My Hindi Forum

Go Back   My Hindi Forum > Art & Literature > Hindi Literature
Home Rules Facebook Register FAQ Community

Reply
 
Thread Tools Display Modes
Old 10-01-2011, 02:26 PM   #31
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

होरी ने आनन्द के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा — सब आपका असीरबाद है, दादा! दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा — मेरा असीरबाद नहीं है बेटा, भगवान् की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपए नगद दिये?

होरी ने बे-पर की उड़ाई। अपने महाजन के सामने भी अपनी समृद्धि-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कैसे छोड़े। टके की नयी टोपी सिर पर रखकर जब हम अकड़ने लगते हैं, ज़रा देर के लिए किसी सवारी पर बैठकर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं, तो इतनी बड़ी विभूति पाकर क्यों न उसका दिमाग़ आसमान पर चढ़े। बोला — भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाये, पूरे चौकस। अपने महाजन के सामने यह डींग मारकर होरी ने नादानी तो की थी; पर दातादीन के मुख पर असन्तोष का कोई चिह्न न दिखायी दिया। इस कथन में कितना सत्य है, यह उनकी उन बूझी आँखों से छिपा न रह सका जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था। प्रसन्न होकर बोले — कोई हरज़ नहीं बेटा, कोई हरज़ नहीं। भगवान् सब कल्यान करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें बच्चे के लिए छोड़कर।

धनिया ने तुरन्त टोका — अरे नहीं महाराज, इतना दूध कहाँ। बुढ़िया तो हो गयी है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है। दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देखकर उसकी सतकर्ता को स्वीकार किया, मानो कह रहे हों,

‘ गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है, उन्हें सीटने दो। ‘

फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले — बाहर न बाँधना, इतना कहे देते हैं।

धनिया ने पति की ओर विजयी आँखों से देखा, मानो कह रही हो — लो अब तो मानोगे। दातादीन से बोली — नहीं महाराज, बाहर क्या बाँधेंगे, भगवान् दें तो इसी आँगन में तीन गायें और बँध सकती हैं।


सारा गाँव गाय देखने आया। नहीं आये तो सोभा और हीरा जो अपने सगे भाई थे। होरी के हृदय में भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था। वह दोनों आकर देख लेते और प्रसन्न हो जाते तो उसकी मनोकामना पूरी हो जाती। साँझ हो गयी। दोनों पुर लेकर लौट आये। इसी द्वार से निकले, पर पूछा कुछ नहीं। होरी ने डरते-डरते धनिया से कहा — न सोभा आया, न हीरा। सुना न होगा?

धनिया बोली — तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है।

‘ तू बात तो समझती नहीं। लड़ने के लिए तैयार रहती है। भगवान् ने जब यह दिन दिखाया है, तो हमें सिर झुकाकर चलना चाहिए। आदमी को अपने संगों के मुँह से अपनी भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है, बाहरवालों के मुँह से नहीं। फिर अपने भाई लाख बुरे हों, हैं तो अपने भाई ही। अपने हिस्से-बखरे के लिए सभी लड़ते हैं, पर इससे ख़ून थोड़े ही बट जाता है। दोनों को बुलाकर दिखा देना चाहिए। नहीं कहेंगे गाय लाये, हमसे कहा तक नहीं। ‘

धनिया ने नाक सिकोड़कर कहा — मैंने तुमसे सौ बार हज़ार बार कह दिया मेरे मुँह पर भाइयों का बखान न किया करो, उनका नाम सुनकर मेरी देह में आग लग जाती है। सारे गाँव ने सुना, क्या उन्होंने न सुना होगा? कुछ इतनी दूर भी तो नहीं रहते। सारा गाँव देखने आया, उन्हीं के पाँवों में मेंहदी लगी हुई थी; मगर आये कैसे? जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ गयी। छाती फटी जाती होगी।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 02:27 PM   #32
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

दिया-बत्ती का समय आ गया था। धनिया ने जाकर देखा, तो बोतल में मिट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गयी। पैसे होते, तो रूपा को भेजती, उधार लाना था, कुछ मुँह देखी कहेगी; कुछ लल्लो-चप्पो करेगी, तभी तो तेल उधार मिलेगा। होरी ने रूपा को बुलाकर प्यार से गोद में बैठाया और कहा — ज़रा जाकर देख, हीरा काका आ गये कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहना, दादा ने तुम्हें बुलाया है। न आये, हाथ पकड़कर खींच लाना।

रूपा ठुनककर बोली — छोटी काकी मुझे डाँटती है।

‘ काकी के पास क्या करने जायगी। फिर सोभा-बहू तो तुझे प्यार करती है? ‘

‘ सोभा काका मुझे चिढ़ाते हैं, कहते हैं … मैं न कहूँगी। ‘

‘ क्या कहते हैं, बता? ‘

‘ चिढ़ाते हैं। ‘

‘ क्या कहकर चिढ़ाते हैं? ‘

‘ कहते हैं, तेरे लिए मूस पकड़ रखा है। ले जा, भूनकर खा ले। ‘

होरी के अन्तस्तल में गुदगुदी हुई। ‘ तू कहती नहीं, पहले तुम खा लो, तो मैं खाऊँगी। ‘

‘ अम्माँ मने करती हैं। कहती हैं उन लोगों के घर न जाया करो। ‘

‘ तू अम्माँ की बेटी है कि दादा की? ‘

रूपा ने उसके गले में हाथ डालकर कहा — अम्माँ की, और हँसने लगी।

‘ तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तुझे अपनी थाली में न खिलाऊँगा। ‘

घर में एक ही फूल की थाली थी, होरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने का गौरव पाने के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी। इस गौरव का परित्याग कैसे करे? हुमककर बोली — अच्छा, तुम्हारी।

