12-11-2012, 07:35 AM | #11 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
वे प्राचीर-वलयित मिथिला के पास पहुंचे और अलंकृत उच्च पताकाओं वाले प्राचीर के इस पार खड़े हो गये। वहां खुले मैदान में ऊंचाई पर एक काली शिला थी, जो किसी समय में अहिल्या थी, महामहर्षि की वह पत्नी जिसने गृहस्थी की गरिमा को नष्ट करते हुए अपना चरित्र खोया था। (पद संख्या 547) राम की दृष्टि शिला पर पड़ी। उनकी चरण-धूलि के लगने पर अहिल्या अपने पूर्वरूप में आकर खड़ी हो गयी जैसे भगवान के चरणों में आते ही अविद्या-प्राप्त मिथ्या रूप को छोड़ कर ज्ञानी आत्म-रूप को पा गये हों। (548) इसके बाद राम विश्वामित्र से पूछते हैं कि यह सुंदर स्त्री पत्थर कैसे बन गयी थी। विश्वामित्र जवाब देते हैं : सुनिए, एक बार उज्ज्वल कुलिशपाणि इंद्र ने दुर्गुण-विमुक्त-चित्त महर्षि गौतम की अनुपस्थिति के समय उनकी मृगनयनी पत्नी के मनोरम उरोजों के स्पर्श का सुख भोगना चाहा। (551) कामदेव के बाणों से आहत, भाले की तरह बेधती दृष्टि से आहत इंद्र उस पीड़ा से मुक्ति का उपाय ढूंढ़ते फिरे। एक दिन काम-मोह में अपनी बुद्धि खोकर उन्होंने गौतम को आश्रम से हटाने का उपाय किया; फिर जिन मुनिवर के मन को असत्य छू भी नहीं गया था, उनका रूप धर कर आश्रम में प्रवेश कर गये। (552) प्रवेश करके वे अहिल्या के साथ संभोग में लग गये। कामोद्दीप्त यह संगम अपूर्व था और इसने मधुर सुरा के समान दोनों को नशे में चूर कर दिया। अहिल्या सत्य जान गयीं, फिर भी संभल नहीं पायीं और मग्न रह गयीं। किंतु त्रिलोचन शिवजी के समान शक्ति रखने वाले मुनि गौतम ने देर नहीं की और त्वरित गति से लौट आये। (553) गौतम, जो प्रत्यंचा पर रख कर बाण नहीं चलाते थे, शाप और वर की अचूक शक्ति से संपन्न थे। जब वे आये, तो उन्हें देख कर असमाप्य विश्व में कभी समाप्त न होने वाली निंदा का पात्र बनी अहिल्या भयभीत हो एक ओर खड़ी रहीं। डर से इंद्र भी कांप गये और एक बिल्ली का रूप लेकर वहां से खिसकने लगे। (554) जो कुछ हुआ था, उसे आग बरसाती आंखों से देख कर गौतम ने, हे राम! आपके संतापी शर के समान, ये शब्द कहे, 'तुम्हारे शरीर पर सहस्र योनियां उत्पन्न हो जायें।' पलक झपकते ही इंद्र का शरीर उनसे युक्त हो गया। (555) लज्जा से गड़े हुए और पूरी दुनिया के लिए हास्य का पात्र बन कर इंद्र रवाना हुए। अपनी मृदुल स्वभाव वाली पत्नी को देख मुनि ने शाप दिया, 'ओ वेश्या-समान स्त्री! तू पत्थर बन जा।' और वह कठोर, काली शिला में बदल कर वहीं गिर गयीं। (556) फिर भी गिरने से पहले उन्होंने अनुनय किया, 'ओ मेरे शिव-सम स्वामी! कहते हैं, अपराध को क्षमा करना भी बड़ों का कर्तव्य है। आप मुझे शाप-मोचन का कुछ उपाय बताइये।' मुनि ने कहा, 'भ्रमर-गुंजरित शीतल माला से अलंकृत राम आयेंगे। उनकी चरण-धूलि लगने पर तुम्हें इस प्रस्तर-शरीर से मुक्ति मिलेगी।' (557) उधर देवताओं ने अपने राजा को देखा और ब्रह्मा के नेतृत्व में वे गौतम के पास पहुंचे और गौतम से कृपा करने की प्रार्थना की। गौतम अब तक शांत हो चुके थे। इसलिए उन्होंने उन अवयवों को सहस्र नेत्रों में बदल दिया। अहिल्या पत्थर की मूर्ति बनी पड़ी रहीं। (558) यही पूर्ववृत्तांत है। अब आगे से संसार के प्राणियों के लिए कोई दुख नहीं होगा, केवल मुक्ति होगी। ओ मेघ-वर्ण प्रभु श्रीराम! अंजन वर्ण (काले रंग) की ताड़का से जो आपने युद्ध किया उसमें मैंने आपके हाथ की महिमा देखी और यहां आपके चरणों की। (559)6
