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Old 18-11-2011, 08:57 PM   #11
Dr. Rakesh Srivastava
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इस ज्ञान वर्धक सूत्र के प्रस्तुत कर्ता का
आभार एवं धन्यवाद .
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Old 19-11-2011, 12:59 PM   #12
sam_shp
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हिंदू संस्कृति का संक्षिप्त रूप

हिंदू धर्म की दृष्टि में धर्म, संस्कृति, जीवन तीनों का विस्तार समान है। तीनों एक दूसरे में समाहित (घुले-मिले) है। हिंदू संस्कृति समन्वय प्रधान है। इसीलिए वसुदेव कुटुम्बकम हिंदू संस्कृति का मूल भाव माना गया है। विश्व के साथ समभाव प्राप्त करने की पद्धति समन्यव है। विश्व के अन्य प्राचीन धर्म एवं संस्कृतियां आज लुप्त हो चुके हैं, किंतु हिंदू धर्म अपनी सहिष्णुता की प्राण वायु से आज तक जीवित है। बहुलता मे एकत्व की पहचान हिंदू संस्कृति का प्रयत्न रहा है। जड़ व चेतन का अपेक्षित मुल्यांकन हिंदू धर्म व संस्कृति की विशेषता है। भौतिक जीवन की नश्वरतासांसारिक सुख-भोग क्षणिक व नश्वर है, तथा ये त्यागने योग्य हंै ऐसी दृढ़ मान्यता हिंदू धर्म की अपनी विशिष्ट पहचान है। लोक और परलोक का समन्वय प्राप्त करने की प्रवृति हिंदू धर्म की मूल भावना है। हिंदू धर्म व संस्कृति में साहित्य, कला, सौदंर्य और संयमित जीवन के अनेक वरदानों को प्रतिष्ठित स्थान दिया गया है। धर्म और जीवन का मेल हिंदू संस्कृति के आग्रह का विषय है। अध्यात्म की साधना, त्याग और सच्चरित्रता हिंदू संस्कृति के आग्रह का विषय है। हिंदू धर्म और संस्कृति में कर्म पर विशेष जोर दिया गया है। गीता में स्वयं भगवान कृष्ण ने बहुत सुंदर व उत्तम उपदेश दिया है जिसे मानना हर हिंदू का धर्म कत्र्तव्य है।आध्यात्मिक जीवनहिंदू धर्म व संस्कृति लौकिक विजय से इतनी तृप्त नहीं होती जितनी आध्यात्मिकता से प्रफुल्लित, तृप्त एवं संतुष्ट होती है। सांसारिक विजय और उपलब्धि के भीतर लोभ, स्वार्थ और ङ्क्षहसा छिपे हैं। जबकि आध्यात्मिकता केवल धर्म और आत्म ज्ञान पर आधारित है। हिंदू धर्म में निहित उपासना, साधना एवं संस्कार मनुष्य को जन्म से लेकर देहांत तक आध्यात्मिक जीवन के लिए तैयार करते हैं। हिंदू धर्म परोपकार, त्याग, संयम, क्षमा, दया, करुणा, अहिंसा, सत्य, प्रेम, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, सेवा, नि:स्वार्थता आदि सदुगुणों की संयुक्त मूर्ति है। जिसमें उपरोक्त सभी गुण निहित हैं। वही सच्चा हिंदू कहलाने का अधिकारी है।

Last edited by sam_shp; 19-11-2011 at 01:02 PM.
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Old 19-11-2011, 01:07 PM   #13
sam_shp
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हिंदू संस्कृति की उदारता तो स्थापित तथ्य है

