18-03-2016, 12:33 PM | #181 |
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Re: मुहावरों की कहानी
साभार: शिवराज गूजर छठी में एक कहानी पढ़ी थी। लालची कुत्ते की 'ग्रीडी डॉग'। पढ़ी अंग्रेजी में थी पर याद हिंदी में है। लालच के बहकावे में आकर कुत्ते ने अपनी परछाई से ही दूसरी रोटी पाने की कोशिश की। इस चक्कर में उसने अपने पास वाली रोटी भी गंवा दी थी। तब तब शायद लालच छोटा रहा होगा इसलिए कुत्ते के माध्यम से इसे समझाया गया था। अब स्थितियां उलट है। कुत्ते समझदार हो गए हैं, इंसान लालची। कहानी वही है, बस पात्र बदल गए हैं। अब कहानी कुछ यूं होती है-एक महिला होती है। नाम इसलिए नहीं दिया है कि किसी से मेल खा गया तो वो लडऩे मेरे घर तक आ जाएंगी। वह महिला एक दिन बस स्टैंड पर खड़ी होती है। उनके पास एक अन्य महिला और उसकी कथित बेटी आती हैं। दोनों उसे बताती हैं कि उन्हें बस में एक सोने के मोतियों की माला मिली है। कुछ बदमाशों ने माला देख ली, इसलिए मेरे पीछे पड़े हैं। मैं इसे बेचती तो नहीं लेकिन क्या करूं, कोई चीज जान से तो बढ़कर नहीं होती ना! मैं किसी तरह बदमाशों से नजर बचाकर आई हूं! मैं इसे बेचना चाहती हूं। आप ले लीजिए। >>>
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
18-03-2016, 12:34 PM | #182 |
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Re: मुहावरों की कहानी
महिलाजी की लालच से जीभ लपलपा गई। खट से अपने गहने उतार कर दे दिए। कम बताने पर खरीदारी के लिए लाए बीस हजार रुपए भी थमा दिए। बड़ी राजी (खुश) होते हुए घर पहुंची। घरवाळा भी खुशी से नाचने लगा। अपनी लुगाई की चतुराई पर ऐसा राजी हुआ कि घर वाळों के सामने उसकी ओर तिरछी नजर से भी नहीं देखने वाले ने लपक कर उसका माथा चूम लिया। ये और बात है कि बाद में शरमा के बाहर निकल गया। खुशी के पंखों पर सवार दोनों लोग-लुगाई सुनार के पास पहुंचे। सुनार ने जो बताया सुनकर दोनों के होश उड़ गए। सुनार ने उन्हें सपनों के संसार से उठाकर हकीकत की कठोर जमीन पर पटक दिया था। वो सोने के मोतियों की माला नकली थी। लुगाई की तारीफ कर रही जबान अब काफी कड़वी हो चली थी। लालच दोनों को देखकर मुस्करा रहा था। आज उसने इंसान को भी जीत लिया था। इस विजय ने उसे और ताकतवर बना दिया था। उसे इंसान की कमजोरी पकड़ में आ गई थी। वो समझ गया था कि इंसान जब दूसरे के साथ धोखाधड़ी होती है तो वह बहुत अफसोस करता है। उफनता भी है। उसकी नादानी पर फिकरे कसता है। उन्हीं परिस्थियों के बीच जब खुद पहुंचता है तो सारी समझदारी धरी रह जती है और वह भी लालच से मार खाकर रुदन करता लौटता है।
सवाल उठता है, यह मरता क्यों नहीं है? यह खुद नहीं मरता तो इसे मार क्यों नहीं देते? ऐसा नहीं है कि इंसान ने इससे लडऩे की कोशिश नहीं की। बहुत की, पर इसे बाली का सा (के जैसा) वरदान प्राप्त है। बाली को तो जानते हैं ना! रामायण में जिसका जिक्र है। उसके सामने जो भी मुकाबले के लिए खड़ा होता था उसका आधा बल उसमें आ जाता था। भगवान राम को भी उसे मारने के लिए छिपकर तीर चलाना पड़ा था। बाली का सा वरदानधारी यह लालच आए दिन शिकार कर-कर के पोषित होता आज रावण का सा अमर हो गया है। इसे मारने के लिए किसी राम को ही अवतार लेना पड़ेगा, पर यह कलयुग है। पता नहीं राम आएंगे कि नहीं। कल्कि का इंतजार है। (इति)
