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Old 07-11-2011, 06:29 PM   #11
anoop
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Default Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)

क्षात्र-धर्म

भगवान-
अर्जुन, कुछ सोच-विचार जरा
निज धर्म की ओर निहार जरा
यह कायरता है पाप घोर
वीरों के हित अभिशाप घोर
रणवीरों के हित स्वर्ग-द्वार
है प्राप्त न होता बार-बार
ऐसा अवसर अर्जुन महान
पाते हैं केवल भाग्यवान
यदि तू यह अवसर छोड़ेगा
यदि तू रण से मुँह मोड़ेगा
तू अपनी इज्जत खो देगा
तू अपना धर्म डूबो देगा
तू खुद को पाप लगा लेगा
मन को संताप लगा लेगा
संसार तुझे धिक्कारेगा
कह कायर-नीच पुकारेगा
तेरा अपयश घर-घर होगा
तेरा अपयश दर-दर होगा
अपयश होता मृत्यु-समान
कब सह सकते हैं नर महान
तू कष्ट बहुत हीं पाएगा
तू जीते-जी मर जाएगा
रण में आएगा अगर काम
मर कर पाएगा स्वर्ग-धाम
यदि जीत समर तू जाएगा
तो राज धरा का पाएगा
हार और जीत दोनों समान
इसलिए युद्ध हीं श्रेष्ठ जान
यह कायरता है पाप बड़ा
उठ लड़ने को हो पार्थ खड़ा
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Old 07-11-2011, 06:30 PM   #12
anoop
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Default Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)

कर्म-योग

भगवान-
अब तक बतलाया ज्ञान-योग
अब तक समझाया ज्ञान-योग
अब कर्म-योग बतलाता हूँ
इस पथ में कहीं न बाधा है
यह पथ अति सीधा-सादा है
अर्जुन, जो यह पथ अपनाए
दुख उसके पास नहीं आए
कर्मों में कोई पाप नहीं
कर्मों से हो संताप नहीं
कर्मों से इज्जत-नाम मिले
कर्मों से सुख-आराम मिले
कर्मों से पुण्य कमाते नर
कर्मों से सब कुछ पाते नर
इसलिए कर्म तू करता चल
कर्मों के पथ पर तू चलता चल
कर्मों में कहीं नहीं दुख है
कर्मों में कहीं नहीं सुख है
फ़ल हीं में दुख रहता, अर्जुन
फ़ल हीं में सुख रहता, अर्जुन
जो फ़ल की चिन्ता करता है
सुख-दुख में वह ही पड़ता है
मूर्ख हीं फ़ल की चिन्ता करते
सुख-दुख के बंधन में पड़ते
जो नर होते हैं समझदार
वे नहीं करें फ़ल का विचार
नर तो बस कर्म किया करता
फ़ल मैं हीं सदा दिया करता
हैं सभी कर्म तेरे अधीन
हो कभी नहीं तू कर्महीन
फ़ल का कर कभी विचार नहीं
फ़ल पर तेरा कोई अधिकार नहीं
उठ कर्महीनता त्याग पार्थ
उठ मोह-नींद से जाग पार्थ
जो नर फ़ल में ही लीन रहे
वह दीन, सदा हीं दीन रहे
जो फ़ल का कभी न ध्यान धरे
निश्चिंत हुआ जो कर्म करे
दुख उसके निकट नहीं आए
अर्जुन, वह भटक नहीं पाए।
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Old 07-11-2011, 06:32 PM   #13
anoop
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Default Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)

दूसरा अध्याय समाप्त

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Old 07-11-2011, 06:37 PM   #14
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Default Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)

अब शायद शनिवार को आना हो सके तो उस दिन आगे के कुछ अध्याय (जो टाईप हो सकेगा) पोस्ट करुँगा। आशा है आप सब को गीता की यह प्रस्तुति पसन्द आएगी....(मुझे गीता का ऐसा सरल अनुवाद बहुत पसन्द है)। इसके मूल रचनाकार हैं दिल्ली के - नरेश कुमार ’अनजान’ और यह पुस्तक रूप में २००४ में छपी थी पुस्तक महल से, फ़िर इसके नए संस्करण नहीं निकले। मुझे एक प्रति मिल गई तो मैंने सोंचा कि इसे आप सब तक पहुँचाई जाए।
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Old 07-11-2011, 08:01 PM   #15
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Default Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)

यह मेरा सबसे पसंदीदा विषय है.. अनूप जी सूत्र को बढाते जाइए. काफी ज्ञानवर्धक बातें सामने आती जायेगी.
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Old 08-11-2011, 02:56 PM   #16
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Default Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)