मेरे साथ तीन ऐसे संयोग पेश आए जिसमें नये विश्व के संदर्भ में भारत की वैश्विक संकट मोचन क्षमता के प्रति बहुत आशावाद झलकता था। एक तो मार्च 2006 के ‘दि ग्लोबलिस्ट’ मैग्जीन में छपे जीन पियरे लेहमन का आलेख पढ़ने को मिला। आलेख का शीर्षक था- ‘‘वैश्वीकरण के युग में एकेश्वरवाद का खतरा।’’ जीन पियरे, ‘‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर मेनेजमेंट डेवलपमेंट, स्विट्ज़रलैण्ड’’ में अन्तरराष्ट्रीय राजनैतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। दूसरा, दिल्ली में तीसरे चमनलाल स्मृति व्याख्यान में बीबीसी के विख्यात पत्रकार मार्क टली का अभिभाषण सुना। तीसरे, ‘‘इण्डिया फर्स्ट फाउण्डेशन’’ की एक राष्ट्रीय गोष्ठी में प्रख्यात विचारक एस. गुरूमूर्ति का शक्तिशाली प्रस्तावित व्याख्यान सुनने का संयोग भी मिला। तीनों के विचारों में मैंने एक अद्भुत समानता देखी। इन तीनों में गुरूमूर्ति भारतीय हैं, और बाकी दो गोरी चमड़ी वाले हैं। यह ठीक है कि मार्क टली भारत में जन्मे लेकिन शैशव के कुछ ही वर्ष बाद उन्हें लंदन भेज दिया गया। बाद का अध्ययन उन्होंने वहीं किया। वह ईसाई हैं। ईसाइयों में ही पले-बढ़े हैं। ईसाई धर्मशास्त्र का अध्ययन किया है। शिक्षा के बाद बीबीसी संवाददाता के रूप में वे दिल्ली आ गए। तब से कमोबेश वे भारत में ही रहे हैं। भारतीयता को उन्होंने अपनी पत्रकारिता की आंखों से गहराई से देखा है। भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धार्मिक रीति रिवाज इत्यादि को व्यवहारिकता की कसौटी पर कसा है। अनेक पुस्तकें लिखी हैं। इन दिनों भी वह एक पुस्तक लिख रहे हैं। सच तो यह है कि चमनलाल व्याख्यान माला में उन्होंने अपनी उसी पुस्तक की झांकी प्रस्तुत की।
अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा- ‘‘न तो मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा हूं और न ही हिन्दू हूं, फिर भी मुझे चमनलाल स्मृति व्याख्यान में मुख्य वक्ता के रूप में बुलाकर आयोजकों ने उस उदारता और खुलेपन का परिचय दिया है जो भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण गुण है। उन्होंने कहा कि इसी उदारता के कारण यहां दुनिया के विभिन्न धर्म-ग्रंथों के अनुयायी सौहार्दपूर्वक रहते हैं।……यहां विभिन्न मत-पंथों और विचारधाराओं को मानने वालों में परस्पर संवाद होता है जो दूसरे देशों में नहीं दिखता। यही है भारतीय संस्कृति जिसकी मैं सराहना करता हूं।’’
‘‘मेरे विचार से हिन्दुत्व सभी के प्रति प्रेम और उदारता की बात करता है। हिन्दुत्व में मजहबी राज्य की कल्पना नहीं है। हिन्दुत्व के इन महान मूल्यों को संरक्षित रखना चाहिए। अन्य मत-पंथों में बुराई नहीं, अच्छाई देखनी चाहिए।’’
इस्लाम की चर्चा करते हुए श्री मार्क टली ने कहा कि ‘‘इस्लाम में भी कट्टरता है, पर भारत में इस्लाम के अनुयायियों को अपने मजहब के अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता है। जबकि फ्रांस में तो स्कूलों में मुस्लिम छात्राओं को उनके मजहब के अनुसार सिर पर कपड़ा नहीं ढकने दिया जाता।
उन्होंने कहा कि खतरा किसी अन्य मत-पंथ का नहीं, बल्कि भौतिकवाद और उसे फैलाने वाले उपभोक्तावाद का है। गीता में भी भगवान कृष्ण ने लोभ-लालच का त्याग करने को कहा है। अगर हम आपसी संवाद को महत्व नहीं देंगे तो भौतिकवाद के पाश में फंसते जाएंगे। भारत में जिस तरह का सामाजिक खुलापन है और संवाद को महत्व दिया जाता है, वह दुनिया को सीखना चाहिए क्योंकि आज हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहां पर संस्कृति खुद को विलक्षण मानती है और अन्य संस्कृतियों पर अपने को हावी करना चाहती है। क्या एकेश्वरवादी धर्मपंथों का असहिष्णुता और संघर्ष से कोई सीधा संबन्ध है? जीन पियरे कहते हैं कि एकेश्वरवादी धर्म अपने पूरे इतिहास में और आज भी हिंसाचारी उत्पात के कारण रहे हैं। आज जरूरत है एक ऐसे वैश्विक नैतिकता और आध्यात्मिक आदर्श की जो नई वैश्विक व्यवस्था को चलायमान रखे। आज पश्चिम में बहुत से लोगों को एक अफगान व्यक्ति के बारे में जानकर करारा झटका लगा है। अब्दुल रहमान नामक इस व्यक्ति पर मौत का खतरा मंडरा रहा था। क्योंकि वह इस्लाम को छोड़कर ईसाई मजहब का हो गया था। हमें यह बताया गया है कि शरियत कानून के मुताबिक अगर कोई मुसलमान दूसरा मजहब कबूल करता है तो उसे मौत की सजा दी जाती है। यही अफगानिस्तान का कानून है जैसा कि अनेक अन्य मुस्लिम देशों में है। यह अलग बात है कि आज रहमान इटली पहुंच चुका है और सुरक्षित है। इटली ने उसे शरण दी है। लेकिन फिर भी रहमान का यह प्रकरण एकेश्वरवादी धर्मपंथ की कठोर असहिष्णुता का स्पष्ट उदाहरण है।
जीन पियरे ने कहा है कि ईसाईयत अपने परम उत्कर्ष के दिनों में इस्लाम से भी बदतर थी। केवल इसलिए नहीं कि गैर-ईसाई लोगों को तरह-तरह से खत्म कर दिया जाता था। बल्कि इसलिए भी कि उन ईसाइयों को भी खत्म कर दिया गया जिन्हें शास्त्र विरूद्ध मान लिया गया था। लेटिन अमेरिका में स्पेन के हमलावर चर्च के अधिकारियों से मिलकर बड़ी संख्या में अमेरिकन इंडियनों को जला डाला। अब यह मोटे तौर पर कहा जाता है कि करीब-करीब पिछले 200 वर्षों में जब से ईसाई चर्च की ताकत घटने लगी तब से हत्या, उत्पीड़न और अविश्वासियों को पकड़कर जेल में डालने की घटनाएं बहुत हद तक घटी हैं।