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18-03-2016, 12:43 PM | #183 |
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Re: मुहावरों की कहानी
घूरे के दिन ऐसे फिरते हैं
(इन्टरनेट से) कहते हैं घूरे के भी दिन फिरते हैं यानी हर कुत्ते के दिन बदलते हैं और यही कहावत चरितार्थ हुई है हॉलीवुड के एक स्टार कुत्ते पर। जी हां, हॉलीवुड की कई ब्लॉकबस्टर फिल्मों में काम कर चुका जैक रसेल टेरियर प्रजाति का दस साल का कुत्ता 'उग्गी' काम छोड़ने के बाद अब अपने संस्मरण लेकर आया है। उग्गी ने कई फिल्मों में सराहनीय काम किया है और वो हॉलीवुड का जाना माना चेहरा है। इस संस्मरण में उग्गी के बचपन और कैरियर का लेखा जोखा दिया गया है। साथ ही उग्गी की चुनिंदा तस्वीरें भी लगाई गई हैं। उग्गी ने एक बड़े समारोह के तहत अपनी किताब लांच की। उग्गी ने पिछले साल ऑस्कर विजेता फिल्म 'द आर्टिस्ट' में भी काम किया था। उग्गी के संस्मरण का नाम उग्गी: द आर्टिस्ट . माई स्टोरी है। उग्गी ने इस साल की शुरुआत में आधिकारिक रूप से फिल्मों में काम करना छोड़ दिया। उग्गी पहला कुत्ता है जिसे हॉलीवुड 'वॉक ऑफ फेम' में जगह मिली है।
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24-03-2016, 09:53 PM | #184 |
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Re: मुहावरों की कहानी
कामचोर पेटू
किसी कामचोर पेटू लड़के के बारे में प्रश्नोत्तर रूप में प्रचलित यह कहावत देखिए: ‘‘नाम क्या है?’ ‘‘शक्करपारा।’’ ‘‘रोटी कितनी खाए?’’ ‘‘दस-बारह।’’ ‘‘पानी कितना पीए?’’ ‘‘मटका सारा।’’ ‘‘काम करने को?’’ ‘‘मैं लड़का बेचारा।’’ कामचोर लोगों के लिए कैसा मजे़दार व्यंग्य भरा है इस कहावत में। इस प्रकार कहावत अपने में स्वतन्त्र अस्तित्व रखने वाली, सारगर्भित, संक्षिप्त एवं चटपटी उक्ति है, जिसका प्रयोग किसी को शिक्षा व चेतावनी देना या उपालंभ व व्यंग्य कसने के लिए होता है।
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25-03-2016, 02:33 PM | #185 |
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Re: मुहावरों की कहानी
कौन छोटा कौन बड़ा
शंकर के जीवन में उल्लेख है कि शंकर सुबह-सुबह नहाकर ब्रह्ममुहूर्त में काशी के गंगा-घाट पर सीढ़ियां चढ़ रहे हैं, कि एक शूद्र ने उन्हें छू लिया। क्रुद्ध हो गए, कहा कि देखकर नहीं चलते हो? मुझ ब्राह्मण को छू लिया! अब मुझे फिर स्नान करने जाना पड़ेगा। शूद्र ने जो कहा, लगता है जैसे स्वयं परमात्मा शूद्र के रूप में आकर शंकर को जगाया होगा। शूद्र ने कहा: एक बात पूछूँ ? तुम तो अद्वैत की बात करते हो -- एक ही परमात्मा है, दूसरा है ही नहीं। तो तुम अलग, मैं अलग ? शंकर ठिठके होंगे। आकर