‘ तो फिर मेरा कहना मानेगी कि अम्माँ का? ‘

‘ तुम्हारा। ‘

‘ तो जाकर हीरा और सोभा को खींच ला। ‘

‘ और जो अम्माँ बिगड़ें। ‘

‘ अम्माँ से कहने कौन जायगा। ‘

रूपा कूदती हुई हीरा के घर चली। द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरन्त निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं। भाइयों से होरी की बोलचाल बन्द थी; पर रूपा दोनों घरों में आती-जाती थी। बच्चों से क्या बैर! लेकिन रूपा घर से निकली ही थी कि धनिया तेल लिए मिल गयी। उसने पूछा — साँझ की बेला कहाँ जाती है, चल घर। रूपा माँ को प्रसन्न करने के प्रलोभन को न रोक सकी।

धनिया ने डाँटा — चल घर, किसी को बुलाने नहीं जाना है। रूपा का हाथ पकड़े हुए वह घर आयी और होरी से बोली — मैंने तुमसे हज़ार बार कह दियाॡ मेरे लड़कों को किसी के घर न भेजा करो। किसी ने कुछ कर-करा दिया, तो मैं तुम्हें लेकर चाटूँगी? ऐसा ही बड़ा परेम है, तो आप क्यों नहीं जाते? अभी पेट नहीं भरा जान पड़ता है।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 02:27 PM   #33
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

होरी नाँद जमा रहा था। हाथों में मिट्टी लपेटे हुए अज्ञान का अभिनय करके बोला — किस बात पर बिगड़ती है भाई! यह तो अच्छा नहीं लगता कि अन्धे कूकर की तरह हवा को भूँका करे। धनिया को कुप्पी में तेल डालना था, इस समय झगड़ा न बढ़ाना चाहती थी। रूपा भी लड़कों में जा मिली। पहर रात से ज़्यादा जा चुकी थी। नाँद गड़ चुकी थी। सानी और खली डाल दी गयी थी। गाय मनमारे उदास बैठी थी, जैसे कोई वधू ससुराल आयी हो। नाँद में मुँह तक न डालती थी। होरी और गोबर खाकर आधी-आधी रोटियाँ उसके लिए लाये, पर उसने सूँघा तक नहीं। मगर यह कोई नयी बात न थी। जानवरों को भी बहुधा घर छूट जाने का दुःख होता है। होरी बाहर खाट पर बैठ कर चिलम पीने लगा, तो फिर भाइयों की याद आयी। नहीं, आज इस शुभ अवसर पर वह भाइयों की उपेक्षा नहीं कर सकता। उसका हृदय वह विभूति पाकर विशाल हो गया था। भाइयों से अलग हो गया है, तो क्या हुआ। उनका दुश्मन तो नहीं है। यही गाय तीन साल पहले आयी होती, तो सभी का उस पर बराबर अधिकार होता। और कल को यही गाय दूध देने लगेगी, तो क्या वह भाइयों के घर दूध न भेजेगा या दही न भेजेगा? ऐसा तो उसका धरम नहीं है। भाई उसका बुरा चेतें, वह क्यों उसका बुरा चेते। अपनी-अपनी करनी तो अपने-अपने साथ है। उसने नारियल खाट के पाये से लगाकर रख दिया और हीरा के घर की ओर चला। सोभा का घर भी उधर ही था। दोनों अपने-अपने द्वार पर लेटे हुए थे। काफ़ी अँधेरा था। होरी पर उनमें से किसी की निगाह नहीं पड़ी। दोनों में कुछ बातें हो रही थीं। होरी ठिठक गया और उनकी बातें सुनने लगा। ऐसा आदमी कहाँ है, जो अपनी चर्चा सुनकर टाल जाय। हीरा ने कहा — जब तक एक में थे, एक बकरी भी नहीं ली। अब पछाई गाय ली जाती है। भाई का हक़ मारकर किसी को फलते-फूलते नहीं देखा।

सोभा बोला — यह तुम अन्याय कर रहे हो हीरा! भैया ने एक-एक पैसे का हिसाब दे दिया था। यह मैं कभी न मानूँगा कि उन्होंने पहले की कमाई छिपा रखी थी।

‘ तुम मानो चाहे न मानो, है यह पहले की कमाई। ‘

‘ किसी पर झूठा इलज़ाम न लगाना चाहिए। ‘

‘ अच्छा तो यह रुपए कहाँ से आ गये? कहाँ से हुन बरस पड़ा। उतने ही खेत तो हमारे पास भी हैं। उतनी ही उपज हमारी भी है। फिर क्यों हमारे पास कफ़न को कौड़ी नहीं और उनके घर नयी गाय आती है? ‘

‘ उधार लाये होंगे। ‘

‘ भोला उधार देनेवाला आदमी नहीं है। ‘

‘ कुछ भी हो, गाय है बड़ी सुन्दर, गोबर लिये जाता था, तो मैंने रास्ते में देखा। ‘

‘ बेईमानी का धन जैसे आता है, वैसे ही जाता है। भगवान् चाहेंगे, तो बहुत दिन गाय घर में न रहेगी। ‘
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 02:28 PM   #34
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

होरी से और न सुना गया। वह बीती बातों को बिसारकर अपने हृदय में स्नेह और सौहार्द भरे भाइयों के पास आया था। इस आघात ने जैसे उसके हृदय में छेद कर दिया और वह रस-भाव उसमें किसी तरह नहीं टिक रहा था। लत्ते और चिथड़े ठूँसकर अब उस प्रवाह को नहीं रोक सकता। जी में एक उबाल आया कि उसी क्षण इस आक्षेप का जवाब दे; लेकिन बात बढ़ जाने के भय से चुप रह गया। अगर उसकी नीयत साफ़ है, तो कोई कुछ नहीं कर सकता। भगवान् के सामने वह निर्दोष है। दूसरों की उसे परवाह नहीं। उलटे पाँव लौट आया। और वह जला हुआ तम्बाकू पीने लगा। लेकिन जैसे वह विष प्रतिक्षण उसकी धमनियों में फैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास किया, पर नींद न आयी। बैलों के पास जाकर उन्हें सहलाने लगा, विष शान्त न हुआ। दूसरी चिलम भरी; लेकिन उसमें भी कुछ रस न था। विष ने जैसे चेतना को आक्तान्त कर दिया हो। जैसे नशे में चेतना एकांगी हो जाती है, जैसे फैला हुआ पानी एक दिशा में बहकर वेगवान हो जाता है, वही मनोवृत्ति उसकी हो रही थी। उसी उन्माद की दशा में वह अन्दर गया। अभी द्वार खुला हुआ था। आँगन में एक किनारे चटाई पर लेटी हुई धनिया सोना से देह दबवा रही थी और रूपा जो रोज़ साँझ होते ही सो जाती थी, आज खड़ी गाय का मुँह सहला रही थी। होरी ने जाकर गाय को खूँटे से खोल लिया और द्वार की ओर ले चला। वह इसी वक़्त गाय को भोला के घर पहुँचाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक सिर पर लेकर वह अब गाय को घर में नहीं रख सकता। किसी तरह नहीं। धनिया ने पूछा — कहाँ लिये जाते हो रात को?

