27-02-2011, 02:07 AM | #31 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
पुलकित पुलकित, परछा*ईं मेरी से चित्रित, रहने दो रज का मंजु मुकुर, इस बिन श्रृंगार-सदन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना । सपने औ' स्मित, जिसमें अंकित, सुख दुख के डोरों से निर्मित; अपनेपन की अवगुणठन बिन मेरा अपलक आनन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना । जिनका चुम्बन चौंकाता मन, बेसुधपन में भरता जीवन, भूलों के सूलों बिन नूतन, उर का कुसुमित उपवन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना । दृग-पुलिनों पर हिम से मृदुतर , करूणा की लहरों में बह कर, जो आ जाते मोती, उन बिन, नवनिधियोंमय जीवन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना । जिसका रोदन, जिसकी किलकन, मुखरित कर देते सूनापन, इन मिलन-विरह-शिशु*ओं के बिन विस्तृत जग का आँगन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना । महादेवी वर्मा
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..." click me
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18-03-2011, 11:10 PM | #32 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
बूढ़े अंबर से मांगो मत पानी मत टेरो भिक्षुक को कहकर दानी धरती की तपन न हुई अगर कम तो सावन का मौसम आ ही जाएगा। मिट्टी का तिल-तिलकर जलना ही तो उसका कंकड़ से कंचन होना है जलना है नहीं अगर जीवन में तो जीवन मरीज़ का एक बिछौना है अंगारों को मनमानी करने दो लपटों को हर शैतानी करने दो समझौता कर न लिया गर पतझर से आंगन फूलों से छा ही जाएगा। बूढ़े अंबर से... वे ही मौसम को गीत बनाते जो मिज़राब पहनते हैं विपदाओं की हर ख़ुशी उन्हीं को दिल देती है जो पी जाते हर नाख़ुशी हवाओं की चिंता क्या जो टूटा हर सपना है परवाह नहीं जो विश्व न अपना है तुम ज़रा बांसुरी में स्वर फूंको तो पपीहा दरवाज़े गा ही जाएगा। बूढ़े अंबर से... जो त्रतुओं की तक़दीर बदलते हैं वे कुछ-कुछ मिलते हैं वीरानों से दिल तो उनके होते हैं शबनम के सीने उनके बनते चट्टानों से हर सुख को हरजाई बन जाने दो, हर दुख को परछाई बन जाने दो, यदि ओढ़ लिया तुमने ख़ुद शीश कफ़न, क़ातिल का दिल घबरा ही जाएगा। बूढ़े अंबर से... दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर सपनों की चमकीली-सी चिलमन है, परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है, मन के कमरों के दरवाज़े खोलो कुछ धूप और कुछ आंधी में डोलो शरमाए पांव न यदि कुछ कांटों से बेशरम समय शरमा ही जाएगा। बूढ़े अंबर से...
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19-03-2011, 12:08 AM | #33 |
Diligent Member
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
अच्छा एक सवाल है सिकन्दर जी ! आप इतनी प्रविष्टियाँ टाईप करते हैं ऐसे में तो बहुत समय लगता होगा ! क्या कोई आपको टोकता नहीं है ?
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( वैचारिक मतभेद संभव है ) ''म्रत्युशैया पर आप यही कहेंगे की वास्तव में जीवन जीने के कोई एक नियम नहीं है'' |
19-03-2011, 12:23 AM | #34 | |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
Quote:
प्रिय मित्र विनायक जी कोई मुझे क्यों रोकेगा ? मै अपने काम निबटा कर ही फोरम पर समय देता हूँ .......