हारना पड़ेगा इस शूद्र से, यह कभी सोचा भी न होगा। मगर बात तो चोट की थी। सुबह के उस सन्नाटे में, एकांत घाट पर, शंकर को कांटे की तरह चुभ गई। बात तो सच थी -- अगर एक ही परमात्मा है, तो कौन शूद्र, कौन ब्राह्मण! फिर उस शूद्र ने कहा: मेरे शरीर ने तुम्हें छुआ है, तो मेरे शरीर में और तुम्हारे शरीर में कुछ भेद है? खून वही, मांस वही, हड्डी वही। तुम भी मिट्टी से बने, मैं भी मिट्टी से बना। मिट्टी मिट्टी को छुए, इसमें क्या अपवित्रता है ? और अगर तुम सोचते कि मेरी आत्मा ने तुम्हारी आत्मा को छू लिया, तो क्या आत्मा भी पवित्र और अपवित्र होती है ? कहानी कहती है, शंकर उसके चरणों पर झुक गए। इसके पहले कि उठें, शूद्र तिरोहित हो गया था। बहुत खोजा घाट पर, बहुत दौड़े, कुछ पता न चल सका। जैसे परमात्मा ने ही शंकर को बोध दिया हो कि बहुत हो चुकी बकवास माया और ब्रह्म की, जागोगे कब ? शंकर की सब दिग्विजय व्यर्थ हो गई। और यह जो हार हुई शूद्र से, यही जीत बनी। इसी घटना ने उनके जीवन को रूपांतरित किया। अब वे केवल दार्शनिक नहीं थे, अब केवल बात की ही बात न थी, अब जीवन में उनके एक नया अनुभव आया -- नहीं कोई भिन्न है, न ही कोई भिन्न हो सकता है। **
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07-05-2016, 07:23 PM | #186 |
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Re: मुहावरों की कहानी
बाणया की ताखड़ी चाल्यां बो कोई कै सारे कोनी
साभार: अनिल अग्रोहिया एक बनिया उदास मुंह अपनी दुकान पर बैठा था ,गाँव का ठाकुर उधर से निकला तो उसने पूछा सेठजी आज उदास क्यों बैठे हो। तो बनिया बोला क्या करें आज कल तकड़ी (तराजू) ही नही चलती। इस पर ठाकुर ने व्यंग से कहा कि कल से हमारे अस्तबल में घोड़ों की लीद तोलना शुरू करदो। बनिये ने सहर्ष स्वीकार कर लिया व दुसरे दिन अस्तबल में जाकर हर घोड़े की लीद तोलने लगा। यह देख कर घोड़ों के अधिकारी ने इस का कारण पूछा तो उसने कहा कि तुम ठिकाने से पैसा तो पूरा लेते हो पर दाना कम खिलाते हो , इसी की जाँच पड़ताल की जाएगी। अधिकारी चोरी करता था सो उसने बनिये का महिना बांध दिया और कहा की ठाकुर से मेरी शिकायत मत करना। दूसरी बार जब ठाकुर उक्त बनिए की दुकान के आगे से निकला तो बनिया प्रसन्न चित था क्यों की उसकी तकड़ी चल गयी थी। इसलिये राजस्थानी में कहावत है: "बाणया की ताखड़ी चाल्यां बो कोई कै सारे कोनी”
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16-03-2017, 05:30 PM | #187 |
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Re: मुहावरों की कहानी
Thanku for sharing
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01-10-2017, 11:05 PM | #188 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मुहावरों वाली कथा
