23-11-2012, 03:28 PM | #141 | |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
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26-11-2012, 07:48 PM | #142 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
तर्क-वितर्क में न उलझें
परमात्मा शांत स्वरूप हैं तो फिर इंसान के जीवन में अशांति कहां से आई? यह तो उसने अपने आप पैदा की है। शांति पाने के लिए भटकने की आवश्यकता नहीं है। जीवन से उन दोषों को दूर करो जिसने तुम्हें अशांत कर रखा है। और उन्हें तुम अच्छी तरह से जानते और पहचानते हो? उसके दूर होने पर फिर जीवन में शांति ही शेष बचेगी। उसके लिए फिर कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है। अशांत तो इंसान को उसके दोषों ने कर रखा है। उस पर दोषों को दूर करने के बजाए खोज रहे हैं शांति को। दूसरी चीज परमात्मा ने हमें जो यह जीवन दिया है उसे बेकार की उधेड़बुन में, तर्क-वितर्क में व्यर्थ न करें। इससे कुछ हासिल नहीं होगा। अनमोल समय और शक्ति का सदुपयोग करने पर आपके जीवन में आनंद बढ़ जाएगा। फिर किसी भी कार्य को करने में कठिनाई का सामना नहीं करना पडेþगा। कठिनाइयां आएंगी जरूर पर आपका विश्वास आपका रास्ता आसान कर देगा। लोभ इंसान को कहीं का नहीं छोड़ता। इसलिए इससे बचना चाहिए। इससे छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि अपने-पराए का भाव हृदय से निकाल कर जरूरतमंदों की सेवा करें। वैसे भी परमार्थ का भाव तो हम में कूट-कूट कर भरा है। अगर हम उसे भूल जाएंगे तो फिर यह सब कौन करेगा? हमारे महापुरुषों ने परमार्थ और इस देश के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर दिया। खाओ पिओ और मौज करो यह हमारी संस्कृति ना तो पहले कभी थी और ना ही यह संस्कृति अभी है। बल, बुद्धि और विद्या आदि को दूसरे के हित में लगाना ही परमार्थ कहलाता है। इससे हमारी पहचान बनी है। यह शरीर भोग के लिए नहीं, दूसरों की सेवा के लिए है। मनुष्य को किसी से कुछ लेने की नहीं बल्कि देने की आदत डालनी चाहिए। लेना जड़ता है और देना चेतना है। सेवा करना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। विपत्तियों से घबराएं नहीं। इससे प्रसन्नता बनी रहेगी और वह प्रसन्नता समस्याओं के समाधान की राह दिखाएगी।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
26-11-2012, 07:49 PM | #143 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
पेड़ न काटने का संदेश
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत नामदेव केवल महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश में अपनी विद्वता के लिए पूजे जाते थे। वे दूसरों के प्रति हमेशा ही दया भाव रखते थे। इतना ही नहीं वे पेड़-पौधों के प्रति भी बेहद संवेदनशील रहते थे। संत नामदेव के बचपन की एक घटना है। एक दिन नामदेव जंगल से घर आए तो उनकी धोती पर खून लगा था। जब उनकी मां की नजर खून पर गई तो वे घबरा गईं। आखिर एक मां को अपने बच्चे के कपड़ों पर लगा खून कैसे विचलित नहीं कर