10-01-2013, 05:03 PM | #1 |
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रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
खास बात यह भी है कि इन न्यायालयों की कमान जिन जजों को सौंपी गई हैं, वे सभी दिल्ली उच्च न्यायिक सेवा के तेजतर्रार जजों में से एक हैं। इन विशेष अदालतों में क्षेञाधिकार के हिसाब से अलग-अलग अदालतों में चल रहे केस स्थानांतरित कर दिए जाएंगे। दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और अन्य न्यायाधीशों की सहमति से इन जजों की नियुक्ति की गई हैं। ये तेजतर्रार जज हैं अतिरिक्त सञ न्यायाधीश योगेश खन्ना, डॉ टीआर नवल, महेशचंद्र गुप्ता, निवेदिता अनिल शर्मा, वीरेंद्र भट्ट और कावेरी बावेजा। ये विशेष अदालतें यह सुनिश्चित करेंगी कि अब किसी और दामिनी को इंसाफ के लिए सालों तक इंतजार न करना पडे और उन्हें जल्द से जल्द न्याय मिल सके। कोशिश यह रहेगी कि दोषी दरिंदे जल्द ही सजा पा सकें।
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11-01-2013, 10:52 AM | #2 |
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Re: रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
जब तक कानून से जुडे सभी स्थानो पर सम्वेदन शील लोग नहीं आयेंगे..तब तक कुछ भी कर ले सुधार आना मुश्किल ही लगता है..!!
कल ही क्राइम पेट्रोल पर एक एपीसोड देखा जिसमै एक नवयुवक को सिर्फ 200 रुपये की चोरी के इल्जाम मै इसलिये 11 महीने अन्दर रहना पडा क्योंकि उसके पास एक पर्स मिला जिसमे 200 रुपये थे...!! उसको गिरफ्तार करने के बाद इस बात पर किसी ने ध्यान नही दिया कि वो पर्स उस व्यक्ति का नहीं था जिसके पैसे चोरी हुये थे... महत्वपूर्ण बात ये है कि उसको ये सिद्ध करने के लिये कहा जा रहा था कि ये रुपये उसके ही थे...एक सब्जी बेचने वाले के पास दो सौ रुपये होने का प्रमाण देने की क्या आवश्यकता मेहसूस हुयी, ये समझ से परे है..!! अंत मे उस युवक को तब छोडा गया जब उसने दो सौ रुपये की चोरी को कबूल कर लिया...क्योंकि उस चोरी की सजा सिर्फ तीन महीने तक ही हो सकती थी...और वो पहले ही ग्यारह महीने की सजा काट चुका था...!! जिन लोगों का थाने और कोर्ट कचहरी से पाला पड चुका है वो इस बात को अच्ची तरह जानते है कि सिस्टम ना सिर्फ सड गल चुका है बल्कि बदबू भी आने लगी है...हमे इसमै अभी भी कुछ हद तक बाकी सम्वेदनशीलता को पूरी तरह से रेस्टोर करना होगा ताकि लोगों का इस प्रक्रिया मै भरोसा बन सके और बढ सके...!!
