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Old 10-09-2015, 12:30 AM   #1
soni pushpa
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Default ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

दोस्तों आज पने स्वाभाव से अलग शीर्षक दिया है मैंने इस कहानी का आप चौंकिएगा मत क्यूंकि कहानी इन शब्दों से ही मर्म रखती है


सुबह से जब किवाड़ न खुले तब सबने सोचा की आज आंटी जी क्यूँ अब तक सो रहीं हैं , सुबह भोर में जगने वाली आंटी के किवाड़ क्यूँ अब तक बंद हैं ? क्या हुआ होगा कुछ जिज्ञासा कुछ पडोसी धर्म निभाने की इच्छा से कुछ लोग उस आंटी के घर के पास जमा हो गए सबने मिलकर तय किया की दरवाजा खटखटाया जाय उनमे से एक बुजुर्ग सज्जन थे जिन्होंने आगे आकर दरवाजा खटखटाया भी पर ये क्या ? अन्दर से कोई जवाब नहीं आया लोगों में तरह तरह की खुस फुस होने लगी आपस में सब अनेक संभावनाओं की कल्पना करने लगे इतने में एक गाड़ी आकार वहां रुकी उसमे से उस आंटी की सहेली निकली और सबसे पूछा की यहाँ भीड़ क्यों लगा रखी है तो भीड़ में से एक सज्जन सामने आये और कहा आंटी जी दरवाजा नहीं खोल रही न ही कोई जवाब दे रही है तब उस आंटी की सहेली ने दरवाजा खटखटाया किन्तु फिर भी कोई प्रत्युत्तर न मिला तो उसने कहा दरवाजा ही तोड़ डालो सबने मिलकर दरवाजा तोडा और सामने का दृश्य देखकर सब अवाक् रह गए उन आंटी के एक हाथ में गीता थी एक में गंगाजल और वो मानो आराम से गहरी नींद में सोई पड़ी थी .सबने पास जाकर देखा तो कोई चीख पड़ा की अरे आंटी को क्या हुआ आंटीजी तो स्वर्ग सिधार गई ..फिर किसी ने आंखोमे आंसू भरकर श्रध्धांजलि दे डाली और सब उनके जीवन की बातो को याद करने लगे चुप थी तो सिर्फ उसकी सहेली न आँखों में एक आंसू था न ही कोई दुःख था बल्कि उसके चहरे पर एक एइसा भाव मानो कह रही हो अच्छा हुआ बहना छुटकारा मिला तुझे इस नारकीय जीवन की पीड़ा से. अब अगले जनम में तो तू सुख प्राप्त करना इस जन्म ने तुझे दिया ही क्या है की मैं तेरे जाने का अफ़सोस करूँ .. भरपूर परिवार होने के बावजूद अकेली रहती थी , जिंदगी के पहले प्रहर में याने की बचपन से ही हरपल के मानसिक तनाव के बीच बचपन गुजरा था , शादी की तो पति ने त्यागा तीन बच्चों के साथ किसी तरह बच्चों का मुह देखकर उनकी ख़ुशी में खुश रहकर कड़ी मेहनत करके बच्चों को पढाया लिखाया पालापोसा शादियाँ की किन्तु दुर्भग्य की बहु ने आकार बेटे से कह दिया या अम्माजी रहेंगी या मैं इस तरह के रोज के क्लेश होने लगे फिर भी वो इस घर में हर पल की अशांति फिर भी खुश थी बच्चो के बच्चे संभालती बच्चे सोचते मा अछि काम आरही है, हमे हमारे बच्चों को संभालने के लिए आया के पैसे बाख जाते हैं और हमें आराम मिल जाता है . पर जब उनके बच्चे भी बड़े हो गए तब बेटे ने कह दिया हमें आपके साथ नहीं रहना आपके घर की व्यवस्था कर दी है आप अकेले रहो और तब से आंटी जी अग्नि परीक्षा शुरू (अकेला इंसान जिसने दुखों के सिवा कुछ नहीं देखा कैसे अपने दिन बिताता है उसकी अंतर्व्यथा की हम और आप तो कल्पना भी नहीं कर सकते .
पागलों सा दिमाग हो गया था उनका एक ही बात की रट लग जाती. कभी कभी अकेले अकेले रो देती तो कभी कोई पडोसी उनके घर आता तो उसे भगवान मानकर उसका स्वागत करती और खुश होती पर शायद किस्मत को यह भी मंजूर न था इसलिए उसे बहुत बड़ी बीमारी हुई शायद वजह थी अकेलापन ,जीवन के साधनों की कमी रात दिन की चिंता थी उन्हें कहा जाता है चिंता चिता तक पहुंचाती है इंसान को
बच्चों ने उनका दिल दुखाने की कोई कसर बाकि न रखी थी (.मेरा मानना है की यदि औलाद ऐसी ही होती है तो जिनके औलाद नहीं वो अधिक भाग्यशाली होते हैं )