15 अगस्त का दिन था. सारा देश खुश और आजाद था.हम खाली बैठे थे.हमारा दिमाग हमसे पहले ही आजाद था. खाली खाली दिमाग यानी शैतान का घर. हमने सोचा कि कुछ बड़ा काम किया जाए.एक मुहावरा है कि एक पन्थ दो काज. हम क्या किसी से कम हैं? हम एक कहानी लिखेगे, उस में चार काम करेंगे. हम रह रह कर भगवान का नाम लेंगे.उसके बिना हमारी नाव कब की डूब गई होती.वैसे तो हम अक्ल के दुश्मन हैं.अक्ल के पीछे लट्ठ लिए घूमना हमारा स्वभाव है.हमारा पढ़ने लिखने से जन्मजात वैर है. हमारे तो जीवन का ही यह नियम बन गया है. जो पढ़ता वह भी मरता है जो नहीं पढ़ता वह भी मरता है फिर तू हे मूर्ख बच्चा सर्दी में क्यों दांत किटकिटाताहै या जो पढ़न्त वह भी मरन्त जो न पढ़न्त वह भी मरन्त फिर सिर काहे को खपन्त (क्रमशः)
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01-10-2017, 11:11 PM | #189 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मुहावरों वाली कथा (2)
पर यह जो हम सब की मां है ना शारदा. अरे! वही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी. इसे यह सब स्वीकार नहीं है. इसे अँधेरा या अज्ञान जरा भी पसंद नहीं है. जब भी इसका मन करता है जोर जबरदस्ती करके हमारे दिमाग में घुस जाती है. हमें तो डांट डपट कर चुप करा देती है. यह ऐसा खेल दिखाती है कि हम खुद हैरान हो जाते हैं कि यह कैसे हो गया. लोग भी हैरान हो जाते हैं कि वह बच्चा जिसे पास होने के लाले थें,जो सप्लीमेंट्री परीक्षा में रो पीट कर,ग्रेस के नम्बर ले के पास होता था,अचानक 95% नम्बर कैसे ले आया. वह यह भी नहीं कह सकते कि इसने किसी की नकल की होगी क्योंकि नालायक से नालायक बच्चा भी इसके साथ बैठने को तैयार नहीं होता था कि इसकी नकल करके कहीं खुद फ़ेल न हो जाये. हम वैसे तो बड़ी हाय तोबा मचाते हैं, चीख पुकार मचाते हैं, चिल्ल पों मचाते हैं कि माँ हमारे साथ बड़ी जयाद्ती हो रही है. पर यह हमारी एक नहीं सुनती. हमारे मन में तो लड्डू फूटने लगते है, मन ही मन में हम बड़े खुश होते हैं क्योंकि हम को बाहर बहुत भाव मिलने लगता है. हमारे तो पों बारह हो जाते हैं. पाँचों उँगलियाँ घी में हो जाती हैं. वैसे तो हमे कोई घास नहीं डालता. हम तो यह चाहते हैं कि ऐसा रोज रोज हो. (क्रमशः)
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01-10-2017, 11:15 PM | #190 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मुहावरों वाली कथा (3)
हम सोचने लगे कि 14 सितम्बर को जब हिंदी दिवस मनाया जाएगा, हिंदी पखवाड़े में हमारे पाठकों की मुहावरा ज्ञान परीक्षा होगी तो उन पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ेगा. बेचारे काम काज के बोझ से थक टूट कर घर जायेंगे. ऐसे में वो पारिवारिक या सामाजिक दायित्व निभायेंगे या पढ़ेंगे. हम चाहते हैं कि उन्हें इतने मुहावरे इस रचना के माध्यम से सिखा दें कि उनके फटाफट दिए गये जवाबों से हैरान हो कर लोग अपने दांतों तले ऊँगली दबा लें, उनकी धाक जम जाये, लोग उनका लोहा मानने लगें, दुश्मनों के तो दांत खट्टे हो जाएँ, दुश्मनों को लोहे के चने चबाने पड़ें, नाकों चने चबाने पड़ें तथा उन्हें अपनी नानी याद आ जाए. (क्रमशः)
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