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Old 13-07-2013, 11:48 AM   #1
VARSHNEY.009
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खंड, प्रखंड, समरकंद




या साल, नववर्ष या नवसंवत्सरऐसे शब्द हैं जिन्हें हर बरस दुहराने का मौका मिल जाता है। वर्ष शब्द का जन्म संस्कृत के वर्षः या वर्षम् से हुआ। इन दोनों शब्दों का अर्थ है बरसात, बौछार या मेघवृष्टि।

जीवेत् शरदः शतम्
शरद ऋतु को भी प्राचीन काल में साल से जोड़कर देखा जाता था। शरदका अर्थ संस्कृत में पतझड़ के अलावा वर्ष भी है। प्रसिद्ध वैदिक उक्ति जीवेत् शरद: शतम् में सौ बरस जीने की बात ही कही गई है। ऋतुबोध से कालगणना का एक और उदाहरण हेमन्त से मिलता है जिसका मतलब है जाड़े का मौसम। यह बना हिम् या हेम् से जिसका अर्थ ही ठंडक या बर्फ है। वैदिक युग में वर्ष के अर्थ में हिम् शब्द भी प्रयोग में लाया जाता था। संस्कृत उक्ति शतम् हिमा: यही कहती है। लेकिन वर्ष, संवत्सर और बरस से भी ज्यादा इस्तेमाल होने वाला शब्द है साल जो हिन्दी में खूब इस्तेमाल किया जाता है पर हिंदी का नहीं है। साल शब्द फारसी से हिंदी-उर्दू में आया जिसका अर्थ पुरानी फारसी में है - जो बीत गया था। फारसी में इसका अर्थ वर्ष ही है और इससे बने सालगिरह, सालाना जैसे लफ्ज खूब बोले जाते हैं।

संवत् , संवत्सर , नवसंवत्सर
उर्दू-हिन्दी में प्रचलित बच्चा संस्कृत के वत्स से ही बना है जिसके मायने हैं शिशु। वत्स के बच्चा या बछड़ा बनने का क्रम कुछ यूँ रहा है - >बच्च>बच्चा या फिर वत्स>वच्छ>बच्छ>बछड़ा। संस्कृत का वत्स भी मूल रूप से वत्सर: से बना है जिसका अर्थ है वर्ष, भगवान विष्णु या फाल्गुन माह। इस वत्सर: में ही सं उपसर्ग लग जाने से बनता है संवत्सर शब्द जिसका मतलब भी वर्ष या साल ही है। नवसंवत्सर भी नए साल के अर्थ में बन गया। संवत्सर का ही एक रूप संवत् भी है।

नए साल का वात्सल्य
वत्सर: से वत्स की उत्पत्ति के मूल में जो भाव छुपा है वह एकदम साफ है। बात यह है कि वैदिक युग में वत्स उस शिशु को कहते थे जो वर्षभर का हो चुका हो। जाहिर है कि बाद के दौर में (प्राकृत-अपभ्रंश काल) में नादान, अनुभवहीन, कमउम्र अथवा वर्षभर से ज्यादा आयु के किसी भी बालक के लिए वत्स या बच्चा शब्द चलन में आ गया। यही नहीं, मनुष्य के अलावा गाय-भैंस के बच्चों के लिए भी बच्छ, बछड़ा, बाछा, बछरू, बछेड़ा जैसे शब्द प्रचलित हो गए। ये तमाम शब्द हिन्दी समेत ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मालवी आदि भाषाओं में खूब चलते हैं। फारसी में भी बच्चः या बचः लफ्ज के मायने नाबालिग, शिशु, या अबोध ही होता है। ये सभी शब्द वत्सर: की श्रृंखला से जुड़े हैं। इन सभी शब्दों में जो स्नेह-दुलार-लाड़ का भाव छुपा है, दरअसल वही वात्सल्य है।
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Old 13-07-2013, 11:49 AM   #2
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तीर्थ
हिंदू परंपरा में तीन तरह के तीर्थ माने गए हैं - 1. जंगम, 2 . स्थावर और3. मानस। जंगम का मतलब होता है जीवधारी, चलने-फिरनेवाला, हिलने-डुलनेवाला। जंगम बना है संस्कृत की गम्धातु से जिसमें जाना, प्रयाण करना वाले भाव हैं। गौरतलब है कि जनमानस में भारत भूमि की पावनतम नदी गंगा की व्युत्पत्ति इसी गम् धातु से मानी जाती है। (यह अलग बात है कि ज्यादातर भाषाविज्ञानी इसका जन्म आस्ट्रो-एशियाई भाषा परिवार से मानते हैं।) जंगम श्रेणी के अंतर्गत जो तीर्थ कहलाते हैं वे साधु, संन्यासी, परिव्राजक, श्रमण, भिक्षु आदि होते हैं। दूसरी श्रेणी है स्थावर तीर्थ की। इसमें सप्तपुरियाँ, चार धाम और देशभर में बिखरे अन्य तीर्थ आते हैं। तीर्थों का तीसरा वर्ग है मानस तीर्थ। धर्म जगत में भारतीय मनीषा की सबसे सुंदर कल्पना लगती है मुझे मानस तीर्थ। कहा गया है कि दुष्ट, कपटी, लोभी, लालची, विषयासक्त मनुष्य उपर्युक्त जंगम और स्थावर तीर्थों का कितना ही दर्शन लाभ क्यों न पा ले, मगर यदि उसमे सत्य, क्षमा, दया, इन्द्रिय संयम, दान और अन्य सदाचार नहीं हैं तो कितने ही तीर्थों का फेरा लगा ले, उसे पावनता नहीं मिल सकती। सार यही है कि ये तमाम सद्गुण ही तीर्थ हैं और सर्वोच्च तीर्थ मनःशुद्धि है। मानस तीर्थ की अवधारणा ही हमें सत्कर्मों के लिए प्रेरित करती है और किसी भी किस्म की कट्टरता, पाखंड और प्रकारांतर से प्रचार-प्रमाद से दूर रखती है। इसीलिए यही तीर्थ मुझे प्रिय है। सदाचारों की सूची में आप आज के युग के अनुरूप फेरबदल कर सकते हैं। बावजूद इसके आप खुद को हल्का ही महसूस करेंगे। पाकिस्तान जा बसे शायर जान एलिया की बुद्ध पर लिखी कविता की आखिरी पंक्तियाँ याद आ रही हैं -