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12-11-2012, 07:35 AM | #12 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
आइए, ज़रा तेज़ी से इन दो वाचनों के कुछ अंतरों को देखें। वाल्मीकि के यहां इंद्र जिस अहिल्या का शीलभंग करते हैं, वह स्वयं इच्छुक है। कम्बन के यहां अहिल्या यह महसूस करती है कि वह ग़लत कर रही है, लेकिन वह उस निषिद्ध आनंद को छोड़ नहीं सकती; कविता पहले ही यह संकेत कर चुकी है कि उसके विद्वान पतिदेव पूरी तरह अध्यात्मलीन हैं - वहां ऐसे विवरण आते हैं जो मिल कर शीलभंग की घटना को एक मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता दे देते हैं। इंद्र एक बिल्ली का रूप धर कर चुपके से निकल जाना चाहते हैं, जो कि सीधे-सीधे लोकसाहित्य की एक रूढ़ि (मोटिफ़) है (मिसाल के लिए, यह कथासरित्सागर में भी मिलता है जो संस्कृत में ग्यारहवीं सदी में किया गया लोककथाओं का एक सार-संग्रह है)।7 उन्हें शरीर पर हज़ार योनियों को धारण करने का अभिशाप मिलता है, जिसे बदल कर बाद में हज़ार आंखें कर दिया गया है। और अहिल्या एक जड़ पत्थर में तब्दील हो जाती है। दोनों अपराधियों को दंडित करने वाला काव्यात्मक न्याय उनके दुष्कर्मों के अनुरूप है। इंद्र उस वस्तु के चिह्नों को धारण करते हैं जिसके लिए वे लाड़ टपका रहे थे, जबकि अहिल्या किसी भी चीज़ के प्रति अनुक्रियाशील होने की क्षमता से वंचित कर दी जाती है। वाल्मीकि के यहां अनुपस्थित इन अभिप्रायों के साक्ष्य दक्षिण भारतीय लोकसाहित्य और दूसरी दक्षिणी रामकथाओं, अभिलेखों और आरंभिक तमिल काव्यों, साथ-ही-साथ ग़ैर-तमिल स्रोतों में मौजूद हैं। यहां और अन्यत्र भी, कम्बन न सिर्फ़ अपने पूर्ववर्ती वाल्मीकि की सामग्रियों का पूरा-पूरा इस्तेमाल करते हैं, बल्कि अनेक क्षेत्रीय लोक परंपराओं को भी उसमें सम्मिलित करते हैं। बाद को अक्सर कम्बन के ज़रिये ही ये चीज़ें दूसरी रामायणों का हिस्सा बनती हैं।
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12-11-2012, 07:36 AM | #13 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
शिल्पविधि के मामले में कम्बन वाल्मीकि के मुक़ाबले अधिक नाटकीय भी हैं। पहले राम के चरण काले रंग के पत्थर को अहिल्या में रूपांतरित करते हैं, उसके बाद ही अहिल्या की कथा सुनायी जाती है। राम की प्रतीक्षा में एक ऊंची जगह पर स्थित काली शिला अपने-आप में एक बहुत ही प्रभावशाली, जीवंत प्रतीक है। अहिल्या का पुनरुज्जीवन, एक ठंडे प्रस्तर से मांसल मानवीय ऊष्मा की ओर उसका जागरण, भक्तिसाधना के प्रभाव से परमात्मा में उपस्थित अपने रूप के प्रति आत्मा की जागरूकता का अंकन बन जाता है।
