14-07-2011, 06:05 AM | #1 |
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मन पंक्षी
बीत रहे दिन जीवन के गिन गिन| मन पंक्षी बोले……………………. क्षणभंगुर संसार में माया डाले हुए है डेरा| मन पंक्षी तैयार खड़ा है बाधे माथे सेहरा| कोई न जाने कब हो जाये मनवा एक दो तीन| मन पंक्षी बोले……………………. मातु पिता अरु बंधु के रूप में बहुते खेल खेलावय| आवत खूब हसांवत पंक्षी जावत खूब रुलावय| यही रीति है एक दिन सबकुछ जाइहै तुमसे छिन| मन पंक्षी बोले……………………. श्यामल गौर कृष्ण कंचन विविध रूप धरे रे| कह ‘सचेन्द्र’ माटी के देहिया काहे रौब करे रे| पंचतत्व क बनल खिलौना पंच मे होई विलीन| मन पंक्षी बोले……………………. |
03-08-2011, 06:35 PM | #2 |
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Re: मन पंक्षी
बहुत अच्छी कविता है सचेन्द्र जी.
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क्योंकि हर एक फ्रेंड जरूरी होता है. |
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