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#1 |
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![]() ![]() अदाकारः जितेन्द्र, प्राण, जया बच्चन, असरानी, ए के हंगल, लीला मिश्रा, वीणा और महेमान कलाकार विनोद खन्ना लेखक-निर्देशकः गुलज़ार संगीतः आर डी बर्मन |
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#2 |
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![]() ![]() कोई भी फिल्म शुरु होती है तो पहला द्रश्य से ही दर्शक बहुत सारी उम्मीद बांध लेते है। ठीक वैसी ही उम्मीद और जिज्ञासा जो हम किसी अच्छे पढते लिखते बच्चे या नई नौकरी पाने वाले नौजवान से लगाते है। मानो पहले प्यार को ढुंढता हुआ आशिक जो कुछ महसुस करता है। कोई नई गाडी खरीदने पर या कोई नई जगह जाने पर नयापन लगता है। पता नहीं.....जाने आगे क्या हो! |
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#3 |
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![]() ![]() 'परिचय' गुलज़ार जी की एक क्लासिक फिल्म है। शायद सभी ने यह फिल्म एक बार तो देखी होगी। रामगोपाल वर्मा जिस तरह हर एक्टर को अलग केरेक्टर में पेश करते थे....गुलज़ार जी ने यह बहुत पहेले ही कर दिया था! जितेन्द्र जैसे जम्पींग जेक एक्टर को ईतना गंभीर और ठहराव वाला रोल देना ही बहुत अद्*भुत सोच थी। सभी को जया बच्चन से तो अपेक्षा होती ही लेकिन जितेन्द्र? फिर एक फिल्म लिखना, उस की स्क्रीप्ट, संवाद भी लिखना और उपर से गीत भी लिखना.....गुलज़ार ही कर सकतें है एसा तो! और फिल्म को देखो तो? पुरी तरफ परफेक्ट, मानो एक एक क्षण किसी शिल्पकार ने धीरे धीरे उभारे हो। टेक्निकल खामीयां भी कोई नहीं! |
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#4 |
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लेकिन आज कल जैसे ट्रेलर, प्रोमो और फिल्म मेकिंग के सीन्स आधी फिल्म तो दिखा ही जाते है, जिस से दर्शक की आधी जिज्ञासा तो पुरी ही हो जाती है। आधी फिल्म बे मतलब (फिल्म की कहानी में जबरन डाले हुए ) गानों से भरी हुई होती है। एसे ही पैसों के भुखे फिल्म मेकर्सने नया श्लोक/आयात बोलिवुड को दी है...एन्टरटेईन्मेन्ट-एन्टरटेईन्मेन्ट-एन्टरटेईन्मेन्ट!
अगर दादा साहब फाळके या राज कपूर ने भी एसा ही सोचा होता तो? यह लोग करोडों कमाना चाहते है। ये कहते है की हम ३००० लोगों को रोज़ी रोटी दे रहें है। लेकिन करोडो लोगों को बकवास फिल्म दे रहें है उसका क्या? जो लोग बोलिवुड में कामियाब नहीं हो सके उनका क्या? जो कामियाब लोग बुढे हो गए है उनका क्या? उनके बच्चों का क्या? |
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#5 |
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खैर....अब परिचय की कहानी पर आते है।
कर्नल राय साहब एक कड़क मिज़ाजी ईन्सान है, अपनी पुरखों की हवेली में रहते है। अपने उसुलो के पक्के और नियमों से बंधे हुए। अपने संगीत प्रेमी बेटे निलेश से वह खफा थे क्यों की वह उनके मर्जी के खिलाफ संगीत सिखता था और अपने गुरु की लडकी से बिना बताए शादी कर ली थी। राय साहब उसे घर से निकाल देतें है। स्वाभीमानी निलेश भी घर वापस नहीं लौटता। अपना जीवन गरीबी में व्यतित करता है। उसके कुल पांच बच्चे होते है। रमा, अजय, विजय, मीता और संजय (संजु)। निलेश की पत्नी गुजर जाती है और निलेश भी बहुत बिमार होता है। वह अपने पिता कर्नल राय साहब को खत लिख कर बताता है। आखिरकार निलेश की मृत्यु के बाद वह बच्चे अपने दादा जी मतलब कि राय साहब के पास पहुंच जाते है। |
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#6 |
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रमा सबसे बडी थी और उसे लगता था की अपने पिता की मौत के जिम्मेदार उसके दादा राय साहब थे...वह उनसे खफा होती है। सारे बच्चे भी उसीका अनुकरण करतें है। गुस्सैल राय साहब और उनकी बहन सती देवी बच्चों पर सख्ती बरतती है।
![]() बच्चों को टीचर की व्यवस्था घर में ही दी जाती है। लेकिन बच्चे अपनी शरारतों से उन सभी शिक्षकों को भगा देतें है। वे पढना ही नहीं चाहते। |
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#7 |
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रवि शहर नौकरी ढुंढ रहा है, लेकिन उसे नौकरी नहीं मिल रही। यहां एक बहुत ही हृदयस्पर्शी सीन जोडा गया है, जिस को शायद कम लोगों ने नोटिस किया होगा/याद रखा होगा। मुझे यह सीन बहुत पसंद आया।
https://youtu.be/iixTXX_0L4c?t=1m14s फिल्म में यह सीन शायद जरा भी जरुरी नहीं था, कहानी से ईसका कोई तालुक भी नहीं था। लेकिन फिर भी...जीवन की करूणा और मानवता फिल्मों में होनी/दिखानी ही चाहिए; गुलज़ार जी यही मानते होंगे। सुपर्ब! Last edited by Deep_; 19-08-2015 at 09:14 PM. |
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#8 |
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![]() ![]() ईस से पहले गुलज़ार जी की फिल्म मेरे अपने में मुख्य हीरो रह चूके विनोद खन्ना ने रवि के दोस्त अमित का किरदार निभाया...जो मेरे खयाल से बड़ी उदारता है। अमित रवि को सलाह देता है जब तक नौकरी न मिल जाए गांव जा कर उसके मामा जी जो नौकरी दिलवा रहें है....वह कर ले। फिर अच्छी नौकरी मिलने पर चाहे तो वापस लौट आए। ईस प्रकार रवि गांव की ओर निकल पडता है, ईस कर्णप्रिय गीत के साथ....मुसाफिर हुं यारो! |
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#9 |
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![]() ![]() रवि अपने मामा जी के साथ राय साहब को मिलने जाता है और वहां उसकी शिक्षक की नौकरी पक्की हो जाती है। वहां रवि किस तरह धीरे धीरे शरारती बच्चॉ के सुधारता है और उनका दोस्त बनता है यह कहानी का सबसे मजेदार हिस्सा है। |
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#10 |
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![]() ![]() धीरे धीरे रमा रवि से प्यार करने लगती है, राय साहब भी रवि पर विश्वास करने लगते है। रवि धीरे धीरे अपने प्रयासों से बच्चों के दिल से अपने दादा जी, मतलब की राय साहब के प्रति जो गुस्सा था वह निकाल देता है। ![]() उल्लेखनीय है की विलन या नेगेटीव रोल में प्रस्थापित हो चूके प्राण साहब की केरेक्टर भूमिका दर्शकों और विवेचकों द्वारा बहुत पसंद की गई। जितेन्द्र और प्राण को अपने चलते आ रहे रोल से अलग लेकिन यथायोग्य रोल में देखना...बहुत फ्रेश अप्रोच था! Last edited by Deep_; 19-08-2015 at 09:06 PM. |
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