और अंत में, अहिल्या प्रकरण काव्य में आये पिछले प्रकरणों से जुड़ा है, जैसे कि उस प्रसंग से जिसमें राम राक्षसी ताड़का का वध करते हैं। वहां वे बुरी शक्तियों के विनाशक थे, अपने शत्रुओं को वन्ध्या बनाने और मृत्यु के मुख में झोंकने वाले। यहां, अहिल्या के उद्धारक के रूप में, वे उर्वरता के मेघ-श्यामल देवता हैं। कम्बन के पूरे काव्य में राम एक तमिल नायक, एक उदार दाता और शत्रुओं के निर्मम विनाशक हैं। और भक्ति का दर्शन, पत्थर बनी हुई अभिशप्त अहिल्या की मुक्ति को, सांसारिक दुखों से सभी आत्माओं की मुक्ति के राम के अवतारी मिशन का उदाहरण बना देता है। वाल्मीकि के यहां राम का चरित्र ईश्वर का नहीं, बल्कि ईश-मानव का है जिसे तमाम तरह के उतार-चढ़ाव में पड़े मानवीय रूप की सीमाओं के भीतर रहना है। कुछ लोगों का मत है कि राम के ईश्वरत्व और रावण का नाश करने के लिए उनके अवतार-ग्रहण की बातें, और महाकाव्य का पहला और आख़िरी कांड, जिसमें राम को इस तरह के प्रयोजन के साथ अवतरित ईश्वर के रूप में बखाना गया है, बाद के प्रक्षिप्त अंश हैं।8 अस्तु, कम्बन के यहां तो वे साफ़ तौर पर भगवान हैं। इसीलिए पीछे उद्धृत अंश धार्मिक भावनाओं और भागवत बिंबों से भरा पड़ा है। बारहवीं सदी में लिख रहे कम्बन ने तमिल भक्ति के प्रभाव में अपनी कविताएं रचीं। उन्होंने श्रीवैष्णव संतों में सबसे प्रमुख, नम्मालवार (उन्नीसवीं सदी?) को अपना गुरु माना था। इसलिए कम्बन के लिए राम एक भगवान हैं जो बुराइयों को निर्मूल करने, अच्छाई को बनाये रखने, और सभी जीवित प्राणियों को मुक्ति दिलाने के अभियान पर निकले हुए हैं। अहिल्या का सामना होने के साथ यह सिलसिला शुरू होता है और रावण का सामना होने के साथ ख़त्म होता है। नम्मालवार के लिए राम दीनहीन घास से लेकर महान देवताओं तक, सभी के त्राणकर्ता हैं।
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12-11-2012, 07:36 AM | #14 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
राम की कृपा से
राम के सिवा किसी भी चीज़ का ज्ञान कोई क्यों अर्जित करे? दीनहीन घास और रेंगती चींटियों से लेकर ऐसा क्या है जिसे उन्होंने शरण नहीं दी उन्होंने प्रत्येक जंगम और जड़ वस्तु को अपनी नगरी में शरण दी चतुर्मुख ब्रह्मा की बनायी हुई प्रत्येक वस्तु को उन्होंने शरण दी उन सबको शरण देकर वे सर्वोत्तम अवस्था तक ले गये। · नम्मालवार 7.5.19
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12-11-2012, 07:37 AM | #15 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
कम्बन का महाकाव्य नम्मालवार की रामविषयक दृष्टि को विस्तारपूर्वक और भावाविष्ट तरीके से रूपायित करता है।