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11-01-2013, 07:02 PM | #3 |
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Re: रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
पुलिस का अमानवीय चेहरा फिर उजागर हुआ है। दिल्ली सामूहिक दुष्कर्म की शिकार व जान गंवा चुकी दामिनी के
साथी और भुक्तभोगी युवक ने एक न्यूज चैनल को दिए साक्षात्कार में 16 दिसंबर की काली रात के सच को बयां कर दिया है। उसका सच दिल्ली पुलिस और शहरी संभ्रात कहे जाने वाले तमाशबीनों की निष्ठुरता और सड़-गल चुके सिस्टम की दारुण व्यथा है। यह कम खौफनाक नहीं है कि घोर यातना के बाद जब दुष्कर्मियों ने उन्हें और उनकी दोस्त को बस से फेंक दिया, तब कोई भी मदद के लिए सामने नहीं आया। लोग उन पर निगाह डालते रहे और गुजरते रहे। यह निष्ठुरता शहरी समाज की लज्जित करने वाली वह बदरंगी तस्वीर है, जो सदियों तक कालखंड को चुभती रहेगी।
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11-01-2013, 07:03 PM | #4 |
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Re: रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
दामिनी के साथी के मुताबिक पुलिस की पीसीआर वैन काफी देर बाद पंहुची, लेकिन वह भी मदद के बजाय थानों के इलाके को लेकर उलझी रही। वे दोनों तड़पते रहे और वह झगड़ती रही। पुलिस ने खून से लथपथ उनकी दोस्त को पीसीआर वैन में चढ़ाने में भी मदद नहीं की। अकेले उन्हें ही जुझना पड़ा। पुलिस का यह आचरण उसके अमानवीय होने का घिनौना सबूत है। अब भी वह देश के आमजन को सत्ता की रिआया और कीडे़-मकोड़े से अधिक कुछ नहीं समझती है। अन्यथा, मरणासन्न पड़ी दामिनी और उसके साथी के प्रति उसका व्यवहार क्रूरतापूर्ण नहीं होता। दिल्ली पुलिस का रवैया असंवेदनशील, अक्षम्य और उस पर से भरोसा उठाने वाला है। इस घटना के बाद देश का जनमानस कैसे पुलिस पर भरोसा करेगा कि वह उसकी सुरक्षा को लेकर संवेदनशील है? ऊपर से विचलित करने वाला तथ्य यह कि अस्पताल में भी दामिनी और उसके साथी युवक का इलाज तब शुरू हुआ, जब उनके सगे-संबंधी वहां पहुंच गए। आखिर क्यों? क्या अस्पताल प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं थी कि वह मरणासन्न पड़े पीडि़तों का तत्काल इलाज शुरू करें? लेकिन उसने ऐसा न कर प्रक्रियाओं का हवाला देकर अब अपनी संवेदनहीनता पर परदा डाल रहा है।
युवक के खौफनाक सच के खुलासे से दिल्ली पुलिस की निर्ममता और तंत्र की नाकामी की पोल खुल गई है। दिल्ली पुलिस के कमिश्नर नीरज कुमार का वह बड़बोलापन भी बेपर्दा हो गया है कि उनकी पुलिस ने तत्परता से काम करते हुए आरोपी दुष्कर्मियों को गिरफ्तार किया। लेकिन क्या पुलिस कमिश्नर के पास अपनी पुलिस की संवेदनहीनता और निष्ठुरता का कोई जवाब है? क्या वह बताएंगे कि उसने पीडि़तों के प्रति मानवता क्यों नहीं दिखाई? सवाल अब यह भी उठने लगा है कि क्या गृह मंत्रालय दोषी पुलिसकर्मियों और उनके बचाव में जुटे आला अधिकारियों को दंडित करेगा? क्या पुलिस कमिश्नर अपनी नैतिक जवाबदेही दिखाते हुए अपने पद से इस्तीफा देंगे? क्या दिल्ली सरकार पीडि़तों के इलाज में लापरवाही बरतने वाले कर्मियों को दंडित करेगी? ढेरों ऐसे सवाल हैं, जो मुंह बाए खड़े हैं। लेकिन ये सवाल बस सवाल भर हैं। सरकार इससे चिंतित और विचलित नहीं है। इसकी संभावना कम ही है कि वह सभी दोषी पुलिसकर्मियों और तंत्र में पसरे असंवेदनशील लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगी। आमजन के बीच पुलिस की छवि ठीक नहीं है। लोगों में धारणा है कि वह रिश्वत लेकर अपराधियों को बचाती है। सही लोगों को झूठे मुकदमे में फंसाती है। वह सत्ता के इशारे पर लाठियां बरसाती है। उसकी बानगी राजधानी दिल्ली समेत देश के अन्य हिस्सों में देखी जा रही है। पुलिस की क्रूरता का ही आलम है कि 2001 से 2010 तक 14,231 लोगों की पुलिस हिरासत में मौत हुई है। इस मामले में महाराष्ट्र शीर्ष पर है। