत्र कायम करेंगे मूर्खतंत्र। हमारे मूर्खिस्तान के राष्ट्रपति होंगे- तानाशाह ढपोलशंख उनके मंत्री (यानी चमचे) होंगे- खट्टासिंह, लट्ठासिंह, खाऊलाल, झपट्टासिंह रक्षामंत्री-मेजर जनरल मच्छरसिंह राष्ट्रभाषा हिंदी ही रहेगी, लेकिन बोलेंगे अँगरेजी। अक्षरों की टाँगें ऊपर होंगी, सिर होगा नीचे, तमाम भाषाएँ दौड़ेंगी, हमारे पीछे-पीछे। सिख-संप्रदाय में प्रसिद्ध हैं पाँच ‘ककार’- कड़ा, कृपाण, केश, कंघा, कच्छा। हमारे होंगे पाँच ‘चकार’- चाकू, चप्पल, चाबुक, चिमटा और चिलम। इनको देखते ही भाग जाएँगी सब व्याधियाँ मूर्खतंत्र-दिवस पर दिल खोलकर लुटाएँगे उपाधियाँ मूर्खरत्न, मूर्खभूषण, मूर्खश्री और मूर्खानंद। प्रत्येक राष्ट्र का झंडा है एक, हमारे होंगे दो, कीजिए नोट-लँगोट एंड पेटीकोट जो सैनिक हथियार डालकर जीवित आ जाएगा उसे ‘परमूर्ख-चक्र’ प्रदान किया जाएगा। सर्वाधिक बच्चे पैदा करेगा जो जवान उसे उपाधि दी जाएगी ‘संतान-श्वान’ और सुनिए श्रीमान- मूर्खिस्तान का राष्ट्रीय पशु होगा गधा, राष्ट्रीय पक्षी उल्लू या कौआ, राष्ट्रीय खेल कबड्डी और कनकौआ। राष्ट्रीय गान मूर्ख-चालीसा, राजधानी के लिए शिकारपुर, वंडरफुल ! राष्ट्रीय दिवस, होली की आग लगी पड़वा। प्रशासन में बेईमान को प्रोत्साहन दिया जाएगा, ईमानदार सुर्त होते हैं, बेईमान चुस्त होते हैं। वेतन किसी को नहीं मिलेगा, रिश्वत लीजिए, सेवा कीजिए ! ‘कीलर कांड’ ने रौशन किया था इंगलैंड का नाम, करने को ऐसे ही शुभ काम- खूबसूरत अफसर और अफसराओं को छाँटा जाएगा अश्लील साहित्य मुफ्त बाँटा जाएगा। पढ़-लिखकर लड़के सीखते हैं छल-छंद, डालते हैं डाका, इसलिए तमाम स्कूल-कालेज बंद कर दिए जाएँगे ‘काका’। उन बिल्डिगों में दी जाएगी ‘हिप्पीवाद’ की तालीम उत्पादन कर से मुक्त होंगे भंग-चरस-शराब-गंजा-अफीम जिस कवि की कविताएँ कोई नहीं समझ सकेगा, उसे पाँच लाख का ‘अज्ञानपीठ-पुरस्कार मिलेगा। न कोई किसी का दुश्मन होगा न मित्र, नोटों पर चमकेगा उल्लू का चित्र ! नष्ट कर देंगे- धड़ेबंदी गुटबंदी, ईर्ष्यावाद, निंदावाद। मूर्खिस्तान जिंदाबाद !
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