08-12-2010, 10:59 AM | #21 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
उल्टा सीधा किया आपने मुझको अच्छा उल्लू फाँसा कह सोने चाँदी के बर्तन दे डाला सब पीतल काँसा सिक्के जितने दिए दान में एक-२ सब निकले खोटे रजत थाल फौलादी निकली अलमुनियम के निकले लोटे घडी पुराने आदम युग की दिनभर जो चाभी ही खाती जिसे देखकर बिना बताये लोग समझ जाते खैराती सेकेण्ड हैण्ड टायर के जूते वो भी शत प्रतिशत जापानी तलवे जिनमे अदंर रहते बहार रहती उंगली कानी सडी साईकल झुनझुन करती घंटी बजाये नही बजती दो पुरषों का भार वह महासती सी सहन न करती सिले सिलाये कपड़े ऐसे वो भी लगते महा बेढंगे कुरते बिल्कुल चोली जैसे पतलून ढीली हो लहगें सूखे हुए आम के जैसी ६० साल की गाय पुरानी अजी दूध की बात छोडिये थन से नही निकलता पानी खिड़कीदार मशहरी जिसको नाईट क्लब समझे है मच्छर तकिए को तकिया बोलूँ या चंदन घिसने का पत्थर अधगंजी हो गई खोपडी जिसके ऊपर घिसते-२ ये पत्नी के पूज्य पिताजी कैसे तुमको लिखूं नमस्ते!!
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12-12-2010, 08:55 AM | #22 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
कभी खुशी की
आशा , कभी गम की निराशा , कभी हकीकत की धूप , कभी सपनोँ की छाया , कुछ खोकर , कुछ पाने की आशा , शायद यही तो है जिँदगी की परिभाषा । |
13-12-2010, 11:29 AM | #23 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
दीवारोँ पर चिपके नारे
पेट नहीँ भरते प्यारे तुझसे तेरा देश प्रगति का पहला अक्षर माँग रहा है युग हस्ताक्षर माँग रहा है । रधिया के तन पर चिथड़े हैँ जीवन के गोपन उधड़े हैँ फुटपाथोँ पर सोया रामू छोटा सा घर माँग रहा है युग हस्ताक्षर माँग रहा है । ये जीवन की नयी दिशाएं बनी वेद की दीप्त ऋचाएं एक नया युगबोध व्यक्ति के जीवन का स्तर माँग रहा है युग हस्ताक्षर माँग रहा है । |
13-12-2010, 12:15 PM | #24 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
"तुझसे तेरा देश प्रगति का
पहला अक्षर माँग रहा है" बहुत अच्छे अनिल जी
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
17-01-2011, 07:14 PM | #25 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
मौसम की ठंडी आहेँ जो जलती हो तोँ जलने दो।
पर मेरी सुधियोँ के हिम को रफ्ता-रफ्ता गलने दो। मेरे भीतर एक नदी है जो चलने को आकुल है, खोई हुई किसी मंजिल का घर पाने को व्याकुल है, इसके पथ के द्वीप साथ यदि चलते होँ तो चलने दो। पर मेरी सुधियोँ के हिम को रफ्ता-रफ्ता गलने दो। हिम-खण्डोँ की धीरे-धीरे रिसने की लाचारी है, पर इनके मन के भीतर की गति कब हिम्मत हारी है, जो न अगति से हारे उसको थोड़ा और सम्हलने दो मौसम की ठंडी आहेँ जो जलती होँ तो जलने दो।
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17-01-2011, 07:31 PM | #26 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
बहुत सुन्दर रचना , अभिभूत हो गया हूँ ।
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दूसरोँ को ख़ुशी देकर अपने लिये ख़ुशी खरीद लो । |
26-01-2011, 10:43 AM | #28 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
नित्य नए सपने बुनता हूँ
किन्तु साँझ को सिर झुनता हूँ बीते सपनोँ जैसा सुन्दर सपना एक नही बुन पाया। सन्ध्याओँ ने शब्द उकेरे रुच-रुच गीत रचे बहुतेरे किन्तु सुबह के सपनोँ वाला कोई गीत नही सुन पाया। बीते सपनो जैसा सुन्दर सपना एक नही बुन पाया। भाव लोक मे जितना डूबा भीतर से उतना ही ऊबा। भूले हुए मधुर भावोँ सा कोई भाव नही गुन पाया। बीते सपनोँ जैसा सुन्दर सपना एक नहीँ बुन पाया। जाने क्या सपना बोया था , जाने किस धुन मे खोया था कहने भर ही को धुनिया हूँ पर वह धुन न कभी धुन पाया । बीते सपनोँ जैसा, सुन्दर सपना एक नही बुन पाया।
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06-02-2011, 10:57 AM | #29 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
कटे पंख वाले पंछी सी
तड़प उठी फिर याद पुरानी घुमड़-घुमड़ छाए अन्तस मेँ आकुलता के घन कजरारे सुधि के क्षितिज छोर पर दमके क्षण जीवी बेसुध उजियारे फिर ज्योँ का त्योँ घुप अँधियारा फिर अँधियारे कि मनमानी कटे पंख वाले पंछी सी तड़प उठी फिर याद पुरानी चातक,मोर, पपीहे मचले मचल मचल कर शांत हो गए , कोलाहल वाले बीते पल जाने कब एकान्त हो गए, जाने कब से बने हुए हैँ एकाकी पल अवढ़र दानी। कटे पंख वाले पंछी सी तड़प उठी फिर याद पुरानी यह कया हुआ पीर को उमड़ी और नयन का नीर हो गई, सहमी,ठिठकी और अचानक जाने क्योँ गंभीर हो गई, पीर कसक की बनी सहेली और कसक हो गई सयानी। कटे पंख वाले पंछी सी तड़प उठी फिर याद पुरानी
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13-02-2011, 03:42 PM | #30 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
झर कर भी जो पीले न पड़े
कुछ तो सुधि के पातोँ मेँ है योँ तो मन माने मौसम के कितने ही तेवर कड़े रहे फिर भी हठयोगी जैसे ये मौसम के आगे अड़े रहे , बढ़ती हैँ बातोँ से बातेँ कुछ तो इनकी बातोँ मे है । कुछ तो सुधि के पातोँ मेँ है । हंसकर ये जब कब कहते है हंसने वाले दिन चले गए हंसते हंसते ही सुख के दिन दुख के हाथोँ से छले गए । गत आवर्तोँ को गति देते कुछ तो झंझावतोँ मेँ है । कुछ तो सुधि के पातोँ मेँ है संस्मृतियोँ मेँ इनके जगते सारे संयम खो जाते हैँ , चिति के पंखोँ पर उड़ते पल पल मे बेसुध हो जाते है , घातोँ , प्रतिघातोँ पर घातेँ कुछ तो मधुरिम घातोँ मे है कुछ तो सुधि के पातोँ मे है
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Last edited by Sikandar_Khan; 13-02-2011 at 03:54 PM. Reason: edit |
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