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Old 11-11-2012, 07:41 AM   #1
omkumar
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Default एक शहरी पाकिस्तान का

एक शहरी पाकिस्तान का

रामलाल

अनुवाद - नन्द किशोर विक्रम
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Old 11-11-2012, 07:42 AM   #2
omkumar
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Default Re: एक शहरी पाकिस्तान का

मुनि और मीशा धूप में खेल रहे थे। सरस्वती उन्हें नहलाने के लिए जल्दी-जल्दी गर्म पानी, तौलिया, साबुन, उनके कपड़े वगैरा बाथरूम में रखने जा रही थी। उसने बच्चों को पुकारा-

''ऐ मुनि, ऐ मीशा, चलो नहा लो जल्दी-जल्दी, वरना मुझे वक्त नहीं मिलेगा।''

बच्चे खेल में व्यस्त रहे। सरस्वती ने आगे बढक़र दोनों को पकड़ा और उन्हें लेकर सीधी बाथरूम में चली गयी।

छब्बीस साल की सुन्दर, स्वस्थ, ऊँची और आकर्षक सरस्वती उन्हें साबुन मल-मलकर नहलाने लगी। बच्चे आँखों में साबुन पड़ जाने से रोने लगे। सरस्वती बुदबुदाई-''अभी तुम्हारे डैडी आ जाएँगे। लंच का टाइम हो गया है। दिन-भर बेचारे मजदूरों के सिर पर खड़े सरकारी मकान बनवाते रहते हैं, उन्हें भूख लगी होगी।''

अचानक उसकी समय दरवाजे पर दस्तक हुई।

''लो, वह आ भी गये ! मैं आयी जी, इन्हें ज़रा...''

मीशा पानी के छींटे उड़ाने लगा।
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Old 11-11-2012, 07:42 AM   #3
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Default Re: एक शहरी पाकिस्तान का

''देखा...'' सरस्वती कुछ कहते हुए दोनों बच्चों को उठाकर बाहर धूप में ले आयी और वहीं बिछी हुई खाट पर ला बिठाया। उन्हें उठाकर लाने में सरस्वती का साड़ी-जम्पर पानी से भीगकर, उसके जिस्म से चिपक गया। इस ओर कोई ध्यान न देकर वह बच्चों की तरफ तौलिया फेंकते हुए बोली, ''पोंछो, मैं आयी।'' और दरवा$जा खोलने चली गयी। बोलती भी रही, ''मैं जानती थी, आप आते होंगे। आपको भूख लगी होगी। मैंने सब्ज़ी तो बना रखी है, सिर्फ रोटी बनाना बाकी है। ये बच्चे...''

उसने कुंडी खोल दी। बाहर से दबाव पडऩे पर दोनों किवाड़ भी खुल गये। लेकिन पति के बजाय एक दूसरे व्यक्ति को सामने खड़ा पाकर सरस्वती की बात अधूरी रह गयी। वह विस्मय से भरी हुई अचम्भित और घबड़ायी हुई एक तरफ हट गयी! कन्धों पर झूलता हुआ दुपट्टा सिर पर ठीक किया। धूप में पानी से तर-ब-तर बैठे हुए बच्चे भी हैरान होकर देखने लगे। यह कौन है?
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Old 11-11-2012, 07:42 AM   #4
omkumar
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Default Re: एक शहरी पाकिस्तान का

धारियोंवाली नीली कमीज़ और स$फेद सलवार पहने ऊँचा सुडौल जिस्म, उलझे हुए घुँघराले बाल। छोटी-छोटी तुर्शी हुई मुर्झाई-मुर्झाई-सी मूँछें, जिन पर धूल के कण आ टिके थे। उसके सूखे हुए होंठ सरस्वती को देखकर कभी मुस्कराते, कभी सिकुड़ जाते। उसके एक हाथ में एक बैग था और दूसरे में तह किया हुआ मिलेट्री का पुराना कम्बल।

''नहीं पहचाना मुझे...'' नवागन्तुक ने भारी और गम्भीर आवाज़ में पूछा और एक बार फिर मुस्कराने की कोशिश की।

सरस्वती ने उसे खूब ध्यान से देखा। फिर नीचे ज़मीन पर देखने लगी। उसके माथे पर पसीने के कई ह$जार कण जैसे एक साथ उभर आये!