सकता? मां तत्काल नामदेव के पास पहुंची और पूछा, नामू तेरी धोती में कितना खून लगा है। क्या हुआ कहीं गिर पड़ा था क्या? नामदेव ने उत्तर दिया, नहीं मां गिरा नहीं था। मैंने कुल्हाड़ी से स्वयं ही अपना पैर छीलकर देखा था। मां ने धोती उठाकर देखा कि पैर में एक जगह की चमड़ी छिली हुई है। इतना होने पर भी नामदेव ऐसे चल रहे थे मानो उन्हें कुछ हुआ ही न हो। नामदेव की मां ने यह देखकर पूछा, नामू तू बड़ा मूर्ख है। कोई अपने पैर पर भला कुल्हाड़ी चलाता हैं? पैर टूट जाए, लंगड़ा हो जाए, घाव पक जाए या सड़ जाए तो पैर कटवाने की नौबत आ जाएगी। मां की बात सुनकर नामदेव बोले, तब पेड़ को भी कुल्हाड़ी से चोट लगती होगी। उस दिन तेरे कहने से मैं पलाश के पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाकर उसकी छाल उतार लाया था। मेरे मन में आया कि अपने पैर की छाल भी उतारकर देखूं। मुझे जैसी लगेगी, वैसी ही पेड़ को भी लगती होगी। नामदेव की बात सुनकर मां को रोना आ गया। वह बोली, नामू तेरे भीतर मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधों को लेकर भी दया का भाव है। तू एक दिन जरूर महान साधु बनेगा। मुझे पता चल गया कि पेड़ों में भी मनुष्य के ही जैसा जीवन है। अपने चोट लगने पर जैसा कष्ट होता है, वैसा ही उनको भी होता है। अब ऐसा गलत काम कभी तुझसे नहीं कराऊंगी। नामदेव की मां ने फिर कभी नामदेव को पेड़ काटने के लिए नहीं कहा।
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01-12-2012, 10:46 PM | #144 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
प्रतिशोध की भावना न रखें
जिस रोज अजमल कसाब को फांसी दी गई उस रोज कुछ इलाकों में दीवाली सा माहौल देखा गया। यह हमारे भीतर छुपी प्रतिशोध की भावना की अभिव्यक्ति थी जो एक आम प्रतिक्रिया है। सदियों से यह दुष्चक्र चला आ रहा है। अपराध और सजा। समाज में कहीं भी अपराध होता है तो सभी के मन में पहला भाव यही उठता है कि अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। फिल्मों में और टीवी सीरियलों में भी यही डायलॉग होता है। इससे एक मनोदशा बन गई है कि सजा देने से अपराध और अपराधी के प्रति हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो गई और जो पीड़ित है उसे न्याय मिल गया। लेकिन क्या वाकई इस सजा से अपराध बंद होते हैं? क्या वह अपराधी आगे कभी अपराध नहीं करता? क्या इससे अन्य अपराधियों के अपराधों पर रोक लगती है। सच्चाई तो यह है कि अपराधियों की संख्या में इजाफा हो रहा है। अदालतों में क्रिमिनल केस के अंबार लगे हुए हैं। जेलों में अब और अपराधियों को रखने की जगह नहीं है। तब भी हम किसी नए तरीके से सोचने को तैयार नहीं हैं। ओशो ने इस स्थिति पर गहरा विचार किया है और उनकी सोच हमारी परंपरागत सोच से हटकर है। वे कहते हैं कि सजा देने की पूरी अवधारणा ही अमानवीय है। अपराधी को कारागृहों की बजाय मनोचिकित्सा के अस्पतालों की जरूरत है। एक तो अपराधी उसी समाज का एक हिस्सा है जिसमें हम जीते हैं। तो इस पर भी सोचना चाहिए कि