इस कहानी को लिखने का मेरा तात्पर्य यही है की यदि जीवन एइसा ही है लोगो में स्वार्थ इतना ही है तो क्यूँ न हम ये कहें " ओ जाने वाले कही भी लौट के न आना ,क्यूंकि जीवन का सामना सिर्फ और सिर्फ स्वारथ से है तो एइसा जीवन किस काम का ? अक्सर आज के सोशल मिडिया में फेस बुक आदि में मा को लेकर बहुत लम्बे लम्बे भाषण आते हैं लोग एइसे वाकय लिखकर क्या अपनी सिर्फ महानता ही जताते हैं? या कोई सच में आपने माता पिता की सेवा उनका आदर इन शब्दों के अनुसार करता भी है ? यदि इसका जवाब ना में है तो मैं इतना जरुर कहूँगी की बेकार में अपना और दुसरों का समय नष्ट न करे और यदि कुछ भी लिखते हैं आप तो अक्षर सह उसक पालन कीजिये यू बड़े बड़े वक्तव्यों से आज के वृध्धों की व्यथा में कमी नहीं आएगी करना है तो वास्तविक जीवन में कुछ कीजिये .
आपको पता है? जब इन्सान की उम्र ५५ पार कर जाती है तब उसे हरपल किसी के साथ की जरुरत होती है .और इस उम्र में उसके आपने ही इंसान को अकेला कर दें तो उनका दिल कितना दुखता है और सोचिये आप कितने पाप के भागीदार बने ?
एइसे में आप कैसे अपने ही माता पिता का साथ छोड़ सकते हो? कैसे आप उनके अन्दर बसी भावनाओं को नहीं समझ सकते ? जिसने आपको जीवन दिया है उसके जीवन के अंतिम दिनों में कैसे उसका मन दुखाकर आप खुश रह सकते हो ?? मैं मानती हूँ की एक उम्र के बाद माता पिता भी बच्चे जैसे हो जाते है तो होने दो वो एक बात १० बार कहे आप सुनो उसे. उनके लिए पुरे दिन में से कुछ समय निकालो आप और उनका हाल पूछो देखो फिर आपको कितनी दुवायें मिलती है कभी उनके लिए उनकी पसंद का खाना बनाइये कभी बहार ले जाइये उनका मन भी कितना खुश रहेगा और मा बाप की दुवायें कभी व्यर्थ नहीं जाती आप अच्छा करोगे आपके बच्चे वो देखेंगे और वैसा ही सुलूक आपके साथ करेंगे आपको सुखी रहना है तो watsup और फेस बुक से कुछ पल बहार निकल कर वो समय अपने माता पिता को दें . सिर्फ मा बाप के सम्मान में झूठे फारवर्ड करके सन्देश भेजने से आप पुन्य के भागी नहीं बन जायेंगे सच्ची सेवा ही आपका जीवन बदलेगी .

अब उस कहानी के अंतिम भाग पर हम एक विहंगम दृष्टि कर ले .. उसके बाद उस आंटी के बेटे को फोन करके बुलाया गया वो आया और मा की शांत मुद्रा को देखकर मानो उसे जलन हुई और वो रोने लगा जी हाँ मैं इसे जलन ही कहूँगी क्यूंकि एईसी औलादें मा बाप को शांत सोता तक नहीं देख सकतीं है वो चाहती है अरे इस बूढी को कैसे इतनी शांति मिली सच जब आज के समाज के लोगों की अंतर्व्यथा सुनती हूँ तब तब मन करता है की मेरा बस चले तो किसी बच्चे को २० साल के होने के बाद उनके मा बाप के पास रहने ही न दूँ आखिर क्यूँ इतना स्वार्थ क्यूँ इंसान सिर्फ अपनी ही महानता की नुमाइश करना कहता है जिसने खुद भूखे रहकर अपने बच्चो को खिलाया अपनी हर इच्छा को दबाकर अपने बच्चों की इच्छाएं पूरी की उसी मा बाप को हम इतनी आसानी से कैसे ठुकरा सकते हैं? क्या जवाब है आपके पास मेरे सवाल का ? कृपया मुझे बताइयेगा ...
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Old 10-09-2015, 07:23 AM   #2
rajnish manga
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दोस्तों आज पने स्वाभाव से अलग शीर्षक दिया है मैंने इस कहानी का आप चौंकिएगा मत क्यूंकि कहानी इन शब्दों से ही मर्म रखती है