होरी ने एक पग बढ़ाकर कहा — ले जाता हूँ भोला के घर। लौटा दूँगा।

धनिया को विस्मय हुआ, उठकर सामने आ गयी और बोली — लौटा क्यों दोगे? लौटाने के लिए ही लाये थे।

‘ हाँ इसके लौटा देने में ही कुशल है? ‘

‘ क्यों बात क्या है? इतने अरमान से लाये और अब लौटाने जा रहे हो? क्या भोला रुपए माँगते हैं? ‘

‘ नहीं, भोला यहाँ कब आया? ‘

‘ तो फिर क्या बात हुई? ‘

‘ क्या करोगी पूछकर? ‘

धनिया ने लपककर पगहिया उसके हाथ से छीन ली। उसकी चपल बुद्धि ने जैसे उड़ती हुई चिड़िया पकड़ ली। बोली — तुम्हें भाइयों का डर हो, तो जाकर उसके पैरों पर गिरो। मैं किसी से नहीं डरती। अगर हमारी बढ़ती देखकर किसी की छाती फटती है, तो फट जाय, मुझे परवाह नहीं है।

होरी ने विनीत स्वर में कहा — धीरे-धीरे बोल महरानी! कोई सुने, तो कहे, ये सब इतनी रात गये लड़ रहे हैं! मैं अपने कानों से क्या सुन आया हूँ, तू क्या जाने! यहाँ चरचा हो रही है कि मैंने अलग होते समय रुपए दबा लिये थे और भाइयों को धोखा दिया था, यही रुपए अब निकल रहे हैं। ‘

‘ हीरा कहता होगा? ‘

‘ सारा गाँव कह रहा है! हीरा को क्यों बदनाम करूँ। ‘

‘ सारा गाँव नहीं कह रहा है, अकेला हीरा कह रहा है। मैं अभी जाकर पूछती हूँ न कि तुम्हारे बाप कितने रुपए छोड़कर मरे थे। डाढ़ीजारों के पीछे हम बरबाद हो गये, सारी ज़िन्दगी मिट्टी में मिला दी, पाल-पोसकर संडा किया, और अब हम बेईमान हैं! मैं कहे देती हूँ, अगर गाय घर के बाहर निकली, तो अनर्थ हो जायगा। रख लिये हमने रुपए, दबा लिये, बीच खेत दबा लिये। डंके की चोट कहती हूँ, मैंने हंडे भर अशर्फ़ियाँ छिपा लीं। हीरा और सोभा और संसार को जो करना हो, कर ले। क्यों न रुपए रख लें? दो-दो संडों का ब्याह नहीं किया, गौना नहीं किया? ‘
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 02:29 PM   #35
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

होरी सिटपिटा गया। धनिया ने उसके हाथ से पगहिया छीन ली, और गाय को खूँटे से बाँधकर द्वार की ओर चली। होरी ने उसे पकड़ना चाहा; पर वह बाहर जा चुकी थी। वहीं सिर थामकर बैठ गया। बाहर उसे पकड़ने की चेष्टा करके वह कोई नाटक नहीं दिखाना चाहता था। धनिया के क्रोध को ख़ूब जानता था। बिगड़ती है, तो चंडी बन जाती है। मारो, काटो, सुनेगी नहीं; लेकिन हीरा भी तो एक ही ग़ुस्सेवर है। कहीं हाथ चला दे तो परलै ही हो जाय। नहीं, हीरा इतना मूरख नहीं है। मैंने कहाँ-से-कहाँ यह आग लगा दी। उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा। बात मन में रख लेता, तो क्यों यह टंटा खड़ा होता। सहसा धनिया का ककर्श स्वर कान में आया। हीरा की गरज भी सुन पड़ी। फिर पुन्नी की पैनी पीक भी कानों में चुभी। सहसा उसे गोबर की याद आयी। बाहर लपककर उसकी खाट देखी। गोबर वहाँ न था। ग़ज़ब हो गया! गोबर भी वहाँ पहुँच गया। अब कुशल नहीं। उसका नया ख़ून है, न जाने क्या कर बैठे; लेकिन होरी वहाँ कैसे जाय? हीरा कहेगा, आप बोलते नहीं, जाकर इस डाइन को लड़ने के लिए भेज दिया। कोलाहल प्रतिक्षण प्रचंड होता जाता था। सारे गाँव में जाग पड़ गयी। मालूम होता था, कहीं आग लग गयी है, और लोग खाट से उठ-उठ बुझाने दौड़े जा रहे हैं। इतनी देर तक तो वह ज़ब्त किये बैठा रहा। फिर न रह गया। धनिया पर क्रोध आया। वह क्यों चढ़कर लड़ने गयी। अपने घर में आदमी न जाने किसको क्या कहता है। जब तक कोई मुँह पर बात न कहे, यही समझना चाहिए कि उसने कुछ नहीं कहा। होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से भागती थी। चार बातें सुनकर ग़म खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाज़ा हो। कहीं मार-पीट हो जाय तो थाना-पुलिस हो, बँधे-बँधे फिरो, सब की चिरौरी करो, अदालत की धूल फाँको, खेती-बारी जहन्नुम में मिल जाय। उसका हीरा पर तो कोई बस न था; मगर धनिया को तो वह ज़बरदस्ती खींच ला सकता है। बहुत होगा, गालियाँ दे लेगी, एक-दो दिन रूठी रहेगी, थाना-पुलिस की नौबत तो न आयेगी। जाकर हीरा के द्वार पर सबसे दूर दीवार की आड़ में खड़ा हो गया। एक सेनापति की भाँति मैदान में आने के पहले परिस्थिति को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था। अगर अपनी जीत हो रही है, तो बोलने की कोई ज़रूरत नहीं; हार हो रही है, तो तुरन्त कूद पड़ेगा। देखा तो वहाँ पचासों आदमी जमा हो गये हैं। पण्डित दातादीन, लाला पटेश्वरी, दोनों ठाकुर, जो गाँव के करता-धरता थे, सभी पहुँचे हुए हैं। धनिया का पल्ला हलका हो रहा था। उसकी उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध किये देती थी। वह रणनीति में कुशल न थी। क्रोध में ऐसी जली-कटी सुना रही थी कि लोगों की सहानुभूति उससे दूर होती जाती थी। वह गरज रही थी — तू हमें देखकर क्यों जलता है? हमें देखकर क्यों तेरी छाती फटती है? पाल-पोसकर जवान कर दिया, यह उसका इनाम है? हमने न पाला होता तो आज कहीं भीख माँगते होते। रूख की छाँह भी न मिलती।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 02:29 PM   #36
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