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम और कर्नाटक के आंकड़े भी दिल दहलाने वाले हैं। समझ से परे है कि जब एक अरसे से पुलिस में सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है तो फिर उस पर अमल क्यों नहीं हो रहा है? जबकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी कहा जा चुका है कि 1861 के भारतीय पुलिस कानून में सुधार की जरूरत है। पुलिस सुधार के लिए विधि आयोग, रिबेरो कमेटी, पदमनाभैया कमेटी, मलिमथ कमेटी और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा भी सुझाव दिए गए हैं, लेकिन इस दिशा में दो कदम भी आगे नहीं बढ़ा गया। मतलब साफ है कि केंद्र और राज्य सरकारें इसे लेकर गंभीर नहीं हैं। ऐसे में सत्ता संरक्षित पुलिस निष्ठुर और असंवेदनशील आचरण दिखाती है तो अस्वाभाविक क्या है।
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11-01-2013, 07:04 PM | #5 |
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Re: रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
पिछले महीने राजधानी दिल्ली में एक छात्रा के साथ जो हुआ उसने सारे देश को हिला कर रख दिया. ये घटना दुनिया
भर में लोगों के नाराजगी की बहुत बड़ी वजह बन गई. लोग हर तरह से अपने गुस्से का इजहार कर रहे हैं. कोई मोमबत्ती जला कर तो कोई चुपचाप रात भर इंडिया गेट पर जग कर विरोध कर रहा है. वो लड़की तो इस दुनिया से चली गई लेकिन उसको इंसाफ दिलाने के लिए आज भी लोग काफी जागरुक हैं. लेकिन अब सवाल ये है कि ये जागरुकता कब तक रहेगी क्या उसके दोषियों को सजा होने तक ये जागरुकता, ये हौसला, ये जज्बा बना रहेगा?
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11-01-2013, 07:05 PM | #6 |
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Re: रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
आज सुर्खियों में आने के बाद भी ऐसी कई घटनाएं हैं जो मीडिया और लोगों की याद्दाश्त से गायब हो गई हैं. वो भी एक ऐसे देश में जहां हर 30 मिनट बाद नारी की आबरू तार–तार की जाती है. हमारे देश में पहले भी बलात्कार की कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जो मानवता को शर्मिंदा कर देने वाली हैं. ऐसी ही एक दर्दनाक घटना वर्ष 1973 में हुई थी. उस समय भी लोगों ने नाराजगी जताई थी अपने गुस्से का इजहार किया था लेकिन उस सब का कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि आज भी वो दरिंदा खुले आम घूम रहा है और वो लड़की आज भी सजा काट रही है उस गुनाह की जिसे उसने किया ही नहीं था.
