09-03-2013, 02:04 PM | #21 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
पुर्सेद यकीं मंजिले आन मेहर कुशल, गोफ्तम कि दिले मन अस्त ऊरा मंजिल गोफ्ता कि दिलत कुजास्त गोफ्तम बर ऊ पुर्सीद कि ऊ कुजास्त गोफ्तम दर दिल. (भावार्थ: किसी ने प्रश्न किया कि प्रियतम अथवा ईश्वर कहाँ निवास करता है? कवि कहता है कि मेरे दिल में रहता है. फिर प्रश्न पूछा गया कि तुम्हारा दिल कहाँ रहता है? कवि कहता है कि उस ईश्वर के पास. फिर प्रश्न हुआ कि वह वास्तव में कहाँ रहता है? कवि ने बताया कि दिल के अन्दर). सूफियों के अनुसार मानव ह्रदय में ही ईश्वर का निवास है अतः किसी का ह्रदय नहीं दुखाना चाहिए. किसी के प्रति बुरा व्यवहार करके उसका दिल दुखाना ईश्वर के प्रति किये गए अपराध के ही समान है. सूफ़ी संत नज़ीरी के शब्दों में इसे निम्न प्रकार समझाया गया है: ज़ खुद हरगिज़ नै आराज़म दिली रा, कि मी तरसम दरे ऊ जाए तू बाशद. अर्थात मैं किसी के ह्रदय को कष्ट नहीं देता क्योंकि मैं जानता हूं वहां तू रहता है. इस कारण सूफ़ी परोपकार और दीं दुखियों की सेवा को हज रूपी तीर्थ यात्रा से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं. ‘हाफ़िज़’ का कहना है कि ‘तू (सूफ़ी) जो चाहे कर, पर, दूसरों को कष्ट न दे क्योंकि हमारे आचार-शास्त्र में इससे बढ़ कर और कोई पाप नहीं है’. उपरोक्त सूफ़ी विचार धारा में महर्षि वेदव्यास का कथन जैसे गुंजायमान होता है: अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचन-द्वयं परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्. (अट्ठारह पुराणों में व्यास जी ने दो ही बातें कही हैं – परोपकार पुण्य है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना ही पाप है). Last edited by rajnish manga; 11-03-2013 at 01:03 PM. |
09-03-2013, 02:06 PM | #22 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
सूफ़ी मत की उपरोक्त व्याख्या से यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि सूफ़ी इन इस्लामी सिद्धांतों के विरुद्ध थे. दरअसल, साधना की आरंभिक अवस्था में प्रायः हर सूफ़ी द्वारा इस्लाम के पाँचों नियमों का पालन किया गया है. आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही वे इन आचार-नियमों से आगे पहुँच सके. सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में सूफ़ी मत और परम्परागत विश्वास एक समान हैं. दोनों ही इस बात में यकीन रखते हैं कि ईश्वर ने सृष्टि की उत्पत्ति इसलिए की क्योंकि वह उजागर होना चाहता था. सूफ़ी मानते हैं कि ईश्वर सौन्दर्य का चरम रूप है. सौन्दर्य का स्वभाव है प्रकट होना एवं दूसरों के द्वारा देखा जाना. वास्तव में ईश्वर अपने सुन्दर स्वरुप को सृष्टि के द्वारा प्रकट करता है ताकि वह उसे निहार कर अपने ही सौन्दर्य का आनंद प्राप्त कर सके. हज़रत उमर खैयाम के शब्दों में :
बुत गोफ्त ब बुत परस्त काये आबदमा दानी ज़ा चे रूए गश्ता ऐ साज़द मा. बर मा बा जमाले खुद ताज्जलीगह दाश्त आन कास कि तस्त नाज़िर व शाहदा मा. (भावार्थ: मूर्ति ने मूर्तिपूजक से पूछा, “क्यों मेरे सामने सर झुकाते हो? क्या तुम इसका कारण जानते हो? इसका कारण यह है कि वह ईश्वर जो तुम्हारी आँखों से मुझे देख रहा है, उसने ही मेरे ज़रिये अपनी सुन्दरता को प्रकट किया है.”) |
26-03-2013, 12:11 AM | #23 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