होरी को ये शब्द ज़रूरत से ज़्यादा कठोर जान पड़े। भाइयों का पालना-पोसना तो उसका धर्म था। उनके हिस्से की जायदाद तो उसके हाथ में थी। कैसे न पालता-पोसता? दुनिया में कहीं मुँह दिखाने लायक़ रहता? हीरा ने जवाब दिया — हम किसी का कुछ नहीं जानते। तेरे घर में कुत्तों की तरह एक टुकड़ा खाते थे और दिन-भर काम करते थे। जाना ही नहीं कि लड़कपन और जवानी कैसी होती है। दिन-दिन भर सूखा गोबर बीना करते थे। उस पर भी तू बिना दस गाली दिये रोटी न देती थी। तेरी-जैसी राच्छसिन के हाथ में पड़कर ज़िन्दगी तलख़ हो गयी।

धनिया और भी तेज़ हुई — ज़बान सँभाल, नहीं जीभ खींच लूँगी। राच्छसिन तेरी औरत होगी। तू है किस फेर में मूँड़ी-काटे, टुकड़े-ख़ोर, नमक-हराम।

दातादीन ने टोका — इतना कटु-वचन क्यों कहती है धनिया? नारी का धरम है कि ग़म खाय। वह तो उजड्डा है, क्यों उसके मुँह लगती है?

लाला पटेश्वरी पटवारी ने उसका समर्थन किया — बात का जवाब बात है, गाली नहीं। तूने लड़कपन में उसे पाला-पोसा; लेकिन यह क्यों भूल जाती है कि उसकी जायदाद तेरे हाथ में थी? धनिया ने समझा, सब-के-सब मिलकर मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। चौमुख लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गयी — अच्छा, रहने दो लाला! मैं सबको पहचानती हूँ। इस गाँव में रहते बीस साल हो गये। एक-एक की नस-नस पहचानती हूँ। मैं गाली दे रही हूँ, वह फूल बरसा रहा है, क्यों?

दुलारी सहुआइन ने आग पर घी डाला — बाक़ी बड़ी गाल-दराज़ औरत है भाई! मरद के मुँह लगती है। होरी ही जैसा मरद है कि इसका निबाह होता है। दूसरा मरद होता तो एक दिन न पटती। अगर हीरा इस समय ज़रा नर्म हो जाता, तो उसकी जीत हो जाती; लेकिन ये गालियाँ सुनकर आपे से बाहर हो गया। औरों को अपने पक्ष में देखकर वह कुछ शेर हो रहा था। गला फाड़कर बोला — चली जा मेरे द्वार से, नहीं जूतों से बात करूँगा। झोंटा पकड़कर उखाड़ लूँगा। गाली देती है डाइन! बेटे का घमंड हो गया है। ख़ून …

पाँसा पलट गया। होरी का ख़ून खौल उठा। बारूद में जैसे चिनगारी पड़ गयी हो। आगे आकर बोला — अच्छा बस, अब चुप हो जाओ हीरा, अब नहीं सुना जाता। मैं इस औरत को क्या कहूँ। जब मेरी पीठ में धूल लगती है, तो इसी के कारन। न जाने क्यों इससे चुप नहीं रहा जाता।

चारों ओर से हीरा पर बौछार पड़ने लगी। दातादीन ने निर्लज्ज कहा, पटेश्वरी ने गुंडा बनाया, झिंगुरीसिंह ने शैतान की उपाधि दी। दुलारी सहुआइन ने कपूत कहा। एक उद्दंड शब्द ने धनिया का पल्ला हल्का कर दिया था। दूसरे उग्र शब्द ने हीरा को गच्चे में डाल दिया। उस पर होरी के संयत वाक्य ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। हीरा सँभल गया। सारा गाँव उसके विरुद्ध हो गया। अब चुप रहने में ही उसकी कुशल है। क्रोध के नशे में भी इतना होश उसे बाक़ी था। धनिया का कलेजा दूना हो गया। होरी से बोली — सुन लो कान खोल के। भाइयों के लिए मरते रहते हो। ये भाई हैं, ऐसे भाई का मुँह न देखे। यह मुझे जूतों से मारेगा। खिला-पिला…

होरी ने डाँटा — फिर क्यों बक-बक करने लगी तू! घर क्यों नहीं जाती?

धनिया ज़मीन पर बैठ गयी और आर्त स्वर में बोली — अब तो इसके जूते खा के जाऊँगी। ज़रा इसकी मरदूमी देख लूँ, कहाँ है गोबर? अब किस दिन काम आयेगा? तू देख रहा है बेटा, तेरी माँ को जूते मारे जा रहे हैं!