घरबार हैं बीवी बच्चे हैं
आदर्श यही तो सच्चे हैं
वन की तपती धूप में हूँ
मैं खुद भगवान के रूप में हूँ

जीवन कर्म को छोड़ कर, सत्य की तलाश में पत्नी-बच्चों को त्याग यायावरी कर बुद्ध का दर्जा तो हासिल किया जा सकता है, मगर दुनियादारी में रच-बस कर तीर्थ का पुण्य प्राप्त कर लेना बड़ी बात है
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Old 13-07-2013, 11:50 AM   #3
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वापसी



पूर्ववत अथवा 'पहले जैसा' वाले भाव को विभिन्न आशयों में व्यक्त करने के लिए हिन्दी में सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला शब्द कौन-सा है? इस सिलसिले में वापस या वापसी जैसी अर्थवत्ता वाला कोई और शब्द हिन्दी में नजर नहीं आता। अलबत्ता 'लौट' के क्रियारूपों का वापसी के अर्थ में प्रयोग जरूर होता है। कहा जा सकता है कि वापसी जैसी अभिव्यक्ति 'फिर' या 'पुनः' में भी है। मगर ध्यान रहे, ये पूरी तरह वापस के पर्याय नहीं हैं। "मैं वापस आया हूँ" इस वाक्य का प्रयोग 'फिर' या 'पुनः' लगाकर "मैं फिर आया हूँ" अथवा "मैं पुनः आया हूँ" किया जा सकता है, किन्तु "मेरी किताब वापस करो" इस वाक्य में वापस के स्थान पर फिर या पुनः लगाने से मतलब हासिल नहीं होता। हाँ, वापस के स्थान पर 'लौट' के रूप लौटा का प्रयोग करते हुए "मेरी किताब लौटा दो" जैसा वाक्य बनाया जा सकता है। हिन्दी की विभिन्न शैलियों और अन्य कई भारतीय भाषाओं में खूब चलने वाले इस शब्द का प्रयोग करते हुए कभी ऐसा नहीं लगता कि इसकी आमद बाहर से हुई है। बोलचाल की हिन्दी में फारसी के जिन शब्दों ने रवानी पैदा की है, उनमें वापस शब्द का भी शुमार है।
वापस के कुछ प्रयोग देखें - लौट आने के अर्थ में "वापस आना", गुमशुदा चीज मिलने के अर्थ में "वापस पाना", दोबारा अपने अधिकार में लेने के अर्थ में "वापस लेना", किसी को लौटाने के अर्थ में "वापस करना" या "वापस देना" जैसे कई वाक्य हम दिन-भर बोलते हैं। वापस से ही वापसी भी बना है। वापसी में भी लौटने, फिर मिलने, दोबारा प्राप्त करने जैसे भाव हैं। जॉन प्लैट्स के कोश में वापस को फारसी मूल का बताया गया है और इसे फारसी के दो पदों - 'वा'-'पस' के मेल से बना बताया गया है। भाषाविदों के मुताबिक 'वा' का मूल वैदिक भाषा का प्रसिद्ध उपसर्ग 'अप' है जिसमें लौटने का भाव है। ध्यान रहे, ईरान की भाषाएँ अवेस्ता, पहलवी जैसे रास्तों से गुजरते हुए विकसित हुई हैं। फारसी इनमें सबसे प्रमुख और सर्वमान्य है। प्राचीन ईरान में पारसिकों (जरतुश्ती) के धर्मग्रन्थ अवेस्ता में लिखे गए, जिसका वेदों की भाषा से बहुत साम्य है। वेदों की भाषा और संस्कृत को लेकर लोगों में भ्रम है, वे उसे संस्कृत कहते हैं। वैदिकी और अवेस्ता को सहोदर माना जाता है, हालाँकि अवेस्ता वैदिक भाषा जितनी पुरातन नहीं है। संस्कृत के 'अप' उपसर्ग के समकक्ष अवेस्ता के 'अप', लैटिन के 'अब'-ab, गोथिक के 'अफ़'-af, अंग्रेजी के 'ऑफ़' of के मद्देनजर भाषाविज्ञानियों ने प्रोटो भारोपीय भाषा की 'अपो' apo- धातु की कल्पना की है। फारसी उपसर्ग 'वा' में लौटने, फिरने, खुलने, अलग, खिन्न जैसे भाव हैं। अंग्रेजी के पोस्ट post 'पश्च' में भी लौटने का भाव है। संस्कृत के पश्च का फारसी समरूप पस है। कावसजी एडुलजी कांगा लिखित अवेस्ता डिक्शनरी के मुताबिक इसका अवेस्ताई रूप भी पश्च ही है। संस्कृत के पश्च शब्द का अर्थ है 'बाद का', 'पीछे का' आदि। पश्च से ही हिन्दी के कई शब्द बने हैं जैसे पीछे, पिछाड़ी, पीछा आदि। पश्च भारोपीय परिवार का एक महत्वपूर्ण शब्द है और इससे अनेक शब्द बने हैं। वापस में लौटने के भाव में लौटने, फिरने के भाव के पीछे अप से बने फारसी के वा और पश्च से बने पस [अप-wa + पश्च-pas = वापस ] के मेल से जन्मी अर्थवत्ता है। वापस से बना वापसी दरअसल लौटने की क्रिया है जैसे उसकी वापसी हो गई। अब इस वापसी में लौट आने और फिर अपने स्थान पर लौट जाने दोनों तरह के भाव हैं।
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Old 13-07-2013, 11:50 AM   #4
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विद्वान



