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Old 11-01-2011, 07:09 AM   #1
ABHAY
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Post बच्चो को सीख देने वाली कहानी

आपस की फूट
प्राचीन समय में एक विचित्र पक्षी रहता था। उसका धड एक ही था, परन्तु सिर दो थे नाम था उसका भारुंड। एक शरीर होने के बावजूद उसके सिरों में एकता नहीं थी और न ही था तालमेल। वे एक दूसरे से बैर रखते थे। हर जीव सोचने समझने का काम दिमाग से करता हैं और दिमाग होता हैं सिर में दो सिर होने के कारण भारुंड के दिमाग भी दो थे। जिनमें से एक पूरब जाने की सोचता तो दूसरा पश्चिम फल यह होता था कि टांगें एक कदम पूरब की ओर चलती तो अगला कदम पश्चिम की ओर और भारूंड स्वयं को वहीं खडा पाता ता। भारुंड का जीवन बस दो सिरों के बीच रस्साकसी बनकर रह गया था।

एक दिन भारुंड भोजन की तलाश में नदी तट पर धूम रहा था कि एक सिर को नीचे गिरा एक फल नजर आया। उसने चोंच मारकर उसे चखकर देखा तो जीभ चटकाने लगा “वाह! ऐसा स्वादिष्ट फल तो मैंने आज तक कभी नहीं खाया। भगवान ने दुनिया में क्या-क्या चीजें बनाई हैं।”

“अच्छा! जरा मैं भी चखकर देखूं।” कहकर दूसरे ने अपनी चोंच उस फल की ओर बढाई ही थी कि पहले सिर ने झटककर दूसरे सिर को दूर फेंका और बोला “अपनी गंदी चोंच इस फल से दूर ही रख। यह फल मैंने पाया हैं और इसे मैं ही खाऊंगा।”

“अरे! हम् दोनों एक ही शरीर के भाग हैं। खाने-पीने की चीजें तो हमें बांटकर खानी चाहिए।” दूसरे सिर ने दलील दी। पहला सिर कहने लगा “ठीक! हम एक शरीर के भाग हैं। पेट हमार एक ही हैं। मैं इस फल को खाऊंगा तो वह पेट में ही तो जाएगा और पेट तेरा भी हैं।”

दूसरा सिर बोला “खाने का मतलब केवल पेट भरना ही नहीं होता भाई। जीभ का स्वाद भी तो कोई चीज हैं। तबीयत को संतुष्टि तो जीभ से ही मिलती हैं। खाने का असली मजा तो मुंह में ही हैं।”

पहला सिर तुनकर चिढाने वाले स्वर में बोला “मैंने तेरी जीभ और खाने के मजे का ठेका थोडे ही ले रखा हैं। फल खाने के बाद पेट से डकार आएगी। वह डकार तेरे मुंह से भी निकलेगी। उसी से गुजारा चला लेना। अब ज्यादा बकवास न कर और मुझे शांति से फल खाने दे।” ऐसा कहकर पहला सिर चटकारे ले-लेकर फल खाने लगा।
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Old 11-01-2011, 07:10 AM   #2
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Post Re: बच्चो को सीख देने वाली कहानी

इस घटना के बाद दूसरे सिर ने बदला लेने की ठान ली और मौके की तलाश में रहने लगा। कुछ दिन बाद फिर भारुंड भोजन की तलाश में घूम रहा था कि दूसरे सिर की नजर एक फल पर पडी। उसे जिस चीज की तलाश थी, उसे वह मिल गई थी। दूसरा सिर उस फल पर चोंच मारने ही जा रहा था कि कि पहले सिर ने चीखकर चेतावनी दी “अरे, अरे! इस फल को मत खाना। क्या तुझे पता नहीं कि यह विषैला फल हैं? इसे खाने पर मॄत्यु भी हो सकती है।”

दूसरा सिर हंसा “हे हे हे! तु चुपचाप अपना काम देख। तुझे क्या लेना हैं कि मैं क्या खा रहा हूं? भूल गया उस दिन की बात?”