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Originally Posted by arjun_sharma View Post
यह मेरा सबसे पसंदीदा विषय है.. अनूप जी सूत्र को बढाते जाइए. काफी ज्ञानवर्धक बातें सामने आती जायेगी.
धन्यवाद भाई। आज पुनः आने का मौका मिल गया तो कुछ और पृष्ठ पोस्ट कर रहा हूँ। आशा है पसन्द आएगा।
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Old 08-11-2011, 02:58 PM   #17
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Default Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)

तीसरा अध्याय

कर्म की आवश्यकता

अर्जुन-
हे जगतेश्वर! हे परमेश्वर
कर्मों से अच्छा ज्ञान, अगर
फ़िर मुझे कहें क्यों लड़ने को ?
यह कर्म भयानक करने को ?
यह उलझी बात है उलझाती
मुझ भरमाये को भरमाती
इसलिए कहें बस बात वही
जो हो भगवन मेरे हित की

भगवान-
दो पथ हैं दुनिया में अर्जुन
इक ज्ञान दूसरा कर्म है सुन
कोई भी पथ नर अपनाए
निष्कर्म नहीं पर हो पाए
अपने स्वभाव के हो अधीन
नर रहता हरदम कर्मलीन
कर्मों को त्याग न सकता नर
कर्मों से भाग न सकता नर
जिसका मन भोगों में बहता
पर खुद को है रोके रहता
वह खुद हीं खुद को छलता है
वह पाप के पथ पर चलता है
पर अनासक्त होकर जो नर
अपने मन को अपने वश कर
है राह पकड़ता कर्मों की
उसके समान न कोई भी
इसलिए कर्म तू करता चल
कर्मों के पथ पर चलता चल
पर कर्म नहीं करता जो जन
उसका निर्बल हो जाता तन
निर्बल पाता है दुख-ही-दुख
निर्बल को प्राप्त न होता सुख
निर्बल का जीवन रीता है
निर्बल आँसू पी जीता है
जो नर होते हैं ज्ञानवान
जो नत होते हैं बुद्धिमान
वे कर्म कमाया करते हैं
निज धर्म निभाया करते हैं
पर फ़ल की बात नहीं करते
पर कल की बात नहीं करते
चाहे कर्मों से युक्त रहें
ऐसे नर तो भी मुक्त रहे
तू इनके पथ पर चलता चल
निज धर्म क पालन करता चल
है मुझे न कोई पाबंदी
जग के कर्मों को करने की
फ़िर भी मैं कर्म किया करता
कर्मों के पथ पर हूँ चलता
जो मैं कर्मों से मुँह मोड़ूं
जो कर्मों से नाता तोड़ूं
सब मेरा पथ अपनाएँगे
कर्मों से विमुख हो जाएँगे
कर्मों से विमुख हो कर ये नर
सब दुख भोगेंगे जीवन भर
लोगों को ऐसा मार्ग दिखा
मैं कभी नहीं सुख पा सकता
कर्मों के बन्धन भी उसको
फ़ल की चिन्ता करता है जो
मैं कहता हूँ जो वही कर
कर्मों के बन्धन से मत डर
तू कर्म किए जा निर्भय हो
सब अर्पण करता जा मुझको
फ़ल की चिन्ता को त्याग पार्थ
भ्रम की निद्रा से जाग पार्थ
उठ हो जा लड़ने को तत्पर
उठ हो रण करने को तत्पर
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Old 08-11-2011, 03:00 PM   #18
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चौथा अध्याय

योग-महिमा

भगवान-
हे अर्जुन! दुनिया बीच कहीं
इस योग सा और है योग नहीं
यह योग नहीं मिटने वाला
यह योग है योगों में आला
भारत की पावन धरती पर
सबसे पहले मैंने आकर
यह योग सुनाया सूरज को
यह योग बताया सूरज को
फ़िर सूरज से मनु पे आया
मनु से मनु-बेटे ने पाया
यह योग रहा यों ही चलता
यह योग रहा यों ही फ़लता
पर बहुत समय से यही योग
भूले धरती के सभी लोग
तू परम भक्त मेरा अर्जुन
इसलिए तुझे बतलाता सुन
यह योग दूर दुख करता है
यह योग सभी दुख हरता है
यह योग सुखों की खान समझ
यह योग श्रेष्ठ वरदान समझ

अर्जुन-
सूरज तो हुआ बहुत पहले
जब मैं न था, जब आप न थे
फ़िर हे प्रभो! आपने सूरज से
यह योग कहा कब और कैसे?

