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Old 19-04-2014, 09:41 PM   #1
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दुनिया का दूसरा जिब्राल्टर

अजमेर. आक्रमण, सुरक्षा और स्थापत्य का अद्भुत नमूना है तारागढ़ का किला। अजमेर शहर में जाने पर ऐसा लगता है मानो तारागढ़ हमें बुला रहा है। यह अपने गौरवशाली इतिहास के लिए फेमस है। अजमेर की सबसे ऊंची पर्वत शृंखला पर स्थित तारागढ़ दुर्ग को सन् 1832 में भारत के गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने देखा तो उनके मुंह से निकल पड़ा- ''ओह दुनिया का दूसरा जिब्राल्टर'' और मुगल बादशाह अकबर ने तो इसकी श्रेष्ठता भांप कर अजमेर को अपने साम्राज्य का सबसे बड़ा सूबा बनाया था। तारागढ़ जिसके भी अधीन रहा, वह दुर्ग के द्वार पर कभी लड़ाई नहीं हारा।

इस किले के खासियत के बारे में जिसे कोई भी भेद न पाया।

यह किला 1 हजार 885 फीट ऊंचे पर्वत शिखर पर दो वर्ग मील में फैला हुआ है। यह ऊंचाई इतनी ज्यादा है कि दूर-दूर से इस किले का दीदार किया जा सकता है। इसकी बनावट को देख बेहद सुखद अनुभव होता है। इसके चारो तरफ देखें तो एक ओर गहरी घाटी, दूसरी ओर लगातार तीन पर्वत शृंखलाएं, तीसरी ओर सीधी ढलान और चौथी ओर अजमेर शहर का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है।
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Old 19-04-2014, 09:41 PM   #2
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यह ऐतिहासिक दुर्ग अजमेर के चौहान राजा अजयराज द्वितीय ने 1033 ई. में बनवाया था। सन् 1505 में मेवाड़ के राजकुमार पृथ्वीराज ने इस पर अधिकार किया तथा अपनी रानी ताराबाई के नाम से दुर्ग का नाम तारागढ़ रख दिया। तारागढ़ की प्राकृतिक सुरक्षा एवं अनूठे स्थापत्य के कारण ही मुगल साम्राज्य का सबसे बड़ा सूबा बनाया जिसमें उस समय 60 सरकारें व 197 परगने थे।

तारागढ़ का स्थापत्य अनूठा है। दुर्ग की विशेषता किले को ढकने वाली वर्तुलाकार दीवार है। ऐसा भारत के किसी भी दुर्ग में नहीं है। इसमें प्रवेश के लिए एक छोटा-सा द्वार है। उसकी बनावट भी ऐसी है कि बाहर से आने वाले दुश्मों को पंक्तिबद्ध करके आसानी से सफाया किया जा सके। मुख्यद्वार को ढकने वाली दीवार में भीतर से गोलियां और तीर चलाने के लिए पचासों सुराख हैं।
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Old 19-04-2014, 09:41 PM   #3
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किले के चारों तरफ 14 बुर्ज हैं जिन पर मुगलों ने तोपें जमा की थी। इन्हीं बुर्जों ने तारागढ़ किले को अजेय बना दिया था। इसलिए तारागढ़ जिसके भी अधीन रहा, वह दुर्ग के द्वार पर कभी लड़ाई नहीं हारा। 100 से ज्यादा युद्धों के साक्षी इस दुर्ग का भाग्य मैदानी लड़ाई के निर्णयों के अनुसार ही बदलता रहा। तारागढ़ के चौदह बुर्जों का विशेष महत्व था।