दीवान ए शम्स में मौलाना रूमी कहते हैं:
चे तदबीर ए मुसलमानन, कि मन खुद रानामीन दानम; ..... ना अज़ हिंदम ना अज़ चीनम, ना अज़ बलगार व सकसीयम. ..... यकी जूयम यकी दानम, यकी बीनम यकी ख्वानम. भावार्थ: ‘मैं क्या करूं ऐ मुसलमानों, मैं खुद अपने आप को नहीं पहचानता. न मैं ईसाई हूँ न यहूदी, न अग्निपूजक हूँ न मुसलमान, न मैं पूरब का हूँ न पच्छिम का, न धरती का न सागर का. न मैं प्रकृति द्वारा गढ़ा गया हूँ, और न ही मंडराने वाले आसमान से आया हूँ (आसमान से उतरा हुआ फ़रिश्ता नहीं हूँ). न मैं हिन्द का हूँ न चीन का,न मैं बुल्गारिया का हूँ , न सर्बिया का. न मैं ईराक़ का वासी हूँ, न खुरासान की मिट्टी का बना हूँ. मेरा निवास (मकान) शून्य (बेमकान) में है और मेरी कोई पहचान (निशान) नहीं है. न तन है न प्राण, अब मेरा प्राण मेरे प्रियतम के पास है. द्वैत भाव को मैंने स्वयं तिरोहित कर दिया है. अब मैं दोनों दुनियाओं (दृश्य व अदृश्य) को एक रूप देखता हूँ. अब मुझे बस एक (इष्ट) की ही कामना है; एक ही का ज्ञान है; एक ही को मैं देखता हूँ और एक ही को मैं पुकारता हूँ’. |
28-03-2013, 09:29 PM | #24 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
देखने में आता है कि सौन्दर्य के साथ साथ संसार में कुरूपता भी विद्यमान है. आनंद के साथ साथ राग-द्वेष और क्रूरता आदि दुर्गुण भी हैं. सूफ़ी विचार धरा के अनुसार ईश्वर का यह विधान सौन्दर्य एवम् आनंद के महत्त्व को स्पष्ट करने के लिए बनाया गया है. यदि दुःख के क्षण न हो तो सुख का ज्ञान भी नहीं हो सकता.
सूफ़ी साधना के प्रमुख आधार सूफ़ी मतानुसार ईश्वरीय साधना की निम्नलिखित सात सीढियां हैं जिन आर चढ़ कर साधक सर्वोच्च स्थिति अर्थात ईश्वर के साथ अद्वैत की स्थिति में पहुँचता है: 1. तलब (परमात्मा से मिलन की ललक) 2. इश्क़ (परमात्मा से प्रेम) 3.मारिफ़त (ईश्वर- ज्ञान) 4. इस्तिगना (स्वतंत्र-चिंतन) 5. तौहीद (एकेश्वरवाद) 6. हैरत (ईश्वरीय सौन्दर्य से अभिभूत हो जाना) 7. फुकरो-फ़ना (पूर्ण अपरिग्रह व्रत द्वारा ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाना) |
28-03-2013, 09:33 PM | #25 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
सूफ़ी साधक ईश्वर के अलौकिक सौन्दर्य की उपासना कई स्तरों पर करता है. आरम्भ में वह ईश्वर के शाब्दिक वर्णन से प्रसन्न होता है. फिर वह उसके सौन्दर्य का ध्यान अपने चित्त में धरता है. इन साधना क्रमों को ‘जली’ और ‘ज़िक्र’ (शाब्दिक और मौन जाप) कहते हैं. यह साधना उसे यानि सूफ़ी को ‘हाल’ या तन्मयता की स्थिति में पहुंचा देती है. उसे अपने तन बदन की सुध बुध नहीं रहती है. हाल की स्थिति समाधि के समान है. इसके आगे चलने पर साधक ईश्वर अपने अहम् भाव को समाप्त कर ईश्वर में ही तदरूप हो जाता है. अहम् की समाप्ति को अहम् की समाप्ति को सूफ़ी जन ‘फ़ना’ कहते हैं और तदरूप होने की स्थति को ‘वक़ा’ की संज्ञा देते हैं. अंत में उसे ‘वस्ल’ या ईश-मिलन का सौभाग्य प्राप्त होता है. इस अद्वैत की स्थिति के फलस्वरूप वह वह ईश्वर की चारों विभूतियों अर्थात् 1. हक़ (सत्य), 2. जमाल (सौन्दर्य), 3. जलाल (गौरव) और 4. कमाल (पूर्णता) को प्राप्त होता है. ऐसी पूर्णता की स्थिति में सूफ़ी के मुंह से ‘अन-अल-हक़’ (संस्कृत में कहें तो ‘अहम् ब्रह्मास्मि’) का महावाक्य निकल पड़ता है.