महा भारत के प्रसिद्ध पात्र पांडु के छोटे भाई और दासीपुत्र विदुर को
मनीषी और बुद्धिमान के तौर पर दर्शाया गया है। विदुरनीति से भी बुद्धिमानीपूर्ण बात ही स्पष्ट होती है। यह शब्द बना है संस्कृत की विद् धातु से। संस्कृत के विद् का मतलब होता है जानना, समझना, सीखना और खोजना। महसूस करना, प्रदर्शन करना, दिखाना आदि भाव भी इसमें समाहित हैं। अत्यधिक ज्ञान भी घातक होता है, इसलिए संस्कृत में धूर्त और षड्यंत्रकारी को भी विदुर कहा गया है।
विद्वान शब्द की उत्पत्ति इसी विद् से हुई है। विद्यामें यही विद् समाया हुआ है जाहिर है, विद्यार्थी भी इसी कड़ी का शब्द है। किसी शब्द के साथ विद् लगा दिए जाने पर मतलब निकलता है जाननेवाला, मसलन भाषाविद् यानी भाषा का जानकार। इसी तरह जाननेवाले के अर्थ में उर्दू-फारसी में दाँ लगाया जाता है जैसे कानूनदाँ। यह दाँ भी इसी विद् का रूप है।

यह जानना दिलचस्प होगा कि अंग्रेजी के विज़न शब्द के पीछे भी यही विद् है। विज़न से ही बना है टेलीविज़न। इसी तरह किसी अनोखी सूझ, विचार, तरकीब के अर्थ में हिंदी भाषी बड़ी सहजता से अंग्रेजी के आइडिया का इस्तेमाल करते हैं। आइडिया से आइडियल। ये तमाम शब्द प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार से ही जन्मे हैं और भाषाशास्त्री इनके पीछे weid जैसी किसी धातु की कल्पना करते हैं जिसका मतलब भी बुद्धिमानी, जानना और समझना ही है। संस्कृत विद्से इसकी समानता गौरतलब है। जाहिर है, संस्कृत इनकी जन्मदात्री नहीं मगर बहन तो अवश्य ही है।
इसी विद् से केवल अंग्रेजी में ही करीब दो दर्जन से ज्यादा शब्दों की रिश्तेदारी है। अन्य योरोपीय भाषाओं में भी इसका योगदान है । इसी से बना है वेद। यही वेद अवेस्ता (फारसी का प्राचीनतम रूप) में वैद , प्राचीन स्लाव में वेडे, लैटिन में वीडियो या वीडेयर, अंग्रेजी में वाइड या वाइस, विज़न और जर्मन में वेस्सेनके रूप में भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं। ये तमाम शब्द इन भाषाओं में भी देखना, जानना, ज्ञान या परखना जैसे अर्थ बतलाते है। विद् ने ही ग्रीक में आइडेन का रूप ले लिया जिसका मतलब है देखना। वहाँ से यह अंग्रेजी के आइडिया,आइडियल जैसे अनेक शब्दों में ढल गया।
पुलाव
विश्व का शायद ही कोई कोना ऐसा होगा जहाँ लोगों ने पुलाव का नाम न सुना होगा। पुलाव के प्रति इसी ललक ने हिन्दी-उर्दू में एक खास मुहावरा बना डाला है - ख़याली पुलाव पकाना अर्थात कल्पनालोक में घूमना, हवाई किले बनाना आदि। पुलाव को किस ज़बान का शब्द माना जाए? यह फारसी में भी है और उर्दू-हिंदी में भी। दरअसल, पुलाव की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है। आइए जानते हैं कैसे।
हर्ष, खुशी आदि का भाव जब मन में संचरित होता है तो इसे पुलक या पुलकित होना कहते हैं। संस्कृत की एक धातु है पुल् जिसका मतलब है रोमांच होना। इससे बना पुलकः जिसका मतलब भी रोमांच के साथ आनंदित होना, गदगद होना, हर्षोत्फुल्ल होना आदि है। गौर करें कि अत्यधिकरोमांचकी अवस्था में शरीर में सिहरन-सी होती है। त्वचा के बाल खड़े हो जाते हैं। इसे ही रोंगटे खड़े होनाकहते हैं। यही पुलकहै। यह पुलक जब चेहरे पर दिखती है तो खुशी, उत्साह, आवेग नुमायाँ हो रहा होता है। यानी खिला-खिला चेहरा। एक तरह की सरसों अथवा राई को भी पुलकः ही कहा जाता है। वजह वही है - खिला-खिला दिखना। राई के दाने पात्र में रखे होने के बावजूद खिले-खिले ही नज़र आते हैं।
पुल् से ही बना है पुलाकः या पुलाकम् जिसका मतलब है सुखाया गया अन्न, भातपिंड, संक्षेप या संग्रह और चावल का माँड़। इससे ही बना पुलावजो बरास्ता फारस, अरब मुल्कों में गया, जहाँ से स्पेन हो कर यूरोप में भी इसने रंग जमा लिया । पुलाव की सबसे बड़ी खासियत है इसकी सुगंध और चावल का दाना-दाना खिला होना। अब जब भी पुलाव खाएँ तो उसके दाने-दाने में पुलक महसूस करें और तब इसके नाम की सार्थकता आपकी समझ में आ जाएगी।
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Old 13-07-2013, 11:51 AM   #5
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रमता जोगी