यह समाज ऐसा क्यों है? इसे इतनी भारी संख्या में पुलिस, अदालत और वकीलों की जरूरत क्यों है? जिस समाज मे कारागृह छोटे पड़ रहे हैं,क्योंकि अपराधी बढ़ते जा रहे हैं,क्या उस समाज की मानसिक चिकित्सा करने की जरूरत नहीं है? ये अपराधी कहां से आते हैं? परिवार से। अगर फल जहरीला हुआ तो हम बीज की जांच करते हैं कि उसमें तो कोई खराबी नहीं है। फिर जब बच्चे हिंसक हो रहे हैं तो क्या मां-बाप की मानसिकता की जांच नहीं करनी चाहिए? इस पर गौर करना ही चाहिए।
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01-12-2012, 10:47 PM | #145 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
मौन ही सवालों का जवाब
संत तिलोपा के बारे में कहा जाता था कि उनके पास हरेक प्रश्न का उत्तर है। जो भी पूछा जाए वह जवाब जरूर देते हैं। यह सुन मौलुक पुत्त नाम का दार्शनिक उनके पास अपने प्रश्नों का जवाब पाने के लिए आया। कुछ देर तो वह सकपकाया कि सवाल पूछे जाएं कि नहीं लेकिन बाद में हिम्मत जुटा कर उसने सवाल रखे। तिलोपा ने उसके सभी प्रश्नों को बड़े धीरज से सुना और बोले,क्या तुम सच ही उत्तर चाहते हो। लेकिन तुम्हें उनकी कीमत चुकानी होगी। मौलुक पुत्त सोचने लगा कि मैं बूढ़ा हो गया हूं। अब तक उत्तर भी बहुत मिले लेकिन कोई सही उत्तर नहीं मिल सका। हो सकता इनका उत्तर मुझे संतोष दे सके। यह सोचकर उसने कीमत चुकाने के लिए हामी भर दी। तिलोपा ने कहा,ठीक है। लोग प्रश्न पूछते हैं पर उनकी कीमत नहीं चुकाना चाहते। बहुत दिनों बाद आने वाले तुम ऐसे व्यक्ति हो जो कीमत चुकाने के लिए राजी हुए हो। अब मैं तुमको कीमत बताता हूं और वह यह है कि तुम्हें दो वर्ष तक मेरे पास चुप बैठना पड़ेगा। इस बीच तुम्हें बिल्कुल नहीं बोलना है चाहे कोई कष्ट हो या परेशानी अथवा कोई अन्य कारण। तुम्हें चुप रहना है। जब दो वर्ष बीत जाएंगे तो मैं तुमसे खुद ही कहूंगा कि अब जो भी पूछना हो मुझसे पूछ लो। मैं वादा करता हूं कि तुम्हें तुम्हारे सभी सवालों के सही जवाब दे दूंगा। विचित्र कीमत थी पर अन्य कोई उपाय भी तो न था। मौलुक पुत्त तैयार हो गया। वह दो साल तक संत तिलोपा के पास रुका रहा। दो वर्ष बीत गए तिलोपा भी भूले नहीं। तिथि और दिन सभी कुछ उन्होंने याद रखा। हालांकि मौलुक पुत्त तो सब भूल गया था क्योंकि जिसके विचार धीरे-धीरे शांत हो जाएं उसका समय का बोध भी खो जाता है। जब तिलोपा ने उससे सवाल पूछने के लिए कहा तो उसने सिर झुकाते हुए कहा,आप की कृपा से मैं अब जान गया हूं कि मन के मौन में सभी प्रश्नों के उत्तर हैं।
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03-12-2012, 09:55 PM | #146 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
१. जीवन से उन दोषों को दूर करो जिनसे तुम्हें अशांति मिलती है ..... लोभ तथा खाओ, पियो और मौज करो की कृत्रिम संस्कृति को छोड़ कर और अपने पराये का भेद मिटाते हुये जरूरतमंदों की सेवा में अपने को अर्पित कर दो ....... परमार्थ में मन लगाओ. इससे हमें संतोष और शान्ति की प्राप्ति होगी.