पीड़िता और उसका परिवार आज भी उस जंग को लड़ तो रहा है लेकिन बिलकुल अकेले और एकांत में. 39 साल से चल रहे दर्दनाक संघर्ष की एक सच्ची कहानी है यह जो समाज की कड़वी हकीकत बयां करती है. हर रोज की तरह उस दिन 27 नवम्बर 1973 को अरुणा शानबाग (जो मुंबई में नर्स का काम करती थी) अपने ड्यूटी पर गई थी. उसे क्या पता था कि वहीं काम करने वाले एक क्लीनर सोहनलाल भरता वाल्मीकि की निगाह उस पर है. उस दिन जब वो अकेले काम कर रही थी तब सोहनलाल ने अचानक अरुणा पर हमला कर दिया था और उसके साथ बेहद अप्राकृतिक ढंग से बलात्कार किया था लेकिन उसकी हैवानियत यहीं खत्म नहीं हुई. उसने सबूत मिटाने के लिए अरुणा को जान से मारने का भी प्लान बना रखा था.उसने अरुणा के गले में लोहे की चेन बांधी और गला घोटने की कोशिश की. जब उसे लगा कि वो मर चुकी है तो उसे छोड़ कर वो फरार हो गया. लेकिन दुर्भाग्यवश अरुणा मरी नहीं थी बल्कि बेहद प्रताड़ित किए जाने की वजह से वह कोमा में चली गई थी . जांच के दौरान पुलिस को कुछ सुराग हाथ लगे और सोहनलाल को गिरफ्तार कर लिया गया. अरुणा पुलिस को ये भी नहीं बता सकी कि उसके साथ किस कदर दरिंदगी से एक घिनौने अपराध को अंजाम दिया गया था क्योंकि वो कोमा में जा चुकी थी. सोहनलाल पर लूटपाट और हत्या के प्रयास का केस चला और सात साल की छोटी सी सजा दी गई. लेकिन यहां ये कहानी खत्म नहीं होती है बल्कि यहां से शुरू होती है इस भयंकर अपराध की सबसे डरा देने वाली सच्चाई. इस वारदात को हुए 39 साल बीत चुके हैं. अरुणा आज भी जिन्दा है लेकिन, न तो बोल सकती है न सुन सकती न ही हिल सकती है. एक जिन्दा लाश की तरह पिछले 39 साल से वह अस्पताल में पड़ी हुई है.वह अपनी बेहद जरूरी क्रियाएं भी खुद नहीं कर सकती जबकि उसे इस भयानक अंजाम पर पहुंचाने वाला दरिंदा आज भी इसी समाज में आजाद घूम रहा है. आज भी सोहनलाल अपना नाम बदल कर दिल्ली के एक अस्पताल में एक वार्ड बॉय का काम कर रहा है. दरिंदा बाहर घूम रहा है जबकि पीड़िता आज भी उस गुनाह की सजा भुगत रही है जो उसने किया ही नहीं था और हमें ये भी पता नहीं कि कब तक उसकी ये सजा जारी रहेगी….आखिर कब तक नारी वो दर्द सहेगी जिसकी वो बिल्कुल भी हकदार नहीं है.
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11-01-2013, 07:07 PM | #7 |
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Re: रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
आज भी उसके पापा को वो दिन याद है जब पहली बार उनकी मां ने उसे उनके हाथों में दिया था और कहा था कि ये ले अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी. तब उन्होंने ये नहीं सोचा था कि मां सही कह रही हैं. उन्होंने उनकी बात को बहुत हल्के से लिया था. पर आज उन्हें ये महसूस हो रहा है कि सही में बेटी एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है. काश मैं उसी दिन इस बात की गहराई को समझ जाता तो शायद ये नहीं होता जो आज हुआ .
आज से 1 साल पहले की बात है जब मीरा ने अपने मेडिकल की पढ़ाई पूरी की थी. तब उसके परिवार वाले बहुत खुश थे कि उनकी बेटी डाक्टर बन गई है. पर उसके पापा कुछ ज्यादा ही खुश थे और हों भी क्यों न उनकी बेटी जो थी. अचानक एक दिन मीरा ने अपने पापा से कहा कि उस को इंटर्नशिप करने दूसरे शहर जाना होगा इस पर उसके पापा तैयार हो गये पर उसकी मां और दादी नहीं तैयार हो रही थीं. वो कह रही थीं जो करना है यहीं रह कर करो जमाना ठीक नहीं है पर मीरा को तो जैसे धुन सवार थी कि उसे अच्छी जगह से ही इंटर्नशिप करनी है. काफी बहस के बाद उसकी मां और दादी भी मान गईं और मीरा फिर एक नई दुनिया के तरफ कदम बढ़ाने लगी. हर व्यक्ति की तरह वो भी ढेरों सपने देखने लगी. पर उसे क्या पता था कि उसे अपने सपनों के बदले इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी. सब कुछ ठीक चल रहा