यों विलाप करके उसने अपने क्रोध के साथ होरी के क्रोध को भी क्रियाशील बना डाला। आग को फूँक-फूँक कर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। हीरा पराजित-सा पीछे हट गया। पुन्नी उसका हाथ पकड़कर घर की ओर खींच रही थी। सहसा धनिया ने सिंहनी की भाँति झपटकर हीरा को इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह धम से गिर पड़ा और बोली — कहाँ जाता है, जूते मार, मार जूते, देखूँ तेरी मरदूमी!
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 02:30 PM   #37
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

होरी ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ घर ले चला।

उधर गोबर खाना खाकर अहिराने में पहुँचा। आज झुनिया से उसकी बहुत-सी बातें हुई थीं। जब वह गाय लेकर चला था, तो झुनिया आधे रास्ते तक उसके साथ आयी थी। गोबर अकेला गाय को कैसे ले जाता। अपरिचित व्यक्ति के साथ जाने में उसे आपत्ति होना स्वाभाविक था। कुछ दूर चलने के बाद झुनिया ने गोबर को मर्मभरी आँखों से देखकर कहा — अब तुम काहे को यहाँ कभी आओगे। एक दिन पहले तक गोबर कुमार था। गाँव में जितनी युवतियाँ थीं, वह या तो उसकी बहनें थीं या भाभियाँ। बहनों से तो कोई छेड़छाड़ हो ही क्या सकती थी, भाभियाँ अलबत्ता कभी-कभी उससे ठठोली किया करती थीं, लेकिन वह केवल सरल विनोद होता था। उनकी दृष्टि में अभी उसके यौवन में केवल फूल लगे थे। जब तक फल न लग जायँ, उस पर ढेले फेंकना व्यर्थ की बात थी। और किसी ओर से प्रोत्साहन न पाकर उसका कौमार्य उसके गले से चिपटा हुआ था। झुनिया का वंचित मन, जिसे भाभियों के व्यंग और हास-विलास ने और भी लोलुप बना दिया था, उसके कौमार्य ही पर ललचा उठा। और उस कुमार में भी पत्ता खड़कते ही किसी सोये हुए शिकारी जानवर की तरह यौवन जाग उठा।

गोबर ने आवरण-हीन रसिकता के साथ कहा — अगर भिक्षुक को भीख मिलने की आसा हो, तो वह दिन-भर और रात-भर दाता के द्वार पर खड़ा रहे। झुनिया ने कटाक्ष करके कहा — तो यह कहो तुम भी मतलब के यार हो। गोबर की धमनियों का रक्त प्रबल हो उठा। बोला — भूखा आदमी अगर हाथ फैलाये तो उसे क्षमा कर देना चाहिए।

झुनिया और गहरे पानी में उतरी — भिक्षुक जब तक दस द्वारे न जाय, उसका पेट कैसे भरेगा। मैं ऐसे भिक्षुकों को मुँह नहीं लगाती। ऐसे तो गली-गली मिलते हैं। फिर भिक्षुक देता क्या है, असीस! असीसों से तो किसी का पेट नहीं भरता। मन्द-बुद्धि गोबर झुनिया का आशय न समझ सका। झुनिया छोटी-सी थी तभी से ग्राहकों के घर दूध लेकर जाया करती थी। ससुराल में उसे ग्राहकों के घर दूध पहुँचाना पड़ता था। आजकल भी दही बेचने का भार उसी पर था। उसे तरह-तरह के मनुष्यों से साबिक़ा पड़ चुका था। दो-चार रुपए उसके हाथ लग जाते थे, घड़ी-भर के लिए मनोरंजन भी हो जाता था; मगर यह आनन्द जैसे मँगनी की चीज़ हो। उसमें टिकाव न था, समर्पण न था, अधिकार न था। वह ऐसा प्रेम चाहती थी, जिसके लिए वह जिये और मरे, जिस पर वह अपने को समर्पित कर दे। वह केवल जुगनू की चमक नहीं, दीपक का स्थायी प्रकाश चाहती थी। वह एक गृहस्थ की बालिका थी, जिसके गृहिणीत्व को रसिकों की लगावटबाज़ियों ने कुचल नहीं पाया था। गोबर ने कामना से उद्दीप्त मुख से कहा — भिक्षुक को एक ही द्वार पर भरपेट मिल जाय, तो क्यों द्वार-द्वार घूमे?

झुनिया ने सदय भाव से उसकी ओर ताका। कितना भोला है, कुछ समझता ही नहीं। ‘ भिक्षुक को एक द्वार पर भरपेट कहाँ मिलता है। उसे तो चुटकी ही मिलेगी। सर्बस तो तभी पाओगे, जब अपना सर्बस दोगे। ‘

‘ मेरे पास क्या है झुनिया? ‘

‘ तुम्हारे पास कुछ नहीं है? मैं तो समझती हूँ, मेरे लिए तुम्हारे पास जो कुछ है, वह बड़े-बड़े लखपतियों के पास नहीं है। तुम मुझसे भीख न माँगकर मुझे मोल ले सकते हो। ‘
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 02:31 PM   #38
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

गोबर उसे चकित नेत्रों से देखने लगा। झुनिया ने फिर कहा — और जानते हो, दाम क्या देना होगा? मेरा होकर रहना पड़ेगा। फिर किसी के सामने हाथ फैलाये देखूँगी, तो घर से निकाल दूँगी। गोबर को जैसे अँधेरे में टटोलते हुए इच्छित वस्तु मिल गयी। एक विचित्र भय-मिश्रित आनन्द से उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। लेकिन यह कैसे होगा? झुनिया को रख ले, तो रखेली को लेकर घर में रहेगा कैसे। बिरादरी का झंझट जो है। सारा गाँव काँव-काँव करने लगेगा। सभी दुसमन हो जायँगे। अम्माँ तो इसे घर में घुसने भी न देगी। लेकिन जब स्त्री होकर यह नहीं डरती, तो पुरुष होकर वह क्यों डरे। बहुत होगा, लोग उसे अलग कर देंगे। वह अलग ही रहेगा। झुनिया जैसी औरत गाँव में दूसरी कौन है? कितनी समझदारी की बातें करती है। क्या जानती नहीं कि मैं उसके जोग नहीं हूँ। फिर भी मुझसे प्रेम करती है। मेरी होने को राज़ी है। गाँववाले निकाल देंगे, तो क्या संसार में दूसरा गाँव ही नहीं है? और गाँव क्यों छोड़े? मातादीन ने चमारिन बैठा ली, तो किसी ने क्या कर लिया। दातादीन दाँत कटकटाकर रह गये। मातादीन ने इतना ज़रूर किया कि अपना धरम बचा लिया। अब भी बिना असनान-पूजा किये मुँह में पानी नहीं डालते। दोनों जून अपना भोजन आप पकाते हैं और अब तो अलग भोजन नहीं पकाते। दातादीन और वह साथ बैठकर खाते हैं। झिंगुरीसिंह ने बाम्हनी रख ली, उनका किसी ने क्या कर लिया? उनका जितना आदर-मान तब था, उतना ही आज भी है; बल्कि और बढ़ गया। पहले नौकरी खोजते फिरते थे। अब उसके रुपए से महाजन बन बैठे। ठकुराई का रोब तो था ही, महाजनी का रोब भी जम गया। मगर फिर ख़्याल आया, कहीं झुनिया दिल्लगी न कर रही हो। पहले इसकी ओर से निश्चिन्त हो जाना आवश्यक था। उसने पूछा — मन से कहती हो झूना कि ख़ाली लालच दे रही हो? मैं तो तुम्हारा हो चुका; लेकिन तुम भी हो जाओगी?

