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Old 07-10-2012, 09:54 PM   #1
Devotional Thoughts
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Default अनुकूलता और प्रतिकुलता में प्रभु-दर्शन

लेख सार : सफलता और सुख के समय प्रभु की कृपा एवं विफलता और दुःख के समय में प्रभु की दया को याद रखने पर केन्द्रित लेख है | वास्तव में, हम शायद ही कभी हमारी सफलता और सुख में प्रभु की कृपा याद रखते हैं | और वास्तव में, हम शायद ही कभी हमारी विफलता और दुःख के लिए प्रभु को दोष देने से चुकते हैं | पूरा लेख नीचे पढ़े -


हमारे जीवन में जो कुछ भी अनुकूल घटना घट रही है , जो अनुकूलता है उसे प्रभु की कृपा प्रसादी माननी चाहिए । ऐसे ही हमारे जीवन में जो प्रतिकुल घटना घट रही है , जो प्रतिकुलता है उसे स्वंम के कर्मफल ( पूर्व संचित कर्मो का कर्मफल ) जिसको मेरे प्रभु ने दया करके बहुत बहुत कम करके हमें भोगने के लिए दिया है - ऐसा मानना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण ऐसा होना चाहिए कि दोनों ही अवस्था में प्रभु की कृपा के दर्शन हो , प्रभु के कृपा का सदैव भान रहे। क्योंकि दोनों अवस्थाओ में प्रभु कृपा को देखने वाला ही प्रभु का प्रिय होता है ।

इस अनुपम सूत्र का आभास हमारे जीवनदृष्टि में शुद्धता आने पर ही संभव है। क्या है यह अनुपम सूत्र । पहला सूत्र - अनुकूलता में प्रभु कृपा का सदैव दर्शन करना चाहिए । दुसरा सूत्र - प्रतिकुलता में प्रभु की दया ( विपरित कर्मफल को प्रभु ने कम करने की दया की , इस भाव ) का सदैव दर्शन करना चाहिए।

पर हम मुर्ख जीव अनुकूलता को अपने संचित पूण्यकर्मो का स्वअर्जित फल समझ कर भोगते हैं और प्रतिकुलता प्रभु द्वारा भेजी गई ( देव बाधा रूप में ) मानते हुए प्रभु के उपर उसका दोष मढने से भी नही चुकते। कितना मुर्ख जीव है कि प्रतिकुलता में प्रभु दया के दर्शन नही करके उलटे प्रभु को दोष देने का भाव को अपने मन और बुद्धि में जाग्रत कर बैठता है। प्रभु के प्रति दोष का भाव हमारे मन में कभी पनपना भी नही चाहिए क्योंकि ऐसा कभी हो ही नही सकता कि मेरे प्रभु से कोई दोषयुक्त गलती होवे , ऐसी कल्पना मात्र भी करना बहुत बडा पाप है । पर हम जीवन मे अकसर ऐसा करते हैं।

उद्धाहरण स्वरूप एक घर का जवान बेटा , बुढे माता-पिता का एकमात्र सहारा , बहिनों का एकमात्र भाई जब कोई दुर्घटना मे चला जाता है तो परिवार के लोग यह कहते मिलेंगें कि प्रभु ने अन्याय कर दिया । यह सोच ही कितनी अपवित्र है, जुबान पर ऐसा शब्द आना कितना बडा पातक है। क्योंकि क्या हमें उस मृतक के पूर्वजन्मों के लेखे-जोखे का , संचित कर्मफल का पता भी है की उसके क्या क्या पूर्व कर्म रहे हैं।

प्रतिकुलता के वक्त हमारी पवित्र सोच यह होनी चाहिए कि मेरे प्रभु ने मेरे संचित बुरे कर्मो का फल कई गुण घटाकर मुझे भोगने हेतु दिया है। अगर मेरे संचित बुरे कर्मो का फल मेरे प्रभु नही घटाते तो मैं भोगने में असर्मथ होता ( यानी जितने पापकर्म मेरे द्वारा पूर्व जन्मों में हुये हैं उसका भोग भोगना भी मेरे लिए संभव नही था, इसलिए प्रभु ने कृपा करके उसे कई गुणा कम करके मेरे भोगने लायक बनाया है )। भोगने की शक्ति भी प्रभु ही प्रदान करते हैं । उद्धाहरण स्वरूप जवान बेटा मरने पर पहले दिन घर मे कोहराम मचता है पर १२ वे दिन तक सभी घटना से तालमेल बैठा लेते हैं। कहते हैं '' बिता हुआ समय मरहम का काम करता है '' । यह समयरूपी मरहम ( प्रतिकुलता भोगने की शक्ति) भी प्रभु की ही देन है , प्रभु की ही अनुकम्पा है ।

ऐसे ही अनुकूलता के वक्त भी हमारी पवित्र सोच यही होनी चाहिए कि मेरे प्रभु ने मेरे संचित अच्छे कर्मो का फल कई गुणा बढाकर मुझे भोगने हेतु दिया है । इसमें भी प्रभु कृपा के दर्शन अनिर्वाय रूप से करने की आदत डालनी चाहिए अन्यथा यह अहंकार पनपते देर नही लगेगा कि यह मेरे पूर्व संचित शुभकर्मो के कारण मेरा स्वअर्जित भाग्य है।

मेरे प्रभु का एक करूणायुक्त सिद्धांत है - जीव के पुण्यकर्मो का फल कई गुणा बढा देना और जीव के पापकर्मो का फल कई गुणा कम कर देना । अगर ऐसा नही होता तो आज हम जिस भी अवस्था में हैं ऐसी अवस्था में नही होते ( यानी अगर परिस्थिति हमारे अनुकूल है तो हमारे संचित पुण्यकर्मो के बल पर इतनी अनुकूल नही हो सकती थी और अगर परिस्थिति हमारे प्रतिकुल है तो हमारे संचित पापकर्मो के बल पर इससे बहुत अधिक प्रतिकुल हो सकती थी )। दोनों ही अवस्था मे प्रभु कृपा के कारण ही आज हम जैसे भी हैं वैसे हैं। इसलिए जीवन में हर पल, हर स्थिति में प्रभु कृपा के दर्शन करने की आदत जीवन में बनानी चाहिए।
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