हाल की स्थति से ही एक सूफ़ी ईश्वरीय सौन्दर्य का आनंद उठाना शुरू कर देता है. अपने चारों ओर वह उसी प्रभु की छवि देखता है और मगन हो जाता है. प्रभात में सूरज की किरणें, मेघ-राशियाँ, हिमाच्छादित पर्वतमालाएं, कल कल बहती जलधाराएं, रात में तारों से भरा नभ-थाल, चन्द्रमा, सुन्दर, सुगन्धित, रंग-बिरंगे फूल आदि में वह अपने आराध्य की छवि ही देखता है. |
28-03-2013, 09:34 PM | #26 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
सामान्यतः, इस्लाम इंजील में वर्णित सृष्टि-उत्पत्ति के सिद्धांत को ही मानते हैं जिसके अनुसार ईश्वर ने मिट्टी से आदम का निर्माण कर सृष्टि-क्रम का सूत्रपात किया. इस बारे में मौलाना जलालुद्दीन रूमी सदृश सूफ़ी चिंतकों की धारणा सामान्य इस्लामी विश्वास से थोड़ी अलग है. सूफ़ी मत के अनुसार सृष्टि-क्रम एक विकासवादी क्रम है और मनुष्य इस क्रम की एक कड़ी है.निर्जीव पदार्थों से जीव उत्पन्न होता है. वनस्पति उसका प्रथम रूप है.इसके बाद जीव पशु का रूप धारण करता है. फिर उसे मनुष्य का स्वरुप मिलता है. ईश्वर की कृपा से वह मनुष्यत्व से भी उच्चतर स्थान दे सकती है. यह चरम स्थिति है ब्रह्मलीनता की बशर्ते वह इसके लिए निरंतर प्रयास करे. वे हज़रत मुहम्मद की मिसाल देते हैं. ईश्वर भक्ति के द्वारा वह शक्ति प्राप्त कर ली थी जो देवदूतों के लिय भी अलभ्य थी. पैग़म्बर मुहम्मद की साधना और उनके आचरण का अनुकरण एवं अनुगमन सूफ़ियों का सर्वमान्य सिद्धांत है यद्यपि उनके अनुगमन की पद्धति अन्य अनुयायियों से अलग है.