इस तरह अहिल्या प्रसंग बुनियादी तौर पर वही है, लेकिन उसकी कताई, उसका टेक्स्चर, उसके रंग बहुत भिन्न हैं। उत्तरवर्ती कवि के वाचन में जो सौंदर्यात्मक आनंद है, वह अंशतः पूर्ववर्ती के काम का कलात्मक विधि से उपयोग करने, उसे परिवर्तित करने का परिणाम है। कुछ हद तक बाद की सभी रामायणें पिछले वाचनों के ज्ञान का लाभ उठाती हैं : इस तरह, वे यानी पहले वाली, अधि-रामायणें हैं। मैं अपना पसंदीदा उदाहरण दोहराने से खुद को रोक नहीं पा रहा। बाद की कई रामायणों (जैसे कि सोलहवीं सदी की अध्यात्म रामायण) में जब राम को वनवास मिल जाता है, तो वे नहीं चाहते कि सीता उनके साथ वन जाएं। सीता उनसे तर्क-वितर्क करती हैं। सबसे पहले वे आम चलताऊ दलीलों का प्रयोग करती हैं : वे राम की पत्नी हैं, उन्हें राम के दुखों का साझीदार बनना चाहिए, राम के निर्वासन की स्थिति में उन्हें भी निर्वासित होना चाहिए, वग़ैरह-वग़ैरह। राम इसके बावजूद जब विरोध करते हैं, तो सीता उग्र हो जाती हैं। वे फूट पड़ती हैं, ''असंख्य रामायणें इससे पहले लिखी जा चुकी हैं। क्या आप एक भी ऐसी रामायण जानते हैं जिसमें सीता राम के साथ वन को न गयी हो?'' यहां बहस नतीजे पर पहुंच जाती है और वे राम के साथ वन चली जाती हैं।10 और चूंकि भारत में कोई भी चीज़ एक ही बार घटित नहीं होती, इसलिए यह मोटिफ़ भी एकाधिक रामायणों में दिखलाई पड़ता है। खुद कम्बन की तमिल रामायण भी अपनी संतति परंपरा, अपने प्रभाव का विशेष दायरा बनाती है। तेलुगु प्रदेश में तेलुगु लिपि में पढ़ी जाने वाली, मलयालम इलाक़ों में मंदिर अनुष्ठान के हिस्से की तरह नाट्य-रूप में मंचित होने वाली यह रामायण दक्षिणपूर्व एशिया में रामकथा के प्रसारण की एक अहम कड़ी है। यह भली भांति दिखाया जा चुका है कि अठारहवीं सदी का थाई काव्य रामकियेन इस तमिल महाकाव्य का ख़ासा ऋणी है। जैसे, इस थाई कृति में कई चरित्रों के नाम संस्कृत नहीं, स्पष्टतः तमिल नाम हैं (मिसाल के लिए, संस्कृत में ऋष्यशृंग किंतु तमिल में कलाईक्कोटु, जो कि बाद में थाई भाषा में भी ले लिया गया)। हिंदी में तुलसी का रामचरितमानस और मलेशियाई हिकयत सेरी राम भी कुछ ब्यौरों के लिए कम्बन के ऋणी हैं।11 इस तरह, ज़ाहिर है, प्रत्यारोपण कई रास्तों से होता है। संसार की कुछ भाषाओं में चाय के लिए शब्द उत्तरी चीनी बोली से लिया गया है, कुछ में दक्षिणी बोली से; लिहाज़ा, अंगेज़ी और फ़्रेंच जैसी कुछ भाषाओं में किसी-न-किसी रूप में टी शब्द मिलता है, तो हिंदी और रूसी जैसी अन्य भाषाओं में चा(य)। इसी तरह, जान पड़ता है कि रामकथा ने, संतोष देसाई के अनुसार, तीन राहों से होकर सफ़र किया है : ''ज़मीन के रस्ते उत्तरी राह ने कथा को पंजाब और कश्मीर से चीन, तिब्बत और पूर्वी तुर्कीस्तान में पहुंचाया; समुद्र के रस्ते दक्षिणी राह ने कथा को गुजरात और दक्षिण भारत से जावा, सुमात्रा और मलय में पहुंचाया; और फिर ज़मीन के रस्ते पूर्वी राह ने कथा को बंगाल से बर्मा, थाईलैंड और लाओस पहुंचाया। वियतनाम और कंबोडिया ने अपनी कथाएं अंशतः जावा और अंशतः भारत से पूर्वी राह के ज़रिये हासिल कीं।12''
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12-11-2012, 07:37 AM | #16 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
जैन वाचन