भगवान-
लाखों हीं जन्म हुए मेरे
लाखों ही जन्म हुए तेरे
है ज्ञात नहीं कुछ भी तुझको
पर ज्ञात सभी कुछ है मुझको
मैं जन्म नहीं लेता अर्जुन
और कभी नहीं मरता हूँ सुन
मैं सब जीवों से ऊपर हूँ
हे अर्जुन, मैं हीं ईश्वर हूँ
अपने स्वभाव को कर अधीन
खुद को माया में कर विलीन
यों कभी-कभी मैं तन धर कर
अवतरित हुआ करता भू पर
जब धर्म अधर्म से डरता है
जब पाप धरा पर बढ़ता है
तब मैं तन धार लिया करता
तब मैं अवतार लिया करता
पापी लोगों का कर संहार
और साधू लोगों को उबार
मैं भार धरा का हरता हूँ
और धर्म स्थापित करता हूँ
मेरा हर जन्म अलौकिक है
मेरा हर कर्म अलौकिक है
मुझको पहचान लिया जिसने
है मुझको जान लिया जिसने
वह जन्म-मुक्त हो जाता है
फ़िर जन्म नहीं वह पाता है
वह हो जाता है मेरे समान
उसमें मुझमे मत भेद जान
मेरे कुछ ऐसे भक्त रहे
जो मुझ में हीं अनुरक्त रहे
चलते मेरे अनुसार रहे
करते मुझ-सा व्यवहार रहे
फ़ल की चिन्ता से दूर रहे
सुख से हर दम भरपूर रहे
मुझमें हीं आकर व्याप्त हुए
मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए
पर जो नर फ़ल की आशा ले
अपने मन में अभिलाषा ले
शुभ कर्म कमाया करते हैं
निज धर्म निभाया करते हैं
उनको फ़ल उनके कर्मों का
हे पार्थ! शीघ्र ही है मिलता
पर कर्म के बन्धन से उनकी
है कभी नहीं मुक्ति होती
उनका मन भटका रहता है
सुख-दुख में अटका रहता है
वे मुझ तक कभी न आ सकते
वे मुझको कभी न पा सकते
अब जो मुझ को पाए हैं
अब तक जो मुझ तक आए हैं
वे सब करते थे कर्म सभी
पर उन्हें न चिन्ता थी फ़ल की
वे कर्म को कर्म समझते थे
वे कर्म को धर्म समझते थे
वे नर कर्मों से युक्त रहे
फ़िर भी कर्मों से मुक्त रहे
तू चल उन पुरखों के पथ पर
मैं कहता हूँ जो वही कर
जो फ़ल का कभी न ध्यान धरें
निष्काम भाव से कर्म करें
वे लोग हुआ करते योगी
चाहे वे कर्मों के भोगी
जो कर्म किया करते महान
पर कभी नहीं करते गुमान
जो कभी नहीं हैं इठलाते
मेरा प्रताप-बल बतलाते
मैं उनमें ज्ञान जगाता हूँ
उनका अज्ञान मिटाता हूँ
पावक से तूल जले जैसे
सत्ज्ञान से पाप जले वैसे
सबसे ऊपर तू ज्ञान जान
कुछ और नहीं इसके समान
है कर्म कौन सा बुरा-भला
यह ज्ञान हमें सकता बतला
यह मन पवित्र करने वाला
यह तन पवित्र करने वाला
जो नर होता है श्रद्धावान
केवल पाता है वही ज्ञान
ज्ञानी पाता है सुख हीं सुख
ज्ञानी को प्राप्त न होता दुख
विश्वास-रहित होता जो नर
उसमें संशय लेता घर कर
संशय उसको खा जाता है
वह कभी नहीं सुख पाता है
तू ज्ञान-रूप तलवार धार
अपना संशय-अज्ञान मार
उठ हो जा लड़ने को तत्पर
उठ हो रण करने को तत्पर
*** *** ***
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Old 08-11-2011, 03:01 PM   #19
anoop
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अब आगे टाईप करने के बाद, शायद अगले शनिवार तक पोस्ट कर पाऊँगा
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Old 08-11-2011, 03:17 PM   #20
Dark Saint Alaick
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Default Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)

एक श्रेष्ठ सूत्र के लिए मेरी ओर से बधाई स्वीकार करें ! गीता एक अनुपम ग्रन्थ है ! इसका सन्देश सरल पद्य में पढ़ना और भी अच्छा लगता है ! इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपका धन्यवाद !
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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