03-02-2013, 09:53 PM | #51 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
(ग़जलकार / शबाब) वो गली-गली मेरे शहर की सरे आम चीखों से भर गया. कहीं खंजरो सा उतर गया कहीं ज़लज़ले सा गुज़र गया. उन्हीं शहसवारों का ज़िक्र है जिन्हें यारों मंजिलें मिल गई, जिसे अपने पैरों पे नाज़ था वो रास्ते ही में मर गया. मेरी गूँज बन के ही लौट आ तू पहाड़ियों की चढ़ाई से, मुझे दर्द ले के अभी - अभी कहीं घाटियों में उतर गया. ये तो ज़र्फ़ ज़र्फ़ की बात है, ये नज़र-नज़र का सवाल है, कोई हादसे से संवर गया कोई हादसे से गुज़र गया. जहाँ नसले गुल की खबर सूनी मेरे शहरों में वो हवा चली, कोई पानियों-सा छलक गया कोई मोतियों सा बिखर गया. किसी घर में आग जहां लगी तो ये आरज़ू का धुआं-धुआं, कभी मेरी आंख में भर गया कभी तेरी आंख में भर गया. |
22-05-2013, 11:21 PM | #52 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
ग़ज़ल
इक सदा ठहरी हुयी (ग़ज़लकार: रमेश मेहता) वादियों में गूंजती है इक सदा ठहरी हुयी, रात है बरसों पुरानी औ’ सबा ठहरी हुयी. कौन जाने अब कहाँ ले जायेगी इसको हवा, गैस तो चारों तरफ है और फिजा ठहरी हुयी. वो कि मेरे पास रह कर भी जो मुझसे दूर है, रेशा-रेशा कट रही है इक कज़ा ठहरी हुयी. कौन है जो खौफ की चादर पसारे है खड़ा, कौन झेले खंजरों की ये अदा ठहरी हुयी. एक साया है कि जो माहौल पर भारी हुआ, इक दुआ है जो लबों पर बरमला ठहरी हुयी. ** |
22-05-2013, 11:22 PM | #53 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
ग़ज़ल
(ग़ज़लकार: राजेंदर शर्मा ‘राजन’) उखड़े हुए अशआर हैं कुछ बेतुके से काफिये, यह साजिशों का दौर है कोई यहाँ कैसे जिए. जिसने धरा को दी जहां आकाश सी ऊंचाइयां, ईनाम ही ईनाम थीं रुसवाइयां उसके लिए. क़ानून भी तो आज कल सब से बड़ा बहरूपिया, मेरे लिए कुछ और है कुछ और है तेरे लिए. मैंने सुना वो आज तक टूटा नहीं मजबूत है, कुछ और वाहन आप भी उसकी कमर से भेजिए. अपने शहर में फूस की कुछ झुग्गियां ही शेष हैं, जब भी जरूरत आ पड़े उनको जला कर सेंकिए. एक महिला कल गई थी न्याय की आशा लिए, न्याय के मंदिर से लौटी है नहीं कुछ सोचिए. देश में हम चाहते हैं अम्न का आलम रहे, शोर पर पाबंदियां आयद हैं धीरे खांसिए. ** |
22-05-2013, 11:23 PM | #54 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
ग़ज़ल
यही सिला है हकूमत की कम निगाही का (कवि: हरजीत सिंह) सुबूत पेश जो करना है बेगुनाही का, कुछ इंतज़ाम तो रक्खो किसी गवाही का. शहर की गलियों में वो बिक गया यारब, जिसे खिताब दिया तुमने बादशाही का. खौफ दुश्मन का था न ही रहज़न का, सभी को डर है यहां गश्त के सिपाही का. नहीं मिटेगा लहू उनका सीढ़ियों से कभी, ये ऐसा ज़ख्म है मीनार की तबाही का. बहुत ही ताज़ा थे वो फूल कल जो टूट गए, यही सिला है हकूमत की कम निगाही का. वो एक शख्स अचानक से हो गया खामोश, कलम से जोड़ के रिश्ता किसी सियाही का. ** |
23-05-2013, 12:08 AM | #55 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
आपके अनुपम योगदान के लिए शुक्रिया रजनीशजी। मुझे और भी ज्यादा खुशी होगी, अगर आप इस सूत्र को अपनी किसी ग़ज़ल से सुशोभित करेंगे। धन्यवाद।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
23-05-2013, 07:10 PM | #56 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
अनुपम ...................
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23-05-2013, 10:05 PM | #57 | |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
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04-06-2013, 01:30 PM | #58 |
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Re: हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें
ग़ज़ल
(ग़ज़लकार: माधव कौशिक) आने वाले वक़्त का मंज़र मुझे मालूम है. किस जगह ले जायेंगे रहबर मुझे मालूम है. जो भी सच कहने की जुर्रत करेगा शहर में काट डालेंगे उसी का सर मुझे मालूम है. कितने दिन तक आप इसको बाँध के रख पायेंगे टूट जाएगा किसी दिन घर मुझे मालूम है. तुमसे ज्यादा जानता हूँ मैं अमीरे शहर को घोंप देगा पीठ में खंजर मुझे मालूम है. आसमां से फूल बरसे या कि बरसे चाँदनी मेरे सर पर आयेंगे पत्थर मुझे मालूम है. देवताओं और फरिश्तों ने इसे ऐसा छुआ हो गयी मैली मेरी चादर मुझे मालूम है. |
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