जब हम जैन वाचनों की दुनिया में दाख़िल होते हैं, तो पाते हैं कि यहां रामकथा हिंदू मूल्यों की वाहक नहीं रह गयी है। निश्चित रूप से, जैन पाठ यह भावना व्यक्त करते हैं कि हिंदुओं, विशेषतः ब्राह्मणों ने रावण को बदनाम किया है, उसे खलनायक बनाया है। एक जैन पाठ इस सवाल के साथ शुरू होता है, ''रावण जैसे शक्तिशाली राक्षस योद्धाओं को बंदर कैसे परास्त कर सकते हैं? रावण जैसे कुलीन व्यक्ति और सम्मानित जैन कैसे मांस खा सकते और खून पी सकते हैं? कुंभकर्ण कैसे साल के छह महीने लगातार सो सकता है और कान में खौलता हुआ तेल डाले जाने, हाथियों को उसके ऊपर कुदाये जाने और चारों ओर युद्ध की तुरही और बिगुल बजाये जाने के बावजूद जगता नहीं? यह भी कहा जाता है कि रावण ने इंद्र को पकड़ा और उसके हाथ बांध कर लंका में घसीट लाया। इंद्र के साथ कौन ऐसा कर सकता है? ये सारी बातें बहुत काल्पनिक और अतिवादी प्रतीत होती हैं। ये झूठ हैं और इनमें कोई तार्किक संगति नहीं।'' इन सवालों के साथ राजा श्रेणिका महर्षि गौतम के पास जाते हैं, ताकि वे उन्हें सही कथा बताएं और उनकी शंकाओं का निवारण करें। गौतम उनसे कहते हैं, ''मैं तुम्हें वह बताऊंगा जो सुधी जैन लोग कहते हैं। रावण कोई दानव नहीं है, वह नरभक्षी और मांसाहारी नहीं है। ग़लत ढंग से सोचने वाले कुकवि और मूर्ख ये झूठ बोलते हैं।'' इसके बाद वे कथा का अपना पाठ बताना शुरू करते हैं।13 स्पष्टतः, विमलसूरि की जैन रामायण, जिसका नाम पउमचरिय (संस्कृत के पद्मचरित का प्राकृत रूप) है, अपने वाल्मीकि को जानती है और उसके दोषों तथा हिंदू अतिरेकों का मार्जन करने का प्रयास करती है। दूसरे जैन पुराणों की तरह ही यह भी एक प्रति-पुराण है। प्रति, यानी 'विपरीत' या 'विरोधी', जैनों का पसंदीदा उपसर्ग है।
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12-11-2012, 07:37 AM | #17 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
जैन कवि विमलसूरि राम की नहीं, बल्कि रावण की वंशपरंपरा और महानता के बखान के साथ कथा की शुरुआत करते हैं। रावण जैन परंपरा के तिरसठ नेताओं या शलाकापुरुषों में से एक हैं। वे कुलीन हैं, विद्वान हैं, अपनी समस्त चमत्कारिक शक्तियां और अस्त्र अपनी तपस्या के द्वारा अर्जित करते हैं, और जैन गुरुओं के भक्त हैं। उनमें से एक गुरु को प्रसन्न करने के लिए वे यह प्रतिज्ञा तक करते हैं कि वे किसी अनिच्छुक स्त्री का स्पर्श तक नहीं करेंगे। एक यादगार घटना वह है जब वे एक अपराजेय दुर्ग को घेरते हैं। उस राज्य की रानी उनसे प्यार करती है। वह उनके पास अपना संदेशवाहक भेजती है; रावण दुर्ग को भेदने में उसके ज्ञान का उपयोग करते हैं और राजा को पराजित करते हैं। लेकिन जैसे ही वे उसे जीतते हैं, तुरंत वह राज्य राजा को वापस कर देते हैं और रानी को सलाह देते हैं कि अपने पति के पास लौट जाए। बाद में, किसी ज्योतिषी से यह सुन कर वे अंदर तक हिल जाते हैं कि वे एक स्त्री, सीता, के चलते ही अपने अंत को प्राप्त होंगे। इस तरह के हैं ये रावण, जो सीता की सुंदरता से प्रेम करने लगते हैं, उनका अपहरण करते हैं, उनका दिल जीतने की नाकाम कोशिश करते हैं, अपने को पतन का शिकार होता देखते हैं, और अंततः युद्धक्षेत्र में मारे जाते हैं। इन वाचनों में वे एक ऐसे महान व्यक्ति हैं जो अपने उसी आवेग के हाथों नष्ट हो जाता है जिसके ख़िलाफ़ उसने शपथ ली थी पर जिसका मुक़ाबला उससे नहीं हो पाता। जैन रामायणों की एक अन्य परंपरा में सीता उनकी पुत्री हैं, हालांकि उन्हें यह बात पता नहीं है : इस इडीपसीय स्थिति से उनकी त्रासदी और बढ़ जाती है। मैं अगले खंड में सीता के जन्म के बारे में ज़्यादा बात करूंगा।