‘ तुम मेरे हो चुके, कैसे जानूँ? ‘

‘ तुम जान भी चाहो, तो दे दूँ। ‘

‘ जान देने का अरथ भी समझते हो? ‘

‘ तुम समझा दो न। ‘

‘ जान देने का अरथ है, साथ रहकर निबाह करना। एक बार हाथ पकड़कर उमिर भर निबाह करते रहना, चाहे दुनिया कुछ कहे, चाहे माँ-बाप, भाई-बन्द, घर-द्वार सब कुछ छोड़ना पड़े। मुँह से जान देनेवाले बहुतों को देख चुकी। भौरों की भाँति फूल का रस लेकर उड़ जाते हैं। तुम भी वैसे ही न उड़ जाओगे? ‘ बर के एक हाथ में गाय की पगहिया थी। दूसरे हाथ से उसने झुनिया का हाथ पकड़ लिया। जैसे बिजली के तार पर हाथ गया हो। सारी देह यौवन के पहले स्पर्श से काँप उठी। कितनी मुलायम, गुदगुदी, कोमल कलाई! झुनिया ने उसका हाथ हटाया नहीं, मानो इस स्पर्श का उसके लिए कोई महत्व ही न हो। फिर एक क्षण के बाद गम्भीर भाव से बोली — आज तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, याद रखना।

‘ ख़ूब याद रखूँगा झूना और मरते दम तक निबाहूँगा।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 02:32 PM   #39
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