नवागन्तुक ने उसे उलझन में पड़ा देखकर कहा, ''मैं बलदेव हूँ, याद नहीं?''
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Old 11-11-2012, 07:42 AM   #5
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सरस्वती ने उसे फिर गहरी नज़र से देखकर सिर झुका लिया और कोई जवाब दिये बिना बच्चों की तरफ चल दी। उसी तरह विस्मित, उसी तरह परेशान जैसे उसे सब कुछ याद आया था। एक-एक क्षण याद था। उसकी कैफ़ियत बताती थी कि उसे कोई बात भूली न थी। वह बलदेव को अच्छी तरह पहचान गयी थी।

बच्चे माँ के पास खिसक आये। सरस्वती उसी बेसुधी और घबराहट की स्थिति में उनका गीला बदन पोंछने लगी। बलदेव आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ अन्दर आ गया और चारपाई के पास खड़ा हो गया, जहाँ सरस्वती बैठी थी। वह सरस्वती और उसके बच्चों को घूरने लगा। उसके चेहरे पर कई रंग थे, कई रेखाएँ थीं, कई भाव और कई भंगिमाएँ थीं, जैसे उसके अन्दर कोई तूफान उठ रहा हो! अचानक जैसे सरस्वती अपनी बेसुधी से चौंकी। उसने अभी तक बलदेव को कहीं बिठाया नहीं था। उसने अपनी चारपाई के सामने एक और चारपाई बिछा दी।

बलदेव ने बैग और कम्बल चारपाई पर रखा और बैठते हुए पूछा, ''ये तुम्हारे बच्चे हैं?''
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Old 11-11-2012, 07:42 AM   #6
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सरस्वती ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह पहले जैसी ही खामोशी से हाथ में थामे तौलिया का एक धागा खींचे जा रही थी। वह धागा टूट गया तो वह दूसरा धागा खींचने लगी, लेकिन बलदेव के सवाल का कोई जवाब उसने नहीं दिया। बलदेव ने बच्चों के सिर पर हाथ फेरा। उसकी पलकों पर आँसू उभर आये, वह तरह स्वर में बोला-

''मेरा यही खयाल था कि तुमने दूसरी शादी कर ली होगी। करनी ही चाहिए थी। लेकिन जब मुझे मालूम हुआ कि तुम जिन्दा हो तो तुमसे मिलने फौरन चल पड़ा। सफ्फो ने मुझे बहुत रोका। बहुत रोयी। जानती हो न अपने मोहम्मद शरीफ़ मिस्त्री की बेटी सफ्फो को? जब तुमने उसे अन्तिम बार देखा था, बारह-तेरह साल की थी। अब तो बहुत बड़ी हो गयी है। लेकिन पागल है बिलकुल, सचमुच!'' यह कहते-कहते बलदेव मुस्करा भी दिया।
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Old 11-11-2012, 07:43 AM   #7
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बलदेव की आँखें अब सिर्फ सरस्वती पर जमी थीं। शेर-ओ-शराब की कैफियत में डूबी हुई। उसकी सुन्दर आँखें और भरे-भरे गुलाबी होंठ! उसका जवान भरा-भरा जिस्म, उसकी प्रीत। उसकी सारी कायनात कभी उसकी थी, सिर्फ उसकी। वही इसका मालिक था। वह उसकी तरफ बड़े प्यार से देखने लगा। दिल के अन्दर उठे तू$फान को दबाकर, आँखों में केवल प्रेम का अमृत लेकर उसकी तरफ देखता रहा। हालाँकि खंडित कामना की आयी मायूसी की धूल-गर्द से उसकी आँखें बची हुई नहीं थीं...सरस्वती का मुखड़ा भी कभी लाज के आवेग में एकदम लाल हो उठता, कभी राख की तरह ठंडा होकर एकदम मुर्झा जाता। उसके रूखे, भूरे बालों की एक लम्बी लट उसके कान से उतरकर चेहरे पर आ गयी। बालों की लम्बी लट उसकी पतली नाक की नोक छूने लगी। उसकी आँखों से बहते हुए आँसू नाक की कगार पर पहुँचकर वहाँ से बूँद-बूँद उसके आँचल पर गिरने और जज़्ब होने लगे।

बलदेव ने पाँव में पहनी हुई पेशावरी चप्पल की नोक से ज़मीन पर कई लकीरें खींची। कई त्रिकोण और वृत्त बनाये। फिर उन सबको चप्पल से मिटाते हुए बोला-

''मैं सीधा पाकिस्तान से चला आ रहा हूँ।''
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Old 11-11-2012, 07:43 AM   #8
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यह सुनकर सरस्वती चौंक पड़ी। उसकी हैरानी और बढ़ गयी। उसे यों हैरान देखकर बलदेव के अधरों पर मुस्कान उतर आयी। वह बोला, ''हाँ-हाँ पाकिस्तान से, परन्तु अब यहीं रहूँगा। मुझे यहीं रहना चाहिए, क्यों?''