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23-03-2011, 11:29 PM | #35 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
फिर मन की मुंडेर पर
सुधि का कागा बोल गया | ठहरे हुवे पलों में फिर मधुरिम स्पंदन है उष्मित सांसों का सहचर बन प्रस्तुत चन्दन है, खुशबु-खुशबु चन्दन है रस भरी फुहारें हैं , मानों वर्षा में कोई मधुॠतु को घोल गया | फिर मन की मुंडेर पर सुधि का कागा बोल गया | चित्र उभरने लगे चकित हिरनी के खंजन के , गतिमय हुवे झकोरे मधुमय रस अनुरंजन के , शिखर -शिखर चेतना हुई अनुभूति चकित विस्मित कौतूहल के मन में जगा अचरज डोल गया | फिर मन की मुंडेर पर सुधि का कागा बोल गया |
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Last edited by Sikandar_Khan; 23-03-2011 at 11:35 PM. Reason: edit |
10-04-2011, 10:35 AM | #36 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
कम्पित कम्पित,
पुलकित पुलकित, परछा*ईं मेरी से चित्रित, रहने दो रज का मंजु मुकुर, इस बिन श्रृंगार-सदन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना । सपने औ' स्मित, जिसमें अंकित, सुख दुख के डोरों से निर्मित; अपनेपन की अवगुणठन बिन मेरा अपलक आनन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना । जिनका चुम्बन चौंकाता मन, बेसुधपन में भरता जीवन, भूलों के सूलों बिन नूतन, उर का कुसुमित उपवन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना । दृग-पुलिनों पर हिम से मृदुतर , करूणा की लहरों में बह कर, जो आ जाते मोती, उन बिन, नवनिधियोंमय जीवन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना । जिसका रोदन, जिसकी किलकन, मुखरित कर देते सूनापन, इन मिलन-विरह-शिशु*ओं के बिन विस्तृत जग का आँगन सूना ! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना ।
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19-04-2011, 11:09 PM | #37 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
तुम सुधि बन-बनकर बार-बार
क्यों कर जाती हो प्यार मुझे? फिर विस्मृति बन तन्मयता का दे जाती हो उपहार मुझे । मैं करके पीड़ा को विलीन पीड़ा में स्वयं विलीन हुआ अब असह बन गया देवि, तुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे । माना वह केवल सपना था, पर कितना सुन्दर सपना था जब मैं अपना था, और सुमुखि तुम अपनी थीं, जग अपना था । जिसको समझा था प्यार, वही अधिकार बना पागलपन का अब मिटा रहा प्रतिपल, तिल-तिल, मेरा निर्मित संसार मुझे ।
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19-04-2011, 11:18 PM | #38 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
एकाकीपन का एकांत
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत । थकी-थकी सी मेरी साँसें पवन घुटन से भरा अशान्त, ऐसा लगता अवरोधों से यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त । अंधकार में खोया-खोया एकाकीपन का एकांत मेरे आगे जो कुछ भी वह कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत । उतर रहा तम का अम्बार मेरे मन में व्यथा अपार । आदि-अन्त की सीमाओं में काल अवधि का यह विस्तार क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर? एक प्रशन मैं हूँ साकार । क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना? मेरे मन में व्यथा अपार औ समेटता निज में सब कुछ उतर रहा तम का अम्बार । सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास, आज शाम है बहुत उदास । जोकि आज था तोड़ रहा वह बुझी-बुझी सी अन्तिम साँस और अनिश्चित कल में ही है मेरी आस्था, मेरी आस । जीवन रेंग रहा है लेकर सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास, और डूबती हुई अमा में आज शाम है बहुत उदास ।
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08-05-2011, 01:07 PM | #39 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
कुछ नया करके दिखाने, दम जताने आ गये,
बिल्लियों को जोत चूहे हल चलाने आ गये । कोयलों की वाणियों के कद्रदाँ थे जो कभी, कुछ नया सुनने वो कौओं को बुलाने आ गये । इस चुनावी देश में मतदान कुछ ऐसा हुआ, भेड़िये भी देखिये बहुमत दिखाने आ गये । जालिमों की देह पर वह श्वेत जोड़ा फ़ब रहा, आम जनता को वो फ़िर नंगा नचाने आ गये । प्यार के इस गाँव का किसने पता उनको दिया, वो किधर से गाँव में दंगा मचाने आ गये । लाख करके पाप उनको अब जुनूँ सा छा गया, अब बिना ही वस्त्र वो गंगा नहाने आ गये ।
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
14-06-2011, 08:56 PM | #40 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
गीत मैं गाने लगा हूं, स्वप्न फिर बुनने लगा हूं। तमस से मैं जूझता था, कुछ न मन को सूझता था, हृदय के सूने गगन में, सूर्य सा जलने लगा हूं, गीत मैं गाने लगा हूं। आंसुओं के साथ जीते, वर्ष कितने आज बीते, भूल कर सारी व्यथाएं, स्वयं को छलने लगा हूं, गीत मैं गाने लगा हूं। भावनाओं ने उकेरे, चित्र सुधियों के घनेरे, कंटकों के बीच सुरभित- सुमन सा खिलने लगा हूं, गीत मैं गाने लगा हूं।
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