झुनिया अविश्वास-भरी मुस्कान से बोली — इसी तरह तो सब कहते हैं गोबर! बल्कि इससे भी मीठे, चिकने शब्दों में। अगर मन में कपट हो, मुझे बता दो। सचेत हो जाऊँ। ऐसों को मन नहीं देती। उनसे तो ख़ाली हँस-बोल लेने का नाता रखती हूँ। बरसों से दूध लेकर बाज़ार जाती हूँ। एक-से-एक बाबू, महाजन, ठाकुर, वकील, अमले, अफ़सर अपना रसियापन दिखाकर मुझे फँसा लेना चाहते हैं। कोई छाती पर हाथ रखकर कहता है, झुनिया, तरसा मत; कोई मुझे रसीली, नसीली चितवन से घूरता है, मानो मारे प्रेम के बेहोश हो गया है, कोई रुपए दिखाता है, कोई गहने। सब मेरी ग़ुलामी करने को तैयार रहते हैं, उमिर भर, बल्कि उस जनम में भी, लेकिन मैं उन सबों की नस पहचानती हूँ। सब-के-सब भौंरे रस लेकर उड़ जानेवाले। मैं भी उन्हें ललचाती हूँ, तिरछी नज़रों से देखती हूँ, मुसकराती हूँ। वह मुझे गधी बनाते हैं, मैं उन्हें उल्लू बनाती हूँ। मैं मर जाऊँ, तो उनकी आँखों में आँसू न आयेगा। वह मर जायँ, तो मैं कहूँगी, अच्छा हुआ, निगोड़ा मर गया। मैं तो जिसकी हो जाऊँगी, उसकी जनम-भर के लिए हो जाऊँगी, सुख में, दुःख में, सम्पत में, बिपत में, उसके साथ रहूँगी। हरजाई नहीं हूँ कि सबसे हँसती-बोलती फिरूँ। न रुपए की भूखी हूँ, न गहने-कपड़े की। बस भले आदमी का संग चाहती हूँ, जो मुझे अपना समझे और जिसे मैं भी अपना समझूँ। एक पण्डित जी बहुत तिलक-मुद्रा लगाते हैं। आध सेर दूध लेते हैं। एक दिन उनकी घरवाली कहीं नेवते में गयी थी। मुझे क्या मालूम। और दिनों की तरह दूध लिये भीतर चली गयी। वहाँ पुकारती हूँ, बहूजी, बहूजी! कोई बोलता ही नहीं। इतने में देखती हूँ तो पण्डितजी बाहर के किवाड़ बन्द किये चले आ रहे हैं। मैं समझ गयी इसकी नीयत ख़राब है। मैंने डाँटकर पूछा — तुमने किवाड़ क्यों बन्द कर लिये? क्या बहूजी कहीं गयी हैं? घर में सन्नाटा क्यों है? उसने कहा — वह एक नेवते में गयी हैं; और मेरी ओर दो पग और बढ़ आया। मैंने कहा — तुम्हें दूध लेना हो तो लो, नहीं मैं जाती हूँ। बोला — आज तो तुम यहाँ से न जाने पाओगी झूनी रानी, रोज़-रोज़ कलेजे पर छुरी चलाकर भाग जाती हो, आज मेरे हाथ से न बचोगी। तुमसे सच कहती हूँ, गोबर, मेरे रोएँ खड़े हो गये। गोबर आवेश में बोला — मैं बच्चा को देख पाऊँ, तो खोदकर ज़मीन में गाड़ दूँ। ख़ून चूस लूँ। तुम मुझे दिखा तो देना। ‘ सुनो तो, ऐसों का मुँह तोड़ने के लिए मैं ही काफ़ी हूँ। मेरी छाती धक-धक करने लगी। यह कुछ बदमासी कर बैठे, तो क्या करूँगी। कोई चिल्लाना भी तो न सुनेगा; लेकिन मन में यह निश्चय न कर लिया था कि मेरी देह छुई, तो दूध की भरी हाँड़ी उसके मुँह पर पटक दूँगी। बला से चार-पाँच सेर दूध जायगा, बचा को याद तो हो जायगी। कलेजा मज़बूत करके बोली — इस फेर में न रहना पण्डितजी! मैं अहीर की लड़की हूँ। मूँछ का एक-एक बाल चुनवा लूँगी। यही लिखा है तुम्हारे पोथी-पत्रे में कि दूसरों की बहू-बेटी को अपने घर में बन्द करके बेईज़्ज़त करो। इसीलिए तिलक-मुद्रा का जाल बिछाये बैठे हो? लगा हाथ जोड़ने, पैरों पड़ने — एक प्रेमी का मन रख दोगी, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायगा, झूना रानी! कभी-कभी ग़रीबों पर दया किया करो, नहीं भगवान् पूछेंगे, मैंने तुम्हें इतना रूपधन दिया था, तुमने उससे एक ब्राह्मण का उपकार भी नहीं किया, तो क्या जवाब दोगी? बोले, मैं विप्र हूँ, रुपए-पैसे का दान तो रोज़ ही पाता हूँ, आज रूप का दान दे दो। ‘ मैंने यों ही उसका मन परखने को कह दिया, मैं पचास रुपए लूँगी। सच कहती हूँ गोबर, तुरन्त कोठरी में गया और दस-दस के पाँच नोट निकालकर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट ज़मीन पर गिरा दिये और द्वार की ओर चली, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं तो पहले ही से तैयार थी। हाँड़ी उसके मुँह पर दे मारी। सिर से पाँव तक सराबोर हो गया। चोट भी ख़ूब लगी। सिर पकड़कर बैठ गया और लगा हाय-हाय करने। मैंने देखा, अब यह कुछ नहीं कर सकता, तो पीठ में दो लातें जमा दीं और किवाड़ खोलकर भागी। ‘ गोबर ठट्ठा मारकर बोला — बहुत अच्छा किया तुमने। दूध से नहा गया होगा। तिलक-मुद्रा भी धुल गयी होगी। मूँछें भी क्यों न उखाड़ लीं? ‘ दूसरे दिन मैं फिर उसके घर गयी। उसकी घरवाली आ गयी थी। अपने बैठक में सिर में पट्टी बाँधे पड़ा था। मैंने कहा — कहो तो कल की तुम्हारी करतूत खोल दूँ पण्डित ! लगा हाथ जोड़ने। मैंने कहा — अच्छा थूककर चाटो, तो छोड़ दूँ। सिर ज़मीन पर रगड़कर कहने लगा — अब मेरी इज़्ज़त तुम्हारे हाथ है झूना, यही समझ लो कि पण्डिताइन मुझे जीता न छोड़ेंगी। मुझे भी उस पर दया आ गयी। ‘ गोबर को उसकी दया बुरी लगी — यह तुमने क्या किया? उसकी औरत से जाकर कह क्यों नहीं दिया? जूतों से पीटती। ऐसे पाखण्डियों पर दया न करनी चाहिए। तुम मुझे कल उनकी सूरत दिखा दो, फिर देखना कैसी मरम्मत करता हूँ। झुनिया ने उसके अर्ध-विकसित यौवन को देखकर कहा — तुम उसे न पाओगे। ख़ासा देव है। मुफ़्त का माल उड़ाता है कि नहीं। गोबर अपने यौवन का यह तिरस्कार कैसे सहता। डींग मारकर बोला — मोटे होने से क्या होता है। यहाँ फ़ौलाद की हड्डियाँ हैं। तीन सौ डंड रोज़ मारता हूँ। दूध-घी नहीं मिलता, नहीं अब तक सीना यों निकल आया होता। यह कहकर उसने छाती फैला कर दिखायी। झुनिया ने आश्वस्त आँखों से देखा — अच्छा, कभी दिखा दूँगी। लेकिन यहाँ तो सभी एक-से हैं, तुम किस-किस की मरम्मत करोगे। न जाने मरदों की क्या आदत है कि जहाँ कोई जवान, सुन्दर औरत देखी और बस लगे घूरने, छाती पीटने। और यह जो बड़े आदमी कहलाते हैं, ये तो निरे लम्पट होते हैं। फिर मैं तो कोई सुन्दरी नहीं हूँ … । गोबर ने आपत्ति की — तुम! तुम्हें देखकर तो यही जी चाहता है कि कलेजे में बिठा लें। झुनिया ने उसकी पीठ में हलका-सा घूँसा जमाया — लगे औरों की तरह तुम भी चापलूसी करने। मैं जैसी कुछ हूँ, वह मैं जानती हूँ। मगर इन लोगों को तो जवान मिल जाय। घड़ी-भर मन बहलाने को और क्या चाहिये। गुन तो आदमी उसमें देखता है, जिसके साथ जनम-भर निबाह करना हो। सुनती भी हूँ और देखती भी हूँ, आजकल बड़े घरों की विचित्र लीला है। जिस महल्ले में मेरी ससुराल है, उसी में गपडू-गपडू नाम के कासमीरी रहते थे। बड़े भारी आदमी थे। उनके यहाँ पाँच सेर दूध लगता था। उनकी तीन लड़कियाँ थीं। कोई बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस की होंगी। एक-से-एक सुन्दर। तीनों बड़े कालिज में पढ़ने जाती थीं। एक साइत कालिज में पढ़ाती भी थी। तीन सौ का महीना पाती थी। सितार वह सब बजावें, हरमुनियाँ वह सब बजावें, नाचें वह, गावें वह; लेकिन ब्याह कोई न करती थी। राम जाने, वह किसी मरद को पसन्द नहीं करती थीं कि मरद उन्हीं को पसन्द नहीं करता था। एक बार मैंने बड़ी बीबी से पूछा, तो हँसकर बोलीं — हम लोग यह रोग नहीं पालते; मगर भीतर-ही-भीतर ख़ूब गुलछर्रे उड़ाती थीं। जब देखूँ, दो-चार लौंडे उनको घेरे हुए हैं। जो सबसे बड़ी थी, वह तो कोट-पतलून पहनकर घोड़े पर सवार होकर मर्दो के साथ सैर करने जाती थी। सारे सहर में उनकी लीला मशहूर थी। गपडू बाबू सिर नीचा किये,
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 02:33 PM   #40
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