कहानी यहाँ पर शेयर करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, बहन पुष्पा जी. इसका शीर्षक भी बड़ा सटीक है. कहानी आजकल के टूटते - दरकते पारिवारिक संबधों का एक दस्तावेज है जिसमें बच्चों के कमाने लायक होते ही या उनकी शादी हो जाने के बाद उनके द्वारा माता-पिता को बोझ समझ कर उनसे पिंड छुड़ाने की प्रवृत्ति का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है. यह कहानी हमारी व्यक्तिवादी, भोगवादी व स्वार्थ पर आधारित सोच को रेखांकित करती है और उस पर एक कटाक्ष भी है.

इस प्रकार की सोच क्यों है? वो कौन कौन से कारण या परिस्थितियाँ हैं जो परंपरागत भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही आदर्श पारिवारिक संस्कृति को तोड़ने का काम कर रही है और उसे छिन्न-भिन्न कर रही है? माता-पिता तो अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुये अपने बच्चों की परवरिश में खुद को समर्पित कर देते हैं, लेकिन युवा पीढ़ी अपने माता-पिता को वह प्यार व सम्मान क्यों प्रदान नहीं कर पाती जिसके वे हकदार हैं?

इसका एक कारण तो भारतीय समाज में संयुक्त परिवार जैसी संस्था का लोप होना है. दूसरे, बदलते शहरी परिवेश तथा सरोकारों की वजह से युवा वर्ग में व्यक्तिवादी सोच का विस्तार जिसके कारण वे अपने से परे या अपनी बीवी-बच्चों से परे कुछ सोचना ही नहीं चाहते. इसे उनका स्वार्थ भी कह सकते हैं. माता-पिता उन्हें बोझ लगने लगते हैं, आँख की किरकिरी लगते हैं, उनकी मौज-मस्ती के रास्ते में रोड़ा लगते है. बढ़ते खर्च और सीमित आय भी एक कारण है. इसमें दिखावे की संस्कृति का भी उतनी ही दोषी है.


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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
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Old 10-09-2015, 12:14 PM   #3
Rajat Vynar
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किन्तु दुर्भग्य की बहु ने आकार बेटे से कह दिया या अम्माजी रहेंगी या मैं इस तरह के रोज के क्लेश होने लगे ..
सोनी पुष्पाजी द्वारा उल्लिखित सम्पूर्ण प्रकरण में बहू- अर्थात् एक महिला ही अपनी सास- अर्थात् दूसरी महिला के लिए विलेन साबित हुई। इसमें बच्चे कहाँ से विलेन हो गए? यह तो काश्मीर से कन्याकुमारी तक घर-घर की कहानी है भारत में, सोनी पुष्पा जी। पत्नी आते ही अपने पति को उसके माँ-बाप के खिलाफ़ भड़काने लगती है और माँ-बाप से अलग होकर रहने के लिए पति पर तरह-तरह के दबाव डालने लगती है। पति यदि पत्नी की बात मानने से इन्कार कर देता है तो इस संदर्भ में पति को तरह-तरह के ताने भी सुनने पड़ते हैं, यथा- 'आज से अपनी माँ के पास सोना।' इत्यादि। इस तरह के दबाव के चलते पति ताने सुनकर चुप रह गया तो ठीक, नहीं तो पति-पत्नी के बीच चल रहा यह शीतयुद्ध वाक्युद्ध में परिवर्तित होकर हाथ-पैर के युद्ध में समाप्त होता है। मारपीट शुरू होते ही प्रसंग महिला उत्पीड़न का बन जाता है। अब पत्नी यदि पति पक्ष से कमज़ोर निकली तो आँसू बहाकर चुपचाप बैठ जाएगी, ज़बर निकली तो मैके जाकर पति पक्ष पर महिला उत्पीड़न के साथ-साथ दहेज़ का झूठा मामला भी दर्ज करवा देगी। यदि पति-पत्नी दोनों पक्ष ज़बर निकले तो फिर यह मामला लम्बा खिंचता है।