सूफ़ी मानव प्रेम को ईश्वरीय प्रेम की साधना का प्रथम चरण मानते हैं. रूमी का रुझान सूफ़ी साधना पद्धति की ओर तभी मुड़ा जब वे अपने परम स्नेही शम्स तबरेज़ी के प्रेम में डूबे. |
28-03-2013, 09:38 PM | #27 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
शेख़ सादी की ‘गुलिस्ताँ’ से एक प्रसंग
(आप तुर्किस्तान की ओर मुंह कर के काबे नहीं पहुँच सकते) तर्सम न रसी बकाबा ऐ एराबी. कीं रह के तू मीरवी व तुर्किस्तानस्त [भावार्थ: ऐ अरब! तू काबा कभी नहीं पहुंचेगा, क्योंकि तूने जो रास्ता पकड़ा है वह काबे का नहीं, तुर्किस्तान का है. उलटे रास्ते से जाने पर मंजिल नहीं मिलती] एक बादशाह ने किसी फ़क़ीर को दावत पर बुलाया. दावत पर बैठने पर उसने रोज के मुकाबले बहुत कम खाया. दावत के बाद जब वह दुआ के लिए खड़ा हुआ तो उसने प्रतिदिन के मुकाबले बहुत देर दुआ मांगता रहा. उसने सोचा कि ऐसा करने से राजा और अन्य लोगों पर अच्छा असर पडेगा और वे उसकी खुदा के प्रति अकीदत की प्रशंसा करेंगे. घर पहुच कर उसने कहा कि थाली परोसो मैं खाना खाऊंगा.. उसका बेटा कहने लगा कि अभी तो आप राजा के यहाँ दावत से आ रहे हैं, क्या वहां आपने कुछ नहीं खाया? उस फ़क़ीर ने बताया कि वहां मैंने किसी वजह से खाना नहीं खाया. बेटे ने पिता से कहा कि आप बारम्बार खुदा के हुज़ूर में इबादत करें क्योंकि आपने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे आपका इबादत का उद्देश्य पूरा हो सके. ऐ बन्दे! तू अपने गुणों को तो हथेली पर रखता है और खोट व दोषों को छिपाता फिरता है. तू इस खोट से क्या खरीदने की उम्मीद रखता है. [उक्त कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जो लोग प्रतिष्ठा व स्वयं की पूजा करवाने के लिए साधू महात्माओं की तरह व्यवहार करते हैं लेकिन वास्तव में इससे उलट व्यवहार करते हैं, वह ढोंग करते हैं. ऐसा करने से वह खुदा की राह से भटक जाते हैं और अन्तत: अपना बुरा ही करते हैं] |
28-03-2013, 09:41 PM | #28 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
शेख़ सादी की ‘गुलिस्ताँ’ से एक प्रसंग
(बुरी आदतों से बचो) न गोयन्द अज़ सरे बाज़ीचा हर्फे. कजां पंदे नगीरद साहबे होश. व गर सद बाबे हिकमत पेशे नादां, बख्वानंद आयदश बाज़ीचह दरगोश. [भावार्थ: बुद्धिमान मनुष्य खेल से भी शिक्षा प्राप्त कर लेता है. मूर्ख व्यक्ति तर्कशास्त्र के सौ सौ अध्याय पढ़ने के बाद भी खेल और मूर्खता ही सीखता है] किसी ने लुकमान हकीम से पूछा, “आपने अदब और तमीज किस से सीखी?” उन्होंने कहा, “बेअदबों से. मैंने उन लोगों की बुरी आदतों से परहेज़ किया. अक्लमंद व्यक्ति लोगों के खेल से भी शिक्षा ग्रहण कर लेता है. किन्तु, मूर्ख व्यक्ति शास्त्रों के सौ अध्याय पढ़ कर भी बुराई ही सीखता है. [उक्त प्रसंग से हमें यही शिक्षा मिलती है कि अक्लमंद व्यक्ति मूर्खों से भी कुछ न कुछ सीख लेता है. लेकिन मूर्ख व्यक्ति अच्छी संगत में रह कर भी कुछ नहीं सीख पाता] |
22-04-2013, 10:22 PM | #29 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
शेख़ सादी की बोध कथा
