01-12-2012, 10:07 PM | #21 |
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Re: Calcutta : By Vir Sanghvi
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
01-12-2012, 10:08 PM | #22 |
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Re: Calcutta : By Vir Sanghvi
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01-12-2012, 10:09 PM | #23 |
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Re: Calcutta : By Vir Sanghvi
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01-12-2012, 10:10 PM | #24 |
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Re: Calcutta : By Vir Sanghvi
पुराने कलकत्ता के दृश्यों ने मन मोह लिए, सही में पहले जीवन कितना शांत और निर्मल होता था, आज देखिये सब कुछ कितना जटिल है, सब लोग भागे जा रहे हैं, कही चैन नहीं है।
दुर्लभ चित्रावली के लिए सूत्रधार को धन्यवाद।
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
01-12-2012, 10:11 PM | #25 |
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Re: Calcutta : By Vir Sanghvi
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01-12-2012, 10:12 PM | #26 |
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Re: Calcutta : By Vir Sanghvi
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01-12-2012, 10:13 PM | #27 |
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01-12-2012, 10:14 PM | #28 |
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01-12-2012, 10:15 PM | #29 |
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01-12-2012, 10:16 PM | #30 |
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