अतः यह समस्या तो घर-घर की कहानी है। सोनी पुष्पा जी, आपसे निवेदन है कि सभी बच्चों को कोसने के स्थान पर इस प्रकरण से सम्बन्धित समस्या का निवारण करने के लिए अर्थात् पत्नी को मनाने के लिए उचित समाधान और सुझाव देने की कृपा करें जिससे सम्पूर्ण देशवासी लाभान्वित हो सकें। पवित्रा जी और कुकी जी, आप दोनों भी कृपा करके पधारें और तर्क-वितर्क में भाग लें। आपके दर्शन आजकल दुर्लभ हो रहे हैं।
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Last edited by Rajat Vynar; 10-09-2015 at 12:18 PM.
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Old 11-09-2015, 06:06 PM   #4
soni pushpa
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Default Re: ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

[QUOTE=rajnish manga;554625][size=3]
कहानी यहाँ पर शेयर करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, बहन पुष्पा जी. इसका शीर्षक भी बड़ा सटीक है. कहानी आजकल के टूटते - दरकते पारिवारिक संबधों का एक दस्तावेज है जिसमें बच्चों के कमाने लायक होते ही या उनकी शादी हो जाने के बाद उनके द्वारा माता-पिता को बोझ समझ कर उनसे पिंड छुड़ाने की प्रवृत्ति का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है. यह कहानी हमारी व्यक्तिवादी, भोगवादी व स्वार्थ पर आधारित सोच को रेखांकित करती है और उस पर एक कटाक्ष भी है.

इस प्रकार की सोच क्यों है? वो कौन कौन से कारण या परिस्थितियाँ हैं जो परंपरागत भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही आदर्श पारिवारिक संस्कृति को तोड़ने का काम कर रही है और उसे छिन्न-भिन्न कर रही है? माता-पिता तो अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुये अपने बच्चों की परवरिश में खुद को समर्पित कर देते हैं, लेकिन युवा पीढ़ी अपने माता-पिता को वह प्यार व सम्मान क्यों प्रदान नहीं कर पाती जिसके वे हकदार हैं?




भाई माफ़ी चाहती हूँ की हिंदी साहित्य में ये कहानी लिखने की बजे मैंने महफ़िल में लिख डाली
पर आपने इस कहानी की गहनता को उसके लिखने के मर्म को समझा और आपने आन्मोल विचार यहाँ रखे जो की आज के समय की परिस्थिति और लोगों की मानसिकता को दर्शाते हैं जो की सौ प्रतिशत सही है .. मैं ये नहीं कहूँगी की आधुनिकता बुरी है पर अपने पुराने मूल्यों को यदि साथ लेकर हम चलें तो हमारी संस्कृति और सभ्यता में चार चाँद लग जायेंगे भाई क्यूंकि आधुनिकता की वजह से अंध विश्वास का शमन होगा और जो अनमोल विचार हैं हमारी भारतीय संस्कृति के जैसे की त्याग दूजे के लिए, प्रेम अपनो के लिए और धर्म का साथ हरेक कार्य में , बड़ों का सम्मान ये सब बातें समाज को उदंड होने से बचाती हैं और जब इन भावनाओं का आगमन होता है तब इंसान सिर्फ अपने लिए नहीं जीता इसमे प्रेम पनपता है अपने परिवार के लिए और जहाँ प्रेम है वहां शांति है और जहाँ शांति है वहां और किसी चीज की जरुरत ही नहीं रहती और इस तरह से समाज की और घर की व्यवस्था बनी रहती है किसी बुजुर्ग को यूं अकेले में दम नहीं तोडना पड़ता यदि अपनों का साथ हो .
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Old 11-09-2015, 07:18 PM   #5
soni pushpa
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Default Re: ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