पहले सिर ने समझाने कि कोशिश की “तुने यह फल खा लिया तो हम दोनों मर जाएंगे।”

दूसरा सिर तो बदला लेने पर उतारु था। बोला “मैने तेरे मरने-जीने का ठेका थोडे ही ले रखा हैं? मैं जो खाना चाहता हूं, वह खाऊंगा चाहे उसका नतीजा कुछ भी हो। अब मुझे शांति से विषैला फल खाने दे।”

दूसरे सिर ने सारा विषैला फल खा लिया और भारुंड तडप-तडपकर मर गया।

सीखः आपस की फूट सदा ले डूबती हैं।
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Old 11-01-2011, 07:10 AM   #3
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Post Re: बच्चो को सीख देने वाली कहानी

एक और एक ग्यारह
एक बार की बात हैं कि बनगिरी के घने जंगल में एक उन्मुत्त हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नेहीं समझता था।

बनगिरी में ही एक पेड पर एक चिडिया व चिडे का छोटा-सा सुखी संसार था। चिडिया अंडो पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेडों को तोडता-मरोडता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिडिया के घोंसले वाला पेड भी तोड डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पडा।

चिडिया और चिडा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिडिया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। तभी वहां कठफोठवी आई। वह चिडिया की अच्छी मित्र थी। कठफोडवी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिडिया ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोडवी बोली “इस प्रकार गम में डूबे रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।”

चिडिया ने निराशा दिखाई “हमें छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?”

कठफोडवी ने समझाया “एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियां जोडेंगे।”

“कैसे?” चिडिया ने पूछा।
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Old 11-01-2011, 07:11 AM   #4
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Post Re: बच्चो को सीख देने वाली कहानी

मेरा एक मित्र वींआख नामक भंवरा हैं। हमें उससे सलाह लेना चाहिए।” चिडिया और कठफोडवी भंवरे से मिली। भंवरा गुनगुनाया “यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र हैं आओ, उससे सहायता मांगे।”

अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुंचे, जहां वह मेढक रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राये स्वर में बोला “आप लोग धैर्य से जरा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पाने में बैठकर सोचता हूं।”

ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आंखे चमक रही थी। वह बोला “दोस्तो! उस हत्यारे हाथी को नष्ट करने की मेरे दिमाग में एक बडी अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।”

मेंढक ने जैसे ही अपनी योजना बताई,सब खुशी से उछल पडे। योजना सचमुच ही अदभुत थी। मेंढक ने दोबारा बारी-बारी सबको अपना-अपना रोल समझाया।

कुछ ही दूर वह उन्मत्त हाथी तोडफोड मचाकर व पेट भरकर कोंपलों वाली शाखाएं खाकर मस्ती में खडा झूम रहा था। पहला काम भंवरे का था। वह हाथी के कानों के पास जाकर मधुर राग गुंजाने लगा। राग सुनकर हाथी मस्त होकर आंखें बंद करके झूमने लगा।

तभी कठफोडवी ने अपना काम कर दिखाया। वह् आई और अपनी सुई जैसी नुकीली चोंच से उसने तेजी से हाथी की दोनों आंखें बींध डाली। हाथी की आंखे फूट गईं। वह तडपता हुआ अंधा होकर इधर-उधर भागने लगा।
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Old 11-01-2011, 07:12 AM   #5
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Post Re: बच्चो को सीख देने वाली कहानी

जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हाथी का क्रोध बढता जा रहा था। आंखों से नजर न आने के कारण ठोकरों और टक्करों से शरीर जख्मी होता जा रहा था। जख्म उसे और चिल्लाने पर मजबूर कर रहे थे।

चिडिया कॄतज्ञ स्वर में मेढक से बोली “बहिया, मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूंगी। तुमने मेरी इतनी सहायता कर दी।”

मेढक ने कहा “आभार मानने की जरुरत नहीं। मित्र ही मित्रों के काम आते हैं।”

एक तो आंखों में जलन और ऊपर से चिल्लाते-चिंघाडते हाथी का गला सूख गया। उसे तेज प्यास लगने लगी। अब उसे एक ही चीज की तलाश थी, पानी।

मेढक ने अपने बहुत से बंधु-बांधवों को इकट्ठा किया और उन्हें ले जाकर दूर बहुत बडे गड्ढे के किनारे बैठकर टर्राने के लिए कहा। सारे मेढक टर्राने लगे।

मेढक की टर्राहट सुनकर हाथी के कान खडे हो गए। वह यह जानता ता कि मेढक जल स्त्रोत के निकट ही वास करते हैं। वह उसी दिशा में चल पडा।