आज अनेक इसाई देशों में इस्लाम में धर्मान्तरित लोग अच्छी-खासी संख्या में रहते हैं और उन्हें अपेक्षाकृत बहुत कम शत्रुता का मुकाबला करना पड़ रहा है। ईसाई सभ्यता का विचार आज मजहबी उत्पीड़न का रास्ता छोड़ चुका है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि चर्च की सत्ता घटती गई। लेकिन होलोकास्ट इसका अपवाद है। यह सही है कि होलोकास्ट का ईसाई मुल्कों में ही घटित हुआ और इसका क्रियान्वयन सेक्युलर अधिकारियों ने किया लेकिन यह भी साफ है कि इसाई चर्च इसके सह-षड़यंत्रकारी थे। इसके कुछ नमूने क्रोशिया के उस्त आन्दोलन में मिलते हैं। और इनका सम्बन्ध कैथोलिक चर्च से था। जो यहूदी कनसन्ट्रेशन कैम्पस में लाए गए थे, उनकी हालत तो अब्दुल रहमान से भी बदतर थी। अब्दुल रहमान को तो फिर भी आने के पहले यह कहा गया था कि अगर वह वापस मुसलमान बन जाए तो वह मृत्युदंड से बच सकता है। यहूदियों को तो यह विकल्प भी नहीं दिया गया था। हालांकि इस्लाम और ईसाई मजहब की कुछ खूबियां भी हैं। लेकिन उससे कहीं ज्यादा युद्ध, असहिष्णुता मौत के घाट उतारने की घटनाएं, उन खूबियों पर कहीं भारी पड़ती हैं। इन दोनों मजहबों के नाम पर जितने लोगों की हत्या अब तक की गई है, उतनी हत्याएं और किसी अन्य कारण से नहीं हुई।
आज 21वीं शताब्दी के मुहाने पर खडे़ होकर हम देख रहे हैं कि एकेश्वरवादी धर्मपंथ पहले के मुकाबले कहीं बड़ी भूमिका अदा कर रहे हैं। यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों का अतिवादी (फंडामेन्टलिस्ट) तत्वों ने धर्मपंथों का अपहरण कर लिया है। मैं सभ्यता के विकास में सभी स्थापित धर्मपंथों के क्रमिक अवसान में विश्वास करता हूं। ताकत से नहीं, बल्कि इतिहास की गवाही, मनुष्य की तर्क-संगतता और मानवतावादी सेक्युलरवाद के जरिए। आज पश्चिमी यूरोप में जनसंख्या का बहुमत नाममात्र को ईसाई बचे है। लेकिन वह मानवतावादी नहीं बने। एक ही रास्ता बचा हुआ लगता है, अगर हम वास्तविकता को देखते हैं तो। क्योंकि हम धर्मपंथों को समाप्त नहीं कर सकते। एकेश्वरवाद के स्थान पर बहुदेववादी पंथ स्वीकार करें। अगर आप एकेश्वरवादी हैं और आपका ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो ज्यादा संभव है कि आपको दूसरे एकेश्वरवादी की असहमति सामने पड़ जाए और उसे मारने का फर्ज बन जाए। लेकिन अगर आप सैकड़ों, बल्कि हजारों भगवानों में विश्वास करते हैं तो कोई भी सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक नहीं होगा और तब आप ज्यादा सहिष्णु हो जाएंगे। बहुदेववादी पंथ मानने वालों में सैक्स के बारे में ज्यादा स्वस्थ विचार होते हैं। एकेश्वरवादियों में सेक्स को पाप समझा जाता है।
जीन पियरे लिखते हैं कि 21वीं शताब्दी के मुहाने पर एक बड़ी उत्साहजनक स्थिति है। वह है भारत का आर्थिक, राजनैतिक और संस्कृतिक धरातल पर वैश्विक शक्ति के रूप में उभार। भारतीय समाज में अनेक विडम्बनाएं, अभाव इत्यादि हैं। लेकिन भारत अपने आप में लघु जगत है और यह बताता है कि वैश्वीकरण कैसे काम कर सकता है। सांस्कृतिक बहुलतावाद को जिस खूबी से वह चला रहा है वह आगे का रास्ता बताता है। भारत 121 करोड़ आबादी का देश है। विविधता से भरा है। यूरोप से भी ज्यादा विविधता। उसमें तरह तरह की भिन्नता वाले लोगों के बीच एक ऐसी एकता है जैसी पश्चिमी यूरोप में नहीं दिखती। भारत की सबसे बड़ी सफलता यह है कि उसने तमाम बाधाओं के बीच लोकतंत्र को बहाल रखा है। जैसा कि मिस्र जैसे देश नहीं रख सके। भारत कोई कल्पना लोक की बात नहीं है। न तो कोई देश और ना ही कोई व्यक्ति परिपूर्ण होता है।
महात्मा गांधी के अहिंसा के उपदेशों वाला देश होने के बावजूद भारत एक परमाणु शक्ति बन गया है। भारत में अशिक्षितों की संख्या भी ज्यादा है। भारत इस विविधता को लोकतंत्र की शक्ति से संभाले हुए है। आज भारत में ज्यादा आत्मविश्वास है। भारतीय और भारतीय मूल के लोग आज आर्थिक, व्यावसायिक, दार्शनिक, धार्मिक और साहित्यिक क्षेत्रों में अगुवाई कर रहे हैं। इस जगत को आज नैतिक व्यवस्था की जरूरत है। आध्यात्मिक और नैतिक मार्गदर्शन की भी जरूरत है। भारत की दर्शनिक परम्परा इन सब को प्रदान कर सकती है।
पिछले दिनों भारत के धार्मिक गुरू से मेरी बातचीत हुई। मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि मैं अपने सेक्युलर मान्यताओं पर कायम रहते हुए उनकी धार्मिक मान्यताओं को भी मान सकता हूं। कोई पादरी या इमाम मुझको इसकी इजाजत नहीं देता। इस पृथ्वी को अमेरिकी ईसाई अतिवादी ब्राण्ड का विकल्प चाहिए, जिसे बुश प्रशासन ने ताकत दी है। जो सारे विश्व को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने में लगा हुआ है। यूरोप अनेक अर्थों में अब अन्तर्मुखी भू-भाग बन गया है। चीन में तानाशाही है। इस्लामिक दुनिया आज विचित्र विडम्बनापूर्ण स्थिति में है। ऐसे में भारत को ही इस सम्बंध में बड़ी भूमिका अदा करना पड़ेगा। क्योकि उसकी सभ्यता में एक आंतरिक शक्ति है और इसलिए भी कि दूसरा कोई इसके मुकाबले में नहीं है। 21वीं शताब्दी के लिए बेहतर होगा कि भारतीय बहुदेववादी दर्शन से वह प्रेरणा ले वरना यह विश्व विनाश की तरफ दौड़ रहा है।
एस. गुरूमूर्ति ने एकेश्वरवादी मजहबों की विस्तृत विवेचना करने के बाद 21वीं शदी में संकट निवारण की परम्परागत भारतीय क्षमता और दर्शन का विस्तार से वर्णन किया था। उनका यह दृढ़ विश्वास है कि भारत में संकट निवारण की क्षमता है और विश्व को अगर विनाश से बचाना है तो भारत के पास उसकी कुंजी है। वैसे यह बात समय-समय पर पिछले सौ-सवा-सौ वर्षों से बहुत बड़े-बड़े विद्वान कहते रहे हैं। आज जब भारत एक उभरती हुई शक्ति के रूप में नजर आ रहा है तो इसे कहने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है और यह शुभ है।
(लेखक : दीनानाथ मिश्र- वरिष्ठ पत्रकार एवं राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)
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Old 19-11-2011, 01:16 PM   #14
sam_shp
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मानवता का विकास