शब्दकोशों में तीर्थ शब्द का अर्थ है घाट, नदी पार करने का स्थल। बाद में इसमें मंदिर, धार्मिक-पवित्र कर्म करने के स्थल का भाव भी जुड़ता चला गया। इस संदर्भ में गौरतलब है कि प्रायः सभी प्राचीन सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं। यही वजह है कि नदी पार करने के स्थान ही मनुष्यों के समागम, विश्राम का केन्द्र बने। दूर-दूर से देशाटन करने निकले यायावरों का जमाव ऐसे ही घाटों पर होता जहाँ वे विश्राम करते थे
तीर्थ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की तृ धातु से हुई है जिसका मतलब हुआ बहना, तैरना, पार जाना, बढ़ना, आगे जाना आदि। तृ से तरलता के अर्थवाले कई शब्द बने हैं, जैसे तरल, तरंग, तर (गीला), तरंगिणी (नदी)। तीर्थ बना है तीरम् से जिसमें नदी या सागर के तट या किनारे का भाव शामिल है। त वर्णक्रम में ही आता है ध, सो तृ की तरह धृ धातु का मतलब भी चलते रहना, थामना आदि हैं। धृ से ही बना है धारा जिसका अर्थ होता है नदी, जलरेखा, सरिता, बौछार आदि।
त वर्णक्रम में ही आता है न वर्ण। तीर की तर्ज पर ही नीर का मतलब भी होता है पानी, जलधारा। यह बना है नी धातु से जिसमें ले जाना, संचालन करना आदि भाव शामिल हैं। नेतृत्व, निर्देश, नयन आदि शब्द इससे ही बने हैं क्योंकि इन सभी में गतिशीलता का भाव है। त वर्णक्रम की अगली कड़ी में द आता है। इससे बने दीर में भी बहाव, किनारा, धारा का ही भाव है। फारसी में नदी के लिए एक शब्द है दर्या (हिन्दी रूप दरिया), जो इसी दीर से बना है।
गति, बहाव और आगे बढ़ने की वृत्ति का बोध करानेवाले इन तमाम शब्दों की रिश्तेदारी अंततः तीर्थ से स्थापित होती है, जिसका संबंध तीर यानी किनारा और नीर यानी पानी से है। जाहिर है, कहावतें यूँ ही नहीं बन जातीं। रमता जोगी बहता पानी जैसी कहावत में यही बात कही गई है कि संन्यासी की चलत-फिरत नदी के बहाव जैसी है जिसे रोका नहीं जा सकता। पानी रुका तो निर्मल, पावन और शुद्ध नहीं रहेगा। इसी तरह जोगी के पैर थमे तो ज्ञान गंगा का स्रोत भी अवरुद्ध हो जाएगा।
सैलानी
सैलानी अरबी मूल का शब्द है और बरास्ता फारसी, हिन्दी-उर्दू में दाखिल हुआ। इस शब्द की व्युत्पत्ति देखें तो वहाँ भी बहाव, पानी, गति ही नजर आएँगे। अरबी में एक लफ्ज है सैल जिसके मायने हैं पानी का बहाव, बाढ़ या जल-प्लावन। किसी भी किस्म का प्रवाह - चाहे भावनाओं का या लोगों का, हिन्दी-उर्दू में सैलाब कहलाता है। सैल से ही बन गया सैलानी अर्थात जो गतिशील रहे। इसी कड़ी में आता है सैर जिसका मतलब है तफरीह, पर्यटन, घूमना-फिरना आदि। इससे बने सैरगाह, सैरतफरीह इत्यादि।

घुमक्कड़
यायावर के लिए घुमक्कड़ एकदम सही पर्याय है। घुमक्कड़ वह जो घूमता-फिरता रहे। यह बना है संस्कृत की मूल धातु घूर्ण्से जिसका अर्थ है चक्कर लगाना, घूमना, फिरना, मुड़ना आदि। घूमना, घुमाव, घुण्डी, घुमक्कड़, गर्दिश आदि शब्द इसी से उपजे हैं। आवारागर्द में जो गर्द है वह उर्दू का प्रत्यय है। आवारा से मिल कर मतलब निकला व्यर्थ घूमनेवाला । इसका अर्थविस्तार बदचलन तक पहुँचता है। यूँ उर्दू-हिन्दी में गर्द का मतलब है धूल, खाक। यह गर्द भी घूर्ण् से ही संबंधित है अर्थात घूमना-फिरना। धूल या या खाक भी एक जगह स्थिर नहीं रहती। इस गर्द की मौजूदगी भी कई जगह नजर आती है। जैसे गर्दिश जिसका अर्थ है घूमते रहना।
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अशरफी




बादशाहों-सुल्तानों के किस्से-कहानियों में अक्सर अशरफी का उल्लेख होता रहा है। यह सोने की एक मुद्रा थी जो सुदूर मिस्र से लेकर भारत तक मशहूर थी।पुराने जमाने में बादशाह जब किसी पर कृपालु होते तो उसे अशरफियों की थैली भेंट देते थे। किस्सा यह भी है कि कई बार दरबारी शायरों और कवियों को हर पंक्ति पर एक-एक अशरफी इनाम में मिलती थी।
अशरफी चाहे किस्सों में बेहद मशहूर रही हो, मगर अर्थव्यवस्था में यह मुद्रा कभी टिकाऊ नहीं रही औरदिनार का ही सिक्का जमा रहा। अशरफी के तौर पर अपनी पहचान बनानेवाली इस प्रसिद्ध स्वर्णमुद्रा का यह नाम दरअसल मिस्र के एक प्रसिद्ध सुल्तान के नाम पर पड़ा। अल-अशरफ अद-दीन बर्सबी (1422 -1438) इतिहास में कई प्रशासनिक सुधारों के लिए जाना जाता है। मौद्रिक सुधार के तहत उसने तब प्रचलित स्वर्ण मुद्रा दिनार की जगह एक नई मुद्रा चलाई जो 3.3 ग्राम वजन की थी। अशरफी मूलतः दिनार ही थी, फर्क सिर्फ उसके आकार और वजन का था। उन दिनों प्रचलित दिनार का वजन 4.25 ग्राम होता था। अशरफी का सही नाम दरअसल अशरफी दिनार ही था।
अशरफी के जन्म के पीछे अरबी जबान का अशरफ शब्द है। अशरफ का अर्थ होता है भद्र, सज्जन, शिष्ट अथवा आदर्श। सेमेटिक भाषा परिवार के इस शब्द के आगे-पीछे और भी कई शब्द हैं जो अरबी, फारसी, उर्दू-हिन्दी में प्रचलित हैं। अशरफ बना है शरफ से जिसका अर्थ होता है श्रेष्ठता, उच्चता,कुलीनता आदि। सज्जन अथवा कुलीन के अर्थ में शरीफ जैसा शब्द, जो बोलचाल की हिन्दी में खूब रचा-बसा है, इससे ही बना है। शराफतशब्द सभ्यता, कुलीनता, भद्रता के अर्थ में प्रचलित है। अशरफ का शुद्ध रूप अश्रफ है। इस तरह अशरफी हुआ अश्रफी, मगर ये दोनों ही रूप हिन्दी को अमान्य हैं। मुशर्रफ भी इसी कड़ी का शब्द है जिसका मतलब होता है सम्मानित, सरल, कुलीन। वैसे अशरफ शब्द फारसी मूल का भी बताया जाता है और अवेस्ता के अशर से भी इसकी व्युत्पत्ति कही जाती है जिसका अर्थ होता है परमशुद्ध या सात्विक। गौरतलब है कि अशरफी ने चाहे दिनार की जगह नई मुद्रा के रूप में जन्म लिया हो, मगर वह ज्यादा दिनों तक बाजार को गर्म नहीं रख पाई। अलबत्ता कहानियों के खजाने में आज भी अशरफी की खनक मौजूद है। शरफ से बनेअशरफ और मुशर्रफ तो व्यक्तिनाम के तौर पर प्रचलित हैं ही, मजे की बात यह भी कि अशरफ से बनी अशरफी भी भारत-पाकिस्तान में अशर्फीलाल बनकर चल रही है।

