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Old 03-11-2011, 09:20 PM   #11
Dark Saint Alaick
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Default Re: कतरनें

कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता

-अनूप शुक्ला

दुनिया में यह अफ़वाह लोगों ने सच सी मान ली है कि इश्क जवानों का चोंचला है। बुढ़ापे में इश्क नहीं होता। बुजुर्ग लोग केवल जवानों की हरकतें देखकर आह भरते हैं। इस अफ़वाह को फ़ैलाने में आलसी कवियों का हाथ-पैर भी रहा जिन्होंने भीड़- भावना से केवल जवानों के प्रेम का चित्रण किया।

हालांकि इसके खिलाफ़ भी लोगों ने लिखा। एक शेर जो हमें जो याद हैं वे ठेले-खिदमत हैं जो अक्सर शिवओम अम्बरजी सुनाते हैं:

कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता,
आम तब तक मजा नहीं देता जब तक पिलपिला नहीं होता।


ब्लाग-जगत में हमारे सबसे बड़े-बुजुर्गों में भैया लक्ष्मीनारायण गुप्त कानपुर के ही हैं। हमारे ही स्कूल बी.एन.एस.डी. इंटर कालेज के उत्पाद हैं। आजकल अमेरिकियों को गणित पढ़ाते हैं। प्रेम पर जित्ती बोल्ड कवितायें उन्होंने लिखीं हैं उत्ती शायद किसी तथाकथित नौजवान ने भी न लिखी होंगी।

लक्ष्मीजी ने एक पोस्ट लिखी थी जिसमें आल्हा छंद का किस्सा था। उसको और कुछ कविताओं को लेकर हमने भी आल्हा छंद में प्रेम-कथा लिखी थी। हालांकि इसमें नाम लक्ष्मीजी का है लेकिन जो कोई भी इसे अपनी कथा मानना चाहे तो बाशौक मान सकता है। हमें कौनौ एतराज न होगा। हां, मानने से पहले अपने ’बेटर-हाफ़’ से अनुमति ले लेगा तो अच्छा रहेगा।

आम तौर पर माना जाता है कि प्रेम के बारे में लिखने के लिये अंदाज मुलायम होना चाहिये। इसी बात को गलत ठहराने के लिये हमने यहां वीररस का प्रयोग किया है। आप मुलाहिजा फ़र्मायें, इश्क के दरिया में डूब जायें। यह रिठेल केवल उन लोगों के लिये है जिन्होंने इसे पहले बांचा नहीं। लोग दुबारा पढ़ना चाहे तो उसके लिये भी कोई रोक नहीं है।



वीर रस में प्रेम पचीसी

हमारे पिछली पोस्ट पर समीरजी ने टिप्पणी की :-

मजाक का लहज़ा, और इतनी गहराई के साथ अभिव्यक्ति, मान गये आपकी लेखनी का लोहा, कुछ तो उधार दे दो, अनूप भाई, ब्याज चाहे जो ले लो.

सच में हम पढ़कर बहुत शरमाये। लाल से हो गये। सच्चाई तो यह है कि हर लेख को पोस्ट करने के पहले तथा बाद तमाम कमियां नज़र आतीं हैं। लेकिन पोस्ट करने की हड़बड़ी तथा बाद में आलस्य के चलते किसी सुधार की कोई संभावना नहीं बन पाती।

अपनी हर पोस्ट लिखने के पहले (डर के मारे प्रार्थना करते हुये)मैं नंदनजी का शेर दोहराता हूं:-

मैं कोई बात तो कह लूं कभी करीने से
खुदारा मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे।

जबसे रविरतलामीजी ने बताया कि हम सब लोग कूडा़ परोसते हैं तबसे यह डर ‘अउर’ बढ़ गया। हालांकि रविजी ने पिछली पोस्ट की एक लाइन की तारीफ की थी लेकिन वह हमारी नहीं थी लिहाजा हम उनकी तारीफ के गुनहगार नहीं हुये।

बहुत दिनों से ई-कविता तथा ब्लागजगत में कविता की खेती देखकर हमारे मन में भी कुछ कविता की फसलें कुलबुला रहीं थीं। यह सोचा भी था कि हिंदी ब्लाग जगत तथा ई-कविता की भावभूमि,विषय-वस्तु पर कुछ लेख लिखा जाय ।सोचा तो यह भी था कि ब्लागरों की मन:स्थिति का जायजा लिया जाय कि कौन सी ऐसी स्थितियां हैं कि ब्लागजगत में विद्रोह का परचम लहराने वाले साथी

यूँ तो सीधा खडा हुआ हूँ,
पर भीतर से डरा हुआ हूँ.