शहद का व्यापारी किसी शहर में एक व्यापारी था जो शहद बेच कर अपने परिवार का पालन पोषण करता था. वह सुबह होते ही शहद का मटका ले कर निकल जाता था और अपनी मधुर वाणी से अपने शहद के गुणों का बखान करते हुए शहर भर में घूमता था. स्त्रियाँ और पुरुष उसकी मीठी आवाज सुनते ही घरों से बाहर आ जाते और अपनी जरूरत के अनुसार शहद की खरीद करते. उसी शहर में एक अन्य व्यक्ति था जो उसकी सफलता देख कर जलता था और उसके प्रति दुर्भावना रखता था. उसने विचार किया कि वह भी शहद बेचने का काम करेगा. सो अगले दिन उसने भी घड़े में शहद भरा और शहर में उसे बेचने लिए चल पड़ा. वह अपनी कर्कश आवाज में घरों के बाहर शहद बेचने के लिए लोगों को बुलाता लेकिन उसकी भोंडी आवाज को सुन कर लोग अपने घरों के खुले हुए दरवाजे भी बंद कर लेते. वह सुबह से शाम तक शहद बेचने के प्रयास में शह्र भर में घूमता रहा लेकिन किसी ने भी उससे शहद नहीं खरीदा. वह जितना शहद ले कर बेचने निकला था, सारा शहद बिना बेचे वापिस ले आया. वापिस आया तो उसकी घरवाली ने भी यह दशा देख कर उसकी हंसी उड़ाई. उसने पति से कहा कि तुम्हारी कर्कश आवाज से तो मीठा शहद भी कड़वा हो जाता है. उसे भी समझ में आ गया कि बेचने के लिए सिर्फ अच्छे शहद की ही जरूरत नहीं पड़ती बल्कि ईमानदारी, व्यवहार कुशलता व बेचने का हुनर भी आना चाहिए और ग्राहकों को लुभाना भी आना चाहिए. |
15-10-2013, 09:05 PM | #30 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
मौलाना जलालुद्दीन रूमी
की मसनवी से चुनी हुई कथायें अंधा, बहरा और नंगा किसी बड़े शहर में तीन आदमी ऐसे थे, जो अनुभवहीन होने पर भी अनुभवी थे। एक तो उसमें दूर की चीज देख सकता था, पर आंखों से अंधा था। हजरत सुलेमान के दर्शन करने में तो इसकी आंखें असमर्थ थीं, परन्तु चींटी के पांव देख लेता था। दूसरा बहुत तेज़ सुननेवाला, परन्तु बिल्कुल बहरा था। तीसरा ऐसा नंगा, जैसे चलता-फिरता मुर्दा। लेकिन इसके कपड़ों के पल्ले बहुत लम्बे-लम्बे थे। अन्धे ने कहा, "देखो, एक दल आ रहा है। मैं देख रहा हूं कि वह किस जाति के लोगों का है और इसमें कितने आदमी हैं।" बहरे ने कहा, "मैंने भी इनकी बातों की आवाज सुनी।" नंगे ने कहा, "भाई, मुझे यह डर लग रहा है कि कहीं ये मेरे लम्बे-लम्बे कपड़े न कतर लें।" अन्धे ने कहा, "देखो, वे लोग पास आ गये हैं। अरे! जल्दी उठो। मार-पीट या पकड़-धकड़ से पहले ही निकल भागें।" बहरे ने कहा, हां, इनके पैरों की आवाज निकट होती जाती है।" तीसरा बोला, "दोस्तो होशियार हो जाओ और भागो। कहीं ऐसा न हो वे मेरा पल्ला कतर लें। मैं तो बिल्कुल खतरे में हूं!" मललब यह कि तीनों शहर से भागकर बाहर निकले और दौड़कर एक गांव में पहुंचे। इस गांव में उन्हें एक मोटा-ताज़ा मुर्गा मिला। लेकिन वह बिल्कुल हड्डियों की माला बना हुआ था। जरा-सा भी मांस उसमें नहीं था। अन्धे ने उसे देखा, बहरे ने उसकी आवाज सुनी और नंगे ने पकड़कर उसे पल्ले में ले लिया। वह मुर्गा मरकर सूख गया था और कौव ने उसमें चोंच मारी थी। इन तीनों ने एक देगची मंगवायी, जिसमें न मुंह था, न पेंदा। उसे चूल्हे पर चढ़ा दिया। इन तीनों ने वह मोटा ताजा मुर्गा देगची में डाला और पकाना शुरु किया और इतनी आंच दी कि सारी हड्डियां गलकर हलवा हो गयीं। फिर जिस तरह शेर अपना शिकार खाता है उसी तरह उन तीनों ने अपना मुर्गा खाया। तीनों ने हाथी की तरह तृप्त होकर खाया और फिर तीनों उस मुर्गें को खाकर बड़े डील-डौलवाले हाथी की तरह मोटे हो गये। इनका मुटापा इतना बढ़ा कि संसार में न समाते थे, परन्तु इस मोटेपन के बावजूद दरवाज़े के सूराख में से निकल जाते थे। |
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