09-03-2013, 05:08 PM
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चासनाला में शहीद मजदूरों के प्रति
चासनाला में शहीद मजदूरों के प्रति
(27 दिसंबर 1975 की त्रासदी के बाद)तुम तपस्वी कर्म के, श्रम वीर तुम्हारा अंत ओह !
हंसते हंसते तुमने ले ली जल समाधि किस लिये?
अपने तन का तुमने तो कण कण वतन को दे दिया,
फिर डस गयी अकाल ही ये काल व्याधि किस लिये?
स्वजन परिजन सब कोई रोते कलपते रह गए.
मृत्यु धारा की गति में स्वप्न सारे बह गए.
राजनैतिक शोर में चीत्कार सारा दब गया,
चासनाला जब तेरे पाताल भीत ढह गए.
दर्द तुम्हारा लोगों को महसूस ना होने पाया है.
रुदन तुम्हारा अखबारों में थोड़ा थोड़ा शाया है.
गुमनामी का जीना मरना शाप गरीबी का होता,
हमने अपने अपने मन को ये कह कर समझाया है.
तुम शहीदों के वतन में ताजवर ऐसे शहीद.
नाम जिनका कोई ना जाना ‘शरर’ ऐसे शहीद.
ललकार कर उट्ठो, है दिल मेरा ये कह रहा,
अपनी अनजानी जगह से बेखबर ऐसे शहीद.
मरने के बाद तो किसी को पद्मविभूषण दे दिया
अंधे के हाथोंमें गोया कोई दर्पण दे दिया.
दो मिनट का मौन तो घोषित करा सकते थे तुम,
या मौन रहने पर भी तुमने कोई वर्जन दे दिया.
शत तीन सौ नर देखते परलोकवासी हो गए.
कुछ ही पल में वो जो अपने थे प्रवासी हो गए.
कांपती है रूह और थर्रा उठता है ये दिल,
कल जो थे संगम बने आज काशी हो गए.
जो वतन अपने शहीदों को नहीं सम्मान देता,
इतिहास कब उसके समय को मान या सम्मान देता.
जिसने अपने देश को सोना दिया उससे मज़ाक,
आखिरी दिन आज कोई उसको नहीं शमशान देता.
(रचना: रजनीश मंगा 'शरर' नजीबाबादी / 31/01/1976)
Last edited by rajnish manga; 10-03-2013 at 01:29 PM.
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