तुमको क्या बतलाऊँ यारो,
जिन्दा हूँ, पर मरा हुआ हूँ.

जैसी, निराशावादी मूड की, कवितायें लिख रहे हैं।

लेकिन फिर यह सोचकर कि शायद इतनी काबिलियत तथा कूवत नहीं है मुझमे मैंने अपने पांव वापस खींच लिये क्रीज में। यह भी सोचा कि किसी के विद्रोही तेवर का जायजा लेने का हमें क्या अधिकार है!

इसके अलावा दो लोगों की नकल करने का मुझे मन किया। एक तो लक्ष्मी गुप्त जी की कविता पढ़कर आल्हा लिखने का मन किया । दूसरे समीरलाल जी की कुंडलिया पढ़कर कुछ कुंडलियों पर हाथ साफ करने का मन किया।

बहरहाल,आज सोचा कि पहले पहली चीज पर ही हाथ साफ किया जाय। सो आल्हा छंद की ऐसी तैसी कर रहा हूं। बात लक्ष्मीजी के बहाने कह रहा हूं क्योंकि इस खुराफात की जड़ में उनका ही हाथ है। इसके अलावा बाकी सब काल्पनिक तथा मौजार्थ है। कुछ लगे तो लिखियेगा जरूर।

सुमिरन करके लक्ष्मीजी को सब मित्रन का ध्यान लगाय,
लिखौं कहानी प्रेम युद्ध की यारों पढ़ियो आंख दबाय।

पढ़िकै रगड़ा लक्ष्मीजी का भौजी गयीं सनाका खाय,
आंख तरेरी,मुंह बिचकाया नैनन लीन्ह कटारी काढ़।

इकतिस बरस लौं चूल्हा फूंका कबहूं देखा न दिन रात
जो-जो मागेव वहै खवाया तिस पर ऐसन भीतरघात।

हम तौ तरसेन तारीफन का मुंह ते बोल सुना ना कान
उनकी मठरी,पान,चाय का इतना विकट करेव गुनगान।

तुमहि पियारी उनकी मठरी उनका तुम्हें रचा है पान
हमरा चोला बहुत दुखी है सुन तो सैंया कान लगाय।

करैं बहाना लक्ष्मी भैया, भौजी एक दिहिन न कान,
उइ तौ हमरे परम मित्र हैं यहिते उनका किया बखान।

नमक हमैं उइ रहैं खवाइन यहिते भवा तारीफाचार
वर्ना तुम सम को बनवइया, तुम सम कउन इहां हुशियार।

सुनि हुशियारी अपने अंदर भौजी बोली फिर इठलाय,
हमतौ बोलिबे तबही तुमते जब तुम लिखौ प्रेम का भाव।

भइया अइठें वाहवाही में अपना सीना लिया फुलाय
लिखबे अइसा प्रेमकांड हम सबकी हवा, हवा हुइ जाय।

भौजी हंसिके मौज लिहिन तब अइसा हमें लगत न भाय,
तुम बस ताकत हौ चातक सा तुमते और किया न जाय।

भैया गर्जे ,क्या कहती हो ‘इलू ‘अस्त्र हम देब चलाय,
भौजी हंसी, कहते क्या हो,तुरत नमूना देव दिखाय।

बातन बातन बतझड़ हुइगै औ बातन मां बाढ़ि गय रार
बहुतै बातैं तुम मारत हो कहिके आज दिखाओ प्यार।

उचकि के बैठे लैपटाप पर बत्ती सारी लिहिन बुझाय,
मैसेंजर पर ‘बिजी’ लगाया,आंखिन ऐनक लीन लगाय।

सुमिरन करके मातु शारदे ,पानी भौजी से मंगवाय
खटखट-खटखट टीपन लागे उनसे कहूं रुका ना जाय।

सब कुछ हमका नहीं दिखाइन बहुतै थ्वारा दीन्ह दिखाय,
जो हम देखा आपहु द्याखौ अपनी आप बतावौ राय।

बड़े-बड़े मजनू हमने देखे,देखे बड़े-बड़े फरहाद
लैला देखीं लाखों हमने कइयों शीरी की है याद।

याद हमें है प्रेमयुद्ध की सुनलो भइया कान लगाय,
बात रसीली कुछ कहते हैं,जोगी-साधू सब भग जांय।

आंख मूंद कर हमने देखा कितना मचा हुआ घमसान
प्रेमयुद्ध में कितने खपिगे,कितनेन के निकल गये थे प्रान।

भवा मुकाबिला जब प्रेमिन का वर्णन कछू किया ना जाय,
फिर भी कोशिश हम करते हैं, मातु शारदे होव सहाय।

चुंबन के संग चुंबन भिरिगे औ नैनन ते नयन के तीर
सांसैं जूझी सांसन के संग चलने लगे अनंग के तीर।