२. संत नामदेव ने अपनी माता को किस भांति यह समझाना पड़ा कि पेड़ों में भी मनुष्यों की भांति जान होती है, काटने पर कष्ट होता है. ३. अपराधी आखिर बना कैसे? क्या कोई जन्मजात अपराधी होता है? सच्चाई यही है की परिस्थतियाँ इंसान को अपराधी बनाती हैं. अपराधी सजा का नहीं मनो चिकित्सा का हकदार है. इसके लिये उन हालात की जाँच होनी चाहिये जो उसे अपराध करने को प्रेरित करती हैं. फिर उसका विधिवत इलाज शुरू किया जाय. महात्मा गाँधी ने भी कहा था कि अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं. ओशो ने प्राचीन चीन की एक घटना सुनाते हुये बताया की एक चोर को चोरी की सजा देते वक्त उस धनाड्य व्यक्ति को भी सजा तजवीज़ की गयी जिसके यहाँ चोरी हुई थी. कारण यह कि धनी व्यक्ति ने इतनी सम्पदा एकत्र कर ली कि वो एक शरीफ व्यक्ति को चोरी के लिये उकसाने लगी. ४. संत तिलोपा ने सिध्द कर दिया कि मौन में असीम शक्ति है जिससे सभी शंकाओं का समाधान भलीभांति किया जा सकता है. सेंट अलैक जी, आपकी डायरी में दर्ज हुये इन प्रसंगों में शाश्वत ज्ञान की मंदाकिनी निसृत हो रही है. मानवता के प्रति समर्पित आपके लेखन और करुणा को नमन. |
05-12-2012, 03:21 AM | #147 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
आम के पेड़ पर ब्रह्मराक्षस
यह विवेकानंद के बचपन की घटना है। तब वह नरेन्द्र के नाम से जाने जाते थे। अक्सर वे अपने हम उम्र बच्चों के साथ खेला करते थे। एक बार वह बच्चों के साथ आम के बगीचे में खेल रहे थे। तभी बच्चों की नजर आम लगे एक पेड़ पर पड़ गई। बच्चे आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने के लिए दौड़ पड़े। तभी वहां उस बगीचे का रखवाला आ गया। उसने देखा कि अगर उसने बच्चों को नहीं रोका तो वे सारे आम तोड़ लेंगे। रखवाले के दिमाग में एक विचार आया। उसने वहां जमा बच्चों से कहा, तुममे से कोई भी उस पेड़ के पास न जाना क्योंकि उस पर ब्रह्मराक्षस रहता है जो आम तोड़ने वाले लड़कों को खा जाता है। इस पर नरेन्द्र्र ने पूछा, ब्रह्मराक्षस क्या होता है? रखवाले का उत्तर था कि किसी की असामयिक मृत्यु होने से वह राक्षस का रूप धारण कर लेता है और फिर वह अपना बदला लेता है। यह सुनकर बच्चे डरकर अपने घर की ओर भाग गए पर नरेन्द्र वहीं डटे रहे। नरेन्द्र ने रखवाले से पूछा कि क्या उसने ब्रह्मराक्षस को कभी अपनी आंखों से देखा है? रखवाले ने कहा, नहीं पर मैंने सुन रखा है। यह कहकर वह भी अपनी झोपड़ी में चला गया। सब बच्चे घर पहुंच गए पर नरेन्द्र नहीं पहुंचे। उनके परिवार वाले परेशान हो उठे। उन्होंने दूसरे बच्चों से उनके बारे में पूछा। तब वे बगीचे में आए और नरेन्द्र को आवाज लगाई। नरेन्द्र एक पेड़ पर बैठे थे। उन्होने कहा, मैं इस पेड़ पर हूं। मैं ब्रह्मराक्षस का इंतजार कर रहा हूं। मैं उसे देखना चाहता हूं और पूछना चाहता हूं कि वह मनुष्य को क्यों सताता और क्यों खाता है? इस पर नरेन्द्र के पिता ने कहा, बेटा ! ब्रह्मराक्षस जैसी कोई चीज नहीं होती। यह सब मनगढ़ंत बातें हैं। तुम्हें ऐसी बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। धर्म में घुसे अंधविश्वास के प्रति विरोध का भाव उसी समय से नरेन्द्र के भीतर गहरा गया। आगे चलकर उन्होंने अंधविश्वास का प्रबल विरोध किया।