दिनार
अब बात दिनार की। ईसापूर्व 45 से लेकर ईसा के बाद चौथी-पाँचवीं सदी तक रोमन साम्राज्य से भी भारत के कारोबारी रिश्ते रहे। भारत के पश्चिमी समुद्र तट के जरिए यह कारोबार चलता रहा। भारतीय माल के बदले रोमन अपनी स्वर्ण मुद्रा दिनारियस में भुगतान करते थे। ये व्यापारिक रिश्ते इतने फले-फूले कि दिनारियस लेन-देन के माध्यम के रूप में बरसों तक दिनार के तौर पर डटी रही। कनिष्क के जमाने (98ई.) का एक उल्लेख गौरतलब है- 'भारतवर्ष हर साल रोम से साढ़े पाँच करोड़ का सोना खींच लेता है।' जाहिर है यह उल्लेख रोमन स्वर्णमुद्रादिनारियस का ही है। रोम में तब भारतीय मसालों और मलमल की बेहद माँग थी। ग्रीको-रोमन दिनार यूँ तो स्वर्णमुद्रा थी मगर उसमें पच्चीस फीसदी चाँदी भी होती थी। भारत से गायब होने के बावजूद यह आज भी हिन्दी के शब्दकोशों में संस्कृत शब्ददीनार के रूप में स्वर्णमुद्रा के अर्थ में डटी हुई है। आप्टे के संस्कृत कोश में भी यह दीनार के रूप में मौजूद है। इसका उल्लेख सिक्के के साथ-साथ आभूषण के तौर पर भी हुआ है।उर्दू-फारसी शब्दकोश में इसे फारसी शब्द बताया गया है।
दिनार आज भी दुनिया के कई मुल्कों की प्रमुख मुद्रा है। ज्यादातर अरबी मुल्कों में यही चलती है। दिलचस्प ये कि किसी जमाने की स्वर्णमुद्रा आज सिर्फ कागजी मुद्रा बन कर रह गई है।एशियाई मुल्कों के अलावा कुछ यूरोपीय देशों जैसे यूगोस्लाविया, अल्बानिया, सर्बिया आदि में भी दिनार का चलन है। आखिर क्यों न हो, दिनार की जन्मभूमि तो यही है।
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लाट साहब




आम तौर पर खुद को तुर्रम खाँ समझनेवाले लोगों को व्यंग्य में लाट साब कहा जाता है। किसी जमाने में हिन्दुस्तान में लाट साब शब्द व्यंग्य से नहीं, बल्कि सचमुच आदर-सम्मान से कहा जाता था। वह जमाना था अंग्रेजों का और अंग्रेज हाकिम ही लाट साहब या लाटसाब कहलाता था। हालँकि लाटसाब कोई घोषित पदवी नहीं थी, लेकिन ब्रिटिश राज द्वारा भारत में नियुक्त सर्वोच्च अधिकारी, जो गवर्नर जनरल या वायसराय होता था, लॉर्ड कहलाता था। जाहिर-सी बात है कि इस लॉर्ड के मुल्क में खूब चर्चे होते थे। लिहाजा हिन्दी क्षेत्र में इस शब्द का आसान देशी रूप बना लिया गया - लाटसाब। लॉर्ड स्तर के अन्य महानुभावों का भी इंग्लैंड से आना-जाना होता रहता था, जिससे इस पदवी की ठसक और रुतबे की अच्छी-खासी धमक भारतीय जनमानस में बन गई जिसके चलते किसी भी ऊँचे ओहदेदार फिरंगी के लिए भी लाटसाब शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा। अंग्रेज गए, अंग्रेजी का लॉर्ड भी गया, मगर बोलचाल की जबान में लाटसाब शब्द आज भी हिन्दी में बसा हुआ है। खास तौर पर देहात में इसे खूब बोला जाता है।
अं ग्रेजी के लॉर्ड शब्द का मूल अर्थ वही है जो भारत में अन्नदाता शब्द का है। अन्नदाता अर्थात सर्वशक्तिमान ईश्वर, भगवान। प्राचीन काल में मनुष्य अपने भोजन के लिए स्वयं प्रबंध करता था मगर जब राज्य व्यवस्था का निर्माण और श्रम का मूल्यांकन शुरू हुआ तो मनुष्य का भोजन भुगतान पर निर्भर हो गया। अन्नदाता जैसे शब्द तभी जन्मे। जो शक्ति भोजन का प्रबंध करती है उसे ही अन्नदाता कहा गया। लॉर्ड (lord) शब्द बना है मध्यकालीन अंग्रेजी के हैफोर्ड halford से, जिसमें गृहपति, मुखिया, शासक, वरिष्ठ, ईश्वर आदि भाव समाहित थे। अंग्रेजी में लोफ (loaf) का अर्थ होता है ब्रेड, रोटी, जो बना है half अर्थातहैफ से। इस तरह लॉर्ड बना half+ward = loaf + ward से, जिसका अर्थ हुआ रोटी देनेवाला यानी स्वामी, मालिक। लॉर्ड का स्त्रीवाची है लेडी, जिसका पुराना रूप है लैफ्डी अर्थात loaf-kneader, जिसका मतलब हुआ आटा गूँथनेवाली। मगर भाव है स्वामिनी, मालकिन आदि। इसकी व्याख्या अन्नपूर्णा में भी तलाशी जा सकती है। बोलचाल की हिंदी में चाहे लॉर्ड शब्द न चलता हो, मगर लेडी शब्द तो यूँ रचाबसा है कि कुछ मामलों में तो उसका विकल्प नहीं मिलता। लेडी का बहुवचन लेडीज बहुत प्रचलित है। महिला सवारी के साथ तो हिंदी का कोई दूसरा शब्द प्रयोग में ही नहीं आता। उदाहरण के लिए लेडीज सवारी या लेडीज डिब्बा (कूपा) में नारी, स्त्री, महिला जैसे शब्द जोड़ कर देखें, फर्क साफ पता चल जाएगा।
अं ग्रेजी राज में ही एक और शब्द चलता था, लपटन साब । दरअसल, यह लैफ्टिनेंट lieutenant का देशी उच्चारण था। यह बना है पुरानी फ्रेंच के lieu+tenant से, जिसका अर्थ है स्थान का मालिक, मगर इसमें भाव है स्थानापन्न का। अर्थात वरिष्ठ अधिकारी की गैरमौजूदगी में जो काम सँभाले। जैसे डिप्टी, नायब आदि। इस शब्द का इस्तेमाल खास तौर पर सेना में ज्यादा होता है।
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Old 13-07-2013, 11:52 AM   #8
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पति और बादशाह