टर्राहट और तेज होती जा रही थी। प्यासा हाथी और तेज भागने लगा।

जैसे ही हाथी गड्ढे के निकट पहुंचा, मेढकों ने पूरा जोर लगाकर टर्राना शुरु किया। हाथी आगे बढा और विशाल पत्थर की तरह गड्ढे में गिर पडा, जहां उसके प्राण पखेरु उडते देर न लगे इस प्रकार उस अहंकार में डूबे हाथी का अंत हुआ।

सीखः 1.एकता में बल हैं।
2.अहंकारी का देर या सबेर अंत होता ही हैं.
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Old 11-01-2011, 07:13 AM   #6
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एकता का बल
एक समय की बात हैं कि कबूतरों का एक दल आसमान में भोजन की तलाश में उडता हुआ जा रहा था। गलती से वह दल भटककर ऐसे प्रदेश के ऊपर से गुजरा, जहां भयंकर अकाल पडा था। कबूतरों का सरदार चिंतित था। कबूतरों के शरीर की शक्ति समाप्त होती जा रही थी। शीघ्र ही कुछ दाना मिलना जरुरी था। दल का युवा कबूतर सबसे नीचे उड रहा था। भोजन नजर आने पर उसे ही बाकी दल को सुचित करना था। बहुत समय उडने के बाद कहीं वह सूखाग्रस्त क्षेत्र से बाहर आया। नीचे हरियाली नजर आने लगी तो भोजन मिलने की उम्मीद बनी। युवा कबूतर और नीचे उडान भरने लगा। तभी उसे नीचे खेत में बहुत सारा अन्न बिखरा नजर आया “चाचा, नीचे एक खेत में बहुत सारा दाना बिखरा पडा हैं। हम सबका पेट भर जाएगा।’

सरदार ने सूचना पाते ही कबूतरों को नीचे उतरकर खेत में बिखरा दाना चुनने का आदेश दिया। सारा दल नीचे उतरा और दाना चुनने लगा। वास्तव में वह दाना पक्षी पकडने वाले एक बहलिए ने बिखेर रखा था। ऊपर पेड पर तना था उसका जाल। जैसे ही कबूतर दल दाना चुगने लगा, जाल उन पर आ गिरा। सारे कबूतर फंस गए।

कबूतरों के सरदार ने माथा पीटा “ओह! यह तो हमें फंसाने के लिए फैलाया गया जाल था। भूख ने मेरी अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। मुझे सोचना चाहिए था कि इतना अन्न बिखरा होने का कोई मतलब हैं। अब पछताए होत क्या, जब चिडिया चुग गई खेत?”

एक कबूतर रोने लगा “हम सब मारे जाएंगे।”
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Old 22-06-2011, 02:13 PM   #7
vijaysr76
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नियम
साबरमती आश्रम में जब बापू थे, तब एक नियम था कि भोजन के समय दो बार घंटी बजाई जाती थी। जो व्यक्ति दूसरी घंटी बजने तक नहीं पहुंच पाते थे, उन्हें दूसरी पंक्ति लगने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। एक दिन की बात है कि दूसरी घंटी बजने तक बापू भोजनालय में उपस्थित नहीं हो सके और भोजनालय का द्वार बंद हो गया। जब बापू द्वार तक आए और दूसरी पंक्ति लगने की प्रतीक्षा करने लगे तभी उनके एक सहयोगी ने हंसते हुए बापू को ताने भरे हुए शब्दों में कहा- 'बापू आज तो आप भी अपराधियों की पंक्ति में खड़े हैं।'