किसी भी व्यक्ति का सांस्कृतिक महत्त्व इस बात पर निर्भर है कि उसने अपने अहम् से अपने को कितना बंधन-मुक्त कर लिया है । वह व्यक्ति भी संस्कृत है, जो अपनी आत्मा को माँज कर दूसरे के उपकार के लिए उसे नम्र और विनीत बनाता है । जितना व्यक्ति मन, कर्म, वचन से दूसरों के प्रति उपकार की भावनाओं और विचारों को प्रधानता देगा, उसी अनुपात से समाज में उसका सांस्कृतिक महत्त्व बढ़ेगा । दूसरों के प्रति की गई भलाई अथवा बुराई को ध्यान में रखकर ही हम किसी व्यक्ति को भला-बुरा कहते हैं । सामाजिक सद्गुण ही, जिनमें दूसरों के प्रति अपने र्कत्तव्य-पालन या परोपकार की भावना प्रमुख हैं, व्यक्ति की संस्कृति को प्रौढ़ बनाती है ।

संसार के जिन विचारकों ने इन विचार तथा कार्य-प्रणालियों को सोचा और निश्चय किया है, उनमें भारतीय विचारक सबसे आगे रहे हैं । विचारों के पकड़ और चिन्तन की गहराई में हिन्दू धर्म की तुलना अन्य सम्प्रदायों से नहीं हो सकती । भारत के हिन्दू विचारकों ने जीवन मंथन कर जो नवनीत निकाला है, उसके मूलभूत सिद्धांतों में वह कोई दोष नहीं मिलता, जो अन्य सम्प्रदायों या मत-मजहबों में मिल जाता है । हिन्दू-धर्म महान् मानव धर्म है; व्यापक है और समस्त मानव मात्र के लिए कल्याणकारी है । वह मनुष्य में ऐसे भाव और विचार जागृत करता है । जिन पर आचरण करने से मनुष्य और समाज स्थायी रूप से सुख और शांति का अमृत-घूँट पी सकता है । हिंदू संस्कृति में जिन उदार तत्वों का समावेश है, उनमें तत्वज्ञान के वे मूल सिद्धांत रखे गये हैं, जिनको जीवन में ढालने से आदमी सच्चे अर्थों में 'मनुष्य' बन सकता है ।