नोट:- ऐसी ईमारत या ढाँचे को कहते हैं जिसकी ऊंचाई उसकी चौड़ाई से काफी अधिक हो। अगर ढांचा ज़्यादा ऊंचा हो तो उसे मीनार (miraret) कहा जाता है, हालांकि साधारण बोलचाल में कभी-कभी 'बुर्ज' और 'मीनार' को पर्यायवाची शब्दों की तरह प्रयोग किया जाता है।
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Old 19-04-2014, 09:42 PM   #4
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बड़े दरवाजे से पूरब की ओर 3 बुर्जें हैं-घूंघट बुर्ज, गुमटी बुर्ज तथा फूटी बुर्ज। घूंघट बुर्ज दूर से दिखाई नहीं देती। बुर्ज की इस प्रकार की संरचना युद्धनीति के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण मानी जाती है। बुर्जों के अलावा दुर्ग का दो किलोमीटर लम्बी दीवार भी इसकी विशेषता है। इस दीवार पर दो घुड़सवार आराम से साथ-साथ घोड़े दौड़ा सकते थे। कहते हैं पहले पूरा शहर इसी परकोटे के भीतर रहता था।
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Old 19-04-2014, 09:42 PM   #5
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तारागढ़ का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों ने इसमें व्यापक तोडफ़ोड़ की, जिसके परिणामस्वरूप तोरणद्वार, टूटी-फूटी बुर्जों, मीरान साहब की दरगाह आदि के अलावा आज कुछ भी शेष नहीं है। चौहानों के बाद अफगानों, मुगलों, राजपूतों, मराठों और अंग्रेजों के बीच इस दुर्ग को अपने-अपने अधिकार में रखने के लिए जो छोटे-बड़े युद्ध हुए उनका अनुमान इन ऐतिहासिक तथ्यों से लगाया जा सकता है-

1192 गढ़ पर गौरी का अधिकार, 1202 राजपूतों का आधिपत्य, 1226 में सुल्तान इल्तुतमश के अधीन, 1242 में सुल्तान अलाउद्दीन मसूद का कब्जा, 1364 में महाराणा क्षेत्र सिंह का अधिकार, 1405 में चूण्डा राठौड़ का प्रभुत्व, 1455 में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी का अधिकार, 1505 में मेवाड़ के सिसोदिया राजपूतों का कब्जा, 1535 में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह का अधिकार, 1538 में जोधपुर के राजा मालदेव का प्रभुत्व, 1557 में हाजी खां पठान का कब्जा, 1558 में मुगलों का अधिकार, 1818 में अंग्रेजों का अधिकार।

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Old 19-04-2014, 09:43 PM   #6
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आम का पेड़, काटने पर निकलता था खून


पानीपत. हरियाणा प्रदेश पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर बेहद गौरवमयी एवं उल्लेखनीय स्थान रखता है। हरियाणा की माटी का कण-कण शौर्य, स्वाभिमान और संघर्ष की कहानी बयां करता है। महाभारतकालीन ‘धर्म-यृद्ध’ भी हरियाणा प्रदेश की पावन भूमि पर कुरूक्षेत्र के मैदान में लड़ा गया था और यहीं पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘गीता’ का उपदेश देकर पूरे विश्व को एक नई दिशा दी थी। उसी प्रकार हरियाणा का पानीपत जिला भी पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर अपना विशिष्ट स्थान रखता है। महाभारत काल में युद्ध को टालने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने शांतिदूत के रूप में पाण्डव पुत्र युद्धिष्ठर के लिए जिन पांच गांवों को देने की मांग की थी, उनमें से एक पानीपत था।

ऐतिहासिक नजरिए से देखा जाए तो पानीपत के मैदान पर ऐसी तीन ऐतिहासिक लड़ाईयां लड़ीं गईं, जिन्होंने पूरे देश की तकदीर और तस्वीर बदलकर रख दी थी। पानीपत की तीसरी और अंतिम ऐतिहासिक लड़ाई 250 वर्ष पूर्व 14 जनवरी, 1761 को मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ और अफगानी सेनानायक अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई थी। हालांकि इस लड़ाई में मराठों की बुरी तरह से हार हुई थी, इसके बावजूद पूरा देश मराठों के शौर्य, स्वाभिमान और संघर्ष की गौरवमयी ऐतिहासिक दास्तां को स्मरण एवं नमन करते हुए गर्व महसूस कर रहा है।

पानीपत की लड़ाइयों के बारे में सबने सुना ही है, लेकिन क्या इससे जुड़ी कुछ रोचक बातें हैं जिसे शायद कम ही लोग जानते हैं। क्या आपने सुना है उस पेड़ के बारे में जिसे काटने पर उसमें से खून निकलता था?