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05-12-2012, 03:22 AM | #148 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अपनी ताकत को पहचानें
हमारा सारा जोर इस बात पर रहता है कि हम जो कुछ भी करें, उसमें हमेशा आनंद या खुशी महसूस करें। आज के इस दौर में जब हम सब एक चूहा दौड़ में फंसे हुए हैं, क्या आनंदमय हो पाना संभव है? इंसान जो भी काम करता है उसमें उसे खुशी की ही तलाश रहती है। फिर चाहे वह चूहा दौड़ में शामिल हों या डायनासोर दौड़ में। आप उसे खुशी-खुशी क्यों नहीं पूरी कर सकते? अगर आपकी यह दौड़ लंबे समय तक चलने वाली है तो उतने सारे वर्षों तक क्या आप नाखुशी से दौड़ सकेंगे? लेकिन आप कहते हैं कि आप तभी खुश हो पाएंगे जब या तो यह दौड़ थम जाए या फिर आप इस दौड़ से बाहर हो जाएं। यह तो हमेशा दुख या पीड़ा में रहने की एक दलील है। आनंद यह नहीं है कि आप क्या करते हैं और क्या नहीं। असली आनंद वह है कि आप अपने भीतर से कैसे हैं? अगर आपका मन आपकी इच्छानुसार काम करता है,अगर आपका मन आपसे निर्देश लेता है तो निश्चय ही आप अपने मन को आनंदित ही रखेंगे। यहां सवाल आनंद या दुख का नहीं बल्कि इसका है कि आपका मन आपके नियंत्रण में है या नहीं? अगर आपका मन आपके नियंत्रण में है तो आप निश्चित रूप से अपने लिए आनंदमय वातावरण बनाएंगे। ऐसे ही अगर आपका मन आपके नियंत्रण में नहीं है तो वह बाहरी घटनाओं से प्रभावित होगा। और नतीजतन आप आनंद या सुख से वंचित हो जाएंगे। हालांकि बाहरी घटनाओं को आप एक सीमा तक ही नियंत्रित कर सकते हैं। भले ही आप किसी दौड़ में हों या न हों, बाहरी घटनाएं एक हद तक ही आप को प्रभावित कर सकती हैं। लेकिन आपकी अंदरूनी ताकत अगर बाहरी घटनाओं के प्रभाव के विरोध में खड़ी हो जाती हैं तो फिर शायद ही आप कोई आनंद प्राप्त कर पाएं। जिन्हें हम बाहरी कह रहे हैं, वे ऐसे लाखों तत्व हैं जिन पर हमारा नियंत्रण नहीं है। लेकिन आपके अंदर सिर्फ एक ही है और वह आप खुद हैं। इसलिए हमें हमारी अंदरूनी ताकत को पहचानना होगा।
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08-12-2012, 12:04 AM | #149 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अपना प्रभाव नहीं जानते
अपने पिता वेद व्यास की आज्ञा से शुकदेव आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए राजा जनक की मिथिला नगरी में जा पहुंचे। जनक की मिथिला नगरी वास्तव में बहुत ही आकर्षक थी। वहां उनके स्वागत के लिए अनेक लोग सजे हुए हाथी,घोडेþ व रथ के साथ खड़े थे लेकिन शुकदेव पर इनका कोई असर नहीं हुआ। वह इस चमक-दमक से अप्रभावित अपने में खोए रहे। महल के सामने ड्योढ़ी पर जब वे पहुंचे तो द्वारपालों ने उन्हें वहीं धूप में रोक दिया। शुकदेव वहीं धूप में खड़े हो गए। वे जरा भी परेशान या खिन्न नहीं हुए। चौथे दिन एक द्वारपाल ने उन्हें दूसरी ड्योढ़ी पर ठंडी छाया में पहुंचा दिया। वे वहीं बैठकर आत्मचिंतन करने लगे। इसके बाद एक मंत्री ने आकर उन्हें एक अत्यंत सुंदर वन में पहुंचा दिया। वहां नवयुवतियों ने उन्हें भोजन कराया और उसके बाद हंसती-गाती वन की शोभा दिखाने ले गईं। रात