'संस्कृति' शब्द का अर्थ है सफाई, स्वच्छता, शुद्धि या सुधार । जो व्यक्ति सही अर्थों में शुद्ध है, जिसका जीवन परिष्कृत है, जिसकी रहन-सहन में कोई दोष नहीं है, जिसका आचार-व्यवहार शुद्ध है, वही सभ्य और सुसंस्कृत कहा जायेगा । ''सम्यक् करणं संस्कृति''-प्रकृति की दी हुई भद्दी, मोटी कुदरती चीज को सुन्दर बनाना, सम्भाल कर रखना, अधिक उपयोगी और श्रेष्ठ बनाना उसकी संस्कृति है । जब हम भारतीय या हिन्दू संस्कृति शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो हमारा तात्पर्य उन मूलभूत मानव-जीवन में अच्छे संस्कार उत्पन्न हो सकते है और जीवन शुद्ध परिष्कृत बन सकता है । हम देखते हैं कि प्रकृति में पाई जाने वाली वस्तु प्रायः साफ नहीं होती । बहुमूल्य हीरे, मोती, मानिक आदि सभी को शुद्ध करना पड़ता है । कटाई और सफाई से उनका सौंदर्य और निखर उठता है और कीमत बढ़ जाती है । इसी प्रकार सुसंस्कृत होने से मानव का अन्तर और बाह्य जीवन सुन्दर और सुखी बन जाता है । संस्कृति व्यक्ति समाज और देश के लिए अधिक उपयोगी होता है । उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन सम्भाला हुआ, सुन्दर, आकर्षक और अधिक उपयोगी होता है, फिर उस व्यक्त्ि का परिवार तथा उनके बच्चों के संस्कार भी अच्छे बनते हैं । इस प्रकार मानव मात्र ऊँचा और परिष्कृत होता है और सद्भावना, सच्चरित्रता और सद्गुणों का विकास होता जाता है । अच्छे संस्कार उत्पन्न होने से मन, शरीर और आत्मा तीनों ही सही दिशाओं में विकसित होते हैं । मनुष्य पर संस्कारों का ही गुप्त रूप से ही राज्य होता है । जो कुछ संस्कार होते हैं, वैसा ही चरित्र और क्रियाएँ होती हैं । इस गुप्त आंतरिक केन्द्र (संस्कार) के सुधारने से शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि का राजमार्ग खल जाता है । तात्पर्य यह है कि संस्कृति जितनी अधिक फैलती है, जितना ही उसका दायरा बढ़ता जाता है, उतना ही मारव स्वर्ग के स्थायी सौंदर्य और सुख के समीप आता जाता है । सुसंस्कृत मनुष्यों के समाज में ही अक्ष्य सुख-शांति का आनंद लिया जा सकता है । संसार की समस्त संस्कृतियों में भारत की संस्कृति ही प्राचीनतम है । आध्यात्मिक प्रकाश संसार को भारत की देन है । गीता, उपनिषद, पुराण इत्यादि श्रेष्ठतम मस्तिष्क की उपज हैं । हमारे जीवन का संचालन आध्यात्मिक आधारभूत तत्त्वों पर टिका हुआ है । भारत में खान-पान, सोना-बैठना, शौच-स्नान, जन्म-मरण, यात्रा, विवाह, तीज-त्यौहार आदि उत्सवों का निर्माण भी आध्यात्मिक बुनियादों पर है । जीवन का ऐसा कोई भी पहलू नहीं है, जिसमें अध्यात्म का समावेश न हो, या जिस पर पर्याप्त चिन्तन या मनन न हुआ हो ।
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Old 19-11-2011, 01:16 PM   #15
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बहुत अच्छा सूत्र बनाया है शाम भाई
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घर से निकले थे लौट कर आने को
मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए
बिगड़ैल
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हिंदू संस्कृति का आध्यात्मिक आधार
(१)


हिंदू संस्कृति मनुष्य मात्र को क्या, संसार के प्राणी मात्र और अखिल ब्रह्माण्ड तक को भगवान् का विराट् रूप मानता है । भगवान् इस विराट में आत्म-रूप होकर प्रतिष्ठत है और विश्व के समस्त जीव-जन्तु प्राणी स्थावर जंगम उसमें स्थिर हैं । वे अंग हैं और ये सब अङ्गक । जीवन के अन्त तक सब में यह भावना समाविष्ट रहे, एक मित्रा इसी के लिए योग्यता, बुद्धि, सार्मथ्य के अनुसार अनेक र्कत्तव्य निश्चित हैं । र्कत्तव्यों में विभिन्नता होते हुए भी प्रेरणा में समता है, एक निष्ठा है, एक उद्देश्य है और यह उद्देश्य ''अध्यात्म'' कहलाता है । यह अध्यात्म लादा नहीं गया है, थोपा नहीं गया है, बल्कि प्राकृतिक होने कारण स्वाभाविक है ।

