19-07-2014, 02:43 PM | #71 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
आलेख: मदन मोहन तरुण सोहराब मोदी की आवाज खनकती तलवार सी थी, जो असाधारण चमक के साथ म्यान से बाहर निकलती थी। वह खनक और चमक मैनें और कहीं नहीं देखी। एक बार सोहराब मोदी साहब के थिएटर का एक शो चल रहा था। उसी बीच उनकी निगाह एक ऐसे दर्शक पर गई, जो हाल में आँखें बन्द किए बैठा था। उस आदमी की यह हरकत उन्हें अपमानजनक लगी। उन्होंने तुरंत अपने एक आदमी को आदेश दिया कि वह उसके टिकट का पैसा लौटा दे और उसे हाँल से बाहर जाने को कहे। थोडी॰ ही देर में उनका आदमी लौटकर आया और उसने बताया कि वह एक अंधा दर्शक है। वह मात्र उनकी आवाज सुनने के लिए टिकट लेकर आया करता है। सोहराब मोदी हिन्दी सिनेमा की उन महान विभूतियों में हैं, जिन्होंने अपनी सधी दृष्टि और सधे चरण- निक्षेपों से उसका नेतृत्व और मार्गदर्शन ही नहीं किया है, उसे उपलब्धि के ऐसे-ऐसे शिखर समर्पित किए हैं जो हमेशा उसका गौरव बढ़ाते रहेंगे। मुझे याद नहीं कि मैने सोहराब मोदी की कोई फिल्म छोडी॰ हो। उनके अभिनय का सबसे ऊर्जास्फीत रूप उनकी ऐतिहासिक फिल्मों में दिखाई देता था। जब वे बोलते थे तो लगता था जैसे इतिहास का वह कालखण्ड उनकी वाणी में जीवंत होकर अपनी पूरी गरिमा के साथ स्वयं ही बोल उठा हो।
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19-07-2014, 02:45 PM | #72 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
उनका संदेश पूरे राष्ट्र को संबोधित था, उनकी वाणी में एक युगनायक की खनक थी।
उनकी 'सिकन्दर' फिल्म में पृथ्वीराज जी ने सिकन्दर का रोल किया था। वे अपने रोल से इतने अभिभूत थे कि वर्षों स्वयं को सिकन्दर समझते रहे। पटना में एकबार वे अपना शो करने गये थे, तब किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने उन्हें अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया था। उस आमंत्रण का जबाब देते हुए उन्होंने कहा था --'सिकन्दर अकेला नहीं अपनी पूरी सेना के साथ आया है।‘ इस फिल्म में पृथ्वीराज जी युवा शशिकपूर के बृहदाकार लगते थे।उन दिनों इस फिल्म के दरबारों के भव्य सेट्स और युद्ध के दृश्यों की देश - विदेश में प्रशंसा हुई थी। अपनी इस फिल्म में सोहराब मोदी जी ने पोरस का रोल किया था। मुझे उसका एक डायलाँग अभी भी याद है। स्वयं सिकन्दर महाराज पोरस के दरबार में वेश बदलकर एक दूत के रूप में आया है। एक स्थल पर सिकन्दर पोरस से कहता है'अगर आप हमारे बादशाह के सामने होते तो ऐसा कभी नहीं बोलते।' सुनते ही पोरस की आँखें चमक उठती हैं और वे कहते हैं -' दूत ! हम जो कह रहे हैं , वह तुम्हारे बादशाह के सामने कह रहे हैं।' इस आवाज में गजब का प्रभाव था। उन दिनों ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जिन्हें सोहराब जी के अनेकों डायलाँग याद थे। इस फिल्म में लम्बे -लम्बे थिएट्रिकल संवाद हैं ,परन्तु इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किए गये हैं कि दर्शक पर उसका विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।
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19-07-2014, 02:49 PM | #73 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
सोहराब मोदी (1897-1984) हिन्दी सिनेमा के उस युग के पुराणपुरुष हैं जब उसने चलना आरम्भ ही किया था। सोहराब मोदी ने अपने केरियर की शुरूआत पारसी थिएटर से की थी। वे मूलतः अपने अभिनय में शेक्सपियर के पात्रों को जीवंत करने के लिए प्रसिद्द थे। उन्होंने कुछ मूक फिल्मों में भी काम किया था। 1931 में फिल्मों को पहली बार वाणी मिली। 1935 में उन्होंने पहली बार अपनी फिल्म कम्पनी शुरू की। उनकी पहली दो फिल्में 'खून का खून' ( हेमलेट) तथा ‘सैयादे-हवस' (किंग जाँन) शेक्सपीयर के नाटकों पर आधारित थीं, जो थिएटर काल के उनके अत्यंत प्रिय विषय थे। इन फिल्मों को जनता की बहुत स्वीकृति नहीं मिली।