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Originally Posted by rajat vynar View Post
सोनी पुष्पाजी द्वारा उल्लिखित सम्पूर्ण प्रकरण में बहू- अर्थात् एक महिला ही अपनी सास- अर्थात् दूसरी महिला के लिए विलेन साबित हुई। इसमें बच्चे कहाँ से विलेन हो गए? यह तो काश्मीर से कन्याकुमारी तक घर-घर की कहानी है भारत में, सोनी पुष्पा जी। पत्नी आते ही अपने पति को उसके माँ-बाप के खिलाफ़ भड़काने लगती है और माँ-बाप से अलग होकर रहने के लिए पति पर तरह-तरह के दबाव डालने लगती है। पति यदि पत्नी की बात मानने से इन्कार कर देता है तो इस संदर्भ में पति को तरह-तरह के ताने भी सुनने पड़ते हैं, यथा- 'आज से अपनी माँ के पास सोना।' इत्यादि। इस तरह के दबाव के चलते पति ताने सुनकर चुप रह गया तो ठीक, नहीं तो पति-पत्नी के बीच चल रहा यह शीतयुद्ध वाक्युद्ध में परिवर्तित होकर हाथ-पैर के युद्ध में समाप्त होता है। मारपीट शुरू होते ही प्रसंग महिला उत्पीड़न का बन जाता है। अब पत्नी यदि पति पक्ष से कमज़ोर निकली तो आँसू बहाकर चुपचाप बैठ जाएगी, ज़बर निकली तो मैके जाकर पति पक्ष पर महिला उत्पीड़न के साथ-साथ दहेज़ का झूठा मामला भी दर्ज करवा देगी। यदि पति-पत्नी दोनों पक्ष ज़बर निकले तो फिर यह मामला लम्बा खिंचता है।

अतः यह समस्या तो घर-घर की कहानी है। सोनी पुष्पा जी, आपसे निवेदन है कि सभी बच्चों को कोसने के स्थान पर इस प्रकरण से सम्बन्धित समस्या का निवारण करने के लिए अर्थात् पत्नी को मनाने के लिए उचित समाधान और सुझाव देने की कृपा करें जिससे सम्पूर्ण देशवासी लाभान्वित हो सकें। पवित्रा जी और कुकी जी, आप दोनों भी कृपा करके पधारें और तर्क-वितर्क में भाग लें। आपके दर्शन आजकल दुर्लभ हो रहे हैं।

सही कहा रजत जी कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिन्दुस्तान की यह समस्या बढ़ते जा रही है और आज के बुजुर्ग अपने को बिलकुल असहाय समझ रहे हैं क्यूंकि बदलते समय ने सबको बदल डाला है आज हमारे समाज में पाश्चात्य जगत का अनुकरण बढ़ गया है और हमारी सभ्यता संस्कृति के मायने लोग भूलते जा रहे है आप कहोगे मैंने ये कोई नई बात नहीं कही सब सुनी सुनाई बातें हैं सही है बातें सुनी सुनाई है ही पर आपको नहीं लगता की आज के समय के बुजुर्गों का जीना कितना दूभर हो गया है उन्हें अपने ही जीवन से नफ़रत सी होने लगी है और इसकी वजह है स्वार्थ अपनों के प्रति प्रेम की कमी अ पने ही ऐशोआराम को देखना और सबसे बड़ी बात है अहंकार आज के बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तब अपने ही मा बाप को समझाने बैठ जाते हैं की वो जो कर रहे है सिर्फ वही सही है बुजुर्ग को इस कदर गलत ठहराते हैं वें की बुजुर्गो को उन्हें कुछ कहने से पहले दस बार सोचना पड़ता है .