नयन नदी में नयना डूबे,दिल सागर में उठिगा ज्वार
बतरस की तब चली सिरोही,घायल का सुख कहा न जाय।

तारीफन के गोला छूटैं, झूठ की बमबारी दई कराय
न कोऊ हारा न कोऊ जीता,दोनों सीना रहे फुलाय।

इनकी बातैं इनपै छ्वाड़व अब कमरौ का सुनौ हवाल,
कोना-कोना चहकन लागा,सबके हाल भये बेहाल।

सर-सर,सर-सर पंखा चलता परदा फहर-फहर फहराय,
चदरा गुंथिगे चदरन के संग,तकिया तकियन का लिहिन दबाय।

चुरमुर, चुरमुर खटिया ब्वालै मच्छर ब्लागरन अस भन्नाय
दिव्य कहानी दिव्य प्रेम की जो कोई सुनै इसे तर जाय ।

आंक मूंद कै कान बंद कइ द्*याखब सारा कारोबार
जहां पसीना गिरिहै इनका तंह दै देब रक्त की धार।

सुनिकै भनभन मच्छरजी की चूहन के भी लगि गय आग
तुरतै चुहियन का बुलवाइन अउर कबड्डी ख्यालन लाग।

किट-किट दांत बजि रहे ,पूछैं झण्डा अस फहराय
म्वाछैं फरकैं जीतू जैसी ,बदन पसीना रहे बहाय।

दबा-दबउल भीषण हुइगै फिर तौ हाल कहा न जाय,
गैस का गोला बम अस फूटा,खटमल गिरे तुरत गस खाय।

तब बजा नगाड़ा प्रेमयुद्ध का चारों ओर भवा गुलज़ार
खुशियां जीतीं धकापेल तब,मनहूसन की हुइगै हार।

हरा-हरा सब मौसम हुइगा,फिर तौ सबके लगिगै आग
अंग-अंग फरकैं,सब रंग बरसैं,लगे विधातौ ख्यालन फाग।

इहां की बातैं हियनै छ्वाड़व आगे लिखब मुनासिब नाय
बच्चा जो कोऊ पढ़ि ल्याहै तो हमका तुरत लेहै दौराय।

भैया बोले हंसि के ब्वालौ कैसा लिखा प्यार का हाल
अब तौ मानेव हमहूं है सरस्वती के सच्चे लाल।

भौजी बोलीं तुमसा बौढ़म हमें दिखा ना दूजा भाय,
हमतौ सोचा ‘इलू’ कहोगे ,आजौ तरस गये ये कान।

चलौ सुनावौ अब कुछ दुसरा, देवरन का भी कहौ हवाल
कइसे लफड़ा करत हैं लरिका नयी उमर का का है हाल?

भैया बोले मुस्का के तब नयी उमर की अजबै चाल
बीच सड़क पर कन्या डांटति छत पर कान करति है लाल।

डांटि-डांटि के सुनै पहाडा़, मुर्गौ कबहूं देय बनाय
सिर झटकावै,मुंह बिचकावै, कबहूं तनिक देय मुस्काय।

बाल हिलावै,ऐंठ दिखावै , नखरा ढेर देय बिखराय,
छत पर आवै ,मुंहौ फुलावै लेय मनौना सब करवाय।

इतनेव पर बस करै इशारा, इनका गूंगा देय बनाय
दिल धड़कावै,हवा सरकावै ,पैंटौ ढीली देय कराय।

कुछ दिन मौका देकर देखा ,प्रेमी पूरा बौड़म आय,
पकड़ के पहुंची रतलामै तब,अपना घर भी लिया बसाय।

भउजी की मुसकान देखि के भइया के भी बढ़ि गै भाव
बूढ़े देवर को छोडो़ अब सुन लो क्वारन के भी हाल।

ये है तुम्हरे बबुआ देवर चिरक्वारें और चिर बेताब
बने हिमालय से ठहरे हैं ,कन्या इनके लिये दोआब।

दूर भागतीं इनसे जाती ,लिये सागर से मिलने की ताब
जो टकराती सहम भागती ,जैसे बोझिल कोई किताब।

नखरे किसके चाहें उठाना ,वो धरता सैंडिल की नोक
जो मिलने की रखे तमन्ना, उसे दूर ये देते फेंक।

ये हैं धरती के सच्चे प्रतिनिधि तंबू पोल पर लिया लगाय,
कन्या रखी विपरीत पोल पर, गड़बड़ गति हो न जाय।

सुनिके देवर की अल्हड़ता भौजी मंद-मंद मुस्कांय,
भैया समझे तुरत इशारा सबको कीन्हा फौरन बाय।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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