उन्होंने 1936 में मिनर्वा मूवीटोन कम्पनी की स्थापना की, जिसने बाद मे हिन्दी सिनेमा को कई अविस्मरणीय क्लासिक्स दिए। 1953 में हिन्दी सिनेमा ने फिल्म 'झाँसी की रानी' के साथ एक नये युग में प्रवेश किया। यह हिन्दी की ही नहीं भारत की पहली टेक्नीकलर फिल्म थी, जिसके निर्माता, निर्देशक स्वयं सोहराब मोदी थे। झाँसी की रानी का रोल, उनसे उम्र में बीस साल छोटी उनकी पत्नी महताब ने किया था। यह झाँसी की रानी का ऊर्जापूर्ण अविस्मरणीय रोल था। घोडे पर सवार तलवार चमकाती महताब के कई शाट्स शायद ही कभी भुलाये जा सकेंगे। मुझे महताब का वह तेजस्वी चेहरा अब भी याद है जब उसने झाँसी की रानी का सुप्रसिद्ध डायलाग 'मैं झाँसी नहीं दूँगी' की अदायगी की थी। सोहराब मोदी ने इस फिल्म में राजगुरु का प्रभावशाली और अविस्मरणीय रोल किया था।
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19-07-2014, 02:52 PM | #74 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
इन सारी विशेषताओं के बावजूद 'झाँसी की रानी' बाक्स आँफिस को प्रभावित नहीं कर सकी।इस फिल्म को बनाने में सोहराब मोदी ने अपनी पूँजी का बडा॰ हिस्सा लगा दिया था।इस फिल्म की विफलता ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया , लेकिन इससे उनकी फिल्म निर्माण की ऊर्जा जरा भी प्रभावित नहीं हुई।
इस स्थिति से जूझते हुए मात्र एक साल के बाद 1954 में उन्होंने उर्दू के महान कवि मिर्जा गालिब पर इसी नाम से एक यादगार फिल्म बनायी जो लोगों द्वारा खूब देखी और सराही गयी । इस फिल्म मे मिर्जा गालिब का भावनापूर्ण रोल भारतभूषण जी ने किया था। सुरैया ने गालिब की प्रेयसीका रोल किया था , किन्तु इस फिल्म में उनकी और स्वयं 'मिर्जा गालिब' फिल्म की उपलब्धि थी सुरैया द्वारा मिर्जा गालिब के गजलों की अविस्मरणीय अदायगी। इस फिल्म में सुरैया के मधुर स्वर में गालिब की ‘नुक्ताची है गमे दिल', ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है,' ये न थी हमारी किस्मत’ जैसी गजलों की मोहक आदायगी, सदा के लिए एक यादगार अदायगी बन गयी। 'जेलर' 1938, 'पुकार' 1939, 'सिकन्दर'1941, 'पृथ्वीबल्लभ'1943, 'शीशमहल' 1950, 'झाँसी की रानी' 1953, ' मिर्जा गालिब' 1954, 'कुन्दन'1955, 'राजहठ'1956, ‘नौशेरवाने आदिल' 1957, ‘यहूदी’ 1958, 'जेलर (पुनः) 1958, आदि सोहराब मोदी की वे फिल्मे हैं, जिन्होंने हिन्दी सिनेमा को सम्पन्न किया और उसे नयी राहें दिखाईं। वे लगातार 1983 तक फिल्में बनाते रहे और 1984 में अपनी उम्र के छयासीवें वर्ष में इस दरियाए फ़ानी को हमेशा के लिये अलविदा कह दिया। यह देश अपनी इस गौरवशाली महान विभूति को प्यार और अक़ीदत के साथ याद रखेगा।
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19-07-2014, 02:56 PM | #75 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
फिल्म ‘पुकार’ की समीक्षा
ठाकुरदास खत्री द्वारा भारतीय सिनेमा के विकास में निर्माता-निर्देशक व अभिनेता सोहराब मोदी का महत्वपूर्णयोगदान रहा है। उन्होंने सामाजिक और ऎतिहासिक दोनों तरह की फिल्मों का निर्माणकिया। उनकी कई सामाजिक फिल्में तत्कालीन संदर्भ में काफी महत्व की थीं। लेकिन उनकीऎतिहासिक फिल्में भारतीय सिनेमा को उनका एक विशिष्ट योगदान हैं। इनके सिद्धांतों परसमय और काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इनकी शुरूआत हुई 1939 में प्रदर्शित फिल्म ‘पुकार’ से। इस फिल्म का उप-शीर्षक था-भारत की प्राचीन कीर्ति की कथा। पुकारकी पटकथा और संवाद लिखे थे कमाल अमरोही ने। नसीम बानो नूरजहां बनी थीं, तोचंद्रमोहन जहांगीर। सरदार अख्तर बनी थीं रानी धोबन और राजपूती शौर्य की प्रतिमूर्तिसंग्राम सिंह बने थे स्वयं सोहराब मोदी। इसकी कहानी न्याय के बड़े घंटे केइर्द-गिर्द घूमती है। निरंकुश शासन प्रणाली होने के बावजूद फिल्म में लोकतंत्र औरन्याय में आस्था दर्शायी गई थी। विषय को स्पष्ट करने के लिए फिल्म में दो अलग-अलगकहानियां समांतर चलती हैं। राजा संग्राम सिंह का पुत्र मंगलसिंह ऎसी लड़की से प्यारकरता है, जिसके परिवार वालों से उसके परिवार वालों की कट्टर दुश्मनी है।