पति और परमेश्वर में तो रिश्तेदारी है, मगर पति और बादशाह में क्या रिश्तेदारी है? दरअसल पति-परमेश्वर शब्द-युग्म मुहावरा है। मगर पति और बादशाह सहोदर हैं। एक ही मूल से जन्मे हैं। पति शब्द का मूल अर्थ है स्वामी, प्रभु, ईश्वर आदि। गौरतलब है ये सभी अर्थ संरक्षण, पालन की ओर इशारा कर रहे हैं। यूँ पति और पत्नी दोनों ही खुद को कभी बादशाह-बेगम से कम नहीं समझते और कभी गुलाम से भी बदतर समझने लगते हैं। मन की रुचि जैती जितौ, तित तैती रुचि होय...
पति अर्थात विवाहिता स्त्री का संगी, भर्तार, शौहर, हसबैंड वगैरह-वगैरह। पति शब्द बना है संस्कृत और इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की पा धातु से जिसमें रक्षा करना, पालन करना, बचाना, देखभाल करना जैसे भाव हैं। 'पा' उपसर्ग लगने से परिपालक, परिपालन, प्रतिपालन आदि शब्द बने हैं जिनमें शासक, शासन, रक्षण जैसे भाव ही समाहित हैं। पति शब्द का अर्थ मालिक, शासक, राजा ही होता है क्योंकि वह प्रजा को संरक्षण प्रदान करता है। कन्या जब तक अविवाहित है तब तक उसका संरक्षण पिता करता है। गौरतलब है कि पिता शब्द भी उसी 'पा' धातु से बना है जिसमें संरक्षण और देखभाल का भाव है, जिससे पति शब्द जन्मा है मगर किसी भी कोश या संदर्भ में पिता शब्द की व्याख्या इस भाव से नहीं मिलती। अलबत्ता 'पा' से ही बने पालक या पाल शब्द का अर्थ राजा, शासक, संरक्षक के साथ पिता भी मिलता है। विवाहिता के संगी को पति कहने के पीछे भाव यही है कि पिता के घर संरक्षित कन्या के सारे दायित्व अब उसने उठा लिए हैं। वही उसका पालक है। पति शब्द की व्याप्ति राष्ट्रपति, कुलपति, अधिपति जैसे शब्दों में उसके संरक्षणकर्ता होने का ही बोध कराती है।

1911 में जॉर्ज पंचम भारत आया था, तब के दस्तावेजों में उसे पादशाह ही लिखा गया है। संस्कृत की 'पा' धातु जस की तस ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में भी इसी संरक्षण के भाव के साथ मौजूद है। यही नहीं, अवेस्ता में पति शब्द का अर्थ भी संरक्षक ही है। पा का प्रसार यूरोपीय भाषाओं में भी मिलता है जैसे ग्रीक में पोमा यानी आवरण, पीमो यानी मार्गदर्शक लैटिन में पोती यानी ताकतवर, शक्तिशाली आदि। अवेस्ता से पुरानी फारसी में भी पति शब्द बरकरार रहा और शाह शब्द से जुड़ कर पातशाह, पादशाह होते हुए बादशाह में ढल गया। तुर्की में आटोमन शासकों द्वारा सम्मानित नागरिकों को दी जानेवाली प्रसिद्ध उपाधि रही है पाशाजिसका मतलब था अधिकार-संम्पन्न, कुलीन। तुर्की में पाशा नाम धारी अनेक सेनाधिकारी या राज्यपाल हुए हैं। यह पाशा दरअसल पादशाह ही है जो पादशाह > पात्शाह > पाश्शा > होते हुए पाशा के संक्षिप्त रूप में ढल गया । भारत में भीपाशा उपनाम अनजाना नहीं है। पाशा का ही दूसरा रूप बाशा भी है। हैदराबाद की निजामशाही में बाशा उपाधियाँ दी जाती थीं। इसका अरबी रूप बासा है। भारत में आज भी प्रमुख शहरों में पत्थरों के खुत्बे दिख जाएँगे जो 1911 में जॉर्ज पंचम की भारतयात्रा की स्मृति में अंग्रेजी शासन और रजवाड़ों ने लगवाए थे। इन खुत्बों में जॉर्ज पंचम को पादशाह ही लिखा गया है। पंजाबी में भी पादशाह शब्द चलता है। सिख धर्म में ईश्वर को सच्चा पादशाह कहा गया है।
विकिपीडिया से : माना जाता है कि 'पति' शब्द अति प्राचीन है और आदिम हिंद-यूरोपीय भाषा से उत्पन्न हुआ था। अवस्ताई भाषा जैसी प्राचीन ईरानी भाषाओँ में भी 'दमन-पैति' जैसे शब्द थे, जो संस्कृत के 'दम्पति' शब्द का सजातीय शब्द है। 'पति' के सजातीय शब्द बहुत-सी हिंद-यूरोपीय भाषाओँ में मिलते हैं। मसलन अंग्रेज़ी का एक शब्द डॅस्पॉट (despot) है, जो यूनानी भाषा के δεσ-πότης (देस-पोतिस) से विकसित हुआ है। यूनानी में इसका अर्थ मालिक, स्वामी, शासक हुआ करता था और अंग्रेजी में इसका मतलब बदलकर 'तानाशाह' हो गया है। लातिनी भाषा में इस 'पोती' का अर्थ यूनानी और संस्कृत से जरा बदल गया और 'स्वामी' की जगह इसका अर्थ 'क्षमता' बन गया। यह अर्थ-परिवर्तन भाषा-विज्ञान में संज्ञा से विशेषण बन जाने के परिवर्तन का उदाहरण बुलाया गया है। इस से अंग्रेजी के potent (शक्तिशाली), potential (क्षमता) और potentate (शासक) शब्द आए हैं। यूरोप की लिथुएनियाई भाषा में 'पत्स' (pats) शब्द का अर्थ हिंदी के 'पति' की तरह ही 'शौहर' होता है।
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Old 13-07-2013, 11:53 AM   #9
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पेटी से खोखे तक