जैसे मुँह में कालिख-सी लगाये रहते थे। लड़कियों को डाँटते थे, समझाते थे; पर सब-की-सब खुल्लमखुल्ला कहती थीं — तुमको हमारे बीच में बोलने का कुछ मजाल नहीं है। हम अपने मन की रानी हैं, जो हमारी इच्छा होगी, वह हम करेंगे। बेचारा बाप जवान-जवान लड़कियों से क्या बोले। मारने-बाँधने से रहा, डाँटने-डपटने से रहा; लेकिन भाई बड़े आदमियों की बातें कौन चलाये। वह जो कुछ करें, सब ठीक है। उन्हें तो बिरादरी और पंचायत का भी डर नहीं। मेरी समझ में तो यही नहीं आता कि किसी का रोज़-रोज़ मन कैसे बदल जाता है। क्या आदमी गाय-बकरी से भी गया-बीता हो गया है? लेकिन किसी को बुरा नहीं कहती भाई! मन को जैसा बनाओ, वैसा बनता है। ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें रोज़-रोज़ की दाल-रोटी के बाद कभी-कभी मुँह का सवाद बदलने के लिए हलवा-पूरी भी चाहिए। और ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें घर की रोटी-दाल देखकर ज्वर आता है। कुछ बेचारियाँ ऐसी भी हैं, जो अपनी रोटी-दाल में ही मगन रहती हैं। हलवा-पूरी से उन्हें कोई मतलब नहीं। मेरी दोनों भावजों ही को देखो। हमारे भाई काने-कुबड़े नहीं हैं, दस जवानों में एक जवान हैं; लेकिन भावजों को नहीं भाते। उन्हें तो वह चाहिए, जो सोने की बालियाँ बनवाये, महीन साड़ियाँ लाये, रोज़ चाट खिलाये। बालियाँ और मिठाइयाँ मुझे भी कम अच्छी नहीं लगतीं; लेकिन जो कहो कि इसके लिए अपनी लाज बेचती फिरूँ तो भगवान् इससे बचायँ। एक के साथ मोटा-झोटा खा-पहनकर उमिर काट देना, बस अपना तो यही राग है। बहुत करके तो मर्द ही औरतों को बिगाड़ते हैं। जब मर्द इधर-उधर ताक-झाँक करेगा तो औरत भी आँख लड़ायेगी। मर्द दूसरी औरतों के पीछे दौड़ेगा, तो औरत भी ज़रूर मर्दो के पीछे दौड़ेगी। मर्द का हरजाईपन औरत को भी उतना ही बुरा लगता है, जितना औरत का मदद्म को। यही समझ लो। मैंने तो अपने आदमी से साफ़-साफ़ कह दिया था, अगर तुम इधर-उधर लपके, तो मेरी भी जो इच्छा होगी वह करूँगी। यह चाहो कि तुम तो अपने मन की करो और औरत को मार के डर से अपने क़ाबू में रखो, तो यह न होगा। तुम खुले-ख़ज़ाने करते हो, वह छिपकर करेगी। तुम उसे जलाकर सुखी नहीं रह सकते। गोबर के लिए यह एक नयी दुनिया की बातें थीं। तन्मय होकर सुन रहा था। कभी-कभी तो आप-ही-आप उसके पाँव रुक जाते, फिर सचेत होकर चलने लगता। झुनिया ने पहले अपने रूप से मोहित किया था। आज उसने अपने ज्ञान और अनुभव से भरी बातों और अपने सतीत्व के बखान से मुग्ध कर लिया। ऐसी रूप, गुण, ज्ञान की आगरी उसे मिल जाय, तो धन्य भाग। फिर वह क्यों पंचायत और बिरादरी से डरे? झुनिया ने जब देख लिया कि उसका गहरा रंग जम गया, तो छाती पर हाथ रखकर जीभ दाँत से काटती हुई बोली — अरे, यह तो तुम्हारा गाँव आ गया! तुम भी बड़े मुरहे हो, मुझसे कहा भी नहीं कि लौट जाओ। यह कहकर वह लौट पड़ी। गोबर ने आग्रह करके कहा — एक छन के लिए मेरे घर क्यों नहीं चली चलती? अम्माँ भी तो देख लें। झुनिया ने लज्जा से आँखें चुराकर कहा — तुम्हारे घर यों न जाऊँगी। मुझे तो यही अचरज होता है कि मैं इतनी दूर कैसे आ गयी। अच्छा, बताओ अब कब आओगे? रात को मेरे द्वार पर अच्छी संगत होगी। चले आना, मैं अपने पिछवाड़े मिलूँगी।

‘ और जो न मिली? ‘

‘ तो लौट जाना। ‘

‘ तो फिर मैं न आऊँगा। ‘

‘ आना पड़ेगा, नहीं कहे देती हूँ। ‘

‘ तुम भी वचन दो कि मिलोगी? ‘

‘ मैं वचन नहीं देती। ‘

‘ तो मैं भी नहीं आता। ‘

‘ मेरी बला से! ‘

झुनिया अँगूठा दिखाकर चल दी। प्रथम-मिलन में ही दोनों एक दूसरे पर अपना-अपना अधिकार जमा चुके थे। झुनिया जानती थी, वह आयेगा, कैसे न आयेगा? गोबर जानता था, वह मिलेगी, कैसे न मिलेगी? गोबर जब अकेला गाय को हाँकता हुआ चला, तो ऐसा लगता था, मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook .
ABHAY is offline   Reply With Quote
Reply

Bookmarks


Posting Rules
You may not post new threads
You may not post replies
You may not post attachments
You may not edit your posts

BB code is On
Smilies are On
[IMG] code is On
HTML code is Off



All times are GMT +5. The time now is 10:08 AM.


Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.