परिस्थितियों से विवश मंगल सिंह अपने शत्रुओं का संहार करके अपने मित्र हैदर अली केयहां शरण लेता है। संग्राम सिंह अपने पुत्र का पीछा करता है और उसे बंदी बनाकरदरबार में पेश करता है, ताकि उसे अपने किए की उचित सजा मिले। मुगलिया पृष्ठभूमि मेंवह सच्चा राजपूत है और उसका कहना था- न्याय अंधा नहीं है। मैं इंसाफ में विश्वासकरता हूं।
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19-07-2014, 03:32 PM | #76 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
इसी के समांतर दूसरी कहानी में मलिका नूरजहां के द्वारा एकदुर्घटना में गलती से रानी धोबन के पति की मृत्यु हो जाती है और रानी धोबन इंसाफ केलिए विशाल घंटे को बजाती है। अब शंहशाह जहांगीर फैसले के लिए असमंजस में पड़े हैं, क्योंकि उनकी पत्नी और राजपूत योद्धा संग्राम सिंह का पुत्र दोनों अपराधी हैं। यदिशहंशाह एक ही को दंड देते हैं, तो इससे मुगलिया प्रतिष्ठा में आंच आती है। अंत मेंवे अपनी पत्नी को सजा सुना देते हैं। इस पर राजा और प्रजा में तनातनी पैदा हो जातीहै, लेकिन अंत में सौहार्दपूर्ण समझौता हो जाता है।
^^ ^ Some scenes from 1939 movie 'Pukar' starring Chandramohan, Naseem Bano and, of course, Sohrab Modi पुकार के जरिए सोहराबमोदी ने अप्रत्यक्ष रूप से समाज में धर्म-निरपेक्षता और लोकतंत्रीय समानता की बातउठाई थी। फिल्म की विषयवस्तु नैतिक मूल्यों की रक्षा को सबसे महत्व का मानती हैऔर आदर्शो के सामने व्यक्ति विशेष को गौण, लेकिन शायद सबसे महत्वपूर्ण बात पुकारके संदर्भ में इसके जरिए कई शाश्वत सत्यों को उजागर करने की कोशिश थी। उस समय केसाम्राज्यवादी शासन की बिगड़ती व्यवस्था को यह संकेत था कि शीघ्र और उचित न्यायपाना हर नागरिक का अधिकार है। पुकार जब प्रदर्शित हुई, तो उस समय स्वतंत्रता कीमांग पूरा जोर पकड़ चुकी थी और सोहराब मोदी ने इस संदर्भ में इसके जरिए राष्ट्रीयआकांक्षाओं के महत्व को रेखांकित किया। सेंसर के कठोर पंजों से बचने के लिए भीसम्भवत: उन्होंने इस विषयवस्तु को चुना। यह उनकी अत्यंत लोकप्रिय फिल्मों में सेएक है।
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19-07-2014, 03:54 PM | #77 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
15 अगस्त सन 1947 को देश को मिली आजादी के लिए लाखों कुर्बानियां दी गईं और हर किसी ने अपना योगदान दिया। इसमें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भी शामिल है। ... गुलाम भारत में आजादी की अलख जगाने की शुरुआत 1941 में सोहराब मोदी की फिल्म 'सिकंदर' से हुई। ^ ^
^ ^ जय हिन्द
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21-12-2014, 10:15 PM | #78 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
बॉलीवुड शख्सियत
बॉलीवुड शख्सियत में आज हम एक ऐसी अभिनेत्री की चर्चा करने जा रहे हैं जिन्होंने सन 1949 से शुरू हुए अपने तीस बर्ष के फ़िल्मी करियर में लगभग 50 फिल्मों में काम किया और अपने अभिनय की गहरी छाप छोड़ी. वे अपनी अधिकतर फिल्मों में सह-नायिका या सहायक भूमिका में परदे पर दिखाई दीं लेकिन उनकी शख्सियत और उनकी अदाकारी का असर ऐसा था कि बड़े बड़े कलाकार उनके साथ काम कने से पहले कई बार सोचते थे. आपको इस अभिनेत्री के नाम का अंदाज़ हुआ या नहीं? तो आइये हमीं आपको बताये देते हैं. इस मशहूर-ओ-मारूफ़ अभिनेत्री का नाम है- निम्मी.