अब आपकी बात... की इस समस्या का हल लिखिए यदि लिखना है तो .. इस बात के जवाब में कहना चाहूंगी की यदि सबसे पहले माता पिता के लिए आपके मन में आदर भाव है तो आप बिना मार पिट किये भी पत्नी को समझा सकते हो की माता पिता जितना जिए अब उतना जीने वाले नहीं हैं कुछ वर्षो का ही साथ होता है क्यूंकि जब तक बहु बेटे बड़े होते हैं तब तक माता पिता की आधी से ज्यदा जिंदगी बीत चुकी होती है २--- आपके माता पिता आपको जितने प्रिय हैं उतने ही मेरे माता पिता मुझे भी प्रिय है मैं जैसे आपके माता पिता का सम्मान करता हूँ आप भी मेरे माता पिता का सम्मान कीजिये ,.
३-- - स्वार्थ को खुद पर हावी न होने दे ..४... इतना समझें की जब खुद बच्चे थे तब मा बाप उनका कितना ख्याल रखते थे कितना त्याग करते थे उनके लिए तो आज जब उनको याने की बुजुर्गों को आपकी जरुरत है तब आप कैसे उन्हें छोड़ सकते हो?
४--- बहु बेटी बनकर रहे तो कोई क्लेश का स्थान ही न रहे ५--- अपने समय का थोडा भाग मा बाप को दीजिये वो इतने खुश हो जायेंगे की उनकी मांगे अपने आप ही कम हो जाएँगी बुजुर्ग भी बच्चों जैस होते हैं रजत जी ,जैसे बच्चे स्नेह के भूखे होते हैं निर्दोष होते हैं वैसे ही उन्हें भी स्नेह दीजिये .. अकेले अकेले रहने की बजाय परिवार का साथ पसंद करें .. जिसके कई लाभ भी हैं .. जैसे की खर्च में कमी हो जाती है ..ऐसी कई बातें है रजत जी जिनसे पारिवारिक क्लेश को दूर रखकर शांति से सबका जीवन यापन हो सकता है .और जहाँ तक मैं मानती हूँ आज की बहुवें समझदार होतीं है जरुरत है तो बस शांति से समझाने की बात करने की .

और आपकी एक बात की , मैंने सिर्फ सास बहु का मुद्दा ही उठाया है कोई नई बात नहीं कही और महिला मुक्ति मोर्चे की बात कही है आपने इस सन्दर्भ में कहना चाहूंगी की महिला मुक्ति मोर्चा वाले भी पहले ये देखते हैं की कसूर किसका है बाद में सजा फरमाते हैं दूजे आपने शायद ध्यान से मेरी कहानी को नहीं पढ़ा मैंने उस आंटी के पति के बारे में,, उसके बचपन के बारे में और उसकी बिमारी और उसके दुर्भाग्य के बारे में भी लिखा है .और जहाँ तक मेरा मानना है जब संतानों को पता है की उनकी मा ने कितने कष्ट सहकर अपने सुखों की क़ुरबानी देकर, कड़ी मेहनत से तीनो संतानों को पालापोसा बड़ा किया तो उनका कुछ तो फ़र्ज़ बनता ही है न आपनी मा के प्रति ? उनकी मा चाहती तो खुद का स्वार्थ देखती और दूसरी शादी कर सकती थी न ? उसे क्या पड़ी थी की वो तीनो संतानों के लिए दुःख को चुने वो भी तो सुख की हकदार थी न ? पर उसने बच्चों के लिए सिर्फ त्याग और दुःख सहा बदले में उसे बच्चों ने क्या दिया? एकांत मरण ? ( मरते समय तक कोई न था उसके पास ) मानसिक यातना , अकेलापन ,और सिर्फ और सिर्फ मन का दुःख लेकर वो चल बसी ? मैं आपसे पूछती हूँ की क्या ये ही है हमारी संस्कृति ?क्या संतानों का कोई फ़र्ज़ नहीं ? यूं बीवी की धमकी से वो बेटा एकपल में मा के त्याग को भूल गया उनके दुखो को भूल गया . और जब तक बच्चे संभालने के लिए मा की जरुरत थी तब तक उसे रखा भी आपने पास ..मा के लिए वो और कुछ नहीं कर सकता न सही किन्तु उसे बुढ़ापे में अकेला तो नहीं छोड़ना चाहिए था न /? क्यूंकि अछे भले इंसानों को भी हरपल साथ चाहिए क्यूंकि हम मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है हम अपनो के बीच रहना पसंद करते हैं