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इस पेड़ के नीचे आराम करते थे सैनिक

ये बात है सन् 1761 की, जब पानीपत का तीसरा युद्ध लड़ा गया था। इस युद्ध को भारत में मराठा साम्राज्य के अतं के रूप में भी देखा जाता है। इस युद्ध में अहमदशाह अब्दाली की जीत हुई थी। यहां पर एक स्मारक है जिसका नाम है 'काला अंब'। अंब पंजाबी का शब्द है जिसका मतलब होता है आम (फल)। 'काला अंब' के साथ एक अनोखा तथ्य जुडा है। कहा जाता है कि पानीपत के तृतीय युद्ध के दौरान इस जगह पर एक काफी बड़ा आम का पेड़ हुआ करता था। लड़ाई के बाद सैनिक इसके नीचे आराम किया करते थे। यहां पर जो भी युद्ध हुए उन्होंने यहां की मिट्टी को रक्त से खूब सींचा। कहा जाता है कि भीषण युद्ध के कारण हुए रक्तपात से इस जगह की मिट्टी लाल हो गई थी, जिसका असर इस आम के पेड़ पर भी पड़ा।


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Old 19-04-2014, 09:44 PM   #8
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आम के पेड़ का रंग पड़ गया था काला

रक्त के कारण आम के पेड़ का रंग काला हो गया और तभी से इस जगह को 'काला अंब' यानी काला आम के नाम से जाना जाने लगा। इस युद्ध में तकरीबन 70,000 मराठा सैनिकों की मौत हो गई थी। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस पेड़ पर लगे आमों को काटने पर उनमें से जो रस निकलता था, उसका रंग खून की तरह लाल होता था। इसलिए अगर ये कहें कि यहां के आम का जूस नहीं खून निकलता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

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Old 19-04-2014, 09:45 PM   #9
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काला कहने के पीछे क्या है कारण

काला अंब पर काले रंग के आम लगे थे। ऐसा माना गया कि आम का रंग काला इसलिए हुआ क्योंकि यह इस मिट्टी पर खड़ा था जिसमें सैनिकों का खून मिल गया था। ज़ाहिर है, यह पेड़ बहुत समय तक गायब रहा था। इस स्मारक को ’काला’ कहने का वास्तविक कारण यह भी हो सकता है कि इसके पत्ते गहरे हरे रंग के हैं। इस जगह पर लोहे की छड़ के साथ ईंट से बना एक स्तंभ है। इस स्तंभ पर अंग्रेज़ी और उर्दू में लड़ाई के बारे में एक सेक्षिप्त शिलालेख है। इसके चारों ओर एक लोहे की बाड़ बनी हुई है। हरियाणा के राज्यपाल की अध्यक्षता में एक सोसायटी इस पर्यटन स्थल के विकास और सौंदर्यीकरण के लिए कार्य कर रही है।

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पेड़ की जगह पर है अब स्मारक

कई वर्षों बाद इस पेड़ के सूखने पर इसे कवि पंडित सुगन चंद रईस ने खरीद लिया। सुगन चंद ने इस पेड़ की लकड़ी से खूबसूरत दरवाजे को बनवाया। यह दरवाजा अब पानीपत म्यूजियम में रखा गया है। अब इस जगह पर एक स्मारक बनाया गया है, जिसे 'काला अंब' कहा जाता है। आम का ये पेड़ काला हो गया है इसलिए इसे काला अंब कहा जाता है

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