01-12-2012, 03:32 PM | #761 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 03:32 PM | #762 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
अज्ञान काल में तो इसका आदि अन्त प्रमाण कुछ नहीं भासता और बोध में इसका अत्यन्ता भाव दीखता है | चित्तसत्ता की जो अनन्तता पूछो तो वह तो अद्वैत चिन्मात्र आत्म समुद्र है और उसमें सूक्ष्मभाव अहमस्मि जो संवित् फुरती है उसका नाम चित्त है | उस चित्त में आगे जगत् होता है | शुद्ध चिन्मात्र में संवेदन चित्त फुरता है उसमें जगत् है, वही चिद्सत्ता देवता, असुर और जंगमरूप हो भासती है और नाग,पिशाच, कीटादिक स्थावर-जंगमरूप हो भासती है | वास्तव में चैतन्यसत्ता ही है उससे भिन्न कुछ नहीं और सब चिदाकासरूप है फुरने से नाना प्रकार है | हे रामजी! परम शुद्ध चिद्अणु से मिलकर चित्त अनेक ब्रह्माण्ड धारता है और उस सूक्ष्म अणु में अनन्त ब्रह्माण्ड फुरते हैं परन्तु उससे भिन्न नहीं |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 03:33 PM | #763 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे एक पुरुष शयन करता है तो उसको स्वप्ने में अनेक जीव भासि आते हैं और उन जीवों में अपने अपने स्वप्ने की सृष्टि फुरती है सो अनेक सृष्टि हो जाती है तैसे ही सूक्ष्म चिद्अणु में अनन्त सृष्टि फुरती है परन्तु आत्मसत्ता से भिन्न कुछ नहीं बना | जैसे सूर्य की किरणों में अनन्त सूक्ष्म त्रसरेणु होती हैं, तैसे ही परमात्मसूर्य के चिद्अणु सूक्ष्म हैं | इन त्रस रेणु से भी सूक्ष्म चिद्अणु में अनन्त सृष्टि अपनी-अपनी फुरती हैं | हे रामजी! जब तक चित्त फुरता रहता है तबतक सृष्टि का अन्त नहीं आता |
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01-12-2012, 03:33 PM | #764 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
असंख्य जगत् भ्रम आगे देखे हैं और असंख्य ही आगे देखेंगे | जब चित्त फुरने से रहित होता है तब जगत् कल्पना मिट जाती है | जैसे स्वप्न में सृष्टि भासती है और बड़े व्यवहार होते हैं पर जब जाग उठता है तब स्वप्ने की सृष्टि व्यवहार की कल्पना मिट जाती है और अद्वैत अपना आपही भासता है, तैसे ही चित्त के ठहरने से सब भ्रम मिट जाता है | हे रामजी! सूक्ष्म चिद्अणु की संज्ञा तब हुई है जब इसको चित्त का सम्बन्ध हुआ है जब चित्त को अपने स्वभाव में स्थित करोगे तब द्वैतकल्पना और सूक्ष्म स्थूल भाव मिट जावेंगे |
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01-12-2012, 03:33 PM | #765 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
इस की सूक्ष्म संज्ञा अविद्यकभाव से है जो इन्द्रियों का विषय नहीं है इससे अणुता है, सूक्ष्म अणु में भी व्यापार हुआ है इससे सूक्ष्म अणु कहता और अनन्तता इस कारण है कि सब को धार रहा है | हे रामजी! यह जगत् अभावमात्र है | जैसे मरुस्थल में जलाभास होता है, तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है | यह जगत् ही नहीं है तो इसका कारण किसे कहिये? आदि सृष्टि अकारण फुरी है और फिर उसमें कारण-कार्य भासने लगे हैं सो आभास की दृढ़ता से है | जैसे स्वप्ने में आदि सृष्टि अकारण बीज, वृक्ष, कुलाल, मिरट्टी और घट इकट्ठे फुर आते हैं |
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01-12-2012, 03:33 PM | #766 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जब उस स्वप्ने की दृढ़ता हो जाती है तब कारण कार्य भासते हैं परन्तु जो सोया पड़ा है उसको दृढ़ भासते हैं, तैसे ही अज्ञानी को जगत् कार्य कारण दृढ़ भासता है और ज्ञानवान् को सब अपना आपही भासता है | जैसे स्वप्ने से जागे स्वप्ने की सृष्टि अपना आपही भासती है कि मैं ही था और कुछ न था, तैसे ही ज्ञानवान् को सब जगत् आकाशरूप भासता है पृथ्वी, अपू, तेज, वायु, आकाश, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, पर्वत, वृक्ष, नदी, स्थावर-जंगम सर्व जगत् सब आकाशरूप हैं और संवेदन के फुरने से दृष्टि आते हैं वास्तव में भिन्न कुछ नहीं |