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12-11-2012, 07:38 AM | #18 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
वस्तुतः, हमारी आधुनिक दृष्टि में, यह रावण एक ट्रैजिक पात्र है; जैनों की कथा सुन कर रावण के लिए हमारे मन में प्रशंसा और दया का भाव जगता है। एक और मोटिफ़ सुनाऊं : जैन चिंतन पद्धति के अनुसार, विरुद्धों की एक जोड़ी, वासुदेव और प्रतिवासुदेव - एक नायक और एक प्रतिनायक, लगभग स्वयं और अन्य की तरह - हर जन्म में लड़ने के लिए अभिशप्त हैं। लक्ष्मण और रावण इस जोड़ी के आठवें अवतार हैं। वे हर युग में जन्म लेते हैं, अनेक उतार-चढ़ावों के बाद संग्राम में आमने-सामने होते हैं, और हर मुठभेड़ में वासुदेव अवश्यंभावी रूप से अपने प्रतिद्वंद्वी को, अपने प्रति को, मार डालते हैं। यहां भी, रावण अंत में यह समझ लेते हैं कि लक्ष्मण उनका जीवन लेने आये वही वासुदेव हैं। फिर भी, शांति के लिए अंतिम असफल प्रयास के बाद अपनी हताशा पर विजय पाते हुए वे अपने सबसे शक्तिशाली चमत्कारी अस्त्रों के साथ अपने नियतिबद्ध शत्रु का सामना करते हैं। अंत में वे अपना चक्र चलाते हैं, पर वह काम नहीं करता। लक्ष्मण को वासुदेव रूप में पहचान कर वह चक्र उनका शिरोच्छेद नहीं करता, बल्कि स्वयं को उनके हाथों में सौंप देता है। इस तरह लक्ष्मण रावण के अपने प्रिय अस्त्र से ही उनका वध कर डालते हैं।
यहां राम रावण का वध नहीं करते, जैसा कि हिंदू रामायणों में मिलता है। कारण यह कि राम एक उन्नत जैन आत्मा हैं जिन्होंने अपने आवेगों को जीत लिया है; यह उनका आख़िरी जन्म है, इसलिए वे किसी को भी मारने के लिए अनिच्छुक हैं। शत्रुओं को मारने का काम लक्ष्मण पर छोड़ दिया गया है, और जैनों के अटल-अनमनीय तर्क के अनुसार लक्ष्मण नरक जाते हैं जबकि राम को कैवल्य प्राप्त होता है।
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12-11-2012, 07:38 AM | #19 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
कहने की ज़रूरत नहीं कि पउमचरिय जैन तीर्थस्थलों के हवालों, जैन मुनियों, धर्मोपदेशकों और महापुरुषों की कथाओं से भरा पड़ा है। इसके अलावा, चूंकि जैन लोग खुद को बुद्धिवादी मानते हैं - हिंदुओं से भिन्न, जो कि उनके अनुसार अतिवादी, और अक्सर रक्तपिपासु, क़िस्म के सनकीपने और अनुष्ठानों में लिप्त रहते हैं - वे सुनियोजित रूप से चमत्कारिक जन्मों, पशु-बलियों इत्यादि से जुड़े प्रसंगों को छोड़ देते हैं (राम और उनके भाइयों का जन्म सामान्य तरीके से हुआ है)। वे रावण के दशानन होने की धारणा की भी बुद्धिसंगत व्याख्या