08-11-2011, 11:01 PM | #11 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥ क्षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो, यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो। कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो, यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो॥ [10] |
08-11-2011, 11:02 PM | #12 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥ जो ज्ञान कर्म के तत्व का, तात्विक व ज्ञाता बन सके, निष्काम कर्म विधान से, निश्चय मृत्युंजय बन सके। उसी ज्ञान कर्म विधान पथ से, मिल सके परब्रह्म से, एक मात्र निश्चय पथ यही, है जो मिलाता अगम्य से॥ [11] |
08-11-2011, 11:02 PM | #13 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥ जो मरण धर्मा तत्त्व की, अभ्यर्थना करते सदा, अज्ञान रुपी सघन तम में, प्रवेश करते हैं सर्वदा। जिसे ब्रह्म अविनाशी की पूजा, भाव का अभिमान है, वे जन्म मृत्यु के सघन तम में, विचरते हैं विधान है॥ [12] |
08-11-2011, 11:03 PM | #14 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥ प्रभु दिव्य गुण गण मय विभूषित, सच्चिदानंद घन अहे, यही ब्रह्म अविनाशी के अर्चन का है रूप महिम महे। जो देव ब्राह्मण, पितर, आचार्यों की निस्पृह भाव से, अर्चना करते वे मुक्ति पाते पुण्य प्रभाव से॥ [13] |
08-11-2011, 11:03 PM | #15 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥ जिन्हें नित्य अविनाशी प्रभु का मर्म ऋत गंतव्य है, उन्हे अमृतमय परमेश का अमृत सहज प्राप्तव्य है, जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है, निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [14] |
08-11-2011, 11:04 PM | #16 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥ अति दिव्य श्री मुख रश्मियों से, रवि के आवृत है प्रभो, निष्कंप दर्शन हो हमें, करिये निरावृत, हे विभो ! ब्रह्माण्ड पोषक पुष्टि कर्ता, सच्चिदानंद आपकी, हम चाहते हैं अकंप छवि, दर्शन कृपा हो आपकी॥ [15] |
09-11-2011, 01:19 PM | #17 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
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18-11-2011, 01:07 AM | #18 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
पूषन्नेकर्षे यम् सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह।
कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यो सौ पुरुषः सो हमस्मि ॥१६॥ हे! भक्त वत्सल, हे! नियंता, ज्ञानियों के लक्ष्य हो, इन रश्मियों को समेट लो, दर्शन तनिक प्रत्यक्ष हो। सौन्दर्य निधि माधुर्य दृष्टि, ध्यान से दर्शन करूं, जो है आप हूँ मैं भी वही, स्व आपके अर्पण करूँ॥ [16] |
18-11-2011, 01:07 AM | #19 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
वायुर्निलममृतमथेदम भस्मानतम शरीरम।
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥१७॥ यह देह शेष हो अग्नि में, वायु में प्राण भी लीन हो, जब पंचभौतिक तत्व मय, सब इंद्रियां भी विलीन हों, तब यज्ञ मय आनंद घन, मुझको मेरे कृत कर्मों को, कर ध्यान देना परम गति, करना प्रभो स्व धर्मों को॥ [17] |
18-11-2011, 01:08 AM | #20 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानी देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्म ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥ हे! अग्नि देव हमें प्रभो, शुभ उत्तरायण मार्ग से, हूँ विनत प्रभु तक ले चलो, हो विज्ञ तुम मम कर्म से। अति विनय कृतार्थ करो हमें, पुनि पुनि नमन अग्ने महे, हो प्रयाण, पथ में पाप की, बाधा न कोई भी रहे॥ [18] |
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