धन्यवाद रजत जी आपने इस ब्लॉग+कहानी को पढ़ा और मुझे और इतना लिखने का मौका दिया
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Old 11-09-2015, 10:42 PM   #6
Rajat Vynar
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हमारे उद्धरण का काफी अच्छे विश्लेषण के साथ आपने समाधान दिया है, सोनी पुष्पा जी यद्यपि हमने पूरी कहानी को कोट न करके समस्या के महत्वपूर्ण पहलू को ही कोट किया था, किन्तु यहाँ पर लिखने से बहुत अधिक लोग लाभान्वित होने वाले नहीं हैं। आगे क्या करना है- यह आपको अच्छी तरह से पता है और मुझे यहाँ पर लिखने की ज़रूरत नहीं है। एक बात और- वह यह कि समझाने पर कुछेक पत्नियाँ मान जाती हैं, किन्तु मानने वालों की संख्या बहुत कम होती है। इसका भी एक कारण है- '...अन्त में लोग वही सुनते हैं जो वह सुनना पसन्द करते हैं'! अतः इस बात को भी ध्यान में रखें।
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Old 20-09-2015, 03:32 PM   #7
soni pushpa
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Originally Posted by rajat vynar View Post
हमारे उद्धरण का काफी अच्छे विश्लेषण के साथ आपने समाधान दिया है, सोनी पुष्पा जी यद्यपि हमने पूरी कहानी को कोट न करके समस्या के महत्वपूर्ण पहलू को ही कोट किया था, किन्तु यहाँ पर लिखने से बहुत अधिक लोग लाभान्वित होने वाले नहीं हैं। आगे क्या करना है- यह आपको अच्छी तरह से पता है और मुझे यहाँ पर लिखने की ज़रूरत नहीं है। एक बात और- वह यह कि समझाने पर कुछेक पत्नियाँ मान जाती हैं, किन्तु मानने वालों की संख्या बहुत कम होती है। इसका भी एक कारण है- '...अन्त में लोग वही सुनते हैं जो वह सुनना पसन्द करते हैं'! अतः इस बात को भी ध्यान में रखें।
रजत जी नहीं एइसा होता की लोग जो सुनना चाहते हैं वो ही सुनते हैं तो मानसिक परवर्तन जो होते हैं समाज में वो न होते ...मेरे ख्याल से आपने ही कहीं लिखा है की लेखक को लिखते रहना चाहिए क्या पता उनका एक शब्द किसी की दुनिया ही बदल दे याने आप भी मानते हैं की लिखने से और पढ़ने से लोगो के विचारों में बदलाव आ सकते हैं ..
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Old 20-09-2015, 07:37 PM   #8
Rajat Vynar
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रजत जी नहीं एइसा होता की लोग जो सुनना चाहते हैं वो ही सुनते हैं तो मानसिक परवर्तन जो होते हैं समाज में वो न होते ...मेरे ख्याल से आपने ही कहीं लिखा है की लेखक को लिखते रहना चाहिए क्या पता उनका एक शब्द किसी की दुनिया ही बदल दे याने आप भी मानते हैं की लिखने से और पढ़ने से लोगो के विचारों में बदलाव आ सकते हैं ..
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रजत जी नहीं एइसा होता की लोग जो सुनना चाहते हैं वो ही सुनते हैं तो मानसिक परवर्तन जो होते हैं समाज में वो न होते ...मेरे ख्याल से आपने ही कहीं लिखा है की लेखक को लिखते रहना चाहिए क्या पता उनका एक शब्द किसी की दुनिया ही बदल दे याने आप भी मानते हैं की लिखने से और पढ़ने से लोगो के विचारों में बदलाव आ सकते हैं ..
Lol... सोनी जी, ये कहीं नहीं मेरे हस्ताक्षर में लिखा है- 'WRITERS are UNACKNOWLEDGED LEGISLATORS of the SOCIETY!' आपका कहना सही है कि मानसिक परिवर्तन होते हैं, किन्तु ये परिवर्तन एक बार कहने से नहीं, बार-बार कहने से होते हैं। अतः लेखकों को हमेशा सही और न्यायसंगत मंतव्य ही प्रकट करना चाहिए...
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Old 22-09-2015, 01:36 AM   #9
soni pushpa
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Originally Posted by Rajat Vynar View Post
Lol... सोनी जी, ये कहीं नहीं मेरे हस्ताक्षर में लिखा है- 'WRITERS are UNACKNOWLEDGED LEGISLATORS of the SOCIETY!' आपका कहना सही है कि मानसिक परिवर्तन होते हैं, किन्तु ये परिवर्तन एक बार कहने से नहीं, बार-बार कहने से होते हैं। अतः लेखकों को हमेशा सही और न्यायसंगत मंतव्य ही प्रकट करना चाहिए...
apke diye gyan ko mai dhyan me avashya rakhungi rajat ji.. sabhar hardik dhanywad
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