धन-दौलत के कई ठिकाने हैं। सबसे बड़ा ठिकाना तो खजाना कहलाता है। तिजौरी (तिजोरी), पेटी या आलमारी छोटे-छोटे खजाने हैं। तिजौरी में गहने-बर्तन-रुपए सब आ जाते हैं। हिंदी में तिजौरी शब्द खूब प्रचलित है। यह आम तौर पर सेठ लोगों के यहाँ रहती है जिनका बड़ा कारोबार होता है। नगदी लेन-देन, गिरवी और सूद पर उधार देने वालों के यहाँ इसके दर्शन हो यूँ छोटी-मोटी तिजौरियाँ दुकानदार भी रखते हैं। तिजौरी शब्द मूल रूप से सेमेटिक भाषा परिवार का है और अरबी, हिब्रू, सीरियाई आदि कई भाषाओं में इसके कई रूप प्रचलित हैं। फारसी, उर्दू, हिंदी का तिजौरी शब्द बना है अरबी के तजारा से जिसका अर्थ होता है व्यापार। इसका हिब्रू रूप है तगार। तजारा का ही क्रिया रूप बना तेजारत (अरबी-फारसी में यही रूप प्रचलित है) जो हिंदी-उर्दू में तिजारत के रूप में प्रचलित है और जिसमें व्यापार अथवा कारोबार करने का भाव है। तुर्की जबान में इसका रूप हुआ तिकरेट
व्यापार से संबंधित के अर्थ में हिंदी में तिजारत से तिजारती जैसा शब्द बना लिया गया है। आश्चर्य है कि जिस हिंदी ने अरबी के तजारा से तिजौरी और तिजारती जैसे शब्द बेधड़क बना लिए, उसने व्यापारी के लिए इसी कड़ी का ताजिर शब्द नहीं अपनाया। हिंदी में व्यापारी के लिए अरबी-फारसी मूल का सौदागर शब्द प्रचलित है। कारोबार से भी कारोबारी जैसा शब्द बना लिया गया जिसका अर्थ भी व्यापारी ही है। गुजरात में तिजौरी उपनाम भी होता है।
ति जौरी दरअसल सामान्य से कुछ अधिक मजबूत पेटी ही होती है। सामान्य दुकानदार तिजौरी के नाम पर पेटी ही रखते हैं। जिस तरह ताजिर यानी व्यापारी का तिजौरी से रिश्ता है वैसे ही पेटी का भी आम भारतीय सेठ से रिश्ता है। सेठ की कल्पना उसके फूले पेट के बिना संभव नहीं है और पेट से ही पेटी का रिश्ता है। पेटी शब्द संस्कृत मूल का है - यह बना है पेटम् या पेटकम् से जिसका अर्थ होता है थैली, संदूक, बक्सा आदि। पेटम् शब्द बना है पिट् धातु से जिसमें भी थैली का ही भाव है। पेट उदर के अर्थ में सर्वाधिक जाना-पहचाना शब्द है। पेट अगर बाहर निकला हो तो तोंद कहलाता है। गले से नीचे की ओर जाती हुई शरीर के मध्य भाग की वह थैली, जिसमें भोजन जमा होता है, पेट कहलाता है। किसी वस्तु के भीतरी-खोखले हिस्से को पेटा कहते हैं।
नदी की तली या जहाज की तली भी पेटा ही कहलाती है। पिटक, पेटिका आदि भी इसी कड़ी के अन्य शब्द हैं। समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में हारमोनियम बाजे के लिए पेटी शब्द आम तौर पर इस्तेमाल होता है। इस विदेशी वाद्य की बक्सानुमा आकृति के चलते इसे यह नाम मिला।