अचानक वहाँ एक अधेड़ औरत आ गयी। बाहर से हँसती आ रही थी। बलदेव को देखते ही उसका मुँह खुला का खुला रह गया। उसकी आँखें कई बार सिकुड़ी और फैलीं। जैसे उसे बलदेव के सचमुच बलदेव होने का विश्वास नहीं हो रहा था। फिर वह लगभग चीखकर बोली-

''वे तू बलदेव है क्या !''

बलदेव ने उठकर उसके चरण छुए, ''हाँ जी, मैं बलदेव हूँ, आपने पहचान लिया न?''

''अरे कैसे नहीं पहचानती। लेकिन तू जिन्दा कैसे है ? हम तो समझते थे...''

यह कहते-कहते उसने सरस्वती की ओर देखा और उसकी कमर पर जोर से दो धाप मारकर बोली, ''...तू यहाँ बैठी क्या कर रही है, लाज नहीं आती तुझे? चल अन्दर!''
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Old 11-11-2012, 07:43 AM   #9
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सरस्वती ने जल्दी से सिर पर आँचल ठीक किया और माँ के शब्दों से आहत होकर जल्दी-जल्दी बच्चों को घसीटती कमरे के अन्दर चली गयी। शर्म से उसका चेहरा लाल हो गया था।

बलदेव की सास बलदेव के सामने चारपाई पर बैठकर बोली, ''तू जीवित है तो भगवान का लाख-लाख शुकर है, लेकिन अब होगा गया? हम तो समझे हुए थे...हाय, अब मैं क्या कहूँ, कुछ कहते हुए जी डूबता है अब..अब मैं क्या करूँ?''

वह उठकर कमरे की ओर चल दी, ''बेटा सरस्वती, अब क्या होगा? मेरी तो बुद्धि जवाब दे चली है।''

सरस्वती की प्रतिक्रिया सुने बिना वह तुरन्त उलटे पाँव बाहर आ गयी। वह घर से बाहर जाना चाहती थी, किसी को बुलाना चाहती थी। बलदेव ने उसे रोक लिया। चारपाई पर बैठाकर बोला-

''यहाँ बैठ जाइए माताजी ! आप घबरा क्यों रही हैं? मेरे आ जाने पर आपको खुशी नहीं हुई न?''
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Old 11-11-2012, 07:43 AM   #10
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सरस्वती की माँ आँखों पर दुपट्टे का पल्लू रखकर रोने लगी, ''मेरी बेटी की जिन्दगी को किसकी हाय लग गयी, सारी इज्जत खाक में मिल गयी। जीते जी दो-दो घरवाले आ मौजूद हुए! हाय, तू मर क्यों नहीं जाती बेटी! पाकिस्तान से इज़्ज़त बचाकर यहाँ आ गयी-पर यहाँ सिवा मर जाने के कोई और रास्ता नहीं मिलेगा तुझे!''

यह कहकर उसने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। बलदेव दोनों हाथों से सिर थामकर बैठ गया। सरस्वती की माँ तो उसकी कोई बात सुनती ही नहीं थी! अवसर पाकर खँखारकर गला साफ़ करके उसने कहा, ''मैं भी यही समझे हुए था कि आप सब मार दिये गये हैं। भोला के मकान में मैंने सरस्वती के चाचा की लाश अपनी आँखों से देखी थी। ठाकुर की लाश दरवाजे पर पड़ी देखी थी। नौनीत और लाजवन्ती भी मेरे सामने ही छज्जे से नीचे फेंकी गयी थीं। आप सबके बारे में मुझे यही बताया गया था कि कोई नहीं बचा। मैंने भी विश्वास कर लिया।''

''फिर...फिर तू चला कहाँ गया था ? हमें तलाश करने की कोई कोशिश क्यों नहीं की?'' वह बिफरकर बोली।
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