विराट के दो भाग हैं- एक है अन्ततः चैतन्य और दूसरा है बाह्य अंग, बाह्य अंग के समस्त अवयव अपनी-अपनी कार्य दृष्टि से स्वतंत्र सत्ता रखते हैं र्कत्तव्य भी उनकी उपयोगिता की दृष्टि से प्रत्येक के भिन्न-भिन्न है, लेकिन ये सब हैं उस विराट अंग की रक्षा के लिए, उस अन्तः चैतन्य को बनाये रखने के लिए इस प्रकार अलग होकर और अलग कर्मों में प्रवृत्त होते हुए भी जिस एक चैतन्य के लिए उनकी गति हो रही है, वही हिन्दू संस्कृति का मूलाधार है । गति की यह एकता, समसत्ता विनष्ट न हो इसी के लिए संस्कृति के साथ धर्म जोड़ा गया है और यह योग ऐसा हुआ है जिसे पृथक् नहीं किया जा सकता । यहाँ तक कि दोनों समानार्थक से दिखाई पड़ते हैं ।

''धर्म'' शब्द की व्युत्पत्ति से ही विराट की एकतानता का भाव स्पष्ट हो जाता है । जो वास्तविकता है, उसी को धारण रखना धर्म है, वास्तविक है, चैतन्य है । यह नित्य है । अविनश्वर है, शाश्वत् है । सभी धर्मों में आत्मा के नित्यत्व को, शाश्वतपन को स्वीकार किया गया है, लेकिन अंगांगों में पृथक् दिखाई देते रहने पर भी जो उसमें एकत्व है, उसके सुरक्षित रखने की ओर ध्यान न देने से विविध सम्प्रदायों की सृष्टि हो पड़ी है । हिन्दू धर्म में इए एकता को बनाये रखने, जागृत रखने की प्रवृत्ति अभी तक कायम है । यही कारण है कि संसार में नाना सम्प्रदायों-मजहबों की सृष्टि हुई, लेकिन आज उनका नाम ही शेष है, पर हिन्दू धर्म अपनी विशालता के साथ जीवित है । हिन्दू धर्म वास्तव में मानव-धर्म है । मानव की सत्ता जिसके द्वारा कायम रह सकती है और जिससे वह विश्व-चैतन्य के विराट अंग का अंग बना रह सकता है, उसी के लिए इसका आदेश है ।

इसीलिए हिन्दू संस्कृति में इस स्पर्द्धा से बचने के लिए जीवन के आरम्भ काल में प्रत्येक को स्वरूप-ज्ञान करने का आदेश है । चिन्मय सत्ता के साथ-विराट के साथ व्यक्ति को जोड़ने वाली इस कड़ी का नाम ब्रह्मचर्याश्रम है ।
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Old 19-11-2011, 01:23 PM   #17
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हिंदू संस्कृति का आध्यात्मिक आधार
(२)


''ब्रह्मचर्याश्रम'' इस नाम से ही ध्वनित होता है कि मानव की वह स्थिति है, जिसमें कि ब्रह्म में , विराट पुरुष में, विश्वात्मा में भ्रमण करना, उसके प्रति अपने को समर्पित करना सिखाया जाता है । ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम से जिन चारों वर्ण को व्यक्त किया जाता है, उनका विभेद उनकी कार्यक्षमता की दृष्टि से ही किया गया है और फिर इन्हीं चारों में अन्तर्भाव हो जाता है । ब्रह्मचर्याश्रम इन चारों को ही ब्रह्म में वरण करने की विद्या सिखाता है ।

शरीर के मुख, बाहु, उरु, पाद का काम अपने लिए नहीं है, समस्त शरीर के लिए है, उसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का काम अपने लिए नहीं विराट पुरुष के लिए है । इस दृष्टि को अन्त तक बनाये रखने की शिक्षा ब्रह्मचर्याश्रम में दी जाती है, तब दूसरी अवस्था आती है । यह गृहस्थाश्रम है । यह आश्र्ाम कर्म प्रधान है, व्यवहार प्रधान है । जो शिक्षा पाई है, उसे जीवन में उतार लाना है । इस शिक्षा का क्रियात्मक रूप गृहस्थाश्रम से आश्रम से आरंभ होता है, वानप्रस्थ में इसकी वृद्धि होती है और संयास में परिपक्वता आती है ।