था वो अपने जीवन में काफी खुश भी थी लेकिन अचानक एक दिन जब वो रात को अपने काम पर से लौट रही थी कि अचानक चार-पांच लड़कों ने मिल कर उसके साथ बुरी तरह बलात्कार किया. ये तो कुछ भी नहीं था. उन लोगों ने तो हैवानियत की सारी हदें पार कर दीं. उन लोगों ने न सिर्फ बलात्कार किया बल्कि उसे बहुत बुरी तरह पीटा भी और सड़क किनारे फेंक कर चले गए. जब ये खबर उसके घर पहुंची तो सारे लोगों के पैरों तले जमीन खिसक गई. सब भाग कर उसके पास पहुंचे उसके कष्ट को देख कर उसके पापा को लग रहा था कि कैसे उसके दुख को कम कर दें लेकिन वो कुछ भी नहीं कर पा रहे थे और फिर वो हुआ जिसके बारे में उसके पापा ने कभी नहीं सोचा था. उनकी मीरा हमेशा के लिए उनको छोड़ कर चली गई और वो कुछ न कर सके| ये सिर्फ एक कहानी नहीं है. बल्कि एक सच्चाई है जो आज के समाज में हर पल घटित हो रही है. वर्तमान समय में हालात इतने खराब हो गये हैं कि हर मां बाप अपनी बेटी को बाहर भेजने से पहले सौ बार सोचते हैं कि क्या वो वहां सुरक्षित रहेगी . आज नारी कहीं भी सुरक्षित नहीं है ऐसा क्यों? ये एक बहुत बड़ा सवाल है हमारे समाज के सामने. क्यों आज हर औरत घर से निकलते समय ये सोचती है कि वो आज घर सही सलामत वापस लौट पाएगी? आज हम भारत के विकास की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं जबकि देश की आधी आबादी यानि नारी को जब हम सही हक और सुरक्षा तक नहीं दे रहे हैं तो ये सभी दावे खोखले प्रतीत होते हैं. देश का विकास तब तक नहीं होगा जब तक महिलाओं को उचित सुरक्षा नहीं मिलेगी. क्यों कि जब तक वो सुरक्षित नहीं महसूस करेंगी तो काम कैसे कर पाएंगी. हम भारत को अमेरिका बनाना चाहते हैं परन्तु क्या आपने कभी अमेरिकी और भारतीय महिलाओं की तुलना करके देखा है. दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है. क्योंकि वहां की नारियों को उनका हक, अधिकार और समाज की तरफ से सुरक्षा सब मिलती है पर यहां तो रक्षक ही भक्षक बन कर घूमते हैं तो ये सब उम्मीद ही बेकार है. पुरुष ये क्यों नहीं सोचता है कि वो जिसके साथ ये सब कर रहा है वो किसी की बेटी, किसी की बहन है. और उसको खोने का दर्द कितना भयानक होगा कितना दर्द होगा उसके अपनों को. कब ये पुरुष समाज इस दर्द को समझेगा ताकि वो ये पाप करने से पहले कम से कम एक बार जरूर सोचे?
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11-01-2013, 07:09 PM | #8 |
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Re: रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
पुरुष समाज ये कभी नहीं चाहेगा कि कोई भी स्त्री उससे आगे बढ़े या फिर कोई उसे चुनौती दे. अपनी इसी चाहत को जिंदा रखने के लिए उसने हमेशा से ही नारी के विकास का विरोध किया है और आज भी कर रहा है. उसने स्त्रियों को विज्ञान, कला, संस्कृति इन सब चीजों से दूर रखा है ताकि वो शिक्षित, सजग और आत्मनिर्भर न बन सकें. क्योंकि पुरुष समाज को हमेशा ये डर सताता रहा है कि कहीं वो अगर इनको उन सब चीजों से जोड़ देता है तो वो अपना अधिकार न मांगने लगें. कहने को तो हम आधुनिक युग में जी रहे हैं लेकिन आज भी हमारे पुरुष समाज की सोच 18वीं सदी वाली है. आज के समय में महिलाएं जिस तरह से अपनी हर मर्यादाओं को तोड़कर आगे बढ़ रही है उसे देख कर पुरुष समाज ये सोचने पर मजबूर हो गया है कि क्या पुरुष और स्त्री का स्थान समाज में एक हो गया है ? क्या आपको पता है कि समस्या की शुरुआत यहीं से होती है ?