होने पर उन्होंने शुकदेव को आरामदेह बिछावन पर बिठा दिया। वे पैर धोकर रात के पहले भाग में ध्यान करने लगे, मध्य भाग में सोए और चौथे पहर में उठकर फिर ध्यान करने लगे। ध्यान के समय भी युवतियां उन्हें घेरकर बैठ गईं किन्तु उनके मन में कोई विकार पैदा नहीं हुआ। अगले दिन राजा जनक ने आकर उनकी पूजा की और ऊंचे आसन पर बैठाकर उनका सम्मान किया। फिर स्वयं आज्ञा लेकर धरती पर बैठ गए और उनसे बातचीत करने लगे। बातचीत के अंत में राजा जनक ने कहा,आप हर दृष्टि से परिपूर्ण हैं। आपने परम तत्व को प्राप्त कर लिया है और स्वंय से तटस्थ हो गए हैं। फिर भी यह आपका बड़प्पन है कि आप अपने ज्ञान में कमी मानते हैं। मेरे विचार में आपमें इतनी ही कमी है कि आप परमज्ञानी होकर भी अपना प्रभाव नहीं जानते। आप सुख-दुख की अनुभुति से ऊपर उठ चुके हैं। यह स्थिति आपको दिव्य शांति प्रदान करती है। राजा जनक के ऐसा कहने पर शुकदेव को अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया।
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08-12-2012, 12:12 AM | #150 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
कर्म ही श्रेष्ठ पुरस्कार
मन में कभी भी गलत भावना मत आने दीजिए। इससे आपके मन में सदा रहेगी एक रचनात्मक भावना। मैं ईश्वर की संतान हूं, मैं कभी अकेला नहीं हूं, मैं उस परमसत्ता का अभिन्न अंश हूं। तब क्या होगा? आपका मन बहुत शक्तिशाली हो जाएगा। बहुत मानसिक बल मिलेगा और आपकी साधना, जप और ध्यान के द्वारा वह मानसिक बल और भी मजबूत होता जाएगा। यही हुआ रचनात्मक प्रयास और इस तरह आपको अपने भीतर पाप बोध या हीनभावना का बोध आने नहीं देना चाहिए। मैं तो निरक्षर हूं, मैं तो मूर्ख हूं, इस तरह की हीनभावना मनुष्य को मानसिक रूप से कमजोर कर देती हैं। आप कुछ करना चाहते हैं और उस समय आपने कहा, मैं इसे करने का प्रयास करूंगा। आप यदि मन में इस तरह की शिथिलता को प्रश्रय देंगे, तो जीवन में कभी भी सफल नहीं हो सकेंगे। इसलिए यह नहीं कहें कि मैं चेष्टा करूंगा, बल्कि कहें, मैं निश्चय ही करूंगा। यदि आप कहें कि मैं चेष्टा करूंगा, तो उचित मान में पहुंचने के लिए अर्थात् यथार्थ मानसिकता तैयार होने में हजारों साल लग सकते हैं। इस मानसिकता से कभी प्रभावित नहीं होना चाहिए। मैं कोशिश करूंगा नहीं, मैं करूंगा। अभी इसी मुहूर्त से मैं काम शुरू कर दूंगा। एक आदर्श मनुष्य के लिए प्रत्येक मुहूर्त अति मूल्यवान है। जो कुछ करना चाहते हैं, उसी मुहूर्त में उसे शुरू कर दें। बुरा कर्म करने से रोकने के लिए कभी मन को पुरस्कार देने की बात नहीं सोचे। आपका कर्म ही आपका पुरस्कार हुआ। आपका कर्म ही आपका सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार है। अच्छा काम करेंगे, तो लोग आपको जीवन भर याद करेंगे, लेकिन यदि आपसे कोई एक भी गलत काम हो जाए, तो लोग टोकने से नहीं चूकते। बस, ठानना तो आपको ही है कि आप जो तय कर रहे हैं, उसे पूरा करने की लगन में जुट जाएं। आज का काम मैं आज ही निपटाऊंगा, इसी भावना से काम करें। काम हो जाएगा या काम कर लेंगे की भावना हमें हमारी मंजिल तक नहीं पहुंचने देती।
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