मुं बइया बोलचाल में पेटी अपने आप में मुद्रा का पर्याय बन गई है। मुंबई के अंडरवर्ल्ड में पेटी शब्द का अर्थ दस लाख से पच्चीस लाख रुपए तक होता है। इसका मतलब हुआ इतनी रकम से भरी पेटी। भाई लोग एक पेटी, दो पेटी बोलते हैं और समझनेवाले समझ जाते हैं। इसी तरह एक और शब्द है खोखा। पेटी से अगर बात नहीं बनती है तो खोखा माँगा जाता है। खोखा यानी एक करोड़ रुपए। आम तौर पर सड़क किनारे बक्सानुमा निवास और दुकानें, जो लकड़ी अथवा टीन की बनी होती हैं, खोखा कहलाती हैं। सामान भरने के छोटे डिब्बों को भी खोखा कहते हैं। खोल या खोली शब्द भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं। महाराष्ट्र में खोल कहते हैं गहराई को। गहरा करने की क्रिया भी खोल ही कहलाती है। खोली से अभिप्राय छोटे कमरे से है। इन तमाम शब्दों का रिश्ता खुड् धातु से है जिसमें गहरा करने या खोदने का भाव है। कुछ विद्वान शुष्क शब्द से खोखला शब्द की व्यत्पत्ति बताते हैं जैसे सूखने के बाद वृक्ष में कोटर हो जाती है। मगर कोटर से ही खोखलका जन्म हुआ होगा, मुझे ऐसा लगता है।
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चौथी सदी से पतलून




संत की देन
दुनिया भर में पुरुषों के अधोवस्त्र के तौर पर सर्वाधिक लोकप्रिय पोशाक पैंट या ट्राउजर ही है। इस विदेशी शैली के वस्त्र से भारत के लोग पंद्रहवीं सदी के आसपास यूरोपीय लोगों के आने के बाद ही परिचित हुए। अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में भारत के पढ़े-लिखे तबके ने इसे अपनाया और शहरी समाज में इसे स्वीकार कर लिया गया। इसकी लोकप्रियता के पीछे अंग्रेजी शिक्षा और फैशन का हाथ था तो दूसरी ओर धोती की तुलना में इसका आरामदेह होना भी था। गौरतलब है कि भारतीय समाज में अंग्रेजों के आने से पहले धोती ही पुरुषों की आम पोशाक थी। आज भी गाँवों में इसे पहना जाता है। पैंट का देशी रूप हो गया पतलून। पतलून उच्चारण दरअसल उर्दू की देन है। आखिर इस शब्द के मायने क्या हैं?
यह बात अजीब लग सकती है कि जिस पैंट या पतलून को नए जमाने की चीज कहकर किसी जमाने में हमारे बुजुर्ग नाक-भौं सिकोड़ा करते थे, उसके पीछे एक यूरोपीय यायावर-संत का नाम जुड़ा है। चौथी सदी के वेनिस में पैंटलोन नाम के एक रोमन कैथोलिक संत रहा करते थे। वे अपने शरीर के निचले हिस्से में ढीला-ढाला वस्त्र पहनकर यहाँ-वहाँ घुमक्कड़ी करते थे। कुछ कथाओं के मुताबिक ये संत बाद में किसी धार्मिक उन्माद का शिकार होकर लोगों के हाथों मारे गए। कहा जाता है कि जब वेनिसवासियों को अपनी भूल का एहसास हुआ तो पश्चात्ताप करने के लिए कुछ लोगों ने संत जैसा बाना धारण कर लिया। बाद में इस निराली धज को ही पैंटलोन का नाम मिल गया जो बाद में पैंट के रूप में संक्षिप्त हो गया।
पैंटलोन शब्द का रिश्ता इटली के पॉपुलर कॉमेडी थिएटर का एक मशहूर चरित्र रहा है जिसे अक्सर सनकी, खब्ती बूढ़े के तौर पर दिखाया जाता रहा। यह अजीबोगरीब चरित्र भी अपने चुस्त अधोवस्त्र की वजह से मशहूर था।
किस्सा बंधन का
संस्कृत की बंध् धातु से ही बना है हिंदी का बंधन शब्द। इसी तरह रोकना, ठहराना, दमन करना जैसे अर्थ भी बंध् में निहित हैं। हिंदी-फारसी सहित यूरोपीय भाषाओं में भी इस बंधन का अर्थ विस्तार जबर्दस्त रहा। जिससे आप रिश्ते के बंधन में बँधे हों वह कहलाया बंधु अर्थात भाई या मित्र। इसी तरह, जहाँ पानी को बंधन में जकड़ दिया तो वह कहलाया बाँध। बंधन में रहने वाले व्यक्ति के संदर्भ में अर्थ होगा बंदी यानी कैदी। इससे ही बंदीगृह जैसा शब्द भी बना। बहुत सारी चीजों को जब एक साथ किसी रूप में कस या जकड़ दिया जाए तो बन जाता है बंडल। गौर करें तो हिंदी-अंग्रेजी में इस तरह के और भी कई शब्द मिल जाएँगे - मसलन, बंधन, बंधुत्व, बाँधना, बंधेज, बाँधनी, बाँध, बैंडेज, बाउंड, रबर बैंड, बाइंड, बाइंडर वगैरह-वगैरह। अंग्रेजी के बंडल और फारसी के बाज प्रत्यय के मेल से हिंदी में एक मुहावरा भी बना है - बंडलबाज, जिसका मतलब हुआ गपोड़ी, ऊँची हाँकने वाला, हवाई बातें करने वाला या ठग। इस रूप में आपस में गठबंधन करने वाले सभी नेता बंडलबाज हुए कि नहीं?
बात करें फारसी में संस्कृत बंध् के प्रभाव की। जिस अर्थ प्रक्रिया ने हिंदी में कई शब्द बनाए उसी के आधार पर फारसी में भी कई लफ्ज बने हैं जैसे बंद: जिसे हिंदी में बंदा कहा जाता है। इस लफ्ज के मायने होते हैं गुलाम, अधीन, सेवक, भक्त वगैरह। जाहिर-सी बात है कि ये तमाम अर्थ भी एक व्यक्ति का दूसरे के प्रति बंधन ही प्रकट कर रहे हैं। इसी से बना बंदापरवर यानी प्रभु, ईश्वर। वही तो भक्तों की देखभाल करते हैं। प्रभु के साथ लीन हो जाना, बँध जाना ही भक्ति है, इसीलिए फारसी में भक्ति को कहते हैं बंदगी। इसी तरह एक और शब्द है बंद, जिसके कारावास, अंगों का जोड़, गाँठ, खेत की मेड़, नज्म या नग्मे की एक कड़ी जैसे अर्थों से भी जाहिर है कि इसका रिश्ता बंध् से है।
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