महिलाओं के साथ अपमान की घटनाएं होना कोई नई बात नहीं हैं. पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता, राजनीतिक ताकत से बेशर्म होती संस्कृति, कानून को ठेंगे पर रखने की मानसिकता, संवेदनाशून्य पुलिस बल तथा जमीन से उखड़े और कानून से बेखौफ प्रवासी लोगों की बढ़ती आबादी इन घटनाओं की वजहों में शामिल हैं. इससे अलग भी ढेरों कारण हो सकते हैं पर ये कारण सबसे प्रमुख माने जाते हैं. जब कोई हादसा सुर्खियों में आता है, आक्रोश नजर आता है, टीवी पर गर्मागर्म बहस देखने को मिलती है, मोमबत्तियों के साथ जुलूस निकलता है, अधिकारियों और राजनेताओं के वादे मिलकर पारिवारिक माहौल बना देते हैं लेकिन महिलाओं के लिए हालात नहीं बदलते, क्यों ? इस ‘क्यों’ का जवाब मिलना बहुत मुश्किल है. आज स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि कोई भी शब्द उसको बयां नहीं कर सकते हैं और इसका सबसे बड़ा कारण पुरुषों की मानसिकता है. यह बात कुछ हद तक सही भी हो सकती है कि पुरुष वर्चस्व और सामंती उत्पीड़न के खिलाफ स्त्रियों में बढ़ रहे प्रतिरोध के कारण उन पर हिंसा भी बढ़ रही है. पर हम ये जानते हैं कि यह प्रतिरोध ग्लोबल चेतना के कारण बढ़ा है. एक ओर तो हम आधुनिकता की बात करते हैं, बदलाव की बात करते हैं, पर विचारों व मानसिकता में जो बदलाव अपेक्षित है वह बदलाव आज तक नहीं आया. जब-जब स्त्री अधिकारों की बात आती है तो परम्पराओं के नाम पर उसका हनन होता है. देश के महानगरों और महानगर बनने की कगार पर खड़े नगरों में पुरुषों में यौन कुंठा और निराशा दोनों बढ़ी है. नगरों में स्त्रियों के साथ बढ़ रही छेड़खानी और बलात्कार की घटनायें इसकी गवाह हैं. स्त्रियों से ये छेड़खानी और यौन दुर्व्यवहार की घटनायें लगातार बढ़ती जा रही हैं सामाजिक जागरूकता और विकास के आँकड़े कुछ भी कहें, हकीकत यह है कि स्त्रियों के प्रति परम्परागत पुरुषवादी रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है. आखिर खोट कहाँ है, इसके पीछे कौन से कारण हैं? आखिर इस बढ़ती घटना के लिए कौन दोषी है? आज हमारा समाज विनाश की तरफ बढ़ रहा है, संस्कृति में गिरावट आ रही है और लोग निरंकुशता की ओर जा रहे हैं. उन्हें लगता है कि वे कुछ भी गलत करके भाग सकते हैं लिहाजा ऐसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो रही है. इन्हें लगता है कि कोई कुछ करेगा नहीं, पुलिस करप्ट है, कानून व्यवस्था ठीक नहीं है. अधिकारियों और नेताओं को लगता है कि वे सत्ता में हैं, कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता और ऐसे में वे अपनी इच्छानुसार गलत कार्य करने से परहेज़ नहीं करते. स्त्रियाँ आज के आधुनिक दौर में जिस प्रकार हिंसा का शिकार हो रही हैं वह समाज व सरकार के लिए चुनौती है, परन्तु यहाँ वास्तविकता यह है कि पुरुष प्रधान समाज स्त्री की जागरुकता को पचा नहीं पा रहा हैं. इसलिए दिन प्रतिदिन ये घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. (यह प्रविष्टि एक ब्लॉग के सौजन्य से)
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11-01-2013, 07:11 PM | #9 |
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Re: रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
नारी अधिकार
