23-11-2013, 08:17 PM | #1 |
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जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
जीवन में अशान्ति के क्या कारण हैं ?........
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23-11-2013, 08:18 PM | #2 |
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Re: जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
जीवन में अशान्ति के क्या कारण हैं ? तनाव कम क्यों नही हों रहा हैं ? अशान्ति और तनाव का जिसे कारण मान रहा हूँ, हकीकत में वह कारण हैं ही नही |
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23-11-2013, 08:19 PM | #3 |
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Re: जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
मैं सदा सदा से यह मानता आया हूँ कि, दूसरा व्यक्ति ही मेरी अशान्ति और तनाव का कारण हैं, मगर यह सच नही हैं |
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23-11-2013, 08:20 PM | #4 |
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Re: जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
मैं अपने घर के सारे द्वार, खिड़किया बन्द कर बैठा हूँ........ मेरे घर में रौशनी नही उतरी हैं और दोष सूरज कों दे रहा हूँ !
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23-11-2013, 08:21 PM | #5 |
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Re: जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
अशान्ति और तनाव का कारण कोई दूसरा नही, मैं स्वयं हूँ |
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23-11-2013, 10:46 PM | #6 |
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Re: जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
आपका कथन बिलकुल ठीक है. आगामी पोस्टों की प्रतीक्षा में हूँ.
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24-11-2013, 06:31 PM | #7 | |
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Re: जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
Quote:
आपका हार्दिक आभार..........
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24-11-2013, 09:23 PM | #8 |
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Re: जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
इंसान वस्त्र बदलता हैं, मकान बदलता हैं, सम्बन्ध बदलता हैं, मित्र बदलता हैं, फिर भी वह दुखी रहता हैं ? क्यों की अपना स्वभाव नही बदलता हैं |
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17-12-2013, 10:06 PM | #9 |
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Re: जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?......... यह प्रश्न् इसीलिए उठता है कि अशान्ति किसी भी मानव को पसन्द नहीं है; किसी को अच्छा नहीं लगता है। सब को शान्ति प्रिय है। मानव की जीवन में सर्वत: (universally) मांग ही होती है शान्ति, स्वाधीनता और प्रियता की। और यह प्राप्य भी है; फिर भी हमसे क्या त्रुटि होती है कि जीवन में अशान्ति आती ही है? विचार करने पर मालूम होता है कि सबसे पहली भूल यह होती है कि हम जीवन का अर्थ ही नहीं समझते। जन्म से मृत्यु तक जो समय अवधि (time) है उसे ही जीवन मानते हैं। परन्तु जीवन तो नित्य, अविनाशी रसरूप तत्व है :.........
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17-12-2013, 10:06 PM | #10 |
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Re: जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?.........
जीवन में अशान्ति क्यों हैं ?......... दूसरी भूल होती है कि हम अपने बारे में विचार ही नहीं करते कि 'मैं' हूँ क्या,-क्या मैं मात्र शरीर हूँ या शरीर से भिन्न अपना कोई अस्तित्व है। सच्चाई यह है कि ''मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है''। यह मानने में बाधा क्या है? हम शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से कोल्हू के बैल की तरह निरन्तर चलते ही रहते हैं (अर्थात् हर समय कुछ न कुछ करते रहते हैं और कुछ न कुछ आगे पीछे का चिन्तन करते रहते हैं।) कोई ठहराव है ही नहीं जब हम शान्त होकर आत्म-चिन्तन कर सकें। यदि हम शान्त होकर अपने बारे में विचार करें तो यह सहज समझ में आयेगा और अनुभव करेंगे कि मैं शरीर नहीं हूँ। क्यों,क्योंकि यदि मैं शरीर होता तो शरीर का दृष्टा नहीं हो सकता था। हमारा अनुभव है कि हम दृष्टा के रूप में देखते है कि मन क्या चाह रहा है,बुध्दि क्या सोच कह रही है,विवेक क्या कह रहा है,चित्त खिन्न या प्रसन्न है, आदि। तब यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि मैं शरीर से अलग कुछ हूँ :.........
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