इस प्रकार शरीर में रहकर और शरीर-रक्षा के लिए ही अपना रक्षण और अस्तित्व बनाये रखकर शरीर के प्रति आत्मोसर्ग कर देना शरीररांगों का काम है विश्व-आत्मा के लिए उसी प्रकार अपना अस्तित्व रखकर कार्य करते हुए उत्सर्ग कर देना वर्ण-धर्म का उद्देश्य है । चैतन्य शक्ति को क्षण भर भी न भुलाने वाली यह हिंदू संस्कृति हमेशा आत्मा की ओर ही अभिमुख रहती है और इस प्रकार अभिमुख रहना ही हिंदू धर्म को बचाये रहने का एक मात्र साधन है ।

हिंदू धर्म आध्यात्म प्रधान रहा है । आध्यात्मिक जीवन उसका प्राण है । अध्यात्म के प्रति उत्सर्ग करना ही सर्वोपरि नहीं है, बल्कि पूर्ण शक्ति का उद्भव और उत्सर्ग दोनों की ही आध्यात्मिक जीवन में आवश्यकता है । कर्म करना और कर्म को चैतन्य के साथ मिला देना ही यज्ञमय जीवन है । यह यज्ञ जिस संस्कृति का आधार होगा, वह संस्कृति और संस्कृति को मनाने वाली जाति हमेशा अमर रहेगी ।
हिन्दू जाति कभी भी धन के पीछे नहीं पड़ी । ऐश्वर्य, यश, प्रतिष्ठा, धन इत्यादि सब कुछ इन्हें विपुलता से प्रापत हुआ । यह धन शायद अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा कहीं अधिक था, पर भारतीय संस्कृति का आधार अर्थ, लाभ, धन, ,विलास कभी नहीं रहा है । युगों तक भारत शक्तिशाली बना रहा, पर तो भी शक्ति उसका आदर्श कभी नहीं बना । अपनी शक्ति का कभी उसने दुरुपयोग नहीं किया । साम्राज्य बढ़ाने, दूसरों का दमन करने, हिंसा, मारकाट या पद-लोलुपता का भारत कभी शिकार नहीं बना । धन और पाशविक शक्ति कभी भी उसकी प्रेरणा शक्तियाँ नहीं बन सकीं ।

यही एक ऐसी संस्कृति रही है, जिसने जीवन के ऊपरी स्तर की चिंता कभी नहीं की है । बाहरी तड़क-भड़क में उसका कभी भी विश्वास नहीं रहा है । यह सांसारिक जीवन सत्य नहीं है । सत्य तो परमात्मा है, हमारे अन्दर बैठी हुई साक्षात् ईश्वर स्वरूप आत्मा है, वास्तविक उन्नति तो आत्मिक उन्नति है । इसी उन्नति की ओर हमारी प्रवृत्ति बढ़े, इसी में हमारा सुख-दुःख हो । यही हमारा लक्ष्य रहा है । अपने ह्रास के इतिहास में भी भारत ने अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने ऊँचे आदर्शों को प्रथम स्थान दिया है । हिंदू का खाना धार्मिक, पीना धार्मिक, उसकी नींद धार्मिक,उसकी वेश-भूषा धार्मिक, उसके विवाह, मृत्यु आदि धार्मिक अर्थात् सर्वत्र ईश्वर, आत्मा और धर्म की प्रेरणा रही है । यही इस देश और जाति की सजीवता का एक कारण है ।



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Old 19-11-2011, 01:34 PM   #18
sam_shp
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Default Re: जानिए हिन्दू धर्म को


हिंदू संस्कृति की विशेषताएँ


हिंदू संस्कृति के अनुसार व्यक्ति का दृष्टिकोण ऊँचा रहना चाहिए । हमारे यहाँ अन्तरात्मा को प्रधानता दी गई है । हिन्दू तत्त्वदर्शियों ने संसार की व्यवहार वस्तुओं और व्यक्तिगत जीवन-यापन के ढँग और मूलभूत सिद्धांतों में परमार्थिक दृष्टिकोण से विचार किया है । क्षुद्र सांसारिक सुखोपभोग से ऊँचा उठकर, वासनाजन्य इन्दि्रय सम्बंधी साधारण सुखों से ऊपर उठ आत्म-भाव विकसित कर परमार्थिक रूप से जीवन-यापन को प्रधानता दी गई है । नैतिकता की रक्षा को दृष्टि में रखकर हमारे यहाँ मान्यातएँ निर्धारित की गई है|

हिंदू संस्कृति कहती है ''हे मनुष्यों! अपने हृदय में विश्व-प्रेम की ज्योति जला दो । सबसे प्रेम करो । अपनी भुजाएँ पसार कर प्राणीमात्र को प्रेम के पाश में बाँध लो । विश्व की कण-कण को अपने प्रेम की सरिता से सींच दो । विश्व प्रेम वह रहस्मय दिव्य रस है, जो एक हृदय से दूसरे को जोड़ता है । यह एक अलौकिक शक्ति सम्पन्न जादू भरा मरहम है, जिसे लगाते ही सबके रोग दूर हो जाते हैं । जीना है तो आदर्श और उद्देश्य के लिये जीना है । जब तक जिओ विश्व-हित के लिए जिओ । अपने पिता की सम्पत्ति को सम्हालो । यह सब तुम्हारे पिता की है । सबको अपना समझो और अपनी वस्तु की तरह विश्व की समस्य वस्तुओं को अपने प्रेम की छाया में रखों । सबको आत्म-भाव और आत्म-दृष्टि से देखो ।''