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01-12-2012, 03:34 PM | #767 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
रामजी! यह जगत् चित्त में स्थित है जैसे किसी पुरुष ने थम्भे में पुतलियाँ कल्पीं तो उन पुतलियाँ के दो रूप होते हैं एक शिल्पी के चित्त में फुरती हैं सो आकाशरूप हैं और एक थम्भे में कल्पी हैं सो थम्भरूप हैं पर शिल्पी के चित्त में नृत्य करती हैं | हे रामजी! और तो कुछ नहीं बना सब थम्भेरूप हैं और शिल्पी के चित्त में कल्पनामात्र हैं, तैसे ही तैसे ही चित्तरूपी शिल्पी की जगद््रूपी पुतलियाँ कल्पनामात्र हैं पर आत्मरूपी थम्भा ज्यों का त्यों है-आत्मा से भिन्न कुछ नहीं | जैसे पट के ऊपर मूर्ति लिखी हो तो उस मूर्तिका रूप पट ही है-पट से भिन्न कुछ नहीं-वह पट ही मूर्तिरूप भासता है,
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01-12-2012, 03:35 PM | #768 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
तैसे ही यह जगत् आत्मा से भिन्न से भिन्न नहीं-आत्मा ही जगत््रूप हो भासता है | आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं-जैसे ब्रह्म आकाशरूप है, तैसे ही जगत् आकाशरूप है | जगत््रूप आधार है और उसमें ब्रह्म बसनेवाला है | ब्रह्मरूप आधार है और उसमें जगत् बसनेवाला है | हे रामजी! जितने समूह जगत् में विद्या और अविद्यारूप हैं सो संकल्प से रचित हैं और वास्तव में सब आत्मस्वरूप हैं | समता सत्ता और निर्विकारता आदि इनसे विपरीत अविद्यारूप सब एक ही रूप हैं, एक ही में फुरते हैं और एक ही रूप हैं | जैसे अनुभव रूप स्वप्न जगत् अनुभव में स्थित होता है सो सर्व आत्मरूप होता है तैसे ही यह जगत् सर्व ब्रह्मरूप है-ब्रह्म से भिन्न न कुछ वर की कल्पना है और न शाप की कल्पना है |
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01-12-2012, 03:35 PM | #769 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
ब्रह्मसत्ता निर्विकार अपने आपमें स्थित है उसमें न कारण है और न कार्य है | जैसे ताल, नदी और मेघ जल ही होते हैं, तैसे ही सब जगत् ब्रह्मरूप है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! वर और शाप के कर्त्ता परिच्छिन्न हैं और कारण बिना तो कार्य नहीं बनता तुम कैसे कहते हो कि कारण कार्य कोई नहीं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी शुद्ध चिदाकाश आत्मसत्ता का किञ्चन जगत् होता है जैसे समुद्र में तरंग फुरते हैं, तैसे ही आत्मसत्ता में जगत् फुरते हैं और जैसे तरंग जलरूप होते हैं, तैसे ही जगत् आत्मरूप है-आत्मा से भिन्न कुछ नहीं | जैसे आदि परमात्मा से सृष्टि का फुरना हुआ है तैसे ही स्थित है अन्यथा नहीं होता सब जगत् संकल्प है | अनेक प्रकार की वासना संवेदन में फुरती हैं पर जिनको स्वरूप का विस्मरण हुआ है उनको यह जगत् सत्य रूप भासता है |
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01-12-2012, 03:35 PM | #770 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जो उनको विचार उत्पन्न हो तो वही भासे है जिस काल में विचार उत्पन्न होता है और उसी काल में अज्ञाननिद्रा का अभाव होता है | हे रामजी! जब विचार अभ्यास करके मन तद््रूप होता है तब यथाभूत दर्शन होता है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपना आप ही भासता है, क्योंकि अपने आप में स्थित है | सबका अधिष्ठान जो आत्मसत्ता है उसमें अहंप्रतीति होती है इस कारण अपने आप में सृष्टि भासती है | जैसे स्पन्द फुरते हैं, तैसे ही उनकी सिद्धि होती है, निरावरण दृष्टि होता है निरा वरण दृष्टि करके सर्व संकल्प सिद्ध होता है, क्योंकि यह जगत् सर्व आत्मा में संकल्प का रचा हुआ है- और उसमें इसको अहं प्रत्यक्ष हुई है |
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