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21-12-2014, 10:29 PM | #79 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
बॉलीवुड शख्सियत: निम्मी
निम्मी (जन्म: 18 फ़रवरी, 1933) निम्मी भारतीय हिन्दी फ़िल्मों की प्रसिद्ध अभिनेत्रियों में से एक रही हैं। बॉलीवुड की इस मासूम-सी ख़ूबसूरत अभिनेत्री का राज कपूर ने फ़िल्मी दुनिया से परिचय करवाया था। हालांकि निम्*मी की फ़िल्मी शुरुआत सहायक अभिनेत्री के तौर पर राज कपूर और नर्गिस अभिनीत फ़िल्म 'बरसात' (1949) से हुई थी। दिलचस्*प बात तो यह भी है कि इस ख़ूबसूरत अभिनेत्री पर राज कपूर की नज़र उस समय पड़ी, जब वे एक फ़िल्म की शूटिंग देख रही थीं। निम्मी अपनी समकालीन नायिकाओं मधुबाला, नर्गिस, नूतन, मीना कुमारी, सुरैया और गीता बाली के समान ही प्रतिभाशाली थीं।
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21-12-2014, 10:32 PM | #80 |
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Re: बॉलीवुड शख्सियत
बॉलीवुड शख्सियत: निम्मी / nimmi
बॉलीवुड की अभिनेत्रियों में से निम्मी बहुत प्रसिद्ध रही हैं। उनका असली नाम 'नवाब बानू' है। निम्मी का जन्म 18 फ़रवरी, 1933 को आगरा में हुआ था। उनकी मां का नाम वहीदन अपने दौर की मशहूर गायिका और अभिनेत्री थीं। निम्मी के पिता अब्दुल हकीम मिलिट्री में ठेकेदार थे। निम्*मी की फ़िल्मी शुरुआत सहायक अभिनेत्री के तौर पर राज कपूर और नर्गिस अभिनीत फ़िल्म 'बरसात' (1949) से हुई थी। निम्मी ने नर्गिस के साथ 'दीदार' फ़िल्म भी की। उन्होंने मधुबाला के साथ 'अमर', सुरैया के साथ 'शमा', गीता बाली के साथ 'उषा किरण' और मीना कुमारी के साथ 'चार दिल चार राहें' आदि फ़िल्मों में काम किया। निम्मी ने फ़िल्म 'बेदर्दी' (1951) में काम किया और अपने खुद के गीत गाए। 'आन' में निम्मी के नृत्य लोकप्रिय हुए। यह पहली हिंदी फ़िल्म थी, जिसका अत्यंत भव्य प्रीमियर लंदन में हुआ था। निर्देशक के. आसिफ़ की फ़िल्म 'लव एंड गॉड' उनकी आखिरी फ़िल्म थी। एक दिन काम करते वक्त निम्मी की मुलाकात लेखक अली रजा से हुई। संवाद की रिहर्सल में अली रजा ने निम्मी की मदद की। बाद में अली रजा ने ही उनमें शायरी का शौक़ पैदा कर दिया। बाद में यह निकटता दोस्ती और प्यार में बदल गई। निम्मी ने लेखक-पटकथाकार अली रजा से शादी कर ली। निम्मी ख़ूबसूरत आंखों वाली सम्मोहक अभिनेत्री मानी जाती हैं। फ़िल्म में उनकी भूमिका को कभी भी सहनायिका के रूप में नहीं लिया गया। उन पर बहुत-सी फ़िल्मों के यादगार गीत फ़िल्माए गए थे। फिलहाल, वह जुहू के एक अपार्टमेंट में अकेले रहती हैं।
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