नारी अधिकार के दावे और उनका खोखलापन जगजाहिर है. दावे-प्रतिदावे अकसर किए जाते रहते हैं किंतु अनुपालन शून्यता के कारण हालात जस के तस हैं. ‘महिला की स्थिति दोयम दर्ज़े के थी और रहेगी’ इसे पुरुष प्रधान समाज बड़े ही गर्व से रेखांकित करता है. अब इसे हम जागरुक और सशक्तीकृत समाज की मानसिकता कहें या फिर कुछ और……..? दुनिया में कहीं भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. यूपी में बलात्कार की शिकार लड़की को जिंदा जला देने की दर्दनाक घटना सामने आई और कारण सिर्फ इतना था कि उसने अपनी शिकायत को वापस लेने से मना कर दिया था. गौरतलब है कि पिछले साल दिसंबर में लड़की के पिता ने अपराधी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी. मामला कोर्ट में था. लड़की और उसके पिता पर समझौते का लगातार दबाव बनाया जा रहा था. एक सप्*ताह पहले लड़की और उसके परिवार को धमकी दी गई थी कि यदि वह केस को वापस नहीं लेते हैं तो उन्*हें जिंदा जला दिया जाएगा और वही हुआ जो होता आया है. इस समाज के दरिंदों ने अपनी जिद के आगे उसकी जान की कोई कीमत नहीं समझी. वहीं केरल में एक नाबालिग के साथ उसके पिता और सौतेले पिता ने एक साल तक बलात्कार किया. गौरतलब है कि केरल में एक 17 साल की नाबालिग के साथ उसके पिता, सौतेले पिता और अन्य सदस्यों ने एक साल तक बलात्कार किया. इस कांड में उसके पिता, मां और सौतेले पिता भी शामिल थे. पुलिस के अनुसार, एक ऑटोरिक्शा वाले ने इस लड़की को रात में सड़क पर देखा था. इसके बाद वह उसे पुलिस स्टेशन लेकर पहुंचा जहां पर जब महिला पुलिसकर्मी ने लड़की से पूछताछ की तो बलात्कार की बात सामने आई. इधर राजस्थान की राजधानी जयपुर में शराब के नशे में पति के केरोसिन उड़ेलकर आग लगाने पर गंभीर रूप से झुलसी विवाहिता ने शुक्रवार देर रात दम तोड़ दिया. आप भी सोच रहे होंगे कि ये क्या है, क्या स्थिति हो गई है हमारे समाज की? किस दिशा में जा रहा है ये समाज. आज जिधर देखिए उधर बस ये ही देखने को मिलेगा कि किसी ने लड़की को जला दिया, किसी ने उसके साथ बलात्कार कर दिया और तो और हद तो तब हो जाती है जब ये सुनने को मिलता है कि बाप ने सगी बेटी के साथ बलात्कार किया. ये सब क्या है? आज महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं चाहे वो उनका घर ही क्यों न हो. आज हम भारत के विकास की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं जबकि देश की आधी आबादी यानि नारी को जब हम सही हक तक नहीं दे रहे हैं तो ये सभी दावे खोखले प्रतीत होते हैं. देश का विकास तब तक नहीं होता जब तक महिलाओं को उनका उचित अधिकार नहीं मिलता. हम भारत को अमेरिका बनाना चाहते हैं परन्तु क्या आपने कभी अमेरिकी और भारतीय महिलाओं की तुलना कर के देखा है. दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है. क्योंकि वहां की नारियों को उनका हक, अधिकार और समाज के तरफ से सुरक्षा सब मिलती है पर यहां तो रक्षक ही भक्षक बन कर घूमते हैं तो ये सब उम्मीद ही बेकार है. हमारे समाज को अपनी दकियानुसी सोच बदलनी होगी. ज्यादातर पुरुष महिलाओं को खुद से निम्न समझते हैं परन्तु वो ये नहीं समझते कि उनकी माता भी महिला है और वे हवा में प्रकट नहीं हुए हैं. तो फिर वो क्यों नारी पर इतना जुल्म करते हैं? क्यों हमेशा उनकी इज्जत से खेलते हैं? अगर देखा जाए तो विज्ञान के अनुसार महिलाएं पुरुषों से ज्यादा विकसित हैं लेकिन पुरुष समाज ये मानने के लिए तैयार नहीं है. जहां तक उच्च और निम्न होने का सवाल है तो जब भगवान ने भेद नहीं किया तो ये समाज कौन होता है इन दोनों में भेद करने वाला.