करते हैं। रावण के जन्म पर उनकी मां को नौ रत्नों का एक कंठहार दिया गया था, जिसे मां ने रावण के गले में डाल दिया। उन्हें उसमें रावण के मुख के नौ प्रतिबिंब दिखे जिसके चलते उन्होंने रावण को दशमुख कहा। बंदर भी बंदर नहीं हैं, बल्कि दिव्य शक्तियों (विद्याहारों) का एक वंश है जिसके पुरखे रावण और उसके परिवार से संबंधित थे। उनकी पताका पर बंदर प्रतीक चिह्न के रूप में अंकित हैं : इसीलिए वे वानर कहे जाते हैं।
लिखित से मौखिक की ओर अब हम एक दक्षिण भारतीय लोक रामायण को देखें। इन दक्षिण भारतीय लोक रामायणों में सामान्यतः कथा टुकड़ों-टुकड़ों में आती है। मिसाल के लिए, कन्नड़ में हमें सीता के जन्म, उनके विवाह, उनके सतीत्व की परीक्षा, वनवास, लव और कुश के जन्म, उनके पिता राम के साथ उनका युद्ध, और इस तरह की अन्य चीज़ों पर अलग-अलग आख्यानमूलक काव्य मिलते हैं। लेकिन पारंपरिक भाटों द्वारा कही गयी एक पूरी रामकथा भी मिलती है जिसमें हर दो पंक्तियों पर समूहगान में दुहरायी जाने वाली एक टेक है। अधोलिखित विचार-विमर्श के लिए मैं रामे गौड़ा, पी. के. राजशेखर और एस. बसवैया द्वारा किये गये लिप्यंकन का आभारी हूं।14
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12-11-2012, 07:38 AM | #20 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
अस्पृश्य भाट द्वारा गाया गया यह लोक आख्यान रावण (यहां उसे रावुला कहा गया है) और उसकी पत्नी मंदोदरी के साथ शुरू होता है। वे दुखी और संतानहीन हैं। इसलिए रावण या रावुला जंगल जाते हैं, वहां हर तरह का आत्मपीड़न करते हैं, जैसे भूमि पर लोटते हुए अपनी पीठ से खून निकाल देना इत्यादि, और एक योगी से मिलते हैं जो कोई और नहीं, स्वयं शिव हैं। शिव उन्हें एक चमत्कारी आम देते हैं और पूछते हैं कि वे इसे पत्नी के साथ कैसे बांट कर खायेंगे। रावुला कहते हैं, ''बेशक, मैं इस फल का मीठा गूदा उसे दूंगा और खुद इसकी गुठली चूसूंगा।'' योगी का संदेह बना रहता है। वे रावुला से कहते हैं, ''तुम मुझसे कुछ और बात कहते हो। तुम्हारी नाभि में विष है। तुम मुझे अच्छी बात कह रहे हो, पर तुम्हारा आशय कुछ और है। अगर तुमने मुझसे झूठ कहा तो तुम अपने कर्मों का फल स्वयं चखोगे।''
कवि कहता है कि रावुला सपनों में कुछ और सोचते हैं और जाग्रतावस्था में कुछ और। जब वे आनुष्ठानिक पूजा के लिए कई तरह के फूलों और लोबान आदि के साथ फल को घर लाते हैं तो मंदोदरी बहुत प्रसन्न होती हैं। शिव की पूजा और प्रार्थना के बाद रावण आम का बंटवारा करने चलते हैं। लेकिन सोचते हैं, ''अगर मैं उसे फल दे दूं तो मैं भूखा रह जाऊंगा और उसका पेट भर जायेगा'', और वे तेज़ी से फल का सारा गूदा उदरस्थ कर लेते हैं, मंदोदरी के हाथ सिर्फ़ चाटने के लिए गुठली रहती है। वह उसे पिछवाड़े में फेंक देती है और वह अंकुरित होकर एक विशाल आम्रवृक्ष बन जाता है। इस बीच, रावुला खुद गर्भवान हो जाते हैं और उनकी गर्भावस्था प्रतिदिन एक महीने की प्रगति के हिसाब से आगे बढ़ती है।
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