१. सुख का केन्द्र आन्तरिक श्रेष्ठता-
हमारे ऋषियों ने खोज की थी कि मनुष्य की चिरंतन अभिलाषा, सुख-शान्ति की उपलब्धि इस बाह्य संसार या प्रकृति की भौतिक सामिग्री से वासना या इन्द्रियों के विषयों को तृप्त करने से नहीं हो सकती । पार्थिव संसार हमारी तृष्णाओं को बढ़ाने वाला है । एक के बाद एक नई-नई सांसारिक वस्तुओं की इच्छाएँ और तृष्णाएँ निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं । एक वासना पूरी नहीं होती कि नई वासना उत्पन्न हो जाती है । मनुष्य अपार धन संग्राह करता है, अनियन्त्रित काम-क्रीड़ा में सुख ढूँढ़ता है, लूट, खसोट और स्वार्थ-साधन से दूसरों को ठगता है । धोखाधड़ी, छलप्रपंच, नान प्रकार के षड़यंत्र करता है ।, विलासिता नशेबाजी, ईष्र्या-द्वेष में प्रवृत्त होता है, पर स्थायी सुख और आनन्द नहीं पाता । एक प्रकार की मृगतृष्णा मात्र में अपना जीवन नष्ट कर देता है ।
*
२. अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता-
हिंदू संस्कृति में अपनी इन्द्रियों के ऊपर कठोर नियंत्रण का विधान है । जो व्यक्ति अपनी वासनाओं और इन्द्रियों के ऊपर नियंत्रण कर सकेगा,वही वास्तव में दूसरों के सेवा-कार्य में हाथ बँटा सकता है, जिससे स्वयं अपना शरीर, इच्छाएँ वासनाएँ आदतें ही नहीं सम्भलती हे, वह क्या तो अपना हित क्या लोकहित करेगा ।
''हरन्ति दोषजानानि नरमिन्दि्रयकिंकरम्'' (महाभारत अनु. प.५१,१६)
''जो मनुष्य इन्दि्रयों (और अपने मनोविकारों) का दास है, उसे दोष अपनी ओर खींच लेते हैं ।''

''बलवानिन्द्रयग्रामो विद्वंसमति कर्षपि ।'' (मनु. २-१५)
''इन्दि्रयाँ बहुत बलवान हैं । ये विद्वान को भी अपनी ओर बलात् खींच लेती हैं ।''
३. सद्भावों का विकास-
अन्तरात्मा में छिपे हुए व्यापार और सद्भाव को दूसरों के साथ अधिकाधि विकसित एवं चरितार्थ करना हमारी संस्कृति का तत्त्व है ।
हिंदू संस्कृति मनुष्य की अन्तरात्मा में सन्निहित सद्भावों के विकास पर अधिक जोर देती है । ''शीलं हि शरमं सौम्य'' (अश्वघोष) सत् स्वभाव ही मनुष्य का रक्षक है । उसी से अच्दे समाज और अच्छे नागरिक का निर्माण होता है । अन्तरात्मा में छिपे हुए व्यापार और सद्भाव को दूसरों के साथ अधिकाधिक विकसित करना-हमारा मूल मन्त्र रहा है । हमारे यहाँ कहा गया हैः-
''तीर्थनां हृदयं तीर्थ शुचीनां हृदयं शुचिः'' (म.भा.शा.प.१९१-१८)

''सब तीर्थों में हृदय (अन्तरात्मा)ही परम तीर्थ है । सब पवित्रताओं में अन्तरात्मा की पवित्रता ही मुख्य है ।''
हम यह मानकर चलते रहे हैं कि हमारी अन्तरात्मा में जीवन और समाज को आगे बढ़ाने और सन्मार्ग पर ले जाने वाले सभी महत्त्वपूर्ण विचारों के कारण, हमारी आत्म्ाा में साक्षात् भगवान् का निवास होता है । जिस प्रकार मकड़ी तारों के ऊपर की ओर जाती है तथा जैसे अग्नि अनेकों शुद्ध चिनगारियाँ उड़ाती है, उसी प्रकार इस आत्मा से समस्त प्राण, समस्त लेख, समस्त देवगण और समस्त प्राणी मार्ग-दर्शन और शुभ सन्देह पाते हैं । सत्य तो यह है कि यह आत्मा ही उपदेशक है ।
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Old 28-11-2011, 06:39 AM   #19
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Default Re: जानिए हिन्दू धर्म को

कोई इस सूत्र को पढ़ भी रहा है क्या ????
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Old 28-11-2011, 06:47 AM   #20
Dark Saint Alaick
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Originally Posted by sam_shp View Post
कोई इस सूत्र को पढ़ भी रहा है क्या ????
लगातार ... आप प्रस्तुत करते रहें !
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