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11-01-2013, 07:14 PM | #10 |
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Re: रेप पीड़ितों को जल्द ‘इंसाफ’
सामाजिक वर्जनाओं का अंत (नवीन परिदृश्य)
आज बेटे के प्रति इसी चाहत की वजह से ही भ्रूण हत्या से जुड़े आंकड़ों में वृद्धि होती जा रही है तो ऐसे में संभव है कि आपको यह जानकर हैरानी होगी की कोई ऐसा भी सोच सकता है कि उसे बेटा नहीं चाहिए. अधिकांश लोगों का यही मानना है कि बेटा ही वंश आगे बढ़ाएगा, वहीं बेटियों को बोझ समझे जाने की प्रवृत्ति में भी बढ़ोतरी देखी जा सकती है. उल्लेखनीय है कि बेटे के प्रति चाहत कोई आज का मसला नहीं है. अगर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नजर डाली जाए तो कितने ही लोग ऐसे नजर आएंगे जिन्होंने बेटे की चाहत के चलते कई शादियां की और आज भी कई लोग बेटे के चाहत में अपनी बेटी को मार देते हैं. लेकिन ऐसे परिदृश्य में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने बेटियों को बेटे से ज्यादा महत्व देते हैं. देखा जाए तो हिंदू मान्यताओं के अनुसार शवयात्रा में शामिल होने, अर्थी को कंधा और मुखाग्नि देने जैसे कर्मकांड पुरुष ही करते हैं, जबकि महिलाओं की भूमिका घर तक ही सीमित है. परंतु अब वह जमाना गया जब कहा जाता था कि पुत्र के बिना गति यानी (मोक्ष) नहीं मिलता. कम से कम बिहार के गया में तो कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिल रहा है. यहां महिलाएं अर्थी को कंधा देने से लेकर पिंडदान जैसी क्रियाओं को अंजाम दे रही हैं. इंजीनियरिंग की थर्ड ईयर की छात्रा दीपिका दीक्षित की ही बात कर लें तो पिता की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण में दीपिका अपनी मां के साथ मध्य प्रदेश के रतलाम से गया धाम अपने पिता का पिंडदान करने गई थी. बेटा न होने के कारण उसकी मां हमेशा पति के पिंडदान को लेकर चिंतित रहा करती थी. लेकिन जब दीपिका को अपनी मां की परेशानी की वजह पता चली तो उसने अपनी मां से कहा कि मां अगर मैं पापा का पिंडदान करुंगी तो वो खुश नहीं होगें क्या? इस पर उसकी मां कुछ बोल नहीं पाई तब दीपिका ने उन्हें समझाया कि “मां, पापा मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते थे, तभी तो उन्होंने कोई बेटा गोद नहीं लिया. वह हमेशा मुझसे कहते रहते थे कि मैं ही उनका बेटा हूं तो क्या मैं उनके लिए इतना भी नहीं कर सकती? क्या उनका प्यार मेरे लिए सिर्फ दिखावा था? यह कहते-कहते वह रोने लगी. इस पर उसकी मां ने उसे गले लगाकर रोते हुए कहा कि वैसे तो तू मुझसे छोटी है, पर आज तूने मुझे छोटा साबित कर दिया अपनी यह सोच बता कर. फिर दीपिका ने अपने पापा का पिंडदान कर उनके बेटे होने का फर्ज अदा किया. 86 वर्षीया सुगिया देवी की मौत हुई तो अर्थी को उनकी तीन पोतियों नीलम, तिस्ता और शिप्रा यादव ने कंधा दिया. उन्होंने न सिर्फ अपनी दादी के शव को शमशान घाट पहुंचाया बल्कि मुखाग्नि भी दी. ऐसा नहीं था कि मौके पर सुगिया की कोई संतान मौजूद नहीं थी. शवयात्रा और दाह संस्कार के समय शमशान घाट पर उनके पांच बेटे, पोतें और अन्य रिश्तेदार मौजूद थे, पर सुगिया देवी उन लोगों के व्यव्हार से इतनी दुखी थी कि मरते समय उन्होंने अपने पोतियों से कहा था कि चाहे कुछ भी हो पर मेरा अंतिम काम तुम लोग ही करना तभी मेरी आत्मा को शांती मिलेगी . सनातनी परंपरा में बेटे का महत्व सिर्फ वंश परंपरा को आगे बढ़ाने से ही नहीं है, बल्कि हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार पुत्र के हाथों से पिंडदान होने पर ही मोक्ष मिलता है. लेकिन अगर सभी परिवार वाले इस खोखली मान्यताओं को नकारकर बेटियों को अपने परिवार और जीवन का वैसा ही हिस्सा मानने लगें जैसा वह बेटे को मानते हैं तो शायद कभी किसी बेटी को कोख में ही दम नहीं तोड़ना पड़ेगा और ना ही पैदा होने के बाद एक बोझ की तरह जीवन जीना पड़ेगा.
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
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