यह सुनकर बापू ने बड़ी विनम्रता से कहा- 'नियम तो आखिर नियम है, सभी पर नियम समान रूप से लागू होने चाहिए। अगर किसी से गलती हो जाए तो उसे सुधारने के लिए सजा भी भुगतनी चाहिए और मैं भी आज अपराधियों की पंक्ति में इसीलिए खड़ा हूं।'
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Old 23-06-2011, 11:26 AM   #8
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स्वाभिमानी बालक
तब महात्मा गांधी आगा खां महल में नजरबंद थे। उनके मित्र रोज उनके लिए कुछ न कुछ भेंट लाते थे। एक दिन की बात है कि एक 10-12 साल का बालक, जो कि मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए था, आगा खां महल में पहुंचा और बापू को अपने हाथ से दो-तीन फल देने की जिद करने लगा। बापू ने उससे फल ले लिए और उसके बदले बच्चे को कुछ पैसे देने चाहे। इस पर उस नन्हे बालक ने जोर से कहा- 'बापू मैं भिखारी नहीं हूं, दिन भर मजदूरी कर मैंने जो कुछ पैसे बचाएं हैं उन्हीं से ये फल खरीद कर लाया हूं।' बालक के ऐसे स्वाभिमान भरे शब्दों को सुनना था कि बापू प्रसन्नता से बोल पड़े- 'धन्य है वह मां जिसने तुम जैसे बालक को जन्म दिया। पैसे वाले मित्रों के फल तो मुझे रोज ही मिलते रहते हैं, लेकिन असली मीठे फल तो मुझे आज ही मिले हैं।' और वह बालक था स्वाभिमान का पुजारी डॉ. राम मनोहर लोहिया, जिसने बापू के आदर्शों पर चलकर अपना सब कुछ देश के लिए न्यौछावर कर दिया।
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Old 23-06-2011, 10:16 PM   #9
The ROYAL "JAAT''
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स्वाभिमानी बालक
तब महात्मा गांधी आगा खां महल में नजरबंद थे। उनके मित्र रोज उनके लिए कुछ न कुछ भेंट लाते थे। एक दिन की बात है कि एक 10-12 साल का बालक, जो कि मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए था, आगा खां महल में पहुंचा और बापू को अपने हाथ से दो-तीन फल देने की जिद करने लगा। बापू ने उससे फल ले लिए और उसके बदले बच्चे को कुछ पैसे देने चाहे। इस पर उस नन्हे बालक ने जोर से कहा- 'बापू मैं भिखारी नहीं हूं, दिन भर मजदूरी कर मैंने जो कुछ पैसे बचाएं हैं उन्हीं से ये फल खरीद कर लाया हूं।' बालक के ऐसे स्वाभिमान भरे शब्दों को सुनना था कि बापू प्रसन्नता से बोल पड़े- 'धन्य है वह मां जिसने तुम जैसे बालक को जन्म दिया। पैसे वाले मित्रों के फल तो मुझे रोज ही मिलते रहते हैं, लेकिन असली मीठे फल तो मुझे आज ही मिले हैं।' और वह बालक था स्वाभिमान का पुजारी डॉ. राम मनोहर लोहिया, जिसने बापू के आदर्शों पर चलकर अपना सब कुछ देश के लिए न्यौछावर कर दिया।

बच्चो के लिए बहुत ही ज्ञानवर्धक सूत्र है भाई विजय आगे भी एसी कहानी भेजते रहे धन्यवाद
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आपका दोस्त पंकज










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Old 06-07-2011, 06:56 PM   #10
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तब महात्मा गांधी आगा खां महल में नजरबंद थे। उनके मित्र रोज उनके लिए कुछ न कुछ भेंट लाते थे। एक दिन की बात है कि एक 10-12 साल का बालक, जो कि मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए था, आगा खां महल में पहुंचा और बापू को अपने हाथ से दो-तीन फल देने की जिद करने लगा। बापू ने उससे फल ले लिए और उसके बदले बच्चे को कुछ पैसे देने चाहे। इस पर उस नन्हे बालक ने जोर से कहा- 'बापू मैं भिखारी नहीं हूं, दिन भर मजदूरी कर मैंने जो कुछ पैसे बचाएं हैं उन्हीं से ये फल खरीद कर लाया हूं।' बालक के ऐसे स्वाभिमान भरे शब्दों को सुनना था कि बापू प्रसन्नता से बोल पड़े- 'धन्य है वह मां जिसने तुम जैसे बालक को जन्म दिया। पैसे वाले मित्रों के फल तो मुझे रोज ही मिलते रहते हैं, लेकिन असली मीठे फल तो मुझे आज ही मिले हैं।' और वह बालक था स्वाभिमान का पुजारी डॉ. राम मनोहर लोहिया, जिसने बापू के आदर्शों पर चलकर अपना सब कुछ देश के लिए न्यौछावर कर दिया।
इसे कहते हैं पुत के पाँव पालने में दिखने लगाना.. बहुत बढ़िया विजय जी.
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