20-01-2013, 10:22 AM | #11 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
हमको उनसे से वफ़ा की उम्मीद ..जो नहीं जानते वफ़ा क्या है.."
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20-01-2013, 10:45 AM | #12 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
जॉन (ग़ालिब) छुटी शराब पर अब भी कभी-कभी,
पीता हूँ रोज-ऐ-अब्र-ओ-शब्-ऐ-माहताब में....................
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20-01-2013, 11:32 AM | #13 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या इश्क ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के बला-ए-जां है, ‘ग़ालिब’, उसकी हर बात इबारत क्या, इशारत क्या, अदा क्या
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20-01-2013, 11:33 AM | #14 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
“हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”
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20-01-2013, 11:34 AM | #15 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़[1] के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती[2] लिये हुए हूँ शमआ़-ए-कुश्ता[3] दरख़ुर-ए-महफ़िल[4] नहीं रहा मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं शायाने-दस्त-ओ-खंजर-ए-कातिल[5] नहीं रहा बर-रू-ए-शश जिहत[6] दर-ए-आईनाबाज़ है यां इम्तियाज़-ए-नाकिस-ओ-क़ामिल[7] नहीं रहा वा[8] कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न[9] ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हाए-रोज़गार[10] लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल[11] नहीं रहा दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा[12] मिट गया कि वां हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल नहीं रहा बेदाद-ए-इश्क़[13] से नहीं डरता मगर 'असद' जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा शब्दार्थ: ↑ प्रेम की आकांक्षा की अभिव्यक्ति ↑ जीवन की अभिलाषाओं का दाग ↑ बुझा हुआ दीपक ↑ महफिल के योग्य ↑ कातिल के हाथों और भुजाओं के द्वारा वध किया जा सकने वाला ↑ धरती और आकाश के मुख पर ↑ पूर्ण तथा अपूर्ण का भेद ↑ खोल दिए हैं ↑ सौंदर्य के आवरण के बंधन ↑ दुनिया के अत्याचार का शिकार ↑ अनजान ↑ प्रेम को निभाने की खेती की कामना ↑ प्रेम का अत्याचार
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20-01-2013, 11:34 AM | #16 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
फिर वो सूए-चमन आता है ख़ुदा ख़ैर करे
रंग उड़ता है गुलिस्तां के हवादारों का 'मीर' के शे'र का अहवाल[1] कहूँ क्या 'ग़ालिब', जिसका दीवाना कम-अज़ गुलशन-ए-कश्मीर नहीं| अब्र रोता है कि बज़्मे-तरब आमादा करो, बर्क हंसती है कि फुर्सत कोई दम दे हमको| कमाले-हुस्न गर मौकूफ़-ए-अंदाज़-तग़ाफुल हो, तकल्लुफ़ बरतरफ़, तुझसे तेरी तस्वीर बेहतर है| चंद तस्वीरे-बुता, चंद हसीनो के ख़ुतूत, बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला| असद हम वह जुनूं-जौलां[2] गदा[3]-ए-बे-सर-ओ-पा[4] हैं, कि है सर-पंजा-ए-मिज़गान-ए-आहू[5] पुश्त-ख़ार[6] अपना| शब्दार्थ: ↑ हाल का बहुवचन ↑ पागलपन से पीड़ित ↑ असहाय ↑ बिना सर और पाँव ↑ हिरन की पलकों की बनी कंघी ↑ पीठ पर खराश करना वाला
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20-01-2013, 11:35 AM | #17 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
अ़जब निशात[1] से, जल्लाद के, चले हैं हम आगे
कि, अपने साए से, सर पाँव से है दो क़दम आगे क़ज़ा[2] ने था मुझे चाहा ख़राब-ए-बादा-ए-उलफ़त[3] फ़क़त[4], 'ख़राब', लिखा बस, न चल सका क़लम आगे ग़म-ए-ज़माना ने झाड़ी, निशात-ए-इश्क़[5] की मस्ती वगरना हम भी उठाते थे लज़्ज़त-ए-अलम[6] आगे ख़ुदा के वास्ते, दाद उस जुनून-ए-शौक़[7] की देना कि उस के दर पे पहुंचते हैं नामा-बर[8] से हम आगे यह उ़मर भर जो परेशानियां उठाई हैं हम ने तुम्हारे आइयो[9], ऐ तुर्रा हाए-ख़म-ब-ख़म[10] आगे दिल-ओ-जिगर में पर-अफ़शां[11] जो एक मौज-ए-ख़ूं[12] है हम अपने ज़ोअम[13] में समझे हुए थे उस को दम[14] आगे क़सम जनाज़े पे आने की मेरे खाते हैं 'ग़ालिब' हमेशा खाते थे जो मेरी जान की क़सम आगे शब्दार्थ: ↑ खुशी ↑ किस्मत ↑ शराब के प्यार में बरबाद करना ↑ सिर्फ ↑ प्रेम-उल्लास ↑ दुःख का मजा ↑ प्रेम का पागलपन ↑ डाकिया ↑ तुम्हारे सामने आए ↑ उलझी ज़ुल्फों वाली ↑ फड़फड़ा रही है ↑ रक्त्त का लहर ↑ अंहकार ↑ साँस
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20-01-2013, 11:36 AM | #18 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ-सा कहें जिसे हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़याल में गुलदस्ता-ए-निगाह सुवैदा[1] कहें जिसे फूँका है किसने गोश-ए-मुहब्बत[2] में ऐ ख़ुदा अफ़सून-ए-इन्तज़ार[3] तमन्ना कहें जिसे सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी[4] से डालिये वो एक मुश्त-ए-ख़ाक[5] कि सहरा[6] कहें जिसे है चश्म-ए-तर[7] में हसरत-ए-दीदार से निहां[8] शौक़-ए-अ़ना-गुसेख़्ता[9] दरिया कहें जिसे दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल हाये-ऐश[10] को सुबह-ए-बहार पम्बा-ए-मीना[11] कहें जिसे "गा़लिब" बुरा न मान जो वाइज़[12] बुरा कहे ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे शब्दार्थ: ↑ दिल का दाग़ ↑ प्रेमी का कान ↑ प्रतिज्ञा का जादू ↑ अकेले रहने की पीड़ा की अधिकता ↑ एक मुठ्ठी मिट्टी ↑ रेगिस्तान ↑ आँख ↑ छुपा हुआ ↑ बेलगाम शौक़ ↑ ऐश्वर्य के फूलों को खिलने के लिए ↑ शराब की सुराही पर रखा हुआ रुई के फाहा ↑ उपदेशक
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20-01-2013, 07:10 PM | #19 | |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
Quote:
दीपू जी, सूत्र का शीर्षक देख कर यूं लग रहा था कि आप इसमें उर्दू के मुमताज शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के कलाम पर आधारित कुछ सामग्री सदस्यों के लिए प्रस्तुत करेंगे. लेकिन दृश्य कुछ बदला बदला सा है. यह एंटी-क्लाईमेक्स हो गया, मित्र. ................... ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े देखने हम भी गए पर तमाशा न हुआ. |
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21-01-2013, 03:21 PM | #20 | |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
Quote:
mitr bich me kuch gadbad ho gai , wrong entry ho gai , sorry
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